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Full text of "Hindi Kabya Me Nirgun Sampraday Part I"

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संप्रदाय 


तर है रू कक 
प्रस्ययगीन भारतीय सच्चा के रहेस्थवाद का एक अध्ययन । 


कक ( 
4 ७१४, | पु प्‌ ० “ मं निगुए 








लेखक---- 


स्व॒० डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल, 
तपम्मह7 7०, एलााल० बी०, दी० लिंट ० 


ग्रनुवादक 
श्री परशुराम चतुर्वेदी 


आऊ.. फकतआ० उमा )आमश्माक/भह 


सम्पादक --+- 


छी5 भगारथ सिश्चन, तुम ए०, पीनाच० ड्री० 
नखवनंऊ विवव्विधालय 


स०, २०८०७ विं० | | मुल्य ७) 


प्रकाशक 
अबध पब्लिशिग हाउस 
पानदरोबा', लखनऊ 


प्रथम मसम्करणा 


मंद्गरय। 
»नेव-ज्योत्ति प्रस 
पानदरोबा, लेखमऊ 


४ | कि + 
हिन्दी काल्य में लिगंश संप्रदाय 


श्री विद्यागुरुवे नमः 


प्रेम और विश्वास के साज्ञात रूप 
प॑ं० मदनमोहन मालवीय जी को 


सादर | 


साइ सेंती साँच चलि, औराोँ से सुध भाइ । 
भाव लॉँबे क्रेस रख, भावे घुरड़ि मुड्भाय ॥ 


अलमलमसलमतकोलठक, 


जे पहुँचे त॑ कहि गये, तिनकी एके बाति | 
सबे सयाने एक मति, तिनकी एके ज्ञाति॥ 
--दादू 


कबीर 


वक्तव्य 


ईदबर को अनेक धन्यवाव है कि श्राज हुम स्वर्गीय डा० बड़थ्वाल 
की प्रधान एवं ख्यातनामा श्रंग्रेजी कृति 'दि निर्गण स्कूल आफ़ हिंदी 
पोएट्री' (॥॥6 शाएपा 9000 ० कावं 706०५) का 
हिंदी रूपान्तर प्रकाशित करने में समर्थ हो सके हे । मूल पुस्तक डाक्टरेट 
की उपाधि के निमित्त थीसिस के रूप में लिखी गई थी जिसकी उसके 
परीक्षकों ने मुक्तकंठ रे प्रशंसा की थी। स्वयं डा० बड़थ्वाल अ्रपनी 
इस प्रिय कृति को हिंदी में श्रत्यन्त, सोलिक रूप सें तिकालता चाहते 
थे जिसमें विषय से सम्बंधित पीछे के शोधों-हररा उपलब्ध समस्त 
तथ्यों का भी समावेश रहुता | इसी कारए उन्होंने सल पुस्तक के 
केवल पहले; दूसरे श्रौर छठ ग्रध्यायों का ही श्रनुवाद करके श्रागे के 
ग्रनुधाद-कार्य को श्रनुकूल एवं उपयुक्त समय तक के लिए स्थगित 
कर' दिया था । उक्त तोन श्रध्यायों का भ्रमुवाद “हिंदी काव्य में निर्गण 
संप्रदाप” मास से हुआ था और बहु अ्रंत के थोड़े से झंदा को छोड़कर 
उस समय तुरण्त ही 'तागरी प्रधारिणी पत्रिका के पंद्रह भाग में 
छुपा था। इस छुपे झा से ही पत्ता चल जाता हूँ कि अनुवाद को 
मौलिक बनाने में किस प्रकार संशोधन श्ौर परिथषद्धंन का कार्य हो 
रहा था। पअस्तु । मूल पुस्तक के साथ-साथ इस झनवाव को भी बड़ी 
स्याति हुई भौर हिंदी प्रेमियों की श्रोर से पुस्तक के हिंदी संस्करण 
की भी माँग होने लगी । डा० बड़थ्वाल इस साँग को पूति को झोर 
सल्चेष्ठ तो बहुतब्थे पर भ्रन्य कार्यों ने उनको इस प्रकार व्यस्त रखा 
कि मे उत्कट इचछा रखते हुए भी जीवन पर्यत इसको श्रागे नहीं बढ़ा 


[ २ । 

सके । इस प्रकार होनहार के श्रामे कुछ न चल सकी श्रौर मोलिक 
अ्रनचाद की बात सर्देव के लिए जाती रही । 

प्रस्तुत हिंदी संस्करण का नामकरण श्रोर उसके प्रथम तीर 
भ्रध्यायों ( मूल पुस्तक के प्रथम, द्वितीय श्रौर षष्ठ श्रष्यायों ) का 
अनुवाद जेसा कि पूर्वोकत विवरण से स्पष्ट है डा० बड़थ्वाल का विया 
हुआ हैं । शेष का श्रनु वाद और सम्पादन विद्वद्वय पंडित परशुराम जी 
चतुर्वेदी (बलिया) और डा० भगीरथ मिश्र (लखनऊ विश्वविद्यालय ) 
ने किया हैँ। श्री चतुर्वेदी जी प्रस्तुत विषय के प्रेमी तो है ही, साथ ही 
साथ इस विषय का उनका गंभीर श्रध्ययन है । मीरा के पदों के सम्पादन- 
द्वारा और हिंदुस्तानो श्रादि पत्रिकाओं में निकले संत-साहित्य विषयक 
उनके निबन्धों से उनका नाम सर्वविदित हे । प्रस्तुत संस्करण में शेष 
श्रनुवाद और भूमिका-लेखन उन्हीं का हे । डा० मिश्र लखनऊ बिद्व- 
विद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक हें श्रौर सुकावि होने के प्रति" 
रिक्त “हिंदी काव्यश्ञास्त्र का इतिहास” नामक साहित्यशारज-संबंधी 
श्रपनी सुंदर एवं प्रधान रचना-द्वारा विशेष र्याति प्राप्त कर चुके हैं । 
वे डा० बड़थ्वाल के पदु शिष्यों में से है श्रौर उनकी भाव, भाषा पशोर 
दौली से भ्रच्छी तरह परिचित है। इन्हीं दृष्टियों से उन्होंने संपादस- 
कार्य किया हे । नवीन अनुवाद को सुव्यवस्थित रूप में सजाकर श्रौर 
उससे उचित संशोधन तथा परिवर्धत करके उसको डा० बड़थ्वाल के 
श्रनुवाद के, अ्रनुरूप बनाने का उन्होंने प्रथत्त किया हे। सम्पादन का 
विशेष भ्रभिप्राय भी यही था। क्योंकि एक तो श्रनुवाव वो तरह के 
हो गये थे जिनमें भाव, भाषा और होली की दृष्टि से सामंजस्प 
स्थापित करना श्रावश्यक था दूसरे नवीन श्रनुवाद में मूल के भावों 
की रक्षा करता भी था। संपादन - कार्य एक कला *है जिसका 
काम यही है। श्रतः सोभाग्य से इस कार्य में डा० सिश्ल की सहा- 
यंता हमें प्राप्त हो गई। कहने का तात्पर्य यहू है कि डाक्टर 


[३] 


बह़वाल की सल कृति को उसके तुल्य ही हिंद्दी में भी उत्तम बनाने 
का भरसक उद्योग किया गया है । झ्राशा है विश पाठक इसका शादर 
'कर' हुआारा परिश्रम सफल करंगे। 

पुस्तक को प्राकषक सजधज के साथ प्रकाशित करने में और 
उसको मद्रजकला के श्राधुनिकतमस उच्चस्तर पर शद्धतापूर्वक छापने 
में झवबध पब्लिशिंग हाउस के श्रध्यक्ष श्री भगुराज जी भागंव' ने 
जो परिश्रस किया है वह अत्यन्त सराहनीय हे । इसके श्रतिरिक्त 
उन्होंने डा० बड़ण्वाल की समस्त श्रप्रकाशित पुस्तकों और लेखों को 
भी प्रकाशित करने का भार अ्रपने ऊपर लेकर और उनके परिवार 
को बिना किसी संकोच के श्रप्रिस श्राथिक सहायता प्रदान कर जिस 
उदारता का परिच्रय दिया हूँ बहु कभो नहीं भुलाई जा सकेगी। डा० 
बरड़ध्बाल के स्वर्गंस्थ हो जाते पर उनकी श्रप्रकाशित रचनाओ्रों को 
झापने का एक कठिन उत्तरवायित्थ हमारे ऊपर झा पड़ा था, परन्तु 
श्री भार्गव जी को कृपा से उसे निभाना प्रम हमारे लिए बहुत सरल 
हो गया हैं + 

प्रस्तुत पुस्तक के प्रूफ देखने तथा श्रनुवावित लेख की शुद्धतापूर्वक 
प्रतिलिपि करने में श्री रामसहाय पाण्डेय “चन्द्र ने विशेष परिश्रस 
किया है, प्रतः थे भी हमारे धस्यवाद के पात्र है । 

यहाँ थोड़ा सा उल्लेख “डा० बड़थ्वाल स्मारक टृस्ट” का भी 
कर वेना आवश्यक है। उसके विशापनों से बहुत से लोगों में श्रभी यह 
धारणा बनी हुई है कि डावटर बड़थ्बाल की प्रप्रकाशित रघनाश्रों को 
प्रकाधित करने का भार उसने भपने ऊपर ले लिया है, परस्तु वास्तव 
में बात ऐसी नहीं है । डावटर' बड़थ्वाल की मृत्यु के पश्चात्‌ शीघ्र ही 
सनके परम विश्वासपात्र श्ौर सिकठस्य सम्बन्धी श्री ललिताप्रसाद 
जी मैथामी ने उकस टस्ट को एक अ्राक्षक योजना उनके कुटुंबियों के 
सम्मुख प्रस्तुत की थी जिसने उन्हें मोह लिया था। उससें डाक्टर 


[ ४ | 


बड़थ्वाल की श्रप्रकाशिति रचनाश्रों को प्रकाशित करने, उनके द्वारा 
संगहीत, म॒द्रित एवं प्राचीन हरतलिखित पुस्तकों को सुरक्षित रखने 
और उनके परिवार को भ्राथिक सहायता करने की ये सभी बढ़ते थी 
जिन्हें वे लोग सहर्ष चाहते थे । श्रतः श्री नेथानीजोीं ने श्री भक्तवशंत 
जी के साथ उपयुक्त समस्त सामग्री को टटोलकर उसकी सूची बताई 
और संगहीत मुद्रित-ग्रंथ तथा डाक्टर बड़थ्वाल की बहुत सी रचनाएँ 
साथ लेते गये । उन्होंने टृस्ट का काम आरंभ कर दिया था और 
कुछ निबन्ध बाबू सम्पूर्णानन्द जो को सम्पादन करने के निर्मिस दे 
दिये थे जो काशो विद्यापीठ से “योगग्रवाहु” के नाम से प्रकाशित हुए । 

इतना सब बिना किसी लिखा-पढ़ी के हुआ था परन्तु कुछ विनोंपरांत 
जब हिंदी साहित्य सम्मेलन से अ्रपने के लिए 'जोगेशबरीबाणी' की माँग 
प्राई श्रौर यह बहुत खोजने पर भी म॑ मिली तो हमारे कान खड़े हुए 
तथा हमें संदेह हुमा । डा० बड़ध्वाल की वह भी एक महत्वपूर्ण कृति 
थी जिसको उन्होंने गम्भीर श्रध्यपत भ्रौर बहुत खोज के पश्चात्‌ लिणा 
था | उसकी ढू ढ़ सबसे पहले सामग्री की जाँच पड़ताल 'करने और 
उसकी सूची बनाने के समय ही कर लो गई थी । उस समय उसके लो 
जाने को कोई भी चर्चा इस लोगों से नहीं की थी, परन्तु जब उनसे 
उस पुस्तक को सम्मेलन में भेजने के लिए कहा गया तो थे (प्र-धधर 
की बात मिलाने लगे । इससे हुमें श्रत्यंत निरावा हुई और हमें उनकी 
उत्तरदायित्व-हीनता का परिचय मिला | ऐसी दशा में हम यह भी 
नहीं कह सकते कि डा० बड़श्थाल को कितमी सामग्री मष्ठ हो गई 
हैं । हमने तब से उक्त ट्रस्ट की झाशा छोड़ दी झौर डा० बड़ध्चाल 
की दोष सामग्री को भ्रलग से हो प्रकाशित करते का सिदश्चयम किया । 
“योगप्रवाह” के सम्बन्ध में भी कादी विद्यापीठ से पत्र व्यवह्टार किया 
गया जिसके फलस्वरूप वहाँ के सहुदय भ्रधिकारियों ने डआा० बड़ध्याल 
की पत्नी का ही उस पर स्वत्थ स्वीकार किया। हतसा सब लिखने 


| +# । 


का हमारा अभिप्राय केवल यह है कि एक अाांत्न धारणा का, जिसका 
उल्लेख ऊपर हो चुका है, निराकरण हो जाय। हस यह भी स्पष्ट कर 
बेते हूँ कि उक्त टुस्ट से डा० बड़ण्वाल के परिवार को किसी प्रकार 
की कोई भो प्राधिक सहायता महों मिली यद्यपि बहु. उस समय श्रत्यंत 
पभ्राधि क संकठ में था । उस गाढ़े ग्रबसर पर तो डा० बड़थ्वाल के 
बाल्यसला उसके मामा के पुत्र--भ्री महेशानन्द जो थपल्याल ही ऐसे 
व्यक्तित थे जो उनके काम झाये । इस प्रकार प्रस्तुत प्रकाशन का उक्त 
टुस्‍्ट से कोई सम्बन्ध नहीं । हमारा यह प्रयत्त हे कि धोरे-धीरे डा० 
बड़ण्वाल को समस्त रचनाएं सुसंपादित होकर निकल जायें, जिससे 
उनकी नवीन सामग्री श्र विचारों से साहित्यिक, साहित्यकार और 


विद्यार्थी लाभ उठा सकें । झ्राशा है हम लोगों की इस योजना का 
सभी लोग स्वागत करेंगे। 


गयी होवहए बरश्याल के पश्चिर की पश्रोर गे--- 
दीलतराम जुयातल 
0 टित्यान्वपक 


( काशी नागरीप्रचारिणी सभा ) 


प्राक्षषन 


प्रस्तुत रचना हिदी-सम्बन्धी श्रध्ययन् के क्षेत्र में एक भारी 
'श्रावद्यकता की पूति करती हे । इसका विषय हिंदी के उन रहस्यवादी 
कवियों की एक निर्दिष्ठ दाखा हे, जिन्हें साधारण प्रकार से हम 
' निर्ुण कवि कहा करते हें। श्रभी तक इन कवियों का श्रध्ययन 
सुब्यवस्थित रूप से नहीं हो पाया था। श्रभी तक साधारणएातः यही 
विश्वास किया जाता रहा हे कि इनका कोई श्रपना दाशेनिक सिद्धांत 
नहों हे भश्रौर भिन्न-भिन्न श्राध्यात्मिक विषयों से सम्बन्ध रखनेवाली 
इनकी धारणाएँ श्रस्पष्ट एवं कऋ्रमरहित हु। डॉ० बड़थ्वाल ने इस 
शाखा के साहित्य का विस्तृत रूप से गंभार अनुशीलन किया हैँ शौर 
प्रनेंक महत्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रथों से भी सहायता लो हे । यह उनके 
लिए एक बड़े गौरव की बात हूँ कि इन संत कवियों के उपदेशों में 
उन्होंने दाशनिक एवं नेतिक विचारधाराशों का एक निश्चित क्रम 
हूँढ मिकाला है। उन्होंने एक ऐसे तत्वज्ञान की सुन्दर व्याख्या की है 
जो बहुत उच्च व सुक्ष्म होता हुआ भी स्वभावतः व्यावहारिक हे। 
उन्होंने हिंदी काथ्य के इस क्षेत्र पर प्रत्यधिक प्रकाश डाला हें श्रोर 
हुमारे तहिषयक ज्ञान में भी वद्धि की है । » 


झपने विषय की चर्चा करते समय उन्होंने उसे अनावश्यक 
बिस्‍्तार नहीं दिया हैँ श्रौर उसका निरूपएा भी सरस किया हू । 


का 
में उत्ती सफलता पर उन्हें बधाई देता हूँ । 


श्यामसन्दरवास 


अस्तावना 


इस रचना के अंतर्गत उन हिंदी कवियों की साम्प्रदायिक विचार- 
धारा को प्रस्तुत करने की चेष्ठा की गई है जिन्हें यथोचित म होने 
पर भी साधारणतया निर्गुण संतकवि कहा जाता है श्रौर इसी कारण 
इसके शीर्षक का स्पष्टीकरण हो जाना भी निर्तात झावदयक है ॥ 
संतकवियों के इस सप्रदाय के विचारों को निर्दिष्ट करने के लिए 
अधिकतर सुंतमत' एवं “निर्गणामत' नामक दो शब्दों के प्रयोग होते हें 
संत शब्द की सभवत" दो प्रकार की व्यूत्पत्ति हो सकती है | भा तो 
इसे पालिभाषा के उस 'शांत' शब्द से निकला हुआ मान सकते है 
जिसका प्रर्थ निवृत्ति-मार्गी वा विरागी होता है प्रथवा यह उस 'सत्त्‌ 
दब्द का बहुबचन हो सकता है जिसका प्रयोग हिंदी में एकवचन जैसा 
होता है श्रौर जिसका अ्रप्निप्राय "एकमात्र सत्य में विश्वास करने- 
वाला' अथवा उसका पूर्णतः श्रनुभव कर लेनेवाला व्यक्ति समझा जाता 
है 0 इन दोनों ही दृष्टियों के भ्रनुतार इस दाब्द का प्रयोग इन 
संतकवियों के लिए उपयुक्त ठहरता है, यद्यपि इन दोनों में से दुश्षरे 
को 'संत' शब्द का मूल साधारणतः मान लिया गया है “परस्तु 'सत्‌ 
शब्द, सत्य का श्राशय प्रकट करने के भ्रतिरिक्तः सद्भाव। की भावना 


कचराकरकर तएफ%+मेफपकाफी, आमधतकपताक परम आभधयालका०फ का. कल. ॥॥४.. छम उम0० कक 


“-“नासतो विद्यते भाबो नाभावों विद्यते सतः 
“+ भिगवद्गीता! (१-१६) । 
[-सद्भावे साधुभावे च सदिस्येतस्पयुज्यते । 
प्रशस्ते कमर्णि तथा सच्छुब्दः पार्थ युज्यते ॥ 
वही ( १४-२६ ) । 


फोतिक 


( ग) 


क्रो'मी द्योतक हे और इस प्रकार 'संत' शब्द 'एक्र | भ्रत्यन्त व्यापक 
फैमभिप्राय का सूचक बन गया है और इसे दुर्जन पुरुष के विपरीत 
एक सत्पुरुष वा सज्जन का समानार्थक भी समझा जाता है ।* धासिक 
जीवन के क्षेत्र में भी इस दब्द के श्रन्तर्गत वे स्पष्ट सगुणोपासक 
संत भ्रा जायेंगे जो सूरदास एवं तुलसीदास की भाँति इन संतकवियों 
से नितात भिन्न विचारधारा के समर्थक हेँ। “निर्गशमत' नाम भी 
बहुत उपयक्त नही हुँ । इनकी साप्रदायिक बातों को यदि छोड़ भी दें 
तो भी हम देखते हे कि ये सत न तो परमात्मा के सोपाधि रूप का 
पूर्णात: वहिष्कार करते हे ओर न उसके निरुपाधि स्वरूप को ही भ्रपता 
अंतिम श्राश्रय॑ निश्चित करते हें। क्योकि वास्तविकता इन दोसनों से 
' भिन्न ई श्र वह तभी उपलब्ध हो सकती है जब इन दोनों से ही ऊपर 
उठा जाय । जब इस संप्रदाय के पिछले संतो में उक्त दोनों से ऊपर 
उठने की यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट हो जाती है और एक प्रकार की 
स्थूल साम्प्रदायिकता का रूप ग्रहण कर लेती है तो इस शीर्षक की 
ग्रनुपयुक्‍्तता और भी स्पष्ट हो जाती है। कितु, इससे अधिक उपयुक्त 
' शब्द के अ्रभाव में मुझे इसी का प्रयोग करना पड़ रहा है, क्योंकि इसके 
लिए परम्परागत व्यवहार का समर्थन प्राप्त हो चुका है श्रौर जान 
पड़ता हैं कि कबीर आादि।| ने इसे ग्राह्म समभकर स्वीकार भी कर 
लिया था । फिर भी इतना स्मरण रहना चाहिए कि इन संतों को भी 
““बंदूलड संत असजन चरणा । 
तुलसीदास---रामचरितमानस” ( १-५ ) । 
त॑ सन्त; श्रोतुमहन्ति सदसदुष्यक्तिहेतवः। 
कालिदास--रघुवंश” ( १-१० ) । 
' (--खंतन जात न पूछों निगेतिय । 
कबीर शब्दावत्ञली भा० १, 7० ११९०। 


( थ ) 


हम संगुणीपासना के स्थल रूपों जैप्ते मृत्तियों तथा प्रवतारों भादि के प्रति 
श्रद्धा प्रदर्शित करने के विरोध के कारण ही निर्गुणी कह सकते हैं । 


यहाँ पर यह भी उचित जान पड़ता है कि “निर्गुण संप्रदाय की 
विभिन्नता हम, हिंदी काव्य के उन दो श्रन्य संप्रदायों के साथ भी' 
समभ लें जो कुछ मात्रा तक इसके समान हें भ्ौर जिन्हें निरंजनी* तथा 
सूफी| संप्रदाय कहते हैं [इनमें से पहला तत्वतः हिंदू है और दूसरा 
इस्लामी है । ये दोनों निर्गुण संप्रदाय से इस बात में भिन्नहें कि ये 


नली तल नजिकननी नली तनिनननल कम 


अत फ 


जानसि नहिं कस.कथसि अयाना | 
हम निगेण तुम सरगुन जाना। कबोर अंधावज्ञी, एू० १३० । 
निगन मत सोइ चेद को अंता । 
अह्म सखप श्रध्यातस संता ॥ 
गुलाब, ( म० वा०, ए० ११४ ) | 

खट द्रसन को जीति जियो है। 
निरणुन पंथ चक्लाये नाम जो कबीर कहाये ॥ 

गंध शब्दायक्ञी ( ह० लि० ) में फिसी सुरत गोपाक्ष के 

अनुयायी का कथन । 

“निरंजनी संप्रदाय के प्रसुख कवि;--अनन्ययोग के रचग्रिता हमब्ध- 
दास (ज० सन्‌ ११६८) निपट निरंजन (संत सरसी, मिरंजन 
संग्रह इत्यादि के रचंयिता) (ज० सन्‌ १५६३) भगवानदास निरजनों 
( प्रेमपदा्थ वे अम्रतधारा के रचयिता ) आविर्भाव काल सभ्‌ 
१६२६ हैं० इस संप्रदाय के सम्बन्ध में अभी तक बस्तुतः कुछ 
भी नहीं किया गया है। इस संबंध में डॉ० बद्ध्वाल का एक झक्षण 
लेख उनके निबन्ध संग्रह में देखिये । *« सम्पादक | 

“सूफियों के लिए पं० रामचन्द शुक्ष का 'हिंदों साहित्म का हतिहास! 
(ए० ६४, ११६) (तथा प्रस्तुत गंध के १७ से १० तक) पृष्ठ देखिये । 


( छ् ) 


अपने*्प्रपने मूल ध्रों की. ओर से शांतिपूर्वक संतुष्ट जान॑ पड़ते हैं; 
कयधपि इनका स्पष्ट उददेदय भी है कि संसार को विभिन्न मतों के रहते 
हुए भी एक व्यापक भ्रातृभाव के साथ रहना चाहिए । निरंजनी लोग 
सारे हिंदू देवगणों के प्रति प्रदर्शत किय जानेवाले सम्मान को उदार 
भाव के साथ देखते हे, यद्यपि उनकी धारणा है कि ये विभिन्न देवता 
और अवतार निरंजन ब्रह्म के साधारण अ्रवभास मात्र हैं। वे इनकी ' 
पूजादि की आवश्यकता से श्रपने को ऊपर उठा हुआ बतलाते हे और ' 
परंपरागत सामाजिक अनुशासन के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित करना 
नहीं चाहते । सूफी लोग भी भिन्न-भिन्न नबियों व रसूल झ्रादि के लिए 
पूरा सम्मान प्रदर्शित करते हे और सारी इस्लामी बातो से प्रेम करते 
हैं यद्यपि उन्होंने कुछ न कुछ रामानजीय ढंग के श्रन-इस्लामी वेदांत 


को भी अपना लिया है । 


सूफी लोगों की दाशेनिक प्रवृत्ति उन्हें निर्गुण संप्रदाय के विशिष्टा- 
देती शिवदय[ुल आदि के साथ सम्मिलित करती है, जहाँ निरंजनी लोग 
इस विषय में कबीर ज॑से जान पड़ते हे । के शलजनत्वन रु संप्रदाय नाथ संप्रदाय 
का एक विकसित रूप हैँ जिसमें योग पूरणुंतः वेदांती प्रभाव म भ्रों चुका 
है । यह एक प्रकार से नाथ संप्रदाय एवं निर्गुण संप्रदाय का मध्यवर्ती_ 
भ्रौर कबीर, कमाल एवं दादू जेसे कतिपय पूर्ववर्ती निर्गुणी संतों के साथ 
इसकी बहुत कम भ्रसमानता है, जिस कारण इन्हें हम रामानंद की श्रेणी 
में गिन सकते हें। भ्रसमानता तंब श्रधिक स्पष्ट हो जाती है जब कबी- 
रादि के धर्मदासी तथा राधास्वामी जैंसे अनुयायी निरंजन कीं, मृत्यु के 
भ्रधिष्ठाता वा कालपुरुष के रूप में चर्चा करने लगते हें। निरंजनी लोगों 

रचनाएँ था तो विस्तृत निबंधों श्रथंवा लघुकाव्यों के रूप में पायी 
जाती हैं जो भ्रभीः तक श्रप्रकाशित हें जहाँ सूफियों की अधिकतर प्रेम-' 
गाथाएँ ही मिलती हें जिनमें कहीं कहीं अन्योक्तियाँ भी पायी जाती: हैं 

मेरे विचार में मेरा यह प्रयास अपने ढंग का सबसे पहला है। 







( च॒ ) 


निर्गुए संप्रदाय के कविकों के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न लेखकों ने लिखा 
है, किन्तु, किसी ने भी इस सभी पर एक संप्रदाय के रूप में सुव्यवस्थित 
ढंग से विचार नहीं किया है । निर्गुणु संप्रंदाय के उपदेशों का सुब्यकरिथत 
भ्रध्ययन गंभीर भारतीय संस्कृति के समभते में सहायक हो सकता है । 
हमारे सांस्कृतिक विकास की श्रृंखला की यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है । 
परन्तु श्राज तक यह खो गई सी जान पड़ती रही और इसका' श्रभाव 
इसके अतिम होने के कारण उतना खठकता नथा। लोग साधारणत 
यही समभते रहे कि इन श्रशिक्षित सतों के दाशनिक विचार भ्रस्पष्ट 
अ्रपरिणमित ऋ्रमरहित और असबद्ध है । किन्तु यह स्थिति वास्तविक 
नहीं है । इसके विपरीत निर्गुण सप्रदाय एक ऐसी विचारधारा प्रस्तुत 
करता है जो सुसगत है श्रौर उसके उपदेशों के श्राधार पर एक विद्धिष्ट 
पद्धति का निर्माए किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि मेंने इस , 
बात को भली भाँति स्पष्ट कर दिया है । फिर भी ऐसा दावा नहीं 
किया जाता कि इन संतों ने जान बूक कर किसी सुव्गवस्थित पद्धति 
वा पद्धितयों की रचना की थी। क्योंकि थे दार्शनिक न होकर ऐप 
आध्यात्मिक महापुरुष मात्र थे जिनकी श्रज्ञात' विचारधारा ने इनके 
धाभिक भावों के लिए एक पृष्ठभमि प्रस्तुत कर दी थी। 

इनके द्वारा व्यक्त किया गया धामिक भाव सीधा सादा झाडम्बर- 


हीन एवं व्यापक है । परंपरागत धर्मों की व्यर्थ बातों की उपेक्षा करते 
हुए इन्होंने वास्तविक धर्म के मूल तत्व को सुस्पष्ट कर दिया है 
जिसका सार कथ्ीर के छाब्दों में इस प्रकार दिया जा सकता है। 
“परमात्मा के प्रति सच्चे रहो और दूसरों के साथ सीधा व्यवहार 
करो ।”_ इसी सारग्राहिता की भावता के कारण कबीर, ने विभिन्न 


(--साँह सेती साँच ववज्ि, औरा सू सुध भाई। 


६ भाष जॉब केस करु, भाव घुरढ़ि सुढ़ाह ॥ 
कबीर अंधावली ( ४६-११ ) 


( छ ) 


धर्मों की उन वाह्म विडंबनाओशों का विरोध किया था जो धर्म के वास्त- 
ईविक प्रभिप्राय से नितांत दूर रहा करती हैं श्रौर उनकी ऐसी भावना 
के ही उपलक्ष्य में तुकाराम ने उनकी गएाना उन चार? में की थी जो 
बस्तुतः प्रनुकरणीय हें ( चौधा ची तरिधरि सोमरे )| तथा पीपा 
एव रेदास ने उन्हें क्रशः नवखड व त्रिलोक में विख्यात हुआ।| बतलाया 
था। कितने खद की बात है कि सारग्राहिता की उक्त भावना को न 
समभ पाने के कारण कुछ विद्वानों ने कबीर को एक प्रचुछन्न मुस्लिम 
प्रचारक के रूप में मान लिया है। 


| 


मेरी यह भी धारणा है कि निर्गुण संप्रदाय के अंतर्गत प्रायः उन 

सभी बातों का सनन्‍्दर समावेश पाया जाता हे जो भारतीय आध्यात्मिक 
6 विचारों में मल्यवान्‌ समफी जाती है । श्रपने सारग्राही स्वभाव के ही 
कारण इसने भारत की सभी श्राध्यात्मिक पद्धतियों के सारतत्व को 
ग्रपना लिया. है । भारत के विभिन्न श्रांदोलनों ने, समय-समय पर 
जाग्रत होकर, भ्राध्यात्मिक संस्क्रति के क्षेत्र में जो कुछ भी उसे प्रदान 
किया है वह, कबीर के श्राविर्भाव के पहले से ही, निर्भूणा विचारधारा 
में सम्मिलित हो चुका था। भ्रजपा जाप के साथ-साथ योगाभ्यास, तंत्रों 
से उधार ली गई उसकी रहस्यमयी शरीर-रचना प्रणाली, उसके द्वारा 
प्राण ग्रोदि का उपयोग, शंकराचार्य का अ्रद्देतवाद, भक्ति की साधना- 


॥:मपापासमात कक, "सतत 





| पबेरउरेक पते) अत (० धयकातो#5 70 0:20 4 «कली '्न्‍वन+ + हरा ताक अफ्रि4क ता 8जरकतीक तीन । 


|--अन्य तीन में नामदेव, श्ानदेव तथा एकनांथ के नाम लिये जाते 
हैं ( दे० रानाडे, 'मिस्टिसिज़्म इन महाराष्ट्र! ) । 
““है० २१९ | 





+--तिहूँरे जोफ परसिध कबीरा। 
“-अंथ०* एू० धश८ | 
नाँव नव खंड परसिध कबीरा ।। 
-““सर्वांगी” ( पौड़ी हरतल्ेख ० ३-७३ ।) 


( ज॑ ) 


पद्धति और तंत्रवाद में दीख पडनेवाले उपासनात्मक भावों की इंद्रिय+ ' 
स्पशिणी तीब्र॒ता जिसम विषयी जीवन के उस घुणास्पद भ्रक् का अभाव» 
रहा करता है जो तांत्रिक साधना का अभिशाप है, ये सभी यहाँ"आकर 
एक्र सुसंगत व्यापक रूप में संश्लिष्ट हो गये हे ० 


इस रचता के पाँचवों अ्रध्याय में दिखलाया गया है कि दो भिन्न- 
भिन्न ग्राध्यात्मिक विचारघाराशों का यह सम्मिलन, एकांतिक धर्म 
एवं बौद्धधर्भम से आरम्भ होकर, उनके श्रठारह शताब्दियों तक पृथक, 
पृथक्‌ विकसित होते रहने पर भी, अंत में क्रमशः वेष्णवधर्म एवं 
नाथमतत में परिणत हो जाने. पर, किस प्रकार संभव' हो गया । 


निर्गुणियों के शब्द संग्रह में कुछ ऐसे पॉरिभाषिक शब्द श्राते हैं 
'जो-उक्त दोनों धाराओ्ों के पारस्परिक मिलन के पूर्वकालीन पथक्‌. 
विकास का स्मरण दिलाते हैं। 'हरि', नारायण, 'नारदी भक्ति वे 
शब्द हें, जो एकातिक धर्म की ओर से प्रवाहित होनेवाली धारा की सूचित 
क्रते हे और, उसी प्रकार, शून्य, 'विज्ञान,' व “निर्वाण' जैसे शब्द 
वे हैं जो बौद्ध धर्म की धारा की ओर संकेत करते हैं। पहली धारा' 
ग्रोर से भ्रानेवाले शब्दों के भ्र्थ में उतना घोर परिवर्तन नहीं हुभा है. 
जितना कि दूसरी धारावाले शब्दों के संबंध में हो गया है # 'शुन्म' 
एवं विज्ञान” शब्द, बौद्ध दर्शन के निद्िचत संप्रदायों से सम्बन्ध रखने 
हैं। नागार्जुत का 'शूत्य' उस 'शून्यमण्डल' में सुरक्षित है जो योग-पद्धति 
से होकर श्राता हुआ निर्गुण संप्रदायों के अंतर्गत 'ब्रह्मरंधू” का द्योतक 
हो गया है || इसी बात से स्पष्ट हो जाता हूँ कि शून्य वहाँ पर ब्रह्म 
का वाचक हैं । किन्तु निर्गुणी लोग शूत््य का वर्णन कभम्री-की परम 


..घनि मंडल में सोधिले, परम जोति प्ररकास 
'कबीर ग्रंथावक्षी', पू० १२७, पद १२१ । 


( भा ) 


तत्वण्के रूप में भी करते हैं ।| परमतत्व को शुष्य कहने में नागार्जुन ' 
का यह अ्रभिप्राय था कि वह पूर्णतः सारहीन है और उसके लिए “सतत” 

प्रधवाश्श्रसत्‌ शब्दों का प्रयोग नहीं किया जा सकता । परन्त शंकराचार्य 

का अनुसरण करके ( जिन्होंने नागार्जुन के सृक्ष्म तर्को का प्रयोग, 

आपनिषदिक उपदेशों के भ्रंतिम लक्ष्य-स्वरूप श्रपने शात्मवाद के समर्थन 

निर्गुणी जिनके साथ मेने इस शब्द के विषय में चर्चा की हैं इसका 

संबंध योगियों की उस निःसज्ञ ता के साथ ज़ोडते हे जो उन्हे समाधि 

की दशा में स्थूल विषयों के प्रति हुआ करती है । राधास्वामी-साहित्य 

में शून्य एवं महाशून्य के प्रयोग उन रिक्त स्थानों के लिए किये गये . 
हैं जहाँ किसी का निवास नहीं है श्र जिनसे होकर प्रत्येक साधक 

को भ्रपनी आ्राध्यात्मिक यात्रा में अ्रग्सर होना पड़ता है ( 


9०७. 


इसी प्रकार श्रासंग का 'विज्ञान' दाब्द भी शंकराचार्य के भ्रद्वेतवाद' 
से प्रभावित होता हुआ्ला विवर्त का प्रर्थ देने लगा है। निर्वाण शब्द 
भी इसमें आकर भ्रपने मूल बौद्ध भाव विनाश को नहीं व्यक्त करता, 
प्रत्यत मक्ति का समानार्थक हो गया है । 


यहू भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि इसका कारण कुछ सीमा तक 
बैष्णव आंदोलन रहा होगा, कितु इस बात को लोग प्रभी तक नहीं 
समझ पाये है कि इसका सीधा सम्बन्ध "नाथपंथियों की योगपद्धति 
से भी था। बात यह हैं कि कबीरपंथी लोग गोरखनाथ आदि योगियों 
के प्रति विरोध का भाव प्रकट करते हैं भौर यह विरोध ईसा की सोल- 
हवीं शताब्दी से भी पीछे का जान पड़ता है, जब कि गोरखनाथ के 


॥#एकाात्पक्षशाएभास्थाकशात३ काल... वजपकजन अप कह 40७७५ ०७०७७७७४७॥७७७॥७ ४७७४३ ४ांद। कैद कक 


--सहज सुक्षि०"्सब ठोर हें; सब घट सबही माँहि। 
तहाँ निरंजन रमि रहा, कोड गुण व्याप॑ नाहि ॥ 
दादू बानी, भा० १, ४० १६५, सां« ४६ । 





१७७७७७७७॥७॥७॥७॥७७॥७॥७॥७॥७०७७ ००००० ० का 


५ ( मे ) 


प्रति सम्मान प्रदर्शित" करनेवाले दादू-पंथ एवं साधु-सम्प्रदाय सकी 
स्थापना हुई थी | एक निबन्ध में जो काशी नागरी-प्रचारिणी-सभा 
के ( दिपम्बर सन्‌ १६३० वाले ) अ्रधिवेशन में पढ़ा गया थाब्झौर 
जो पीछे से उसकी पत्रिक्रा ( 'तागरी-प्रचारिणी-पत्रिका भा० ११ 
सं० ४, माघ वि० सं० १६९८७ ) में प्रकाशित हुभ्ाा था, मेने पहले- 
पहल दिखलाया था कि इस प्रकार का सम्बन्ध इत दोनों के बीच 
भ्रवश्य रहा होगा । मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि इस सम्बन्ध 
के बिषय में प्रकट की गई मेरी सम्मति के साथ हिंदी के विद्वान व्यापक 
रूप से सहमत हे। प्रस्तुत ग्रंथ में मेंने उस सम्बन्ध को पूर्ण रूप से 
प्रतिपादित कर देने की चेष्टा की है । 


"औ> परन्तु इस बात के कारण यह कदाचित्‌ सरलतापूर्वक समझ लिया 
जा सकता है कि निर्गुशमत और विशेषकर कबीर की विचारधारा" 
के निर्माण में स्वामी रामानन्द का हाथ कम रहा होगा और काल- 
गणना के कारण उपस्थित होनेवाली कठिनाई से लांग इस श्रम में 
पड़ सकते है कि इस संप्रदाय के साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध ने था । 
कितु ऐसा मान लेना सत्य के नितात प्रतिकूल जाना होगा, क्योंकि 
रामानन्द में ही आकर नाथमत एवं वैष्णाव संप्रदाय का स्पष्ट्र सम्सिलन_ 
हुआ था ।| 
हे आकर धर्यो कर बोध वियो गुर [ दादू ] 
जो मन गोरख सेसां ॥ 
दादू-शिष्य माधोदास का 'सद्गुणसागर! ( ८-२३ ) देखिये प्रस्तुत 
पुस्तक का परिशिष्ट तीसरा । 

--इस बात के प्रमाण में रामाननरद रचित समझे जानेयाके ओर 
डाकोर से! प्रकाशित हुए सिद्धांतपटक्! का उछस्ण दिखा जा 

'सकता है जिसमें वष्ण यों के सालिप्रास की स्थापना ब्िकुदी में 


५ ८५ ) 


विर भी रामानन्द का महत्व केवल इसी० बात में नहीं है कि. 
झृन्‍्होंने निर्गणसंप्रदाय के किसी अश्रगविशेष को प्रभावित किया था, 
भ्रपितु, “उन्होने तो निर्गुणसंप्रदायः को श्रपता रूप धारण करने की 
प्रेरणा देनेवाले संश्लिष्ट विकास के क्रम को ही पूछता प्रदान 
की थी। 


निर्गुणसंप्रदाय ने कबीर के हाथ में पड़कर कुछ बातें इस्लामी: 
श्राधारों से भी ग्रहण की कितु, इस सम्बन्ध में इस्लाम की देव जितनी 
निषेधात्मक है उतनी विधेयात्मक नहीं । इस्लाम-द्वारा इसे हिंदू धार- 
णात्ों तथा परम्पराश्रों के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ | 
मूर्तिपूजा तथा अ्रवतारवाद के वहिष्कार का मूल इस्लाम धर्म में 
ही दीस्तपड़ेगा । फिर इस्लाम ने वत्तमान स्थिति के विरुद्ध सामाजिक 
झसमानता के शभ्रन्याय को दूर करने के प्रयास में भी सहायता प्रदान 
की । सूफी मत ने विचारधारा से प्रधिक उसे व्यक्त करने की शैली में 
ही सहयोग दिया । केवल (द्वाम्पत्य प्रेम) के प्रतीकों के लिए ही भिर्गणी 
सूफियों के ऋणी कहे जा सकते हैं । 


जान पड़ता है कि कबीर के अ्रनन्तर मुस्लिम भावना ने और 
भी श्रधिक प्रभावित करना श्रारम्भ कर दिया और कबीरपंथ की 
धर्मदासी शाखा तथा वीरभानदद्वारा प्रवत्तित साधूसंप्रदाय में भी कबीर, 
मुहम्मद के भ्रनुकरए में एक धर्मदृत जैसे माने-ज्ञाने लगे। 
कि निर्गुणियों का प्रेमभाव सूफियों की देन नहीं, जैसा कि कुछ 
ग समझ लेने के धोखे में पड़ सकते हैं। यह तो वही था जिसे 
2 के द्वादश शिष्यों ने भ्रपने गुरू से पाया था जैसा कि रामानन्द 


ऋण आकारग्रकाका[ुता जाल अदमक शक कल 'ीमउपाकोकीकत धमकाा. सु. ऑकहला#. तनन्‍ककछत.. पक (कमाल. पीवी... ऑफ कक... पतला किए. महा ाओती 


यबतक्कायी गई हे |-- शब्द रवरूपी राघवानन्द जी ने श्री रामाननद्‌ 
जी कूं सुनाया। भरे भण्डार काया बाढ़े शत्रिकुटी स्थान जहेँ बसे 
श्री सान्निग्राम ।? भ्रमर बीजमस्न्न ॥ $७॥ 


( 5 ) 


“के विषय में लिखी गई नाभा जी की कुछ पंक्तियों से भी प्रकऊ है । 
उस पद्म के अनुसार वे सभी लोग 'दशधा' भक्ति के 'प्रागर' थे ।* भक्ति/ 
साधारण प्रकार से नवधा मानी जाती है, कितु ऐकांकित कर्मों का 
जो रूप रामानन्द को उपलब्ध हुआ था' उसके अनुसार प्रेमाभक्ति, भवित 
के अन्य सभी श्रंगों से श्रेष्ठ मानी जाती थी श्रौर वह इसी कारण 
दहाघा कहलाती थी। ऐकाकित धर्म के प्रचारक नारद के नाम से 
प्रचलित “भक्तिसूत्र” में भक्तित की परिभाषा परमप्रेम रूपिणी ( सातू, 
अस्मिन्‌ परम प्रेमहूपा )| दी गई है । रामानन्द ने अपने शिकष्यों को 
प्रेमाभवित ही दी थी और इसी में कबीर आदि निर्गुणी मग्न रहा 
कहते थे। कबीर स्वयं उपदेश देते हे कि “नारद द्वारा, प्रवरतित भक्ति 
में; मग्न होकर भवसागर पार करो ।”+ 
हक न न कन 
*...तअनंतानन्द कबीर सुखा सुरघुरा पक्/वति नरहरि। 

पोपा भवाननद रदास घना सेन सुरसरि की घरहरि ॥ 
ओऔरो शिष्य प्रशिष्य एकते पक डज़ागर । 
विश्व मंगल आधार सर्वानन्‍्द दसधा के आगर ॥ 
बहुत काल चपु घारिके प्रणत जनन को पार दियो। 
श्री रामानन्द रघुनाथ ज्यों दुतिय सेत जग तरन कियो ॥ 

भक्तमांल ( लखनऊ ) श्रो सीतारामशरण भगयानग्रसादू-दढ्वारा 
संपादित, पए० २८८ तथा पृ० २६०७ । उसी का प्राभीन बनारस 
संस्करण पू० १११ , श्री वेकटेश्वर प्रेस ( बग्बहे सन्‌ ५६०५ ) 
वाले संस्करण के ४० ६६ में पाँचवीं पंक्ति का उत्तराद 'भक्ति ' 
दशधा के आगर” है । । 


--सात्वस्सिन परम प्रेमरूपा । 


++“भेगति नारदी सन सरीरा ।.. 
इदि विधि भवतिरि कह कबीरा ॥ क० आं०, ( १४८-३२४ )। 


( ड ) 


निर्गणियों के 'सुरति” व 'निरति' शब्द श्रपर्रिचित जान पड़ते हुए 
श्री श्राध्यात्मिक क्षेत्र में विदेशीय भावनाओं की ओर निर्देश नहीं करते 
श्रौर उने भावों को व्यक्त करते हे जिनका मल सम्बन्ध नारद से था। 
नारद ने उन्हें सनत्कुमार से सीखा था जो ब्रह्मा के विमल पुत्र थे। 
छान्दोग्य डपत्रिषद्‌ के सातवें भ्रध्याय में श्राया है कि सनत्कुमार नारद 
को किस प्रकार क्रमशः उनके हृदय में उच्च से उच्चतर जान की पिपांसों 
बढाते हुए आगे ले जाते हे और जब वे इस प्रकार बहुत ऊंचाई तक 
पहुँच जाते हूँ तो उन्हें अपनी क्रमिक आध्यात्मिक पद्धति की शिक्षा देते 
हैं और धीरे-धीरे स्मति ( समर ) आशा, आत्मा ( प्राण ) तथा सत्य 
से लेकर आनन्द ( भूमा) तक पहुँचा देते हे | सनत्कुमार ने, जिन्हें 
समर, श्राद्य एवं भूमा कहा हे वे ही क्रमश' निर्गेणियों की सुरति, विरह 
व निरति है। समर के विषय में सनत्कुमार कहते हे कि “जो कोई 
समर का ब्रह्मवत्‌ ध्यान करता हे वह समर की दूरी तक स्वतंत्र हो जाता 
हैं । श्रौर समर की उपलब्धि हो जाने पर उसके सारे बंधन ढीले पड़ 
जाते हैं।* यही लगभग कबीर भी सुरति के विषय में कहते हे जिसक्री 
व्युत्पत्ति मेने स्मृति से की है। श्राशा की व्याख्या करते हुए शंकराचार्य 
कहते हैं कि “भ्राशा उन वस्तुश्रो की इच्छा को कहते हे जो उपलब्ध 
नहीं रहती भौर वह तृष्णा व काम जैसे पर्य्यायोंसे भी निरूपित की 
जाती है तथा वहु समर वा स्मृति से बढवर है क्योंकि प्रंत:कर्रा में 
स्थित हुई झ्राशा से ही मनुष्य अपने स्मरणीय विषय को स्मरण करता 
है । विरह वस्तुत: झाशा का ही एक सरस रूप है। भूमा को 


शमी कल... अर भी किम 





अको. भतकब॥मजाक, 


*.....स य; ख्मर ब्रह्मध्युपाते यावत्स्मरस्थ गत॑ तम्रास्य यथा कामचारो 
भवति--छान्दोग्य (७-१३-२) स्मृति लम्से सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्त 
“: वही, ( ७-२६-२ ) । 
[--वबही ( ७:१४-१ ) डा० गड्मानाथ भा के अनुवाद से उद्धुत । 


( ढक ) 


सनत्कुमार ने उस सुख की संज्ञां दी हे जो इन्द्रियों को उनके वाह्म 
'विषयो से खीच कर श्रपनी श्रोर केद्गित कर देता हे ।* यही निर्गरिर्णों 
'की वह निरति है जिसमें सुरति के जाग्रत हो 'जाने पर प्रंतिम' ब्रक्ष्म 
'की प्राप्ति हो जाती है । ह 

दोनों नारद एक ही व्यक्ति हों वा न हों फिर भी प्रमा भक्ति 
एवं भ्रध्यात्मविद्या, ये दोनो एक ही वस्तु के दो पक्ष जाम पड़ते हैं। 
प्रेमाभवित भी कामनाओञ्रो पर वस्तुत* रोक लगा देती है श्रौर एक ऐसे 
प्रेम की ओर हमारा ध्यान' झ्राकृष्ट करती है जो सांसारिक वासनाओं 
के विरुद्ध है || ये दोनों परस्पर एक दूसरे की विरोधिनी नहीं हें 
श्ौर निर्गणियों के यहाँ हम देखते हें कि इन दोनों का सम्मिश्रण सुर» 
गत रूप में हुआ है तथा उसकी भ्रन्य पद्धतियों व संप्रदायों-8र। भी 
श्रीवद्धि हुई हैं ।+ और इसके लिए वे रामानन्द के ही ऋणी है। 

रामानंद के श्राज तक उपलब्ध दो पदों [ जिनमें से एक पश्रादि 
ग्रंथ में है और दूसरे को डा० ग्रियसन ने प्रो० इ्यामग़ुन्दरदास को 
भेजा था और इन्होंने उसे नागरी प्रचारिणी पत्रिका ( भा० ४ 





*....योचे भूमा तस्सु्ख नारएुपे सुखमस्ति भूमैंथ सुखम । 
बही, ( ७०१३-०१ )। 
यश्र नान्यव्पश्पति नान्यच्छुणोति नान्यद्विनानीयातू स भूमा | ' 
वही, ( ७-१४-१ । 

[--सुरति निरति परचा भया, तब खूजे स्यंभ दुआर ॥ 
कबोर ग्रंथावज्ञी, ( १४-२१ ) | 
[-सान कासयमाना निरोधरूपत्यात्‌ ॥ --नारदीय भक्तिसूत्र, ७। 

$--प्रेम भगति ऐसी कीजिए, सुखि अमृत बरखे चूंद । 

अपहिं आप विचारिए, तब केता होह अ्रनंद रे ॥ 
'कबीर अंधाबली” ( ८६-५ १ | 


६. 


पु० ३४१ ) में छपाया था | तथा नाभा जी के” उत्त दो पद्योंदद्वारा 


रो उन्होंने रामानद की प्रशंसा में लिखे थे, यह बात भली भाँति सूचित 


हो जाती है कि निर्भश संप्रदाय के मिर्माण में उनका कितना हाथ है । 
कितु, मुझे इस बात को सूचित करते भी हर्ष होता है कि मेने उनके 
दो छोटे-छोटे, पद 'सर्वांगी' में पाये हे भर मुझे उनकी दो “रामरक्षा” 
तथा 'योगचितामरणि' नामक छोटी-छोटी रचनाएँ भी मिली हे जिनसे 
इस सम्बन्ध में उनका महत्व पूर्णातः स्पष्ट हो जाता है । 

प्रस्तुत रचना का प्रधान अंश, गत पाँच वर्षो से मुद्रित रूप में 
पड़ा था और जहाँ-तहाँ साधारण संशोधन को छोड़ कर यह ठीक उसी 
भाकार-प्रकार में प्रकाशित होने जा रहा है जिसमें वह काशी हिंदू 
विश्व बिद्यालय में डी० लिट्‌ ० की उपाधि के निमित्त थीसिस के रूप में 
दिया गया था। उसमें सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तत कबीर के परिचय का 
बुबारा लिखा जाना है जो रासानंद एवं कबीर के काल- विषयक मेरी 
सम्मति में परिवर्तन भ्रा जोने के कारण आवश्यक हो गया था। मूल 
'ग्रंंथ सूची” को वर्तमान '्रंथ-टिप्पणी' के रूप में विस्तुत कर दिया 
गया है भौर पुस्तक में उठाये गये जिन प्रश्नों के समाधान की ग्रावश्यकता 


, श्री उन्हें ववदेष बालें' ( परिशिष्ट ३ ) के प्रंतगंत दे दिया गया है ।' 


ग्रंत में मेरा यहु कतेव्य हैं कि में काशी हिंदू विश्वविद्यालय 'के 
हिन्दी विभाग के प्रध्यक्ष अपने गुरु प्रो० ध्यामसुन्दरदास को अपने 
कृतज्ञतापूर्ण धन्यवाद समर्पित करूँ जिन्होंने मेरा खोज के काम में 
पथ-प्रदर्शन किया है। मैनें कतिपय उन सुझावों से भी लाभ उठाया 


है जिरहें हा० टी० ग्राहम बेली ने मुझे दिये थे और जिनके लिए में 


नह 


उन्‍हें प्रपता हाविक धन्यवाद देता हूँ।में उन सब सज्जनों को भी 


, धन्यवाद देता हूँ जिनकी उदारता से ही मुफे कई महत्वपूर्ण हस्तलेखों 


को देखने का सुयोग संभव हो सका। 
पोताम्वरदत्त बड़भवाल 


भूमिका 


+ हा * | 
१--हिंदी-काव्य की 'निर्गुणधारा' व 'निगुण-संप्रदाय' 


हिंदी-काव्य के इतिहास का पूर्व-रूप हमें पहलें-पहल उन काव्य- 
संग्रहों में दीख पड़ता है जिन्हे समय-समय पर, कुछ व्यक्तियों ने, अपनी 
रुचि के भ्रनुसार प्रस्तुत किया था श्रौर जिनमें, कवियों से अधिक 
उनकी क्ृतियों पर ही ध्यान दिया गया था। इसके अ्रनन्तर कविताओं 
के साथ-साथ उनके रचयिताओ्रों के संक्षिप्त परिचय भी दिये भाने लगे 
झौर उक्त प्रकार से संगहीत रचनाएँ, क्रमश: केवल उदाहुरणों का रूप 
ग्रहण करने लगी । एसे कवियों का नामोल्लेखस, उस' समय श्रधिकतर 
वर्णक्रमानसार किया जाता था तथा उनके समय व स्थानादि का 
निर्देश कर दिया जाता था। उनकी कविताप्रों में. उपलेब्ध सास्‍्य वा 
उनके वर्गीकरण की श्रोर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था.। इस 
दूपरे प्रकार के विवरणों का देना, उस समय से झ्रारम्स हुश्ना, जब कुछ 
प्रतिनिधि कवियों के भ्रनूसार काल-विभाजन की भी प्रथा चल निकली 
और प्रत्येक वर्ग की खर्चा उसके कालक्रमानुसार की जाने लगी। ऐसा 
करते समय उन .कवियों की विशेषताएँ त्रतलायी जाने लगीं, अमकती 
पारस्परिक तुलना की जाने लगी और कभी-कभी उनकी रघनाश्रों का 
झ्रुलोचनात्मक परिचय भी दे दिया जाने लगा इस प्रकार उक्त कोरे 
काव्य-संग्रहों का रूप क्रमश: काव्य के इतिहास में परिणित होने लगा 
भ्रौर कवियों के साथ-साथ गद्यलेखकों की भी चर्चा भ्रा जाने के कारण 


इस प्रकार की रचनाएं पूरे हिंदी साहित्य का इतिहास बनकर 
प्रसिद्ध हो चलीं । 


( २ ) 


परैन्तु नामानुसार किया गया उक्त काल-विभौजन भी भागे चल- 
वैफ़ उतना उपयुक्त नहीं समझा गया । कवियों एवं लेखकों की विभिन्न. 
रचनाओं"का तुलनात्मक ग्रध्ययन करते समय अब उनके रचना-काल 
की परिस्थितियों पर भी कुछ अ्रधिक विचार किया जाने लगा और 
तात्कालिक समाज के भीतर उनकी भावधारा तथा रचनाशैली की 
विशेषताओ्रों के कारणों की भी खोज की जाने लगी। तदनुसार एक 
समान रचनाओशों के किसी कालविशेष में ही उपलब्ध होने के कारण 
क्रमशः उनके रचताकाल कौ प्रमुख विचारधाराञों का भी पता लगाना 
आवश्यक हो गया और दहृप्त प्रकार उक्त काल-विभाजन के आधार 
में भी आमूल परिवर्तन कर द्विया गया। स्व० आचारयें पं० रामचन्द्र 
शुक्ल नेन्सवेप्रथम अपने “हिंदी साहित्य का इतिहास” की रचना बहुत 
कुछ इसी दृष्टिकोए के अनुसार सं० १६९८६ में की थी और तब से 
बेसे भ्रन्य इतिहाप्कार भी श्रधिकतर इसो नियम का पालन करते 
श्राये हैं। वे, प्रमुख प्रवृत्तियों का विश्लेषण कर उनकी विभिन्न धाराओं 
के अ्रतर्गत भिन्न-भिन्न कवियों का वर्गीकरण करते रहे हें और उनका 
वर्णन करते समय उनकी कृतियों की समीक्षा पर भी विशेष ध्यान 
देते आये है। “फलत: हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के 
श्रंतगंत 'निर्गुणधारा' एवं 'सगुणधारा' नाम की दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों 
की कल्पना की गई हें झौर 'निर्मणधारा' को भी ज्ञानाश्रयी' तथा 
'प्रेमाश्रयी' नामक दो शाखाश्रों में विभाजित कर, कबीर, नानक आ्रादि 
कवियों का परिचय 'ज्ञानाश्रयी शाखा' के भ्रतर्गत किया जाने लगा है ।” 

कबीर, नानक, रेदास, दादू जैसे संतों के नामों से लोग बहुत 
दिनों से परिचित थे और उनकी विविध बानियों का प्रचार भी 
प्रनेक वर्षों से बढ़ता ही चला जा रहा था। स्वयं उन संतों ने अपने 
पूव॑वर्ती संतों के नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिये थे और बहुधा उन्हें 
सफल साधकों व भकतो की श्रेणी में गिनते हुए उनका स्मरण किन्ा 


(९ रे? 


था। इसी प्रकार भक्तमालों के रचयिताओं ने भी श्रपने पूर्वकालीन 
संतों के चमत्कारपूर्णं जीवन की भाँकियाँ दिखलाई थीं श्रौर कर्भ/- 
कभी उनकी विशेषताओं की शोर लक्ष्य करते हुए उनके महत्व का 
मूल्यांकन करने की भी चेष्टा की थी। परन्तु, इस प्रकार के वर्णन 
अ्रधिकतर पौराणिक पद्धति का ही अ्रनुसरण करते श्राये और इसी 
कारण इनमें उनके सर्वागपूर्ण परिचय के उदाहरण नहीं पाये जाते । 
इसी प्रकार हम उन आलोचनात्मक परिचयों को भी एकांगी ही कह 
सकते हू जो योरप तथा भारत के कतिपय विद्वानों-द्वारा विविध धर्मों 
के इतिहासो में दिये गये मिलते हे और जिनमें इन संतों की सांप्रदायिक 
प्रवृत्ति और इनकी सुधार-पद्धति की श्रोरर ही विशेष ध्यान दिया गया 
है। सतो की कृतियों का भ्रध्ययन उनमें केवल धामिक दुृष्ट्टिकोर से 
ही करने का प्रयत्न किया गया है श्रौर इनके नामों के भ्राधार पर 
निकले हुए पंथों का इतिहास भी बतलाया गया है । इस कारण ऐसी 
पुस्तकों में विशेषकर प्रचलित भेषों श्रौर उपासना-पद्धतियों का विस्तृत 
वर्णन ही पाया जाता है । 

उपर्युक्त साहित्यिक प्रथवा सांप्रदायिक परिचयों में इस संतों का 
वर्णान सामूहिक रूप में किया गया नहीं दीख पड़ता । पहले प्रकार के 
ग्रंथों में इन्हें प्रन्य कवियों की ही भाँति पुथक्‌ पृथक परिथित करा कर 
इनकी रचनाप्रों के कुछ विवरण दे दिये गये हें और इसी प्रकार, उक्त 
धाभिक इतिहासों में भी इन्हें तिरा. धामिक प्रवारक समालकर इसका 
बर्गान अलग-अलग कर दिया गया है। संतों को एक वर्ग-विशेष में 
गिनते हुए उनके सिद्धांतों तथा साधनाभ्रों का सामूहिक परिश्रय देने 
भ्रथवा उनकी कथनहौली व प्रचार-पद्धति पर भी पूर्ण प्रकाश डालने 
का काम उक्त दोनों में से किसी प्रकार की भी पुस्तकों में किया गया 
नही दीख पड़ता । वास्तव में इन संतों के विष्रय में सर्व साधारण की 
धारणा पहले यही रहती भाई थी कि ये लोग केबल. साधारण श्रेणी 


७०००.०७आ 


( $ ) 
के, भकतमात्र थे, इन्होंने अपने-अपने समय के धामिक श्रांदोलनों में 
भाग लेकर, अपने-अपने नामों पर नवीन पंथ चलाने की चेष्टा की थी 
गौर अ्रपनी विचित्र प्रकार के रहन-सहन एवं प्रटपटी बानियों के 
कारण इन्होने अपने लिए बहुत से श्रनयायी भी बना लिये थे। इतकी 
प्रन्य भक्तों से भिन्नता, इनके सिद्धातों की एकरूपता, इनकी साधुनाओं 
की विलक्षणता अथवा इनकी मुख्य देन के प्रति किसी ने विचार नहों 
कियाथा। 
संतो की इस परंपरा को एक सूत्र में ग्रथित करने तथा उनके 
मत का व्यापक रूप भिश्चित करने में कई कठिताइयाँ भी पड़ती थीं । 
केवल दो-एक को छोड़कर इनमें से श्रन्य सतो का कोई साधारण 
परिचय भी उपलब्ध नहीं था | इनकी बानियाँ या तो इनके अनुयायियों 
के पास हस्तलिखित रूप में सुरक्षित पायी जाती थीं श्रथवा विक्ृत 
होकर यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हुई मिल जाया करती थी । इसके सिवाय 
इन संतों के नामों पर चलनेवाले विविध पंथों के रूप और प्रचार- 
पद्धति में भी महान्‌ श्रन्तरश्रा गया था। जिस उद्देश्य को लेकर 
उनका सर्वप्रथम सघटन हुआ था उसे, काल पाकर, वे भूल से गये थे 
श्रौर अ्रन्य प्रकार के प्रचलित संप्रदायों के भ्रनकरण में भ्रधिक लग 
ने के कारण, वे क्रमश. साथारग हिंदू समाज में ही विलीन होते 
जा रहे थे। इन पंथों के अ्रतुयायियों ने, भ्रपनें मूल प्रवत्तंकों को देवी 
शक्तियों से सम्पन्न मानकर उनकी पौराशिक चरितावली भी बना 
डाली थी श्रौर उनके मौलिक सिद्धांतों के सच्चे अ्भिप्राय को समभने 
की प्रायः कुछ भी चेष्टो न करते हुए उनपर अपने काल्पनिक विचारों 
का भ्रारोप कर दिया था। इस कारण उनका वास्तविक रूप जान 
लेना श्रथवा उनके महत्म का समूृचित मूल्यांकन करना कोई सरल काम 
नहीं था । 
. उक्त बाधाओं के बने रहने के कारण इन संतों के सम्बन्ध में 


( # ) 


अ्रनेक विद्वानों की'भी धारणा आंतिपूर्ण हो गई थी । इनकी बानियों 
को ऐसे लोग शत्यन्त साधारण व नीरस' पद्मों में गिना करते थे ऋर 
इनमें उन्हें कोई संगीत वा नवीनता भी नहीं दीख पड़ती"थी । संत 
लोग इनके समक्ष कतिपय निम्नश्रेणी की जातियों में उत्पन्न श्रशिक्षित 
व्यक्ति थे जिन्हें प्राचीन धर्मग्रथों श्रथवा शास्तवाणि,का कुछ भी ज्ञान 
नहीं था श्र जिन्हें इसी कारण, सच्चे मार्ग की पहचान तक नहीं हो 
सकती थी। ये उतके लिए सर्वेताघारण में घूम-फिर कर ऊटपटाँग 
बातों का प्रचार करनेवाले निरे साधू वा फकीर-श्रेणी के लोग थे भौर 
इनके उपदेशों का कोई सुदृढ़ आधार वा उद्देश्य भी नहीं था। संतों 
की बानियो में बिखरे हुए विचारों की संगति वे, किसी पूर्वागत 
विचारधारा से, लगा पाने में प्राय. भ्रसमर्थ रहा करते भर और इस 
कारण, उन्हें इतमें कोई व्यवस्था नहीं दीख पड़ती थी श्र इनकी 
सारी बातें उन्हें किन्‍्ही अस्पष्ठ व क्रमहीन बातों का संग्रहमात्र प्रतीत 
होती थीं | प्रतएवं, संतपरम्परा, रांतसाहित्य वा संत्मत की शोर उनका 
ध्यान पहले एक प्रकार की उपेक्षा का ही रहता चला गआ्राया था। 
इस दिशा में उनके ध्यान का सर्वप्रथम उस समय से आाकृष्ट होना 
' आ्रारम्भ हुआ जब संतों की बानियों का थत्रल्‍्तत्र संग्रह किया जाने 
, लगा श्रौर इस प्रकार के ग्रंथ कभी-कभी प्रकाशित भी होने लगे । 
विक्रम की बीसवीं द्ाताब्दी के उत्तराद्ध से ही वास्तव में संतों 
और उनकी कृतियों का क्रमश: प्रकाश में शभ्राता प्रारम्भ हुप्रा । उस के 
पहले डा० विल्पन के 'ए स्केच भ्राव दि हिन्दू सेक्ट्स' “(6 8(2०॥ 
० (6 मांगता 5९८७ )/ सं० १८८८ में उनके विषभ में 
थोडा-बहुत लिखा जा चुका था, “गार्सा द तासी ने झपने *इस्ट्यार द 
ला लितरेत्योर ऐंदुई ए इंदुस्तानी / सं० १८६६ ) में कुछ संतों व 
उकी रचनाओं की चर्चा की थी और डा० ग्रियर्सन ने भी प्रपने 
/माडन वर्नाक्यूलर लिटरेचर श्राफ हिन्दुस्तान/ ('/0007 ५७७ 78- 


( ६ ) 


टपक्ा [वॉाचाबापा8 0० परांततपरशक्षा! ) सं० १६४६ में 
उपेका एक भ्रालोचनात्मक परिचय दिया था जो श्रधिकतर 'शिवसिह 
सरोज' परे प्राश्नचित था। इन लेखकों ने अपने विचार बहुत कुछ 
भ्रधूरी सामग्रियों के ही श्राधार पर निश्चित किये थ। उस समय तक 
नतो स्व० पं० चंद्रिकाप्रसाद त्रियाठी के “अगबंधू” वा स्वामी दादू- 
दयाल की वाणी, ( सं० १६६४ ) स्व० बा० बालेद्वरप्रसाद को 
संतबानी पुस्तक माला' ( स० १९६५ ) व स्व० डॉ० ध्यामसुन्दरदास 
की 'कबीर ग्रथावली' जैसे मूल साहित्य का प्रकाशन हो पाया था 
और न डाक्टर मेकॉलिफ के “दि सिख रिलीजन'ा ( ॥76 शांत 
रिशञांशा०ा ) सं० १६६५ डॉ० रबीद्रनाथ ठाकुर की “वन हण्ड्रेड 
पोयम्स आऋव कबीर” (()76 फ्रपा0/66 20075 ० 6 90॥7) 
सं० १६८० डॉ० तारादत्त गरोला के 'साम श्राफ दाद” ( 89]775 
0 [08007 ) ( सं० १६८६ ) अथवा प्रो० तेजासिंह के “दि जपजी” 
(7]6 790) जैसे सुन्दर भ्रनवाद ही निकल पाये थे जिनका 
भप्रध्ययन कर कोई निर्णोय किया जाता | रे० वेस्टकाट 6 सं० १६६४ ) 
डा० फकहर ( सं० १६९७७ ) डाॉ० भांडारकर ( सं० १९८५ ) डा० 
कीथ (सं० १६८८) जेसे विद्वानों की घामिक इतिहास सम्बन्धी रचनाएँ 
रे० प्रेमचन्द्र ( सं० १६६८ ) व रे० ग्रहमदशाह ( सं० १६९७२ ) द्वारा 
किये गये बीजक के भ्रनुवाद तथा 'भिश्रबंधु' का 'विनोद' (सं० १६६७) 
पं० रामचंद्र शक्ल ( स० १६५६ ) व डा० सूर्यकांत शास्त्री 
( से० १६८७ ) साहित्यिक इतिहास भी इसी काल में निर्मित व 
प्रकाशित हुए श्रौर प्रायः इसी समय से इस विषय पर अच्छ-प्रच्छे 
'मिबंध भी लिखे जाने लगे । 

इस प्रकार ड(० ज्ड़थ्वाल के इस क्षेत्र में प्राने के पहले भिन्न-भिन्न 
संतीं व उनके पंथों के श्रध्ययन का भ्रारम्भ हो चुका था। उनकी कृतियीं 
के प्रामाणिक संस्करण निकालने तथा उनके श्रनुवाद तक करनें की 


( ७ ) 


परंपरा चल निकली थी और उनसे क्रमशः परिचित होते ल्ानेवाले 
व्यक्तियों की जिज्ञासा उन्हें श्रधिक से भ्रधिक जानने की प्रोर बढ़ेगी 
जा रही थी। फिर भी इन राभी संतों को एक वर्ग-विशप, में गिनते 
हुए उसके सामूहिक भ्रध्ययत की ओर कोई भी प्रवृत नहीं हो रहा था । 
सर्वप्रथम डॉ० बड़थ्वाल ने ही इस कार्य को अपने हाथ में लेने का 
प्रयत्न किया और उपलब्ध संत-साहिट का एक साथ शप्रध्यपल कर, 
संतों के समूचे वर्ग वा 'निर्गुण संप्रदाय” के विषय में भ्पने विचार 
प्रकट किये। 


२. डा० बड़थ्वाल का जीवन-वृत्त 
पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का जन्म सं० १९५४८ के १७ में मार्गशीर्ष 
, को पाली नामक एक साधारण से ग्राम में हुआ था । यह ग्रश्म गढ़वाल 
प्रांत के प्रमुख केंद्र लेंसडाउन से तीन मील की दूरी पर हिमालय की 
थाटी में बसा हुश्रा है। इनके पिता का नाम पं० गौरीदत बड़ध्वाल 
था और वे एक उच्च कुलीन ब्राह्मण, विज्ञ ज्योतिषी तथा पौराणिक 
विद्वान थे। बालक पीतांबर को इसी कारण सर्वप्रथम अ्रमरकोश 
जैसे कुछ संस्कृत ग्रंथों को कंठस्थ करने की शिक्षा मिली भी भौर 
उसका प्रक्षरारंभ भी अपने घर पर ही कराया गया भा। पअपने जस्म- 
स्थान के निकट वर्तमान किसी पाठशाले में हिन्दी व संस्कृत की कुछ 
जानकारी प्राप्त कर लेने पर पीतांबरदत्त श्रीनगर ( गढ़वाल ) के” 
गवर्नमेंट हाई स्कूल में प्रविष्ठ हुए कितु वहाँ से भी हुटकर उन्हें 
पीछे लखनऊ के कालीचरणा हाई सकल में भ्रपता नाम लिखाना पड़ा । 
इस स्कूल के हेडमास्तटर उस समय प्रसिद्ध वाब्‌ श्यामसुन्दरदास णी 
थे। जिनके हिंदी प्रेम व साहित्यनिष्ठा ने विद्यार्स पीतांबरदस को 
बहुत अधिक प्रभावित किया औौर जिनके साथ बढ़ता हुआ इनका 
परिचय क्रम भावी साहित्यिक सहयोग में भी परिवर्तित हो गधा । 
पीतांबरदत्त ने प्रपत्ती स्कूल लीविंग परीक्षा सं० १९७७ में पासकार 


( ८ ) 


सं० १९७९ में कानपुर के डी० ए० वी० कालेज के, एफ्‌० ए० कर 
लिया और आगे का भी अ्रध्ययन चलाते रहने के उदृश्य ते काशी 
हिन्दू-विद्वविद्यालय में जाकर अपना नाम लिखाया । 

परन्तु इसी बीच में इनका स्वास्थ्य बहुत कुछ विगड गया और 
उसे सुधा रने के प्रयत्न में, इन्हें, कुछ काल के लिए, अपनी पढाई छोड़ 
देनी पड़ी ।ये, लगभग दो वर्षों के लिए, काशी से अपने गाँव पाली 
चले ग्राये और वही रहकर प्राकृतिक चिकित्सा का प्रयोग करने लगे । 
विद्यार्थी पीताबरदत्त की प्रवृत्ति, श्रीनगर के सकल में विद्योपार्जन करते 
समय से ही कुछ लिखने-पढ़ने की श्रोर भी उन्मुख हो चुकी थी और 
कहा जाता है कि, वहाँ रहकर इन्होने 'मनोरंजनी' नाम की किसी 
हस्तलिख्वित पत्रिका का सपादन भी किया' था। उस समय ये वहाँ 
की साहित्यिक सभाश्रों में भी सक्रिय भाग लिया करते थे और, कानप्रुर 
था जाने पर, इन्होंने वहाँ के 'हिलमैन” पत्र को संपादित किया था। 
तदनुसार इनका साहित्यिक काय्ये, पाली गाँव में रहते समय भी 
निरंतर चलता 'रहा और, अपने अध्ययन व श्रनुभवों के अ्रनुसतार, इन्होने 
कुछ श्रग्नेजी पुस्तकों के आ्राधार पर, 'प्राणायामविज्ञान' श्रौर कला तथा 
यान से आ्रात्मचिकित्सा' नामक दो पुस्तक लिख डालीं | अपने प्रात 
के सार्वजनिक जीवन में जागृति लाने के उद्देश्य से इन्होंने गढ़वाल 
नवयूवक्त सम्मेलन! की स्थापना की और समय-समय पर सर्वसाधारए 
की सहायता के लिए भी प्रशसनीय कार्य किये१ उस समय ये वहाँ के 
स्थानीय पत्र 'पुरुषार्थी में भी बहुधा लिखा करते थे भौर अपन्ती कवि- 
ताप्रों को प्रकाशित करते समय अ्रपना उपनाम '्रम्बर' अ्रथवा 
व्योमचन्द्र' दिया; करते थे । 

घर पर उक्त प्रकार से स्वास्थ्य-सुधार कर लेने के भ्रनन्तर ये 
फिर काशी-हिंदू-विद्व विद्यालय चले प्राग्रे और वही रहकर पढ़ने लगे। 
'बहाँ से इन्होंने, बी० ए० की परीक्षा प्रासकर सं० १६८५ में एम्‌० ए० 


( ६ ) 


तथा सं» १६६६० में एल-एल्‌० बी० भी कर लिया। एम्‌०ए० की 
परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आये श्रौर इसके लिए जो इन्होंने एक 
विस्तृत निबन्ध 'छायावाद' शीर्षक से लिखा था वह बहुत विद्वत्तापूर्ण 
सिद्ध हुआ । बा० व्यामसुन्दरदास जी उससे इतने प्रभावित हुए कि 
उसके पुरस्कार में उन्होंने इन्हें श्रपने हिंदी-विभाग के श्रन्तर्गत शोध 
कार्य पर नियक्त कर लिया । तबसे यह साहित्यिक खोज का कार्य भी 
बड़े मनोयोग के साथ करने लगे । फिर सं० १६८७ में इन्हें उसी 
विभाग में लेकचरर भी बना दिया गया। अ्रध्यापक पीतांबरदत्त को 


प्रब, हिंदी-साहित्य के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उसके विवेचन' 


का भी सुयोग मिलते लगा और इनके विचारों में ऋमश: प्रौढ़ता भ्राने 
लगी । हिंदी-साहित्य के विद्यार्थियों के समक्ष ये कभी-कभी अ्रफती नवीन 
खोजों के भ्राधार पर भी व्याख्यान दिया करते थे और इनकी नित्यप्रति 
बनती जानेवाली साहित्यिक धारणा क्रमशः निखरती चली जाती थी । 
इसी समय, इनकी खोज-सम्बन्धी लगन को देखकर, “काशी-नागरी- 
प्रचारिणी सभा' ने भी इन्हें भ्रपने खोज-विभाग का संचालक नियुक्त 
कर लिया । वहाँ पर इनके तत्त्वावधान में महत्वपूर्ण हस्तलिखिन ग्रंथों 
का पता लगा और उनकी रिपोर्ट तैयार करते समय, इनके साहित्यिक 
ज्ञान के घिस्तार में और भी सहायता मिली । 

, झपने उपर्यकक्‍त शोध-कार्यों से प्रोत्साहन पाकर ही इन्होंने हिंदी- 
काव्य की 'निर्गणशधार। पर एक थीसिस लिखने का विश्ञार किया । 
यह कार्य एक ऐसे क्षेत्र में करता था जो उस समय तक भी बहुत कुछ 
उप्रेक्षा की ही दृष्टि से देखा जा रहा था.ओ्रौर इस का रण, उसे हाथ 
में लेता एक प्रकार का नवीन प्रयत्न भी कहा जा सकत्ना था । फिर भी 
इन्होंने उक्त विषय पर पूरे परिश्रम के साथ काम किया शोर प्रपनी 
'सक्ची। लगत व श्रध्यवसाय के कारण, इस क्रार्य में सफल भी हो गये । 
इनके द्वारा प्रस्तुत किये गये निबन्ध से इनके परीक्षक भी बहुत प्रभावित 


हा 


( १० ) 


हुए और उन्होंने इसे एक उच्च कोटि की रचना के रूप में स्वीकार कर 
"लिया । इस प्रकार सं० १६९० में इन्हें “दि निर्गन स्कूल आव हिन्दी 
पोइट्री* ( [6 'साएपा 52700 ० भाग एठ०ा५ ) 
शीर्षक थीसिसः के श्राधार पर डी० लिट० की डिग्री मिली। तबसे 
इनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक हो चली और इनका समादर भी होने लगा । 
गढ़वाल साहित्य परिषद्‌ के ये स्थायी प्रधान चुन लिये गये, हिंदी 
साहित्य प्रम्मेलन के सं० १६९६४ वाले अधिवेशन की साहित्य-शाखा में 
निबन्ध पाठ के लिए विद्येष रूप से आमत्रित किये गये और प्राच्यविद्या 
सम्मेलन के तिरुपति ( मद्रास ) वाले सं० १६६७ के प्रधिवेशन में 
इन्होंने हिंदी-विभाग के सभापति का आसन ग्रहण किया । इस बीच 
में, 'कमंशी हिंदू विश्वविद्यालय का अध्यापनकार्य छोडकर सं० १६६५ 
में, थे लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये और वहीं के हिदी-विभाग में 
'प्राध्यापक होकर, शभ्रपनी साहित्य सेवा करते जा रहे थे | वहाँ पर भौ 
विद्त्ता के कारण विद्याथियो और सहयोगियों के बीच इनकी बड़ी 
भ्रच्छी प्रतिष्ठा थी । किन्तु विधि का विधात कि उनका स्वास्थ्य धी रे- 
धीरे गिरता गया । स० २००० वि० के फाल्गन मास में इन्होंने अ्व- 
काश ग्रहण किया और घर अआआाने पर सं० २००१ के श्रावण मास की 
'शाकला चतुर्थी को इनका देहावसान हो गया । 

डॉ० बड़थ्वाल की मनोवत्ति उनके जीवन भर, सदा साहित्यिक 
कार्यों को श्रोर ही उन्मुख रही । उनके निर्जी' पुस्तकालय की ग्रंथ सूची 
के देखने से पता चलता है कि उन्होंने ग्रनेक बहुमूल्य हस्तलेखों का 
एक अच्छा सा संग्रह जटा रखा था। वे बराबर हस्तलिखित प्राचीन 
हिंदी ग्रंथों की खोज में रहते, उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ा' करत, उन 
पर मनन करते और पझपने विचारों की टिप्पणियाँ तेयार किया करते । 
ऐसे साहित्य का गम्भीर भ्रध्ययन और पनेक प्रकाशित ग्रंथों का प्रालो- 
'चनात्सक विवेचन ही उनके जीवन का प्रमुख उदृश्य रहा। तदनुसार 


॥ कक .॥ 


ग्रपने ग्रंथानुशीलन के फल स्वरूप, उन्होंने कई निबन्ध भी लिख जो 
समय समय पर हिंदी के पत्र-पत्रिकाओशओं में प्रकाशित होते रहे । उनके। 
बहुत पे छोटे-बड़े लेख भ्रभी हस्तलिखित रूप में ही पड़े हैं भौर कई 
पुस्तर्क जिन्हें वे सम्पादित करना चाहते थे और पाठों के सुधार-उमादि 
को व्यवस्थिति करके प्रकाशित करना चाहते थ, श्रभी ज्यों की पमयों 
रखी हुई है। उनकी सभी प्रकाशित व श्रप्रकाशित रचनाओं पर 
विचार करके देखा जाय तो, विदित होता हैं कि उनका विशेष ध्यान 
हिंदी-साहित्य के उस अंश की ओर ही रहा, जो उसके इतिहास में 
नाथो की सबदियों एवँ संतों की बानियो के नाम से प्रसिद्ध हैं भौर 
इन दो के क्षेत्रों में उन्होंने अपता कार्य बड़ी लगन के साथ किया था | 

इन विषयों पर लिखे गये उनके निबन्धो का एक संग्रह बा० सूम्पूर्णा- 
नन्द जी द्वारा सम्पादित होकर 'ज्ञान मण्डल कार्यालय काशी' से, योग 
प्रवाह के नाम से, स० २००३ में निकल चुका है और शेष में से कुछ 
झौर भी यथाशी घ्र उनके प्रिय शिष्य लखनऊ विश्व-विद्यालय में हिंदी के 
प्राध्यापक डॉ० भगीरथ मिश्र के द्वारा संग्रादित होक( प्रकाशित होने जा 

रहे हैं। उनके भ्रन्य विषयों से सम्बन्ध रखनेवाले लेखों में से कुछ तुलसी - 

दास, केशवदास, भूषण, भारतेन्दु हारिहवन्द्र, महावीरप्रमाद द्विवेदी, 
रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दरदास श्रादि पर लिखे गये हूं, कुछ में हिंदी" 
भाषा-सम्त्नन्धी कई प्रदनों पर व्यक्त किये गये उनके विचार दीख पड़ते 
हैं और शेष का सम्बन्ध ऋधिकतर भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक विषयों के साथ 
जान पड़ता हैँ। उनकी प्रकाशित हिंदी पुस्तकों में, प्राकृतिक चिकित्सा 

विषयक दो रचनाशों के भ्रतिरिक्त, रूपक रहस्य” गोस्वामी तुलसीदास' 

गोरखबाती” “रापचंद्रिका' आदि के नाम लिये जा सकूते है। उनकी 
सबसे प्रसिद्ध प्रकाशित कृति दि निर्गुण स्कूल श्राफ्‌ हिंदी गेइट्री' है 

जो उनकी थीसिस के रूप में, पहले अंग्रेजी भाषा में लिखी गई थी । 


डा० बड़थ्वाल' जो कुछ भी ,लिखते थे उसे गम्भीरतापूर्षक और 


५ 8) 


पूरी सावधानी के साथ लिखा करते थे, उनकरेषल्नड़ से बड़े ग्रंथों से 
' लेकर छोटे से छोटे निबन्धों तक की रचना के पीछे उनके गहरे 
ग्रध्ययन्ष व अनुशीलन की छाप लगी हुई हैं । वे किसी भी विषय पर 
सदा स्वतन्त्र रूप से विचार करने की चेष्टा करते थे, उस पर नया 
प्रकाश डालना अपना लक्ष्य बना लेते थे श्रौर, उसे लेकर लिखते समय 
अपने वाक्यों में युक्तियों के साथ-साथ रोचकता व सजीवता भी भर 
देते थे । कहते हैं कि अपने लेखों की अनेक पंक्तियों को उन्होंने, प्रकाशित 
करने के पूर्व, 'बीस-बीस-तीस-तीस” बार तक सुधारा होगा । उनका 
'सुरति-निरति' वामक निबन्ध जो उपर्यक्त योगप्रवाह' पुस्तक के केवल 
ग्यारह पृष्ठों में ही छपा है “उनके ग्यारह वर्षो के परिश्रम का फल 
है” । किसी विषय की धारणा बना लेना, उसे सर्वप्रथम थोड़े में ही 
व्यक्त करना और पीछे उसे समुचित विस्तार देकर, सुव्यवस्थित रूप 
देना उनकी प्रमुख विशेषता के अंग थे । वे एक शुद्ध साहित्यिक जीव 
थ श्ौर उनकी अन्‍न्त:प्रेरणा, उनकी सच्ची लगत का उपयोग सदा 
स्थायी कार्यों में ही किया करती थी । उन्हें अपने पांडित्य का प्रभिमान 
ने था फिर भी उनकी क्ृतियों में उनके आात्म-विश्वास, दुढ़ता एवं 
निर्भगता के उदाहरण सब्वत्र लक्षित होते हैं। साहित्य-सेवा ने उनके 
लिए एक पूरे व्यमत का रूप घारण कर लिया था और उनकी एकांत- 
निष्ठा व भ्रनवरत परिश्रम, उनकी मानसिक एवं शारीरिक दाकितियों 
में क्रमश: विकार एवं हास उत्तन्न करते हुए, उन्हें भ्रसामयिक मृत्य 
की श्रोर बरबस खीच ले गये । 


३, दि निगुण स्कूल श्र # हिंदी पोइटी 


डा० बड़थ्वाल ने हिंदी के सतकवियों की बानियों का अध्ययन 
कर उनकी वाह्य विभिन्नताओं में समन्वय , व समानता के,अआ्राधार दूढ 
निकालने के प्रयत्न किये। उन्होंने इनके उपदेशों की, दाशनिक पृष्ठ- 


( १३ 9 


भूमि का पता लगाय। और उनके साप्रदाथिक सिद्धान्तों के स्वरूप का 
भी दिगदर्शन कराया । इसके सिवाय इन संतों की मुख्य देत की ओर 
संकेत करते हुए उन्होंने इनकी बानियों में प्रकट होनेवाली वर्शनशली 
का भी परिचय कराया तथा उपलब्ध सामग्रियों के श्राधार पर इनकी 
जीवनी पर भी प्रकाश डाला। डा० बड्थ्वाल को उपर्युवत थीसिस 
का विषय इन सारी बातों से सम्बन्ध रखता था। निबंध को पस्तक 
का आकार देते हुए उप्ते उन्होंने ६ भिन्न-भिन्न अ्रध्यायों में विभव्रत कर 
दिया था जिनका विवरण इस प्रक्ा( दिया जा सकता है--- 

१--उसके प्रथम अध्याय के अ्रंत्गंत उन्होंने उन विभिन्न प्रवृतियों 
का परिचय दिया है जो संतमत के प्रमुख प्रवतेक कबीर के समय वा 
उनके भी कुछ पहले से काम करती श्रा रही थीं | भारत की प्रंशरात्मा 
सदा से श्राध्यात्मिक भावनाश्रों की श्रोर ही प्रवृत्त रहती श्राई है और 
उसकी भावधारा शताब्दियों से निरतर श्रबाधित रूप से प्रवाहित होती 
हुई समयानुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट होती रही है| तदनूसार 
भारत पर इस्लाम का श्राक्रमण हो जाने के अ्रनंतर पंद्रहवी शताब्दी में 
जो रूप इस धारा ने ग्रहण किया वह निर्गुण संत-संप्रदाय के नाभ से 
प्रसिद्ध है । मुस्लिम विजेता पहले लूटपाट करके चले जाते थे श्रौर 
सिवाय कतिपय ध्वंसावशेषों के उनके श्रागसन का कोई भ्रन्य चिन्न 
नहीं रह जाता था। परन्तु श्रगे चल कर उन्होंने भारतीय जनता के 
ऊपर अपने 'मजहब' को भी लादना आ्रारम्भ कर दिया । देश में उस 
समय वणु-व्यवस्था ज॑प्ती सामाजिक विषमताएँ वर्तमान थीं श्रौर उनका 
प्रभाव दूर करने के लिए भक्ति मार्ग का झ्रादोलन अधिकाधिक सन्चेष्ट 
होता आ रहा था। उसके वैष्णबै-संप्रदाय तथा इस्लाम के सूफ़ी संप्रदाय 
ने इस श्रोर बहुत कुछ काम किया । परन्तु उन दोनों का भी कार्य प्रायः 
भ्रधूरा था। कबीर ने इसी समय स्वा० रामानंद से प्रेरणा पाकर 
अपने उपदेश देने आरम्भ किये और हिंदुओं एवं मुसलमानों की भूटियों 


( (१४ ) 


को प्रकाश में लाकर उन्हें एक दूसरे के प्रति सहुँदयता प्रदर्शित करन 
का मार्ग सुझाया । उनके प्रयत्नों द्वारा पारमाथिक साधना एवं सामा- 
जिक पैयवहार के क्षेत्रों में भी पूर्ण ऐक्य श्रौर समानता की लहर उमड़ 
चली और सतो के विशिष्ट वर्ग की एक पृथ्क्‌ परंपरा ही चल निकली 
जिसे 'निर्गुण संप्रदाय” कहा करते हैं । 

२>-डा० बड़थ्वाल ने निबंध के दूसरे अ्रध्याय में इन निर्गणी 
संतों के दाशेनिक सिद्धान्तों का विवेचन किया है। उन्होने सर्वप्रथम 
इनके एकेश्वरवाद की व्याख्या की है और बतलाया है कि वह किस 
प्रकार हिंदूधर्म एव इस्लाम दोनो में समन्वय स्थापित करनेवाले उस 
एक व्यापक तत्व का प्रतिपादन करता हैं जो इस विश्व का कर्त्ता, 
नियंतत तथा शासक भी है। इसी प्रकार उस तत्व की पूर्णता को भी 
उन्होंने स्पष्ट किया है और बतलाया है कि किस प्रकार वह संतों के 
अनुसार विश्व के भीतर सं्वेब्यापक होता हुआ भी सर्वातीत है जिस 
कारण उसे निरपेक्ष कहना ही श्रधिक समीचीन होगा । संतों ने उम्र 
तत्व को निर्णण एवं सगुण इन दोनों से परे की वस्तु माना है और 
उसे चौथा पद अ्रलख' 'अ्रनामी' अ्रथवा 'सत्त' जेसे शब्दों-द्वारा 
प्रभिहित किया हूँ । संतों के भ्रात्मा-परमात्मा एवं जडपदार्थ-सम्बन्धी 
विचारों का मिरूपण करते समय इसी' प्रकार डॉ० बड़थ्वाल ने उनका 
तीन प्रकार की दार्शनिक विचारधाराञों के भ्रनूसार वर्गीकरण किया 
हैं और कबीर, दादू, भीखा, मलूक भ्रादि को श्रद्देती, नानक को भेदा- 
भेदी तथा शिवदयाल, प्राणनाथ गआ्रादि को विशिष्टाद्ती ठहराया है। 
प्रथम के भ्रनुसार परमात्मा व जीवात्मा पूर्णोत: एक हे दूसरे के प्रतुसार 
दोतों में एकन्प्रकार से बडे व छोटे का श्रंतर है, और तीसरे के अनुसार 
दोनों में श्रंश व भ्रुणी का सम्बन्ध हैं। डा० बड़ध्वाल ने इसके साथ ही 
यह भी दिखलाया है कि संतों की विचारधारा किस प्रकार प्राचीन 
झ्रौपनिषदिक सिद्धान्तों से मेल खाती हैं। उनके विचार में ये सतत 


( १५ ) 


सहज-साधना के समर्थक थे और मूर्ति पूजा प्रवतारवाद श्रादि में विदवास 
न रखते हुए, मर्मियों की प्रेम-पद्धति का अ्रनुसरणा करते थे । 

३--इसी प्रकार इसके तीसरे श्रध्याय में इन संतों की साप्रदायिक 
मान्यताओं के स्पष्टीकरण की चेष्टा की गई है। इशके अंतर्गत इनके 
उस प्रत्यावतंन की साधना का वर्णान किया गया है जो अ्रात्मा को 
उसके अपने मूल स्रोत की शोर पुन. लौटने में सहायता प्रदान करती 
है । उस मध्यममार्ग का निर्देश किया गया हैं जिसे संत लोग निवत्ति एवं 
प्रवृत्ति मार्गों के बीच का मान कर उसका भ्रनुसरण करते हें शौर फिर 
उस आ्राध्यात्मिक वातावरण की भी चर्चा की गई है जिसके प्रभाव में 
रहकर उक्त प्रकार की साधनाग्रों में सफलता प्राप्त की जा सकती है । 
वातावरण के श्रंगों में सबसे अधिक प्रधानता सत्संग को दी जाती है 
भोर उसके लिए भी सच्चे सत वा साधु ही श्रपेक्षित हैं । डा० बड़थ्वाल 
मे इसके अनस्तर उस सतगुरु की भी व्याख्या की है जो उक्त भ्राध्यात्मिक 
साधना के लिए सबसे प्रावश्यक हुआ करता है और तत्पदच्ात उसके 
द्वारा बतलाये गये नामस्मरण की साधना के महत्व की श्रोर संकेत 
करते हुए उसे भक्तियोग का ही एक प्रंग स्वीकार किया है। संतों की 
सर्वप्रधान साधना शब्दयोग व 'सुरति शब्दयोग” का बर्गोन फिर प्रे 
विवरण के साथ करने का प्रयत्न किया गया है और इसके प्रभंतर उन 
दो प्रकार के लक्ष्यों की भी चर्चा कर दी गई है जिन्हें संत लोग भ्रपतों 
सारी चेष्टा्रों का श्रंतिम उद्देश्य माता करते हैें।डा० बड़थ्वाल ने 
इस ' अ्रध्याय. के अंत में यह भी बतला दिया है कि संतों की उबत 
आध्यात्मिक साधना के कारण समाज की उपेक्षा वहीं हुआ करती, प्रत्यूत 
उसमें उसके कल्याण का भी ध्येय सदा बना रहता है । पुस्तक का यह 
प्रध्याय सबमें बड़ा हे ग्रौर इसमें भी शब्दयोग वाला अंश भ्रधिक विस्तृत 
व महत्वपूर्ण है । 

४--पुस्तक के चौथे श्रध्याय में डा० बड़थ्वाल ने कुछ ऐसे 


५ १६ ) 


ग्रावश्यक प्रदनों के उत्तर देने की चेष्टा की है जो संतों वा उनके मत 
के सम्बन्ध में चर्चा करते समय बहुंघा आपसे श्राप उठ जाया करते 
हैं। सबसे पहला प्रश्न इस विषय का है कि क्‍या ये संत लोग केवल 
सारग्राही मात्र ही थे और क्या इनमें कोई अपनी विशेषता नहीं थी ? 
इस प्रश्न का उत्तर लेखक ने यह कह कर दिया है कि इन संतो ने 
अपने समय में वर्तमान सामग्रियों का उपयोग अपने निजी सिद्धान्तों 
के समर्थनमात्र के लिए ही किया था और इसके कारण इनकी महत्ता 
में किसी प्रकार की कमी नही आती । फिर एक दूसरे प्रव्न श्रर्थात्‌ क्या 
इन संतों का वर्ग वास्तव में साप्रदायिक हैं ? का उत्तर इस बात को 
स्पष्ट करते हुए दिया है कि साप्रदायिक बातें केवल इनके वाह्म 
कृत्यों मैं ही पायी जाती हे और और वे श्रधिकतर उन प्ननेक प्रचलित 
संप्रदायों के कारण घुस श्राई है जिनके वातावरण में सतमत के 
अ्रतुयायियों को श्रपता प्रचार करना पड़ता रहा । संत-संप्रदायों के मल 
प्रवत्तकों का प्रधान उद्देय्य कभी वाह्य साधनाश्रों को श्रधिक महत्व 
देने का नही था और जो-जो बातें उनके मूल विचारों के विरुद्ध जाती 
हैं वे केवल गौणमात्र हे । उनका न तो कोई वास्तविक महत्व है भौर 
न उनके द्वारा हम संतों के मत का उचित मल्याकन ही कर 
सकते हू । 

५---इसके पाँचवें अ्रध्याय मे डा० बड़थ्वाल ने संतों की रचनाश्रों 
के स्वरूप. उनकी कथन शैली एवं भाषादि के विषय में लिखा हैं। 
उनका कहना हूँ कि संतो ने अपने भावों को व्यक्त करते समय इस 
बात की विशेष परवा नहीं की हैं कि वे किस प्रकार प्रकट किये जा रहे 
हैं। इन्होंने नतो हिंदी के प्रचलित व्याकरण के नियमों का पालन 
करने की चेष्टा कीलर न उसके छुंदों श्रथवा अ्रलंकारादि की उप- 
युक्तता की ही भ्रोर विशेष ध्यान दिया । अपनी बातों को स्पष्ट करते 
समय वा उपदेश देते समय जिन पद्यों का इन्होंने सबसे भ्रधिक प्रयोग 


( १७ ) 


किया है उन्हें बानी व 'साखी' कहते हैं जो क्रमशः: पदों व दोहों 
के ही पर्यायगाची शब्द हें। अपने गूढ़ भावों की श्रभिव्यक्ति इन्होंने 
ग्रधिकतर उन प्रतीकों के सहारे की है जो साधारण जीवन के क्षेत्रों से 
चुने गये हैं । परन्तु इसके लिए इनके काम में सबसे श्रधिक श्रानेवाले 
वे रूपक है जो दाम्पत्य-माव को प्रकट करते हे श्रौर जिनके प्रयोग वे 
जीवात्मा व परमात्मा के सम्बन्ध में करते हे । इनके ये प्रयोग उच्चकोटि 
की प्रेमभावनाओ्रों के द्योतक हें और इनमें लक्षित होनेवाले विरह के 
भावों में सतो के सच्चे व शुद्ध हृदय का परिचय मिलता है । संतों की 
रचनाओं की एक विशेषता उनकी उलटवाँसियों में भी पायी जाती है 
जो उनके कथन को आकर्षक बनाकर हमें उन पर विचार करने को 
विवध् कर देती है । * 
६--पुस्तक के प्रंतिम श्रध्याय में लेखक ने इन संतों का कुछ 
परित्रय देने का भी प्रयत्न किया डै। सर्वप्रथम उससे उनकी शोर 
संकेत किया है जो इनके पथ-प्रदर्शक थे श्र जिनमें से कुछ के नाम 
इन्होने बड़ी श्रेद्धा के साथ लिये हे । तदनंतर कबीर, नानक, दादू, 
प्राणनाथ , बाबालाल, मलकदास, दीनदस्वेश, मारीसाहब, जगजीवन- 
दास, पलटू, धरनीदास, दरियाइय, बुल्लेशाह, चरगादास, शिवनारायगा 
तुलसी साहुब एवं शिवदयाल साहिब के सक्षिप्त परिचय देते हुए 
उसमें उनकी रचनाओं एवं पंभ्रादि की भी चर्चा की गई हैं| इस संतों 
के परिचय स्वभावत: संक्षिप्त हैं श्रौर उसकी कई एक कमियों की पूर्ति 
डा० बड़थ्वाल ने पुस्तक के अ्रत में दी गई विशेष ट्प्पिणियों-द्वारा 
करने की चेष्टा की है। श्रंत के तीन परिद्िष्टों में से पहले में कतिपय 
गृढार्थवाची शब्दों की एक तालिका दे दी गई है श्र दूसरे में उस 
साहित्य की भी एक आलोचनात्मक चर्चा की गुई है जिससे लेखक ते* 
श्रपना' निबंध प्रस्तुत करते समय सहायता ली थी । तीसरे में, मूल पुस्तेक 
में आई हुई कुछ बातों और तथ्यों पर विशेष ठिषपणियाँ हैं। 


( (६९८ ) 


४. निबंध विषयक विशेष बाते 

डा० बड़थ्वाल के निबंध के शीर्षक “दि निर्गुण स्कूल झ्राफ़ हिंदी 
पोए ट्री प्रर्थात्‌ (हिंदी काव्य का निर्गुण सश्रदाय' से स्पष्ट है कि वे संतों 
के उस संप्रदाय का परिचय देने जा रहे है जिसमें गिने गये लोगों की 
रचनाएँ, हिंदी कविताओं में धरम्मिलित की जाती है । तदनुसार, इन सतों 
पर विचार करते समय हमारा ध्यान सर्वप्रथम इनके साहित्यिक परिचय 
के ही श्रोर ग्राकृष्ट होता है। कविताएँ या तो भावप्रधान या विषय- 
प्रधान होती है । अथवा भाषाप्रधात कहलाती है जिनमें रचनादशैली 
वा काव्यकला को झोर विशेष ध्यान दिया गया रहता हैँ । हिंदी साहित्य 
के इतिहारा में हमें इन दोनो प्रकार की कबित|श्रों के उदाहरण यथेप्ट 
रूप में ॑मतत हू । रीति-काल को प्रायः सभी कविताएं उक्त “भाषा 
प्रधान' की कोटि में ग्राती है और भक्तिकाल के संतो दी कविताएँ उक्त 
दोनों ही कोटियों भें रखी जा सकती है | डा० बड़थ्वाल ने श्रपने निबंध 
में इसी कारण संतो के भाव अ्रथवा विषय को ही प्रधानता दी है 
प्रौर उनकी भाषा को गौश स्थान प्रदान किया है। उन्होंने इन सतो- 
ह7रा' रची गयी कविताओं को वस्तुत. कविता की कोटि में न मानकर 
उन्हें इतबी भावामित्यवित का एव. साधस-मात्र माना है। उनके 
निबंध का एक बहुत बड़ा भ्रश ( दो तिहाई से भी कही अधिक ) इन 
संतों के रिद्धातों, साधनात्री तथा विशेषताओं की ही चर्चा में लग गया 
है । उसके छ: में से केवल एक अश्रध्याय के ही अतर्गत, इनकी भाषा 
वा रचना जैलियों का वर्णान है और, श्रत में, १रिशिप्ट के भीतर इनके 
कतिपय ग्रंथों की एक परिचयात्मक सूची भर दे दी गई है। निबंध के 
शेष भाग में का तो संतमत के उदय-काल की परन्स्थितियों का 
दिग्दर्शन हैँ अ्रथवा इनका थोड़ा-बहुत परिचय दिया गया है। 

“हिंदी-काब्य का निर्भुगा सप्रदाय” प्रस्तुत तिबन्ध का विशेष 
उपयुक्त शीर्षक नहीं है और इस पर दॉ० बटथ्वाल ने निबन्ध की 


( (१8. ४ 


प्रत्तावया' में विचार भी किया है। हिंदी काथ्य, वा वस्तुत: किसो' 
प्रत्य भाषा के काठपर के क्षेत्र में भी (सी ऐसे संप्रदाय की चर्चा करना 
जो साहित्यिक न हो, उायक्त नहीं जान पडता । वैसी दशा में हिंदी 
काध्य की निर्गुगा घारा' सभवत' कुछ अ्रधिक उच्चित शीर्षक होता,.. 
कितु उसमें भी भ्रधिकतर साहित्यिक बातों का ही समावेश हो पाता 
ओर 'निर्गगमत की विभिन्न साधनाओञ्रों श्रौर सिद्धांतों का विस्तत 
विवरण देने के लिए उसमें पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाता, जो डा० 
बडथ्वाल को अ्रभीष्ट था और जिसके लिए ही उन्होंने प्रस्तुत निबन्ध की 
रचना की थी । निबंध के कुछ अ्रशों का हिंदी में स्वय भ्रनुवाद करते 
समय उन्होंने, इसी कारण, उसके शीर्षक “हिंदी काव्य का निर्गुण 
संप्रदाय को (हिंदी काव्य में निर्गणा रांप्रदायय के रूप में पश्गणित कर 
दिया है । फिर भी उन्होंने निबंध के श्रतर्गत एक प्रध्याय इस संता 
की रचनाशली के संम्बन्ध में भी दे दिया है श्रौर उसका नामकरण 
'एक्सपीरियंस एकरप्रेस्ट' भश्र्थात्‌ 'ग्रनभति की प्रभिव्यवित' के रूप में 
क्रिया हे जो, उनके दुष्टिकोश से, पूर्णतः: उचित था | डा० बड़थ्वान 
ने प्रपने निबंध के इस गंदा में संतों की सात्वालभति सथा उसके व्यतती- 
करण की कठिनाइयों से श्रारंभ किया है | इस प्रकार का व्यक्षीफरर 
ही, वारतब में, उस रहस्यवाद का भी ग्राधार है जिसके उदाहरण! 
इन संतकवियों की रचनाओरी में प्राय: सब कही मिलते हे । झ्रतएव इस 
स्थल पर यदि निर्गुग़ संप्रदाथ के लोगों की रहृस्यानभलति की एक 
+ पुस्तक के कुछ भाग के छुप जाने पर प्राप्त हुई, डा० बदथ्याज के 

हिंदी अनुवाद की, उनके द्वारा संशोधित एक प्रति सें, इसका नाम 

(हिंदी काव्य की निगण घारा! ही दिया गया हे उनके इस संशोधन 

को हम अगले संस्क्रण में ही श्रपना सकेरो । 

संपादक! 


( ४५७ 9) 


ट्विस्तृत आलोचना भी कर दी गई होती तो बहुत श्रष्छा हो गया होता। 
इन संत-कव्रियों के रहस्प्रवाद का स्वरूप और हिंदी के अन्य ऐसे 
कवियों को तुलनायें, उसकी विशेषता का निरूपसो यहाँ अपेक्षित रहा । 
सतो की रचनाओं में प्रयृकत छुदो और उनके सबंध में की गई उत्तकी 
भलों के विवरण देने की यहाँ उतनी ग्रावश्यकता नहीं थी | डा० 
बडथ्वाल ने इसके तथा उनकी व्याकरण-सबधी त्रुटियों के विषय में 
इसी कारण, बहुत विस्तार नही किया है | उल्टवॉसियो की चर्चा भी 
उन्होने बहुत कम की है । 

डा० बड्थ्वाल के निबंध लिखने का सर्वप्रतान उद्देश्य इन सतो का 
साम्प्रदागिक परिचय देना ही प्रतीत होता है । उन्होने 'संत' दाब्द एवं 
निर्गण इकद की व्यूत्पत्तियों पर पहल ध्यान दिया है और कहा है कि 
ये दोनों ही समानार्थक बनकर प्रचलित हूँ । फिर भी उन्होंने पहले का 
परित्याग कर दूसरे को ही अपनाया है और ऐसा करने का कारण 
उन्होंने श्रधिक उपयकक्‍त शब्द का अभाव ही बतलाया हूँ । डा० बड़थ्वाल 
ने 'निर्गण' शब्इ-संबधी इस प्रकार के प्रयोगो के उदाहरण, कबीर गूल,ल 
व किपी कबीरपंथों की एक्राश्ष रचनाओं के उद्धरण देकर उनमें ढू ढने के 
प्रयत्न किये है । कितु इन रचनाओं में रो “सतत जात न पूछी निर्गुनिया 
का कबी रक्ृत होना रादेहुरहित नहीं कहा जा सकता और “हम निर्गण 
तुम सरगगा जागा' में व्यक्त होनेबाला कबीर का कथन भी वरतुत. 
सगुणतब्रादियों से प्रगनी भिन्‍नता सिद्ध करने के लिए ही फिया गया कहा 
जा सकता हु। हाँ गुलाल साहब की पक्ति “निर्गुणमत सोई वेद को 
अंता तथा 'निरगृनपंथ चलाये में प्रकट होनेवाली किसी कतब्रीरपंथी 
की उक्ति प्रवश्य ,विचारणीय है । 

बात यह हूँ कि संतमत का प्रादुर्भाव उस समय हुआा था 
जब सगुणवादियों को साकारोपासना प्रचलित थी और उसे नि:सार 
बा कम से कम निम्न कोटि की पद्धति सिद्ध करके के लिए कबीर 
जैसे सतों को भीभ्रपनी विशेषताएँ स्व॑ साधारण के सामने 


१ आह.) 


प्रदर्शित करनीं पड़ी थीं। इस कारण यद्यपि उनके भक्तिभाव कं 
लक्ष्य निर्गगा एवं सगण दोनों से परे का परमतत्त्व था फिर भी, रागूरा« 
वादी पक्ष के विरोध में वे 'निर्मणा' शब्द का प्रयेग. करना बददाचित्‌, 
भ्रधिक उपयुक्त समझते रहूं भौर इस बात से उनका भ्रनुकरण बहुल 
पीछे तक होता चला प्राया । परंतु जब संत-रांप्रदाय का एक विशेष वर्ग 
क्रमश: प्रतिष्ठित हो गया तब उक्त विरोधसूचक शब्द की बैसी उपयो- 
गिता नही रह गयी और हम देखते हे कि विक्रम की भ्रठारहवी शताब्दी 
के ग्रततर और विशेषकर संत तुलसी साहब के समय से, उसके स्थान 
पर 'संत” शब्द का ही प्रयोग श्रधिकाधिक होने लगा । तब से कबीर 
प्रादि को भी साधारण प्रकार के भत्रतों वा महात्माओ्रों से भिन्न एक संत 
संप्रदाय के प्रंतर्गत माना जाने लगा। उनके इस नामकरण व! कारण 
एक यह भी हो सकता है कि उनकी विवारबारा एजंे दक्षिण के संत 
जानेश्वर, संत नामदेव प्रभति मराठी कवियों की विधारधारा में बहुत 
साम्य था और संभवतः, इस प्रकार की सूक ने भी उक्त शब्द के प्रयोग 
में श्रधिक सहायता पहुँचाई । जो हो, 'संत' 'संतमत' 'संतपरंपरा' 'संत« 
साहित्य' जैसे शब्दों ने प्रव क्रमशः 'निर्गुनिया' 'निर्ुणमत' “निर्णणपंथ' 
वा 'निर्गुण संप्रदाय एवं “निर्गणधारा का साहित्य के स्थान के लिये 
हैं, इस कारण इसके प्रयोगों की सार्थकता भ्रव ऑरभिक दतल की भांति 
नही समझी जा सकती । ह 
डा० बड़थ्वाल ने निर्गुण संप्रदाय अ्रथवा संतों के उपर्युवत वर्ग के 
प्रंतर्गत उन लोगों की ही गणना की है जिनके सिद्धात व साधना-पद्ध तियाँ 
एक विशेष अकार की रहीं और जिन्होंने हिंदी भाषा को भ्रपना माध्यम 
बनाते हुए, उसकी कविता में एक विशेष शैली का श्रयोग भी किया 
तदनूसार,, उन्होंने कबीर से लेकर शिवदयाल तक के समय भ्र्थात्‌ लगभग 
पाँच सौ वर्षो के भीतर उत्पन्न हुए प्रमुख संतों श्रौर उनके पंथों के विषय 
में विचार किया है। भिन्न-भिन्न समय तथा परिस्थितियों में रहते हुए 


( २२ ) 


भी इन सतों ने आत्मा, परमात्मा एवं जगत्‌-संबंधी गृढ प्रश्नों को एक 
विशेष प्रकार के दृष्टिकोण से सुलभाने की चेष्टा की, परमात्मतत्व के 
स्वरूप के विषय में प्रपती विशिष्ट धारणाएँ निश्चित की श्र उसकी 
उपलब्धि के निमित्त विशेष साधनाएँ भी स्थिर कीं । डा० बच्थ्वाल ने 
उक्त सभी बातों की दृष्टि से इनमें कुछ न कुछ साम्य आधार पाकर 
इनको निर्गुण संप्रदाय के वर्ग में सम्मिलित कर लिया है और अपने 
निबंध के अतगंत उन्होंने अधिकतर उन्ही बातों का विवेचन किया है जो 
प्रायः सभी में पायी जातो हें तथा जिनके विषय में इनमें कम से कम 
मतभेद प्रतीत होता है । इन सत कबियों की अ्रटपटी बानियों में उन्होंने 
एक दाशंनिक व नेतिक प्रणाली का क्रम भी ढूँढ निकाल है और इन्हें 
एक पृथक समुदाय के रूप में मानते हुए, इसके मत विशेष की एक रूप- 
रेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है उन्होंने इसी प्रकार संतों की 
प्राध्यात्मिक साधना का परंपरागत सम्बन्ध नाथपंथ' की योगसाधना के 
साथ स्थापित किया है और इन दोनों के बीच की लडो निरंजनी 


संप्रदाय को भाना है । 


संतों के प्रात्मा, परमात्मा एवं जड़ पदार्थ-सग्बन्धी मत का विवेचन 
करते प्मय डा० वड़थ्वाल ते उनमें कम से कम तीन प्रकार की दाशंनिक 
विचारघधाराग्रों के उदाहरण पाये हैं श्ौर उन्हें परंपरागत वेदांतीय 
नामानुसार भ्रद्वेत, भदाभेद व विशिष्टाइत कहा है। इस वर्गीकरण के 
झाधार पर उन्होंने कबीर, दादू, सुन्दरदास, जगजीवनदास, भीखा व 
मलूक के नाम प्रथम वर्ग में, नानक व उनके श्रनुयाथियों के नाम दूमरे 
वर्ग में प्रौर शिवदयाल तथा उनके भ्रनुथ्रायियों के नाम तीसरे वर्ग के 
भीतर गिताये हैं शौर प्राएनाथ, दरियाद्वय, दीनदरवेश, बल्लेशाहु 
इत्यादि को भी इस तीसरी कोटि में ही रखा है। परन्तु भागे चलकर 
उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि इन प्रद्वेतवादियों में सर्वप्रथम 
होते हुए भी कम से कम कबीर ने हन सभी दृष्टियों से विचार किया 


( २३ ) 


है। इसके सिवाय उनका यह भी कहना है कि जीवात्मा एवं परमात्मा, 
के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में नानक का भी मत बहुत स्पष्ट नहीं 
है। हाँ, बाबालाल, प्राशनाथ, धरणीदास एवं शिवदग्राल के मतों में 
उन्होंने विशिष्टाद्रेतमत का प्रभाव ग्रवश्य निर्दिष्ट किया है जो इनकी 
भ्रनेक पंक्तियों-द्वारा भी सिद्ध किया जा सकता है श्रौर जिस पर शआ्आापत्ति 
करने की श्रावश्यक्रता प्रतीत नहीं होती । फिर भी इतना स्पष्ट है कि 
ये संत तकंपदटु दाशेनिक होने के पहले स्वतंत्र साधक थे और इन्हें किसी 
भी वाद से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध भी नथा। सुन्दरदास जैसे कुछ संतों 
न प्रचलित दाशंनिक ग्रंथों का अध्ययन प्रवश्य किया था, बाबालाल, 
प्राणनाथ, यारी, दीनदरवेश व ब॒ललेशाहु पर सूफ़ी विचारधारा का 
प्रभाव था श्रौर धरणीदास व चरणदास जैसे कुछ संत विशिष्टाईत ब' 
शुद्धादत को परंपराओं से प्रभावित थे। परन्तु जहाँ तक इनका सम्बन्ध 
संतमत की मौलिक बातों के साथ था, ये पूर्णा स्वतंत्र थे श्लौर उस दृष्टि 
से ये किसी वाद के प्रतर्गत नहीं लाये जा सकते | इन रातों के विषय 
में इस प्रकार का अभ्नूमान करने का कारण केवल यही जान पहता है 
कि इन्होंने भ्रपने मत का प्रतिपादत करते समय, विल्हीं झपने पारिभाषिक 
शब्दों की रचना बहुत कम की है श्रौर इस कारण इनके वार प्रयुगत 
किये गये म्पनिषदिक शाब्दसमूह भ्रथवा नाथों, सूफियों, भागवतों श्रादि 
के साप्रदायिक शब्द इस विषय में बहुधा भ्रम उत्पन्न कर देते है। गद्यपि 
सभी ने प्रपनें समय के प्रचलित दाब्दों का प्रयोग करते समय बिसी 
प्रकार की सावधानी से काम नहीं लिया है फिर भी उनकी विचारधारा 
पूर्ववर्ती दाशेंनिक सिद्धान्तों एवं भक्ति-पद्धतियों में, जिसके साथ प्रधिक 
मेल खाती है उस सिद्धान्त भौर पद्धति का निदेश कर देता प्रावश्यक 
ही था। और इस दृष्टि से डॉ० बड़थ्वाल के ये निर्देश श्रागे प्रानेवा ने 
विदिष्ट भ्रध्ययनों के लिए बड़ ही महत्वपूर्ण हे । 

प्रमूख संतों तथा उनके नाम पर प्रचलित होनेवाल पंथों की 


कह, 


विचारधाराओं में, डा० बडथ्वाल, कोई विशेष अन्तर मानते हुए नहीं 
दीख पडते और कभी-क्रमी तो इसके विपरीत एक ही सम्प्रदाय के 
अनुयायी «विभिन्न संतो को उसके प्रवत्तंक की मौलिक विचारधारा से 
नितांत भिन्न सिद्धातों का समर्थक समभते हुए भी जान पढ़ते है । 
उदाहरण के लिए निबन्ध के एकाथ स्थलों पर एंसा प्रतीत होता है कि 
कबीर के म्‌+ सिद्धान्तो और कबीरपथ की साम्प्रदायिक बातो 

उन्‍्हीने किसी प्रकार की असमानता का अवभव नही किया है कौर इसी 
प्रकार दूसरी ओर भीखा, पलट तथा यारी साहब को उन्होने एक 
दूसरे से कुछ न कुछ भिंन्न मार्ग भ्रहणां करनेवाला मान लिया ६ । 
वास्तव में यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो इस प्रकार का अन्तर नितात 
स्वाभाविक्कु है व्योंकि सतमत के व्यापक सिद्धान्तों में जहाँ एक प्रमुख 
संत को दूसरे के साथ समानता हूँ, वहाँ साधना के सम्बन्ध में एक 
दूसरे से सूक्ष मतभेद भी लक्षित होता है श्रौर उनके नामों पर 
प्रचलित किये गये प्राय: सभी पथो में श्रपने प्रवत्तंकों द्वारा निर्दिष्ट 
मत का न्यून।थिक्र विकसित और कही-कही बहुत कुछ भिन्न रूप भो 
दिखलायी पडता है किन्तु समरत सम्प्रदाय की विशेषताओं के निर्देशन 
में हम पंथ के प्रवत्तक की बातें ही अ्रधिक रूप से ग्रहण करते हे, 
यद्यपि किसी भी सम्प्रदाय के स्वरूप को पूछो स्पष्ट करने के लिए इस 
प्रकार के ,प्रन्तर और सूक्ष्म भेदों की शोर भी संकेत कर देना श्रावश्यक 
होता है। कबीर के मूलमत एवं कबीरपंथ के जाम्प्रदायिक सिद्धान्तों 
में जहाँ कुछ अन्तर है, वहाँ बावरीपन्थ के सतो में ऊपर से लेकर 
पलदू साहब तक एक प्रकार के क्रप्रिक विकास क्री धारा अबाघग्ति 
से प्रवाहित होती हुई चली श्राई हे और उसके भ्रतयायियों को 
किसी प्रकार पृथक कर लने का कोई बेसा कारण नही दीख पढ़ता | 


श्् 
“निर्भुगा सम्प्रदाय” के संतों की जितनी विशेषताएँ उनकी उपलब्ध 
रचनाग्रों में क्षक्षित होती हैं उनसे कहीं श्रधिक, उनके वास्तबिक जीवन 


( र४५ ) 


की प्रवधि के भीतर उनकी प्रत्यक्ष रहेनी में पायी गई होंगी"। परन्तु 
उनके विवरण प्रलभ्य हैं । ये संत भ्रधिकतर सर्वशाधारगा के समाजों 
में ही रहा करते थे प्रौर सदा गाहस्थ्य जीवन व्यतीत करते थे । 
इनके निकट ऐसे लोगों की उतनी पहुँच नहीं थी जो श्राथिक, राजनी* 
तिक वा छेठ सामाजिक दृष्टियों से उच्चश्रेणी के समभे जोतें थे भौर 
जिनके “पतर्क में भ्राने पर ही, इनके व्यक्तित्व की विशेषताग्रों का 
प्रचार /#4क संभव हो सकता था। इनके व्यक्तिगत प्रभाव का क्षेत्र 
बहुधा शैवके शिष्यसमुदाय तक ही सीमित रहा करता था जो इनके 
महत्व का मूल्यांकन, अंधपक्ति के झावेश में भी कर सकते थे । इन 
संतों के जीवनवत्तों का ऐतिहासिक रूप हमें इन्हीं कारणों से बहुत 
कम उपलब्ध होता है। जो कुछ विवरण हमें श्राज तक मिले «ह उनका 
ग्रधिकांश या तो चमत्कारों से भरा है भ्रथवा पौराणिक गाथाग्रों का 
संग्रहमात्र बन गया है। ऐसे प्रभंगों वा जीवनियों में प्रतिकतर 
उन्ही बातों की चर्चा की गई मिलती है जो इन संतों को एक भ्रलौकिक' 
व्यक्तित्व प्रदान करती हें । उनमें बेसी बातों का प्राय: प्रभाव सा' 
ही दीख पड़ता है जो कथनी एवं करनी में पूर्णा सामंजस्य प्रंतिष्यित' 
करनवाले सस्यनिष्ठ महापुरुषों के दैनिक जीवन की 'अध्येफ साधारण 
सी चेष्टा में भी लक्षित हो सकती है श्रोर जो बारतत में इसे संतों की 
विशेषताएँ कही जा सकती हैं । है प 
डॉ० बड़ध्वाल नइन संतों का जीवस-परिचय शुद्ध ऐलिहासिक 
दृष्टि से देने की चेष्टा की है श्रोर वहू इसी कारण स्वभावत: संक्षिप्त 
एवं प्रपूर्णा है जिससे इनके व्यक्तित्व पर कोई महत्वपूर्ण प्रकाद् नहीं 
पड़ता । बहुत से संतों के सम्बन्ध में तो उन्होंने श्रपढ़े प्रनुभान से हो 
प्रधिक सहायता ली है और कहीं-कह्ीं उपलब्ध सामपक्‍्रियों का उल्लेख 
मात्र कर दिया है। काशी की 'सागरी प्रचारिणी पत्रिका' के पंदरहवें 
भाग में भ्रपने इस प्रंग्रेजी निबन्ध के कुछ अभ्रंशों का हिन्दी अनुवाद 






( २६ ) 


करते "समय उन्होंने इस परिचय-सम्बन्धी अंश को*कुछ अधिक विस्तृत 
व व्यवस्थित रूप देने का प्रयत्न किया है और वही विस्तृत रूप ही 
प्रस्तुत क्रंथ में सम्मिलित है, कितु वह भी यथेष्ट नहीं कहा जा सकता । 
इस निबन्ध में उनके प्रमुख वर्ण्ये विषय “निर्गुण सम्प्रदाय” के क्रमवद्ध 
परिचय की भी कमी खटकती है और जान पड़ता है कि लेखक का 
ध्यून जितना इन सतों की विचारधारा और इनकी साम्प्रदायिक 
मान्यताश्रों की ओर था, उतना इनके उक्त समुदाय के स्वरूप वा 
उसके विकास की ओर नही था । सतो के व्यक्तिगत जीवन तथा उनके 
उक्त सम्प्रदाय के संघटन व ऋमिक-विकास की पूर्व-पीठिका उनकी 
विचारधाराञो के स्पष्टीकरण में भी बहुत कुछ सहायता प्रदान 
करती शभ्लोर उसके द्वारा हमें उनकी वास्तविक देन का भी एक सुव्यव- 
स्थित रूप दीख पड़ता । अस्तु । 


कबीर के सम्बन्ध में अ्रनेंक लखकों ने बहुत कुछ लिखा है और 
डा० बड़थ्वाल ने भी उत पर विशेष ध्यान दिया है। उनके कुल को 
उन्होंने मुप़लमोन माना है परन्तु इतना और भी जोड़ दिया हैँ कि वह 
कुछ ही दिनो पहले से धर्मातरित होकर आया था| आालोच्य निबंध 
में तो उन्‍्होन इसके क/रणों का कोई स्पष्ट उल्लेख नद्टी किया है, कितु 
अग्यत्र कहा है कि कबी र-द्वारा अपने को 'कोरी' भी कहने से हमें इसकी 
प्रोर संकेत मिलता है | इसी बात के भावार पर उन्होंने बगाल की आर 
पाये जानेवाले कतिपय वयन-जीवी जुगियों था जोगियों के साथ भी 
उसका पूर्व सम्बन्ध जोड़ा है भ्रौर कबोर की रचनाओ्रो में गुरु गोरखनाथ' 
के प्रति प्रदशित की गई श्रद्धा से भी कुछ समर्थन पाकर उन्होंने यह 
परिणाम निकाला है कि “ मेरी समझ में कबीर भी किसी प्राचीनतया 
कोरी किन्तु तत्कालीन जूलाहा कुल के थे जो मुसलमान होने के पहले' 
जोगियों का भ्रनयायी था ।” इसी प्रकार उन्होंने कबीर के जन्मस्थानः 
को भी काशी न माच कर उसे प्रचलित मत के विरुद्ध मगहर बतलाया' 


( २७ ) 


है भौर कहा है कि डूस बात की पुष्टि कबीर की पंक्ति “पहले-दरसन 
मगहूर पायो फुनि कासी बसे भ्राई' से होती है। कबीर को स्वाऋ 
रामानंद का शिष्य मानने के प्रति दृढ़ आस्था भी डा० बड्थ्वाल 

के निबंध की एक विशेषता है क्योंकि इसका समर्थत भी उन्होंने व्यास 

जी के एक पद एवं “बीजक' की कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर उनकी 

व्याख्या-द्वारा किया है । 


कहना न होगा कि डा० बड़थ्वाल ने उपर्युक्त तीनों ही बातों के 
लिए अपने परिणामो को निश्चित रूप देते समय किन्‍्हीं पुष्ट प्रमाग्यों से 
सहायता नहीं ली है। प्रत्यत, श्रपनी कल्पना से ही अधिक काम लिया 
हैं । काशी से गोरखपुर के आस पास तक के प्रदेश में कहीं का भी रहने- 
वाला कबीर का जलाहा कुल हिंदुश्रों, बौद्धों भ्रथवा नाथपंथियों के 
प्रभाव में यों भी भ्रा सकता था | काशी, हिंदू संरक्ृति का एक प्रधान केंद्र 
है भ्रौर उससे लगे हुए सारनाथ से लेकर गोरखपुर के निकटवर्ती 
कई स्थलों तक का प्रदेश बौद्धधर्म एवं ताथपंथ का एक महत्वपू्ों क्षेत्र 
बहुत पहले से ही माना जाता प्राया है और ऐसी दशा में उपर्युषत बातों 
को कहीं प्रन्यत्र दढ़ने की वैसी झावश्यकता नहीं जान पड़ती । इसी 
प्रकार “पहल दरसनत मगहर पायो फूरति कासी बसे भ्राई” में भी 'दरसन 
पायो' का प्र्थ 'जन्म लेना' खग ने के स्थान पर किसी महापुरुष वा 
परमात्मा का 'साक्षात्कार' करता ही भ्रश्निक समीचीन होगा । केवल इसी' 
के बल पर वा कतिपय प्रन्य ऐसे ही संदिग्ध प्रंक्तियों के भी सहारे 
मगहर को कबीर का जन्मस्थान मान लेना उचित नहीं जान पड़ता । 
डा० बड़थ्वाल ने 'बीजक' के एक पंद की “ग्रापन भ्रास किया बहुतेरा” 
पंक्ति के 'प्रास' को इसी प्रकार 'प्रस' मानकर उसमें वोगे प्रानेवाली 
“रामानंद रामरस माते” पंक्ति के 'रामानंद' को स्वा० रामानंद का नाम 
मान लिया है श्रौर इसके द्वारा उन्होंने कबीर व रामानंद के शिष्य-गुरु 
सम्बन्ध की पुष्टि की है। परन्तु इन दोनों पंकितयों के प्रतंतर प्रानेबाली' 


हक 


क्रमश: *काहु न मरम प।व हरि केरा तथा “कह॒हि कबीर हम कहि- 
कहि थाके” पंक्तियाँ ऐसा करने में स्पष्ट बाधा डालती हे और पूरे पद 
का श्र, * व्यक्तिपरक त रहकर सर्वे साधारण के प्रति किये गये उपदेश 
का रूप ग्रहण कर लेता है। ्््ि 


डॉ० बड़थ्वाल ने संत दादृदयाल के शिष्य जगजीवनदास को 
भी सत्तनामी संप्रदाय की नारनौल शाखा का प्रवर्तक मान लिया है 
कितु इसके लिए कोई प्रमाण नही दिया है और न उस जगजीवनदास 
के जीवनवत्त पर कोई प्रकाश ही डाला है। दादू-शिष्य जगजीवनदास 
के विषय में ग्रभो तक केवल इतनाही पता चलता है कि वे काशी में. 
विद्योपार्शन कर चुकनेवाले एक धूरधर विद्वान्‌ थे जो देशाटन करते- 
करत बैलों पर लदी हुई श्रपनी पुस्तको के साथ राजस्थान प्रदेश के 
दृढाहणा की शोर जा निकले थे । वे कट्टर वेष्णव थे; इस कारण श्रामेर 
में संत दादूदयाल की प्रसिद्धि का पता पाकर उनसे शास्त्रार्थ करने 
चले भ्राये । शास्त्रार्थ करते समय सत दादूदयाल की मधुर वाणी एवं 
सुन्दर स्वभाव का उनके ऊपर इतना प्रभाव पडा कि उनके विचारों 
में घोर परिवर्तन भ्रा गया और वे उनके शिष्य तक बन गये। कहा 
जाता है कि, अपना गये दूर होते ही उन्होंने अपने सारे ग्रंथ वहाँ 
के महाबदे, तालाब में डबो दिये शौर गुरुसेवा में लग गये। उन्होने 
अपने गुरुभाई छोटे सुन्दरदास को बहुत प्रोत्साहित किया था झौर उन्हें 
भी काशी में रहकर विद्याध्यम करने की प्रेरणा दी थी। वे टहलड़ी' 
ड्गरी में तिवास करते हुए कुछ दिनों तक भजन करते रहे थे और 
महाराजा मानसिहु ने तथा उदयपूर के महाराणा ने भी उनका बड़ा 
सम्मान किया था | टहलड़ी में उनकी' परंपरा का केन्द्र श्राज भी 
वर्तमान है भौर उनके शिष्यों में कई अ्रच्छे-प्रच्छे ग्रंथवार भी हो चके 
हैं। उनकी वाशियों का भी एक संग्रह ग्रंथ 'बहुत बड़ा ग्रंथ” बतलाया, 


( २६ ) 


जाता है, किन्तु उरूमें ग्रथवा उनके शिष्यों की भी किसी रचना में सत्त- 
नामी संप्रदाय का कोई प्रभाव भ्रभी तक सिद्ध नहीं हुआ है । 


'त्तनामी संप्रदाय” की नारनौल शाखा के मूल प्रवत्तेक के सम्बन्ध 
में ग्रभी तक कोई भ्रन्तिम निर्णय नहीं किया जा सका हूँ । उस शाखा 
के अ्रनुयायियों की चर्चा औरंगजेब बादशाह के शारान-काल का इतिहास 
लिखते समय, की जाती है | कहा ०.ता है कि इन सत्तनामियों ने उक्त 
बादशाह के विरुद्ध सं० १७२९ में विद्रोह खड़ा किया था जो बलपूर्वक 
दबाया गया था। ये सत्ततामी उस समय में भी अच्छी संख्या में 
बतलाये जाते हें, कितु न तो इनके किसी प्रमूख नेता का परिचय मिलता 
है भौर न इनके संघटन का ही पता चलता है। विद्रोह के विवरणों- 
हारा केवल यही विदित होता है कि ये लोग, संभवतः, किसामस॑ थे भ्रौर 
प्रपना विद्रोह इन्होंने बादशाह के स्थानीय कर्मचारियों के किसी विधेष 
हुव्यंवहार वा अत्याचार के कारण किया था। इतके मत वा किसी 
धार्मिक संस्था का परिचय? विद्रोह क॑े उक्त विवरणों में, नहीं पाता 
जाता। विद्रोह-सम्बन्धी यूद्धों में इनका केवल 'सत्तनाम' का उच्चारगा- 
मात्र करना कहा जाता है । कुछ विद्वान इन सत्तवामियों तथा संत-परं- 
परा के एक भ्रन्‍्य पंथ, साथ संप्रदाय में कोई मेद मानते हुए नहीं जान 
पड़ते भौर दोनों का मल प्रवरंक बीरभान को समभते हुए दीख पड़ते हैं । 
परन्तु इस वीरभान का भी कोई प्रामाणिक जीवन-वत्त नहीं प्राया जाता 
क्रौर उनका सम्बन्ध कभी-क्रमी ऊदादास झौर कभीषकभी जोगीदास 
के साथ जोड़ा जाता है जो क्रमदा,, लगभग सैं० १६०० श्रौर लगभग 
सं० १७१६ में वर्तमान थे और जिनमें से वे प्रथम के दिष्य शौर द्वितीय 
के भाई म.ने जाते हैं। भ्रब॒ तक की उपलब्ध सामग्रियों के श्राधार पर 
यह भी ग्रनुमान किया'जा सकता है कि सत्तनामिप्नों की इस नारनौल- 
वाली शाखा के एक प्रमुख प्रवत्तंक जोगीदास भी थे जिन्होंने दाराशिकोह 
के साथ होनेवाले श्रौरंगजेब के एक युद्ध में, संभवतः उसके विरुद्ध सं० 


( ४३० ) 


७१५ में भाग लिया था। जिन्होंने सं० १७२६ में इस पंथ का प्रचार 
बड़ी लगन के साथ करना आरभ किया था और जिसके द्वारा प्रभावित 
व्यक्तियों ने ही कदाचित उक्त विद्रोह का कडा भी उठाया था। फिर भी 
उक्त धिद्रोह की चर्चा करते समय उनका नाम नहीं लिया जाता। 
सभव है वे पहले वीरभान के 'साध संप्रदाय” के श्रन्यायी रहे हो और 
भ्राग चल कर सत्तनामी मत का प्रचार करने लग हो । जो हो, जान 
पडता हैँ कि डा० बड़थ्वाल ने सत्तनामियों की कोटवा-शाखा के प्रवर्त्तक 
जगजीवनदास के साथ केवल नाम-साम्य पर ही दादृशिष्य जगजी- 
बनदास को भी उनकी नारनोल शाखा का प्रवत्तेक अनुमान कर लिया 
हैँ। दादृशिष्प जगजोवनदास का अ्रभी तक कोई भी प्रत्यक्ष सबध सत्त- 
नामी सक्रदाय के साथ पिद्ध नहीं किया जा सका है, इस कारण प्रमाणों 
के प्रभाव में, उक्त प्रक/र का निश्चय कर लेता अ्रमात्मक ही कहा जा 
सकता हैं । 

डा० बड़थ्वाल नें, इसी प्रकार, कुछ श्रन्य सतो व सत संप्रदायों के 
विषय में लिखते समय भी श्रधिकतर अनुमान से ही काम लिया हे 
उदाहरण के लिए, बावरी साहिबा की परपरा १.. ( “जैसे उन्होने यारी 
साहब का पथ कहा हूँ ) चर्चा करते समय, उन्होंने उसके संतो में एक नाम 
ललना। का भी गिना दिया है और बतलाया है कि इस संप्रदाय के भ्रव 
तक प्रज्ञात धंत ( बीह, शाह फशीर आदि ) को बालियों के साथ-साथ 
ललना की भी रचनाएँ मिलती है । परन्तु जिस ग्रंथ (महात्माश्रों की 
वाणी ) में 'ललना' की बानियो का होना उन्होंने सिद्ध किया है उसमें 
बैसी कोई भी रचनाएँ प्राती नहीं जान पड़ती । वास्तव में 'ललना' शब्द 
किसी व्यक्ति विशेष का नाम न होकर, सोहर' जैसे गीतो में प्रयुक्त होते- 
वाली एक टेक व विरामसूचक दाब्द मात्र है श्रौर उक्त 'महात्माश्रो की 
वाणी में प्रकाशित कतिपय बानियों में भी उसका वंसा ही प्रयोग पाया 
जाता है| डा० बड़थ्वाल ने, इसी प्रकार, सत बलल्‍लेशाह को परंपरागत 


( ४१ ) 


धारणाज्रों के प्राधार पर ही, बाहुर से प्राकर पंजाब में रहनेवाला माना. 
हैं जहाँ यहू प्रकाशित हो चुका है कि वे वस्तुत: लाहौर जिले के पंडोल 
गाँव में सं० १७३७ में उत्पन्न हुए थे, उतके पिता का नाम मुहरस्भद दरभे शा 
था भीर वे दहोनी नाम साधु के शिष्य भी रहू चूके थे। उनको मृत्यु सं० 
१२१० में हुई थी भौर उनकी रचनाएँ भी प्रत्र कुयूर निवासी प्रेम ने 
प्रका शित कर दी हैं । डा० बड़थ्वाल ने इसी प्रकार बाबा घरनीदास का 
भी उत्पन्न होना स॑ं० १७१३ ( सन्‌ १६५६ ई० ) में बतलाया है जिसके 
लिए कोई झ्राधार नही । इस संत ने अपनी रचना प्रेमप्रमास' के प्ंतर्गत 
स्वयं कहा है कि सं० १७१३ में जब शाहजहाँ का अधिकार छीना गया 
झ्रौर श्रौरंगजेब की 'दुडाई' फिरी उत्त समय मेरे पिता का भी देहात 
हो गया श्रौर इस बात का मेरे ऊपर इतना प्रभाव पड़ा कि मुभमें पूरी 
विरक्ति जाग्रत हो गई भौर मेने वैरागी भेष' धारण कर लिया । अत- 
एवं सं० १७१३, बाबा घरगीदाप, का 'जन्मकाल' तने होकर अ्रधिक से 
प्रधिक उनका (्रबुद्धफाल' कहा जा सकता है। शिवनार/यणो संप्रदाय के 
संबंध में लिखते हुए उन्होंने, इसी प्रकार कहा हूँ कि उसका प्रचार प्रत्र 
नहीं रह गया है भौर वह भ्राज कल प्राय: नष्ट सा हो गया है । किस्तु बल 
ऐसी नहीं है । शिवनारायगी संप्रदाय का प्रचार, इसके प्रवेक के जन्म 
स्थान जिला बलिया के प्रतिरिक्त, गाजीपुर, भ्राजमगढ़, कानपुर, लाहौर 
कलकत्ता, बंबई, प्रादि नगरों में श्र इसके प्रास पास प्रव तक भी पाया 
जाता है झौर इसके पूज्य 'प्रंथ प्रभ्यास' का प्रकाशन कम से कम तीम 
स्परानों से तो हो ही चुका है | 

. डा० बड़थ्वाल ने निरंजनी धारा व निरंजनी संप्रदाय को बहुत बड़ा 
महत्व दिया है । वास्तव नें निर्गग संप्रदाय के प्रंतर्गंत इसकी चर्चा सबं- 
प्रथम करनेवाले भी डा० बड़थ्वाल ही कहे जा सकते हैं। सं० १६६७ 
में तिपंति (मद्रास) में होनेवाले “प्राज्यविद्या सम्मेलन” के हिंदी विभाग 
के प्रध्यक्ष के पद से भाषण करते समय, उन्होंने श्रंथ का पहले पहल 


( ऐैर ) 


इरगात किया था ।* उन्होंने वहाँ पर बतलाया था कि निरंजनी धारा के 
ग्रनेक संतों में से हरिदास, तुलसीदास झौर सेवादास की बहुत सी 
बानियाँ मेरे पास सुरक्षित हे तथा खेमेजी, कान्हडदास और मोहनदास 
की भी कुछ कविताएँ कई संग्रहों में मिलती है । इप्त सप्रदाय के मनोहर- 
दास, निपठ निरंजन तथा भगवानदास के उल्लेख पहले से भी होते 
भ्रा रहे थे और उनकी कुछ रचनाएँ भी उयलब्ब थी। परतु उपर्युक्त संतो 
की चर्चा कुछ भमकक्‍तमालों के अतिरिक्त अ्न्यत्र, बहुत कम सुनी गई थी 
झर ऐसे सभी संतों को एक पथ में लाकर उनका परिचय देने का प्रयत्न 
उसके पहले किसी ने भी नहीं किया था। इन संतों की विशेषता इनके 
नाथपथ-द्वारा भ्धिक प्रभावित होने तथा इनकी सगुणोपासना के प्रति 
सहिष्णाती में दीख पडती है श्रौर डा० बड़थ्वाल ने इन्हे इसी कारण 
नामदेव जैसे पूर्वकालीन सत्तों का समकक्ष माना हैँ। परंतु, इस विचार 
से देखा जाय तो योगसाधना एवं कृष्णा भक्ति की ओर बहुत कुछ 
उन्मुख रहनेवाले चरएादाम तथा उनके सप्रदाय के सम्बन्ध में भी हमें 
'यही स्वीकार करना पठेंगा। निरजनी सप्रदाय को अब तक उपलब्ध 
रखनाओं के प्रध्यपन से ऐसी कोई भी विशेष बात लक्षित नहीं होती 
जिसके अ्राधार पर हम इमे, डा० बडथ्वाल के शब्दों में नाथपथ एवं सत 
स्दाय के बीच को एक “महत्वपूर्ण लड़ी' मान लें। इस संप्रदाय के 
प्रमख प्रवत्तंक हरिदास प्रपनी रचनाओं में कबीर को कह्दी-कही श्रपना 
ग्रादर्श मानते हुए भी दीख पडते हैं और इन दोनो संतो के सिद्धान्तो, 
बहुत कुछ साधनाग्रों, में वैसी भिन्नता न होने के कारण भी उक्त कथन 
को प्रधिक महत्व देना उचित नहीं जान पड़ता । 


डॉ० बड़थ्वाल ने जिप सबसे गम्भीर विषय की चर्चा प्रपने निबन्ध 


*.....कखिये 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका), सं० १६६७, पू० ७१-८८ | 
-- सम्पादक 


हैंड ) 


में की हे वह संतों की साम्प्रदाधिक साधना है । इसे सदा प्रत्यन्त गढ़ रखा 
जाता रहा हूँ श्नौर सम्प्रदाय के सच्चे श्रनुयायियों के श्रतिरिषत, इसका 
भेद भ्रन्य किसी पर भी कभी प्रकट नहीं किया जाता था। संतों की 
यहु साथना योगाभ्यास की साधारण प्रणाली से कई बातों भ मिलती 
हुई भी, उत्तसे बहुत कुछ भिन्न है। पंतों की साधना में शारीरिक साध- 

श्र को बसी प्रधानता नही जो हृठग्रोगियों में दीख पड़तो है। यद्द उनकी 
ग्नेक बातों को ग्रहण करती हुई भी उप्तके श्रासन एव मुद्रा श्रादि का 
वैसा उपभोग नहीं करती। इसमें वेसी प्रक्रियाएँ गौणा मानी जाती 
है। सतो ने पिंड के भीतर विद्यमान समझे जानेवाले पट्चक्र, त्रिकुटी 
ब्रह्म॒सरंधर भ्रादि को प्राय: योगियों की ही भाँति स्वीकार किया है भ्रौर 
'कुडलिती-यांग' का भी वर्शान लगभग उन्हीं की शब्दावली में*फरिया है । 
परन्तु जिस प्रक्रिया की शोर उन्होंने सबसे अ्रधिक ध्यान दिया है वह 
सुरति-शब्द-योग' है जिसके श्रभ्यासः का श्रारम्भ उक्त साधना की 
प्रन्तिम स्थिति में ही सुलभ कहा जा सकता हूँ ।डॉ० अड़ध्याल ने 

पने 'सुरति-निरति' वाले लेख में प्रन्यत्र] बतलाया है कि किस प्रकार 
ब्रह्म के विवर्तन-द्वारा “ब्रह्म से शब्द अह्य, ब्रेगुण्य पञ्चभूत, भप्रन्त:करणा 
झ्रहुंकार और स्थल माया के सहारे “चराचर सृष्टि का बन्धान खड़ा 
हुआ है श्रौर जीव उसके बन्धन में पड़ा हुझा है। ब्रह्मा के अपर इस 
प्रकार पड़ी हुई परतों पझ्रथवा प्रसिद्ध पंचकोशों की खोल के रहुते हुए 
भी, उतका साज्ञात्‌ कर लेता सरन कार्य नहीं हु । संत लोग इस उद्दृष्म 
की सिद्धि, सुरति के द्वारा प्राप्ण करते हैं जो हमारे भीतर” बहाँ की 
स्मते के रूप में विद्यमान हें और जो बस्तुत' जीव का प्रन्यतम स्वरूप 
ही कह्ठी जा सकती हैं। यद्दी सरति शअ्रनाहुतनाद को' अपना लक्ष्य बसा 
कर उसकी श्रोर क्रमश. अ्रगसर होती है भौर भ्रन्त में उस ब्रह्म व परम. 


्‌ल्कजलीश्केशशातर०३०ककवय 'मावन्‍्याम्मद्रम पाप माकाशथकाछ. जुक. किए. वमइंपआकाा।. क्‍माउपपफ केक उकका/.. सकाटवेटफिपसा- कक. सूख... भाउकान्कज्ा, पोपुनानलाभः.. आ]ाएमपकेपर र्कतपशाफाशन,.. दरकापाए. लव. पजड च तभी: डक आयाजफ्ाकधयच्र. आए... अगर हपफाम... का कह, बत्त दद0 37 टन शतक" एमना़ 


पे -देखिये थोगप्रवाह, पृ० ५३ | “-सम्पादक 


( हैंड ) 


तत्व को प्रत्यक्ष वा आत्मसात्‌ कर लेती हैं। सहज समाधि की दशा 
शब्द व सुरति के संयोग का ही परिणाम है। 
संतो ने पिंड के भीतर की विभिन्न स्थितियों का वर्रान भी श्रपने 
ही ढंग से किया है | पूर्वकालीन सतो ने अधिकतर योगियों में प्रचलित 
विवरणों को स्वीकार किया था और वे उन्ही के बतलायें हुए विविध 
खंडों वा पदों का उल्लेख कर भ्रन्त में परमपद की शोर सकेत करते 
थे। परन्तु तुलसी साहब तथा विशेषकर शिवदयाल साहब और उनके 
अनुयायियो ने उक्त स्थितियों के वर्णुत बड़े विस्तार के साथ किये 
४ है और षटचक्र को एक प्रकार से केवल ठेठ पिंड का अंग मानकर 
उसके भी श्रागे के प्रदेश के पदो की, ब्रह्माड के परे के देश और उसके 
भी श्रागे के प्रदेश के पदों की चर्चा की है। इन अंतिम पदो का परिचय 
पाना उनके अ्रनुसार सबके लिए सुलभ नही है, इस कारण इनका अनु- 
भव केवल उन्हीं को हो पाता है जिन्हें सतगर सुभा देने की दया 
दिखलाते हैं । संत शिवदयाल ने इन पदों का वर्शांन पूरे विवरणा के 
साथ किया है श्रौर इन्हे पृ्वंकालीन संतों की भाँति भिन्न-भिन्न लोको 
की सज्ञा दी है | परन्तु जैसा कि कबीर आदि कुछ सतों की अ्रनेक 
रखेनाम्रों को ध्यानपुर्वंक पढने से विदित होगा, ये 'लोक' वा दिश' 
बस्तुत: साधकों की विविध गआ्राध्यात्मिक दश्ाश्रों के केवल प्रतीक मात्र 
हैं, इनकी कोई साधारण सी भौतिक स्थिति नद्ठीं है । इनके पदों का 
उक्त वन ब्रह्मांड की देशगत स्थितियों के साथ इनका पूर्ण सामंजस्य 
प्रदशित करने की चेष्टा में किया गया प्रतीत होता है। सत्यलोक, 
सत्यखंड, श्रगमपूर, भप्रमरपुर, सतदेश श्रादि नाम उसे अंतिम पद की 
दशा को ही सूचित करते हैं जिसे संतों ने भ्रपने लिए परमलक्ष्य माना 
है । उसे प्राप्त करके "साधक परमतत्त्व का पूर्ण प्रनुभव कर लेता हैं 
भर परचा' वा भ्परोक्षानुभूति के प्रभाव के झा जाने पर उसके भीतर 
कायापलट हो जाता है । ' 


( ६४ ) 


इस कायापलट को संतों ते बहुत बड़ा भह॒त्व दिया हैं भौर यक्ि 
सच पूछा जाय तो इस प्रकार के एक नवीन जीवन का प्राप्त कर लेना 
ही संतों की साधता की सबसे बड़ी विशेषता है । ऐसे जीवन की दशा 
को उपलब्ध कर मनुष्य पूर्णतः भ्रौर का शौर हो जाता है । उसका 
दृष्टिकोश आध्यात्मिक रूप ग्रहण कर लेता है, उसभी सारी मनोव॑त्तियाँ 
संतुलित बन जाती है और उसके जीवन के झंतिम छोर के परमतत्त्व 
के मूल स्रोत के साथ सदा जुड़े रहने के कारण उसकी फ़िसी भी चेष्टा 
में संकीर्णता के भाव लक्षित नहीं होते। उसके सारे कार्य सहज 
भाव के साथ होते रहते है, कितु उनका मूल्याकन नितान्त भिन्न 
प्रकार से होने लगता है। उसके सभी प्रात्मीय बन जाते है कितु 
किसी भी व्यक्ति के साथ उसका विशेष रागात्मक सम्बन्धानही रह 
जाता शभ्रौरन उसी प्रकार किसी श्रन्य के प्रति उसमें विद्वेष का ही 
भाव रहा करता है । वह विश्व के कल्यारा में श्रपना भी कल्याशा 
मानता है, सबके साथ निर्बेर भाव का बर्ताव करता है और प्रवृत्ति 
एवं निवृत्ति दोनों के बीच का मध्यम भार्ग स्वीकार कर लेता है । ऐसा 
संत, वास्तव में परमात्मा स्वरूप ही बन जाता है भ्ौर उसके व्यवहार 
मे कभी विधि-निषेध का भी कोई प्रश्न नहीं उठा करता। कबीर न 
ऐसे संतों की ही परिभाषा बतलाते हुए कहा है कि “ये छोग निर्बरी, 
निष्काम तथा परमात्मा में भ्रनुर॒वित शौर विषयों के प्रति भ्रनासकित 
का भाव रखनेवाले हुप्रा करते हैं ।” इसके भ्रस्तित्व के कारण समाज 
का नेतिक स्तर ऊँचा उठ जाता है झ्ौर इनके विचार-स्वातंत्र्य एवं 
हृदय की सच्चाई के प्रभाव में उसके भीतर प्रात्मिक बल का संचार 
हो भ्रातो है। ऐसे व्यक्तियों के शील व सदाचार की निर्मलता उसके 
सामूहिक जीवन को भी क्रमश. परिष्कृत करने लगती है श्ौर इस 
प्रकार उसके द्वारा भूतल पर स्वर्ग लाने का आ्रादर्श भी कोरा स्वप्न ही 
नहीं रह जाता । 


( ३६ ) 


पूरी संत! का आदशे ही वास्तव में संतों की सबसे बड़ी देन है 
जिसके महत्व को भली भाँति हृदयंगम न कर सकने के कारण हम 
बहुधा उब्बकी उपेक्षा कर बैठते हे । हम इस झादश के रहस्य को कभी 
समभते का भी पूरा प्रयत्न नहीं करते और न उसे कभी अपने लिए 
प्रनुभवगम्य ही मानते है। हमारी मनोवृत्ति का कुकाव किसी आदर्श 
को श्रात्मसात्‌ करने की जगह उसके प्रति अवतारोपासना अ्रथवा वीर- 
पूजा के भाव प्रदर्शित करने की ओर ही भ्रधिक दीख पडता है और हम 
अपने ग्राप को उस तक ऊर उठाने की प्रपेक्षा उसी को अपने स्तर तक 
लाना अ्रधिक पसंद करते हे । हम ऐसे आद्शों को अपनी कल्पना-द्वारा 
सदा सजीव एवं सक्रिय मानते हुए उसकी दयालुतादि गुणों में पूरी 
श्रास्था रुखने लगते हैँ और चाहते हैं कि हमारे सबे प्रकार से अकर्मण्य 
रहते हुए भी, वे हमें श्रपनी भुजाओ्ों-ह्वारा ऊपर उठाकर ग्रपनी स्थिति 
तक पहुँचा देंगे । संतों के भ्रनुसार इस प्रकार की मनोवृत्ति शक्षम्य 
है। उन्हें न तो इस भ्रवतारवाद पर किसी प्रकार का विश्वास है और न 
वें किसी परलोकंवाद में ही आस्था रखते हें, अभ्रपने हाथों भ्रपना उद्धार 
करने के वे प्रबल समर्थक हे और वे किसी काह्ननिक लोक के साथ 
सम्बन्ध स्थापित करने मात्र में ही कोई कल्याण नहीं देखत । डॉ० 
बड़थ्वाल ने संतों की इन विशेषताओं पर यथेष्ट बल देकर नहीं लिखा 
है प्रत्त, उन्हें प्रधिकृतर धार्मिक सुधारकों के रूप में ही स्वीकार कर 
लिया है। संतों की आध्यात्मिक देन चाहे जे कुछ भी कही जा सके 
उनकी सामाजिक देत भी किसी प्रकार कम नहीं हैं श्रोर उनकी 
रचनाओं पर इस धारणा के साथ विचार करने पर ही, हमें जान 
पड़ेगा. कि उनका महत्व विश्वकल्याण की दृष्टि से भी बहुत बड़ा कहा 


जा सकता हैं । 


४. संत साहित्य का अध्ययन ओर डा? बड़थ्वाल 
डा० बड़ध्वाल का कार्य संत-साहित्य के श्रध्ययन की प्रगति भ 


( २७ ) | 


एक प्रधान सीमाचिह्न ( .870 ॥78/7८ ) का महत्व रखता है । 
उन्होंने एक ऐसे विषय को लिया था जो उस समय के लिए, ए+ 
प्रकार से, नितांत नवीन था और जिसके प्रायः किसी भी ,अंग-संबंधी 
स्लोज की भ्रोर विद्वानों का ध्यान तक नहीं जाताथा। वास्तव में इस 
विषय को किसी खोज का उद्देश्य होन की गंभीरता तक भी देना भ्रनेक 
विद्वात्‌ उचित नहीं समझते थे । कबीर व नानक जैसे दो चार संतों को 
छोड़ कर शेष के नामों तक से बहुत से लोग भ्रपरिचित थे और उनकी 
चर्चा उन दिनों केवल धर्म व समाज के साधारण सुधारकों में ही करके 
उन्हें छोड़ दिया जाता था | उनकी उपलब्ध रचनाओं की गएाना या तो 
धार्मिक उपदेशों में की जाती थी श्रथवा उन्हें कतिपय साधुओं की भ्रढ- 
पटी बानियों में गिना जाता था। संतो की अधिकांश रचनाएँ प्नेक 
स्थानों पर हस्तलिखित रूप में ही पड़ी हुई थीं। सांप्रदायिक भावना- 
वाले उन्हें भ्रमूल्य कितु, परम गोप्य व रक्षणीय मान कर उनकी पूजा 
किया करते थे श्र सर्व साधारण उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे । 
सांप्रदायिक दृष्टिवाले व्यक्तितयों के लिए उन्हें प्रकाशित करा कर सबके 
समक्ष लाना जहाँ उनकी प्रतिप्ठा व मर्यादा से नीचे की ओर ले जाना 
था, वहाँ भ्रन्‍्य लोगों के लिए ऐसा करना प्रपने द्रव्य वा दुरुपयोग मात्र 
था। कुछ लोगों का उन्हें भ्रपने पास, जैसे-त॑से हस्तलिखित रूप में 
सुरक्षित रख छोड़ना ही बहुत कुछ था, क्योंकि, यदि इतना भी न हुप्ना 
होता, तो श्राज उनका ,पता लगा सकता भी कठिन हो गया होता । 'काक्षी 
नागरी प्रचारिणी सभा' जैसी एकाध संस्थाश्रों तथा कतिपय राहित्य-प्रगी 
व्यक्तियों ने जब इस प्रकार की पुरतकों की खोज का काम प्रारंभ किया 
तो इसका भी परिचय मिलने लगा भ्रौर इनमें से कई एक प्रयाग के 
वैलवेडियर प्रेस' झादि ते प्रकाशित होकर, क्रमशः सर्व साधारण का 


भी ध्यान श्राकृष्ट करने लगीं । है 
डा० बड़ध्वाल ने जब ऐसे साहित्य का भ्रध्ययन आरंभ किया उस 


'( रे८ ') 


समय तक भी जैसा पहले कहा जा चुका है, ये एुस्तके निरी नीरस 
चानियों का संग्रहमात्र समझी जाती थीं और इनके भीतर किसी सुसंगत 
विचारधएरा के विद्यमान रहने तक की कल्पना करता कठित था | डा० 
बड़थ्वाल ने 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा” की खोज-रिपोर्टों तथा कुछ 
जानकारों के कथन के झ्राधार पर, ऐसे ग्रंथों को एकत्रित कर उन्हें 
आ्राद्योपांत पढ डालने का प्रयत्न किया, प्रत्येक संत की उपलब्ध रच- 
नाओों के अ्रंतर्गंते उसके विचारस्रोतों का पता लगाया और उनकी 
पारस्परिक तुलना के सहारे उन्हे एक वर्ग-विशेष में परिगणित करने की 
चेष्टा की । पूरी संत-परंपरा के अंतर्गत आनेवाले उसके अंग-स्वरूप 
भिन्न-भिन्न पथों व संत्रदायों का भी उन्होंने यथासंभव पता लगाया 
झोर उनक्री विशेषताओं पर विचार किया। फिर भी संतों की बानियों 
का वास्तविक रहस्य समझ लेना कुछ सरल॑ काम न था और इसके 
लिए उन्हें कई विशेषज्ञों से भी सहायता लनी पड़ी । ऐसी गूढ बातों के 
' जानकार सांप्रदायिक व्यक्ति इन्हें परम गुण माना करते है श्रौर इन्हे 
प्रपने भ्रनुयायियों के श्रतिरिक्त किसी श्रन्य पर प्रकट कर देना प्रपने 
कत्तंव्य से च्यूत हो जाना मानते है | अ्रतएवं, डा० बड़थ्वाल को, इन्हे 
समभने के लिए, श्रधिक परिश्रम, उपलब्ध ग्रंथों के श्रध्ययन व श्रनुशी- 
लन में ही करता पड़ा और उनके ज्ञान का एक बहुत बड़ा अंश ऐसे ही 
परिशीलन व मनत का परिणाम कहा जा सकता है। डा० बडथ्वाल ने 
इस प्रकार न केवल एक नवीन व भ्ज्ञात क्षेत्र भें काम किया, अपितु, 
उन्हें प्रपने उद्देश्य की पूति के लिए घोर प्रयास भी करना पड़ा । 
डा० बड़थ्वाल के निबंध के प्रकाश में भ्रा जाने के समय से संत- 
साहित्य की क्ोज तथा उसके प्रकाशन, प्रचार व अ्रध्ययन की प्रगति 
में एक प्रकार की शक्ति सी भरा गई है। खोजी व्यक्तियों व संस्थाओं ने 
इधर ऐसे अ्तेक प्रंथ्रों का पता लगा लिया है जितके केवल नाममात्र 
से ही हूम लोग परिचित थे। हस्तलिखित ग्रंथों को देख लेने पर, प्रत्र 


( रे& ) 


यह भी क्रमशः स्पष्ट होता जा रहा है कि भ्रमुक रचना को सहसा 
प्रमक संत की ही कृति मान लेना ठीक नहीं। पंथ व संप्रदाय के 
पिछले प्रमुयायी, उसके मूल प्रतरतंक के नाग से, बहुत सी पुशतकों बहुधा 
स्वयू ही लिख दिया करते थे श्लौर इस प्रकार किसी प्रमुख संत के 
विचारों के भी संबंध में भ्रम उत्पन्न हो जाता रहा। ऐसी रचनाएँ कभी- 
कभी उन्त गोष्ठियों के रूप में भी पाई जाती हे जिनमें गोरख, दत्त 
गणेश, महादेव आदि तक के साथ बातचीत करायी गई रहती है भऔौर 
जिनके द्वारा भप्रनेक प्रश्नों के विषय में वाद-विवाद करा कर ऐसे संतों 
की जीत एवं पूवेकालींन व्यक्तियों की हार प्रदर्शित की गईं रहती है । 
एसी पुस्तकों के रचयिता भ्रथवा रचनाकाल का तो ठीक पता नहीं हो 
पाता, कितु पंथ के सांप्रदायिक दुष्टिकोश पर इनसे बहुत कूछ प्रकाश 
पड़ जाता है भ्रौर मूल प्रवत्तंक के विचारों के क्रमिक विकास के 
प्रध्ययन में भी कभी-कभी सद्दायता मिल जाती है । कबीर-पंथी साहित्य 
के अंतर्गत इस प्रकार की रचनाएँ बहुत बड़ी संख्या में पायी जाती है 


श्रौर उनमें से कई एक का इधर प्रकाशन भी हो गया है । 


मूल ग्रंथों के प्रकाशन के साथ-साथ भिन्न-भिन्न संतों तथा उनके 
नामों पर प्रचलित सम्प्रदायों के सम्बन्ध में लिखी गई पुस्तकों की. 
संख्या में वृद्धि होती जा रही है। कबीर, नानक एवं दादू के जीवन- 
वृत्त और सिद्धांतों का अ्रध्ययन इधर विशेष रूप से हुआ है । कबीर- 
पंथ, सिखधर, दादूपंध, राधास्वामी सत्संग, रामसनेही सम्प्रदाय प्रादि 
के प्रनुयायी तथा रंदासी भी इधर प्रंथरचना में विशेष तत्परता दिखला 
चुके है और कुछ प्रसांप्रदायिक विद्व!नों ने भो इनके तथा इनके मूल- 
प्रवत्तेकों के विषय में बहुत कुछ झालोचनात्मक "ढंग से लिखन का 
प्रयास किया हैं। उक्त पंथों वा सम्प्रदायों क्री विविध संस्थाश्रों वे 
प्पने भ्रादि संतों के नाम पर कभी-कभी मेलों और उत्सवों का भी 
प्रायोजन किया है जिनमें सिबन्धों के पठन ब व्याश्यानों के अतिरिक्त 


( ४० ) 


झाम्प्रदायिक ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियों का प्रदर्शन भी किया गया 
है । इसके सिवाय मूल ग्रन्थों का प्रकाशन पहले बम्बई, लाहौर, लख- 
नऊ, काशी, प्रयाग श्रादि के कुछ प्रमुख यत्रालयों-द्वारा ही हुआ करता 
था जिनमें से कई एक झ्रब इस ओर बसी रुचि दिखलाते हुए नहीं जान 
पड़ते और न अपने पिछल प्रकाशनों के ही नवीन संस्करण निकाल रहे 
हूँ । परन्तु इस कार्य का भार अ्रब स्वयं कई सांप्रदायिक संस्थाओं ने 
ही ग्रपने ऊपर ले लिया है और वे, मूलग्रन्थ, फुटकर पद सग्रह, जीवनी 
ग्रादिको निरन्तर प्रकाशित करती जा रही हे। ऐसी संस्थाओ्रों में से 
कुछ का ध्यान पत्र-पत्रिकाओों के निकालने तथा शिक्षालयों के खोलने 
की श्रोर भी श्राकृष्ट हुआ दीख पड़ता हूं । 

संत साहित्य के विविध रूपों में उक्तत प्रकार से प्रकाशित होते रहने 
तथा इस विषय के साथ बहुधा सम्पर्क में झ्ाते रहने से इसके प्रति 
हमारी रुचि में कुछन कुछ श्रभिवृद्धि का होना भी स्त्रभाविक है । 
फलत: कई रवतुन्त्र विद्वानों, विद्यालयों तथा यूनिवर्धिटियों एवं शोध- 
सस्थाओं ने भी इसके अध्ययन को अपना विषय बनाना आरम्भ किया 
है। भिन्न-भिन्न सतो, उनके सम्प्रदायों, ग्रथो तथा सिद्धांतों के सम्बन 
में इधर कई एक प्रच्छे-प्रच्छे निबन्ध लिखे गये हे और कुछ पुस्तकें 
भी प्रकाशित हुई हैं। उदाहरण के लिए डॉ० मोहनसिह ने अपनी 
पुस्तक कबीर--हिज बायोग्राफी ( 6ि०॥0--३४$ 8074979 ) 
स० १६६७ में प्रकाशित की और डबल्यू० एल्‌० एलिसन ने अपनी 
पुस्तक दि साधूसा ( ]]6 $880]8 ) सं० १६६२ में निकाली। 
इसी प्रकार प्राचार्य क्षितिमोहत सेन ने भ्रपनी एक रचना 'दादू नाम 
से सं० १६६३ में बंगला भाषा में लिखकर छपायी । हिंदी में इन सबसे 
पहुलें डा० रामकुमा रब्वर्मा ने एक पुस्तक “कबीर का रहस्यवाद' नाम 
से सं० १६८८ में प्रकाशित की थी और फिर कई वर्षों के श्रनन्तर 
उन्हींने, 'संत कबीर' नाम की एक अन्य पुस्तक-द्वारा, वबीर के आदि- 


( ४६१ ) 


ग्रन्थ में संगहीत पदों वा साखियों का से० २००० में सम्पादन किया ॥ 
इसी प्रकार डा० ह॒जारीप्रसाद द्विवेदी ने भी एक श्रच्छी पुस्तक 'कबीर' 
नाम से सं० १६६६९ में प्रकाशित की और डा० धर्मःद्र ब्रह्मचारी ने 
संत दरियादास की विविध रचनाओ्रों की खोजकर भ्रपनी थीसिस में 
उनपर बहुत कुछ प्रकाश डाला । इधर लखनऊ विश्वविद्यालय के 
प्राध्यापक डा० त्रिलोकीनारायरा दीक्षित ने मलूकदास की जीवनी 
और रचनाओं का अध्ययन किया है जो ग्रभी प्रकाशित नही हुआ है । 
भ्रब तो कबीर की मल प्रामारिक रचनाओं तथा 'बीजक' के शुद्ध 
पाठ एवं दादू, शिवनारायण, धघरणीदास, आदि के ग्रथों व पदो का 
भी अ्रध्ययत आरम्भ हो गया है श्र चरणदासी, शिवनारायणी 
तथा! रामसनेही सम्प्रदायों के मत व शिष्य-परग्परा के सम्बन्ध में 
भी खोजपूर्ण पुस्तकें लिखी जा रही हैें। जयपुर के 'दादू महाविद्या- 
लय” तथा स्व० पुरोहित हरिनारायण शर्मा के पुरतक्रालयों में 
प्रभी सैकड़ों महत्वपूर्ण हस्तलेख प्रकाशन की प्रतीक्षा में पड़े हुए 
हैं । स्व० पुरोहित जी ने सुन्दरदास ( छोटे ) की रचनाप्रों 
का एक संग्रह सं० १६६३ में बड़े परिश्रम के साथ संपादित कर 
प्रकाशित किया था ओर उक्त 'दादू महाविद्यालय” के संचालक 
स्वामी मंगलदास जी सं० १६६३-६५ में भ्रपती 'संत साहित्य माला' के 
तीन 'सुमन' प्रकाश में लाये हें। संतों के मूलग्रंथों वा फुटकर रचनाओ्रों 
के पाठों का पूरी सावधानी के साथ अ्रध्ययन कर, उन्हें संगृह्ीत व 
संपादित कर निकालना पहला व सबसे महत्वपूर्ण कार्य है जिस भरोर 
इस साहित्य के प्रेमियों का ध्यान श्रधिकाधिक खिचता जा रहा है । 

संतों की विचारधारा के मूल स्रोतों पर विचार करते समय डा० 
बड़ध्वाल का ध्यान गुरु गोरखनाथ प्रभूति नाध-पंथियों की रचनाश्रों 
की शोर, विशेष रूप से गया था और उन्होंने उनकी योग 
साधना का सम्बन्ध परंपरागत योगप्रवाहु के साथ जोड़ने का भी 


| हरे :॥ 


प्रयत्न किया था । तब से इधर सरहपा श्रादि बौद्ध सिद्धों की चर्या- 
गीतियो तथा दोहा-कोषों पर भी ध्यान दिया जाने लगा हे और महा- 
पडित राहुलसांकृत्यायन एवं श्रन्य विद्वानों को भी इस प्रकार का निईचय 
होता जा रहा है कि उनकी अपश्रंश-बहुल रचनाएँ न केवल हिंदी काव्य 
के सर्वेप्रथम उदाहरण कहलाने योग्य हे, श्रपितु, उनके विषय तथा 
रचनाशैली में हमें संत-प्ताहित्य का आदि रूप भी लक्षित होता है। 
जान पडता है कि नाथो ने पहल पहल उक्त स्िद्धों से ही प्रेरणा 
प्राप्त की होगी और उन पर पडे हुए अनेक प्रभावों ने, क्रमशः आगे 
चलकर, इन सतो को प्रभावित किया होगा। इधर नाथ एवं नाथ- 
साहित्य से संबन्ध रखनेवाले कई ग्रथों का प्रकाशन हुआ्ना है। डा० 
बडथ्वाल-द्वारा सपादित गोरखबानी' सें० १६९६ में प्रकाशित हुई थी 
श्रौर उसकी “भूमिका से पता पता चलता है कि इस प्रकार का प्रका- 
शन वे अ्रभी और करने जा रहे थे। उस समय तक इस विषय पर डा० 
मोहनसिह की पुस्तक “गोरखनाथ एनन्‍्ड दी मिडीवल हिंदू मिस्टिसिज़्म”' 
( 00 बताना & ००००४ मांगवप ॥ए४४ंटांडा ) 
सं० १६९६४ में निकल चुकी थी और डा० जी० डबल्यू० ब्रिग्स की पुस्तक 
गोरखनाथ ऐण्ड दि कनफटा योगीज” ((१09/0॥7977 270 ॥'6 
6 70729 ४०028 ) भी स० १६६४ में प्रकाशित हो चुकी थी । 
ग्रब इस विषय पर डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा डा० कल्यारी देवी 
की भी पुस्तकें शीघ्र निकलने जा रही हे । सिद्धसाहित्य को लेकर भी 
इस समय खोज का काम अलग से चल रहा है | डा० पो० सी० वागची 
तथा डा० सुकुमार सेन ने उनकी रचनाओ्रों के शुद्ध पाठ मनिकालने की 
चेष्टा की है श्रौर० आशा है कि, हिंदी में भी इस पर एक पुस्तक शीघ्र 
निकल जाय। इप प्रुकार बौद्ध सिद्धों पत्ते लेकर नाथों व संतो तक 
की क्रमागत विचारधारा पर इधर बहुत कुछ प्रकाश पड़ा हैं और 
डा० दशिभूषण दासगुप्त की पुस्तक अआराब्सक्योर रिलिजस कल्ट्स' 


( ४३ ) 


( (008टप/86 रिजञाएट005 (परा5$ 6०. ) द्वारा ग्रब पहु भी 
प्रतिपादित किया जाने लगा है कि जो विचारधारा” सिद्धों व नाथों 
की रचनाओं में प्रवाहित होती हुई हिंदी के सत कवियों की _ बानियों 
में दीख पड़ती है वही बंगला भाषा के वैष्णव सहजिया तथा बाउलों 
की रचनाप्रों में भी काम करती हुई जान पड़ती है। डा० बड़थ्वाल के 
समय तक इस प्रकार के विचार नही प्रगटठ किये जा सके थे । 

वत्तेमान खोजों तथा अ्रध्ययनों के झ्राधार पर यह धारणा क्रमश: 
निश्चित होती जा रही है कि संत साहित्य का एक अ्रविकसित रूप 
हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारभिक युग में भी वत्तमान था। 
विक्रम की आठवीं-नवी शताब्दी के श्रनीश्वरवादी बौद्ध सिद्धों ने जिस 
सहज साधना को अपनाया था वह क्रमशः ईश्वरवादी नाथ-पंथियों की' 
योंगसाधना से अ्रनेक बातो में, ग्रभिन्न रही श्रौर उन दोनों पद्धतियों 
का ही 'त्रिकसित रूप! हमें इन संतों में श्रा कर दृष्टिगोचर हुश्रा । 
इतता ही नहीं, उक्त बौझ्ध सिद्धों का विचार-स्वातंश्य उतकी खरी' 
भ्रालोचना व विचित्र कथन-दैली भी, क्रमशः उसी प्रकार इन तक विक- 
सित होती ग्राई है। सिद्धों तथा नाथों के बीच की कोई ग्रन्य कडी लक्षित 
नहीं होती, कितु नाथों एवं संतों के मध्यवर्ती काल में विभिन्न वैष्णव 
संप्रदाय, सूफ़ी संप्रदाय तथा कश्मीर के दैव संप्रदाय जैसे कुछ भ्रन्य वर्ग 
भी ग्राते हैं जिनसे उक्त प्रकार की बातों के विकास में विरंतर सहायता 
मिलती जाती है। श्रत्ञ में महाराष्ट्रीय नारकटी सप्रदाय के शानदेब, 
नामदेव, झ्रादि के समय तक उनमें प्रवाहित भावधारा बहुत कुछ निख्जर 
जाती हैँ प्रौर स्वा० रामानंद तक आते-भ्राते उराकी खूपरेखा प्रायः 
निश्चित भी हो जाती है। उस समय से कबीर उसे श्रपने ढंग से 
ग्रपता कर व्यक्त करना झारंभ करते है श्रौर उनके भआ्रादर्शों पर खलने- 
वाले संतों की एक परंपरा' चल तिकलती है जो किसी न किसी 
रूप में श्रभी आज तक वतंमान रहती शझ्राई है। कबीर के अ्रनंतर आाने- 


( ४४ ) 


याले प्राऊआ सभी प्रमुख सतो ने उनका पथ-प्रदर्शन स्वीकार किया हैं 
और न्यूनाधिक उनकी ही विचारधारा के झ्रादर्शों पर चल कर उन्होने 
अपनी रचताएं भी की हे। कबीर ने कदाचित कोई भी नवीन पथ 
चर्लाना नही. चाहा था। परंतु गुरु नानकदेव के समय से भिन्न-भिन्न 
पथों व संप्रदायो का भी निर्माण होने लगा और विक्रम की बीसवी 
शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते इन सतो के नामो पर प्रचलित उक्त 
संस्था ने अपने मूलख्रोतों की ओर समुचित ध्यान देता छोड दिया। 
इस कारण तुलसी साहब जैसे कुछ सुधारवादी सतो को इस बात की 
लिदा तक करनी पड़ो और तब से इस प्रकार के वर्ग भी, कुछ सजग 
व सावधान होते हुए से दीख पडते हे । 

सतो की इस परपरा का महत्व अ्रभी तक केवल सांप्रदायिक व 
साहित्यिक क्षेत्रो तक में ही दूढा जाता रहा और डा० बड़थ्वाल ने भी 
इसी कारण, भ्रपनें विषय को केवल उतने में ही सीमित रख कर 
“निर्गुण संप्रदाय' पर विचार किया था। परंतु संतो की क्रमश' अन्नि- 
काधिक सख्या में.उपलब्ध होती जानेवाली कृतियों तथा जीवरनियों पर 
कुछ विशेष ध्यान देने से, अब यह भी प्रतीत होने लगा हे कि उनके 
विविध सिद्धातों एवं साधनाञ्रों पर,यदि हम चाहें तो, कुछ और व्यापक 
रूप से भी विचार कर सकते हें। कबीर इन सभी सतों के प्रतिनिधि 
समभे जाते हु और, कम से कम उनकी रचनाश्रों में व्यक्त होनेवाली 
शुद्धहदयता, स्वानुभूति, निर्भवता, विचार-स्वातुंत््य तथा सबसे बढ़ 
कर सच्चे सात्त्तिक जीवन को अपनाने की प्रबल प्रवृत्ति हमें इन महा- 
पुरुषों पर भ्रन्य दृष्टियों से भी विचार करने के लिए प्रेश्ति करती है 
तथा हमारे लिए इस बात का सुझाव भी प्रस्तुत करती है कि हम इन्हें 
आदणशें मानव जीवन के निर्माताग्रो के रूप में भी स्वीकार करें। वैदिक 
युग से लेकर हिंदी साहित्य के उपयुक्त प्रारंभिक काल तक की विभिन्न 
साधनाओं का इतिहास हमें स्पष्ट बतलाता हैँ कि उनकी मूल प्रेरणाश्रों 


| ४ ) 


के स्लोतत कभी वहिर्मुबरी और कभी भअंतर्मखी वृत्तियों में लक्षित होते 
आरा रहे थे श्रौर कभी-कभी इन दोतों के बीच व्यापक सामंजस्य लाने 
के भी प्रयत्म होते रहते थे । सतो के पूर्व वर्ती गुधारकों ने ग्ंतैमुख्ी बृत्ति 
को ही अधिक प्रश्नय दिया, कितु ऐसा करते समय उन्होंने रण्यिादिता 
से अधिक विचार-स्वातत्य को ही भ्रपनाथा। फिर भी उनका भझूकाव 
निवृत्ति मार्ग की ओर ही अ्रधिक रहता श्राया था और प्रवृत्ति मार्ग को 
भी उचित महत्व देकर दोनों में सामजस्य लाने की चेष्टा श्रभी तक 
नहीं की गई थी । कबीर शआ्रादि संतों ने, चरित्रनिर्माण एवं सदाचरण 
के प्रादर्श उपस्थित कर, इस काय को भी पूएों करना चाहा श्रौर इस 
बात का संभव होना सिद्ध कर दिया कि व्यक्तिगत जीवन के ही सुधार 
पर, सामाजिक जीवन का भी सुधार निर्भर है तथा स्तर का लिर्माग भी 
बस्तुतः भूतल पर ही हुआ करता है। संतों तथा उनकी रखनाओ्रों के 
प्रध्ययत का आरण्भ श्रव इस प्रकार का उद्देश्य लेकर भी हो चुका है 
ग्रौर सम्भव है, कि इस श्रोर पूरी सफलता भी मिल सकेगी । 

डा० बड़थ्वाल ने इस क्षेत्र में काम करनंबालों के लिए एक 
साहसी प्रथ-पदर्शक का काम किया है। गत-साहित्य के गम्भीर 
प्रध्ययन का कार्य उन्होंने कदाचित्‌ सबसे पहले प्रारम्भ किया था श्रौर 
प्रपती लगन व अध्यवसायथ के बलपर, उसे बहुत दूर तक सफल करके 
भी दिखला दिया था। सतसाहित्य की श्रभी कल तबा उपेक्षित समझी 
जानेवाली रचनाओ्रों को उन्होंने उचित महत्व प्रदान करने की चेष्टा 
की है, मंतों की दार्शनिक विचारधारा की गम्भीरता की श्रोर सबका 
ध्यान आराक्ृष्ट किया है श्रौर उनकी सांधदायिक साधना के गृढ़ रहस्यों 
तक को प्षबके लिए सुलभ कर देने के प्रयत्न किफे हैं । उन्होंने अपने 
प्रध्यपन व विवेचन के द्वारा इतना पूर्ण रूप से सिद्ध कर दिया है कि 
इत संतों ने भी, प्रपनी रचनाओं के माध्यम से मानव समाज के लिए 
बहुमूल्य सदेश देने का प्रयाप्त किया था और इस कारण हिन्दी माहित्य 


( ४६ ) 


को इतिहास में सन्‍्तसाहित्य का स्थान भी कम ऊँचा नहीं समझा जा 
सकता । डयु० बडथ्वाल ने निर्गण एवं सगृण उपासना की पद्धतियों के 
बीच कल्पित की जानेवाली चौडी खाई को बहुत श्रश्ों में कम कर 
दिखाने का भी काम किया हैं और अपने निबन्धो-द्वारा उन्होंने यह 
भी सिद्ध कर दिया है कि इन दोनो का पारस्परिक भेद अधिकतर 
सक्‌चित साप्रदायिक विचारों पर ही निर्भर है तथा प्रेमाभक्ति एवं 
श्रध्यात्मविद्या वस्तुतः एक ही साधना के दो भिन्न-भिन्न रूप हैं। इस 
सम्बन्ध में स्वा० रामानन्द के विषय में की गई उनकी खोज तथा सतों 
की साम्प्रदायिक साधना को, पूर्व परम्परागत योगधारा के साथ जोड 
देने का प्रयास भी उनकी दो अन्य देनें हे जिनके लिए हम उनके चिर- 
कृतज्ञ रहेंगे | 


बलिया 


बेशाघ बदी १ --परशुरास चतुर्वेदो 
स० २००७ 


सम्पादकीय 


डा० बड़थ्वाल की थीसिस दि निर्गुश स्कूल आफ हिन्दी पोएट्री' 
के हिन्दी रूपान्तर की श्रावश्यकता, हिंदी के माध्यम से सनन्‍्तकाव्य का 
विशेष भ्रध्ययन करनेवालों को बहुत दिनों से श्रनुभूत हो रही थी और 
इस सम्बन्ध में मेने स्वयं ही डा० बड़थ्वाल जी से बातें को थों। यदि 
वे हमारे बीच कुछ दिनों श्रौर रह पाते, तो समस्त पुस्तक उन्हीं के 
द्वारा हिंदी में रूपान्तरित होकर कभी की हसारे बीच आ गई होती, 
किक्तु ऐसा नहीं होना था । उनके निधन के उपरान्त उसकी श्रावश्यकता 
ग्रौर भी बढ़ती गई; क्योंकि उसका अश्रंग्रेजी रूप भी समाप्तप्राय हो 
गया श्रौर उसके पुनमुद्रण के सम्बन्ध में भी अनिश्चियता हो प्रतीत 
होने लगी । लखनऊ विश्वविद्यालय की “रजत जयन्ती' के अ्रवसर पर 
ग्रायोजित हस्तलिखित ग्रंथ-प्रदरशिनी से एक दिन बड़ध्वाल जी के 
सम्बन्धी श्री दोलतराम जुयाल जी से चर्चा हुई श्रौर मेंने मन में यह 
निशुचय कर लिया कि में यह कार्ये झ्रारम्भ करूँ। इधर जुयाल जी से 
अवध पब्लिशिंग' हाउस के श्रध्यक्ष श्री भगराज जो भागंव से बातें 
हुईं भ्रौर उन्होंने उत्तके समस्त ग्रंथों के प्रकाशन एवं उनके फरिवार 
की भ्राथिक सहायबा का भार इस दाते पर ले लेना स्वीकार किया कि में 
उनका सम्पादन कर द्‌ । श्रतः मुझे समस्त कार्य छोड़कर इसे श्रंगीकार 
करना पड़ा, जिसे में श्रपना पावन कतेव्य तथा गौरव समभता हूँ। 
अनुवाद का कार्य सबसे पहला था । किन्तु जयाल जी से पूछताछ करने ' 


| २ ) 


पर ज्ञात हुआ क्रि इस कार्य को श्री परशुराम चतुर्वेदी जी ने पहले 
हो से ले रखा था। श्रतः यह बड़ी प्रसन्नता की बात हुई कि जों 
कार्य में इतनी ज्ञीत्नता लें न कर पाता, वह शीघ्र ही सम्पन्न हो 
सका । 

डा० बड़थ्वाल ने अपनी मूल अंग्रेजी पुस्तक के प्रथम, द्वितीय और 
षष्ठ श्रध्यायों का अनुवाद स्वयं ही कर लिया था और जो नागरी- 
प्रचारिणी पतन्निका' में पन्द्रहवें भाग में निकल भी चुके थे । ये श्रध्याय 
प्रस्तुत पुस्तक के क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्यायों के रूप से 
आये है। अ्रतः रह जानेवाले ग्रध्याय तृतीय, चतुर्थ और पंचम थे, 
जिनका अनुवाद श्री परशुराम जी चतुर्वेदी ने किया है और जो इस 
पुस्तक के चतुर्थ, पंचन और षष्ठ अ्रध्यायों के रूप में संयोजित हुए है । 
इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक के अ्रध्यायक्रम में भी तो अन्तर हे ही साथ ही साथ 
प्रथम तोन अध्यायों की सामग्री से बड़ा अन्तर है, व्योक्ति डा० बड़थ्वाल 
ने उसके उपरान्त प्राप्त सूचना और अजित ज्ञान के श्राधार पर उनमें 
यथावश्यक परिवर्तन, संशोधन एवं विस्तार कर दिया था श्रतः यह तीन 
अध्याय अनवादमात्र ही नही कहे जा सकते । यदि शेष तीन श्रध्याय और 
इस प्रकार समस्त पुस्तक उनके द्वारा हिन्दी में हमारे सामने श्रा सकती, 
तो उसका मूल्य बहुत श्रधिक होता | पर ऐसा न हो सका, फिर भी 
यह हर्ष की ही बात है कि इसके शेष अनुवाद का कार्य सनन्‍्त-साहित्य के 
मर्मी और विशेषज्ञ री परक्षुराम चतुर्वेदी जी ने किया हैं। और इससे 
भो महत्वपुर्णं बात यह है कि उन्होंने इसकी एक विस्तृत भूसिका भी 
लिख दी है जिसमें सनन्‍्तसाहित्य के अध्ययन का विकास, तथा डा० 
बड़थ्वाल के ग्रंथ की परिचयात्मक आलोचना भी हे |] 

आलोचना में दृष्टिकोण का अन्तर सदा ही रहा करता है । अतः 
कहों-कहीं उनके विचार ' से डा० बड़थ्वाल कर सेत समीचीन नहीं 
ठहरता । में इस सम्बन्ध में प्रत्यालोचना के भमेले में न पड़कर इतना 


( ३ ) 


हो कहनौ चाहता हूँ कि चतुर्वेदी जी श्राज जिस दृष्टि से लिख रहे हे 
और शभ्रव तक जो सामग्री सामने श्रा चुकी है उसके आधार पर, यह 
बहुत सम्भन्न हें कि डा० बड़थ्वाल भी इसी प्रकार के निष्कर्षों पर पहें- 
चते जिन पर चतुर्वेदी जी आज पहुँच रहे हे । जब उन्होंने 'थीसिस' 
लिखी थी, तब इस सम्बन्ध में अनेक ज्ञातव्य बातें उपलब्ध नही थीं 
झोर मेरा विश्वास है कि यदि समस्त पुस्तक डा० बड़थ्वाल-द्वारा प्रन- 
वादित होकर आती, तो उस समय तक के अ्रध्ययन-सम्बन्धी विकास का 
समावेश उससे अवद्य रहता। पुस्तक के नाम के सम्बन्ध में भी जो 
मतभेद हे वहु भी दूर हो जाता हैं जब हम डा० बड़थ्वाल-दारा सकश्यो- 
घधित एक प्रति में ( जो पुस्तक छपने के बाद सुझे देखने को मिल 
सकी ) हिंदी काव्य की निर्गुण धारा ही नाम पाते हैें। श्रतः यह 
आलोचना भी डा० बड़थ्वाल के द्वारा की गई भूलों का निर्देशन करने 
की दृष्टि से उतनी नहीं, जितनी कि ग्रंथ में आई सूचनाओं को पृणं 
प्रारस्भिक एवं उपयोगी बनाने की दृष्टि से हूँ । 

ग्रंथ के सम्पादक के रूप में मुझे यह भी स्पष्ट कर देता झ्रावइयक 
_ कि डा० बड़थ्वाल और चतुवंदी जी दोनों की होली में कुछ न कुछ 
अन्तर अवध्य हें जिसका अनुभव सम्भवतः विज्ञ पाठकों को होगा। ऐसा 
नहीं जान पड़ता कि समस्त पुस्तक एक ही प्रवाह में लिखी गई है । 
इसका एक कारण यह भी हे कि डा० बड़थ्वालजी को यह अपनी कृति 
है । जितनी स्वच्छुन्दता वे, अपने अंग्रेजी में प्रकर्शशत भावों को हिंदी 
रूपान्तर देने में लें सकते थे उतनी श्रन्य कोई ले ही कंसे सकता है १ और 
फिर अपनी होली की विशेषता भी रहती ही हे + चतुर्वेदी जी की अन- 
सति प्राप्त कर मने दोनों ही शेलियों में यथासस्भव साम्य लाने का 
प्रयत्त किया हे और इसके लिए मे चतुर्वेदी जी का आभारोी हूँ । यहाँ 
पर यह भी कह देना औवश्यक हे कि ये सब सुविधाएँ प्राप्त करते हुए 
भी से इसके सम्पादन के लिए ज़ितमें श्रम श्र समय की अपेक्षा थी 


ह 8 


उतना नहीं दे पाया जिसका कारए मेरी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ रही 
हैं । इसके लिए से विज्ञ पाठकों का क्षमाप्रार्थो हूँ । 

इस दिशा में हिन्दी में श्राया हुआ डा० बड़थ्वाल का यह"ग्रंथ आज 
भी अभी तक निहले हहन्दी के ग्रंथों में सचते अधिक महत्वपूर्ण एवं 
प्रामाणिक हे, यह कहने में मुझे कुछ भी संकोच नहों। “हिन्दी काव्य 
में नि्गुण संप्रदाय” नामक ग्रंथ में जिस दृष्टिकोण का प्रकाशन हुश्रा 
हैँ वह संतसाहित्य के अध्ययन के लिए आवश्यक हें और सबसे बड़ी 
विशेषता इसमें यह है कि संतों की पंक्तियों में विचार-सम्बन्धी जो एक 
विश्वृद्डलता दीखती हुँ वह इस पुस्तक का आधार ग्रहए कर चलने से 
नहीं रह जाती । इस साहित्य का एक निश्चित अर्थ, निश्चित उद्देश्य 
एवं निश्चत प्रभाव प्राप्त करने के लिए इस पुस्तक का श्रध्ययन बड़ा ही 
उपयोगी हैँ । डा० बड़थ्वाल जी से कुछ सीखने का सौभाग्य म॒झे भी 
प्राप्त हुआ था और उन्हीं के निर्देशन में मेने निरंजनी कवि संत तुरसी- 
दास पर एक पुस्तक भी लिखी थी। इसके आधार पर में यह कहने 
का साहस कर सकता हूँ कि सतों की अटपटी बाएं! को सुलफा कर 
ग्रहए करने का मागें, प्रशस्त करने का बहुत बड़ा श्रेय उनको प्राप्त है । 

डा० बड़थ्वाल ने अपने जीवनकाल सें हिन्दी संसार को बहुमल्य 
रचताएँ भेंट की थीं । उनके अनेक निबन्ध, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाश्रों 
में निकले थे तथा उनकी अनेक पुस्तकों की संपादकीय भूमिकाएँ और 
टिप्पणियाँ, उनके द्वाव्श प्रस्तुत हिन्दी साहित्य के गंभीर अध्ययन एवं 
विवेचन को प्रकट करती हे । उन सभी का स्थायी पुस्तकाकार रूप 
में आना परस आवश्यकीय हैँ | डा० बड़थ्वाल परम विद्यानुरागी एवं 
गंभोर साहित्यिक साधक थे । हिन्दी साहित्य की सेवा उनके लिए एक 
पुण्य व्रत था। अपने समग्र जोवन-काल सें वे उत्के प्रति बड़ी निष्ठा 
के साथ दत्तचित्त रहे और उसके लिए एक तर्पेस्‍वी का जीवन व्यतीत 
किया । उन्होंने साहित्य को आलोचना के विभिज्न श्रंगों को पूति के लिए 


६. हे. 3) 


घोर परिश्रस क्रिया , ओर इतनो साधना के बाद जब आज हमें उनके 
जेसे कर्मठ एवं ठोस साहित्यकारों की आवश्यकता थी तब वे हमारे बीच 
से उठ गयें% उनके निधन से हिन्दी साहित्य को एक ऐसी भारी 
क्षति हुई हे जिसकी पूति सरलता से नहीं हो सकती । 

श्री जुयाल जी और श्रो भूगुराज जी के प्रयत्न से यह कृति हिंदी 
में श्रा रही है और मेरा विश्वास है कि यह उनके द्वारा लिखें गये समस्त 
साहित्य को संसार के सामने लाने के प्रयत्न का श्री गऐोश है। इस 
पुण्यकार्य में किसो भी रूप में सहयोग देने के लिए में सदा ही तत्पर 
हें और अपने को गौरवान्वित समभता हूँ । 


हिन्द्री बिभाग 
लखनऊ विश्वविद्यालय भगीरथ सिश्र 
ग्नत चतुद्दंशी, २००७ वि० 


विषय-सूची 


हैला अध्याय 
परिस्थितियों का प्रसाद (१-३१ ) 

१ आमुख--| १-० ), + मस्लिम आक्रमण [ २-६ 9), ३ वार्ज- 
व्यवस्था की विधमता ( ६-८ ). ४ भगवच्छरगागति ( ८-१४ ), 
५. सम्मिलन का आयोजन (१४-१७), ६५ हिन्दी विचारधारा और सूफी 
धर्म (१७-२१), ७ ब॒द्वोद्धार (२२-२६), 5. निर्गणनंप्रदाय (२६-३१) | 

दूसरा अध्याय 
निगुण संत संप्रदाय के प्रसारक 

१. परवर्ती सत ( ३२-३३ ), २. जयदेव ( ३३ ), ३ नामदेव 
( ३४-३५ ), ४ त्रिलोचन ( ३६ ), ४ रामानन्द ( ३६-३९ ), 
६. रामानन्द के शिष्य ( ३६-४१ ), ७. रासानन्द का समय ( ४१- 
८३ ), ८ कंबीर ( ४३-६२ ), €. नानक ( ६२-७१ ), १०. दीदू 
( 3१-७४ ), १९१, प्रारनाथ ( ७४-७६ ), १२, वाबालाल ( ७६- 
७७ ), १३, मलकदास ( ७७-८० ), १४, दीनदरवेश ( ८१ ॥, 
१५, यारीसाहब और उनकी परम्परा ( 5२ ) १६. जगजीवनदास 
द्वितीय ( ८२-८३ ), १७: पलट्दास ( 5३-८४ ), १5, धरनीदास 
( ८४ ), १६९, दरियाहय ( ८५ )+ २०. बुल्लशाह ( 5६ ), २१, 
चरनदास ( 5६-८८ ), २२, शिवनारायण ( ८८ ), २३. गरीबदास 
(८८), २४, तुलमीसाहब (5९-६१), २५. शिवदयाल (६१-६२) । 

५४ #४' ९४ तांसरा अध्याय 
निगंण संप्रदाय के दाशंनिक सिद्धान्त 

१. एकेश्वर ( €३-१०१ ), २. पूर्णेत्रह् ( १०१-१०८ ), 

परात्पर ( १०८-११४ ), ४. परमात्मा, आत्मा और जड़ पदार्थे (११४- 


( २ ) 


१२० ), ५. अशाजि-सम्बन्ध ( १२०-१२६ ), ६ जीवात्मा और जन्न- 
जगत्‌ ( १५६-१४७ ), ७, सहजज्ञान | १४७-१५६ ), ८. उपनिषद्‌, 
मुलखोत ( १५६-१६० ), ६. निरजन (१६१-१६४), १०, अवतार- 
वाद ( १६४५-१७४ ) | 
चतुथ अध्याय 
निगुण पंथ 
१, प्रत्यावतंन की यात्रा ( १७४-१०६ ), २. मध्यममार्ग | १८६- 
१६६ ), ३. आध्यात्मिक वातावरण ( १६६-२०६ ), ४, पथप्रदर्शंक 
गुरू ( २०७-२१६ । ४, नामसुमिरत, प्रार्थना ( २१७-२१८ ), ६. 
गब्दयोग ( २२९-२५४ ), ७, अन्तद षटि ( २५५-२६६ ), 5, परचा, 
अतिम अनभूति (२६७-२७८), €, समाज की उच्नति (२४८-३०१) | 
पंचम अध्याय 
पंथ का स्वरूप 
१, क्या निर्गुणप्र कोई मिश्चित सम्प्रदाय हे ? ,( ३०२-३१६ )। 
२, क्या निर्गशपथ साम्प्रदायिक है ”? (३१६-३३४ ) । 


पृष्ठ अध्याय 
अनुभूति की अभिव्यक्ति 
१, सत्य का साधन ( ३३५-३४४ ), २. निर्गुण बानियो का 
काव्यत्व ( ३४५-३१५३ ), ३. प्रेम का रूपक ( ३५३-३७० ), ४ 
_ उल्टवाँसियाँ ( ३७०-३७६ ) । 
परिशिष्ट , 
१, पारिभाषिक शब्दावली ( ३७७-३८० ) ९ 
२. निर्गुरा सम्प्रदाय-सम्बन्धी पुस्तकें ( इद १-४०४ ) । 
३. विशेष बाते ( ४० शडेंडर ) । 


श्र 


हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 
पहला अध्याय 


परिस्थितियों का प्रसाद 


इस क्षणिक जीवन के परवर्ती अनंत अपर जीवन के लिए आकुलता 
भारत की अन्तरात्मा का सार है। परलोक की साधना मेंही वह 
इहलोक की सार्थक्व मानती हें। आत्मा और 

१ आसमुख परमात्मा की ऐक्य-साथना का निर्देश करनेवालली 
मधुर वाणी का भारतीयों की भावना, रुचि ओर 

आकांक्ा के ऊपर सर्वदा से वर्णनातीव अधिकार रहा है। भारतीय 
जीवन सें संचार करनेवाल्ली आध्यात्मिक अन्रत्ति की इस धारा के उद्गम 
अत्यन्त प्राचीनता के कुदरे में छिपे हुए हैं। युगश्युगांतर को पार करती 
हुईं यह धारा अवाध रूप से बहती चली आ रही है | अवाह-भूमि के 
अनुरूप कभी सिसटती, कभी फेलती, कभी बालुका में विज्लीन होती 
और फिर प्रकट होती हुई वह अनेक रूप अवश्य घारण करती आई हे 
परंतु उसका अवाह कमी बंद नहीं हुआ | पंद्रहवीं शताब्दी में इस धारा 
ने जो रूप धारण किया, वह किसी उपयुक्त नाम के अभाव में 'नियेश 
संत संप्रदाय” कहलाता है। इसी संप्रदाय के स्वरूप का उद्वाटन इस 
निबंध का विषय है। इस संप्रदाय के प्रच्तकों ने अरने सर्वेजनोपयोगो 


२ हिन्दी काव्य में निर्गंण संप्रदाय 


उपदेशों के ज्षिए जनसाषा हिंदी को ही अपनाया था ॥ इसलिये उसका 
प्रतिरूप हिंदी के काव्य-साहित्य में सुरक्षित है। सॉमाजिक,- धार्मिक' 
राजनीतिक आदि अनेक कारणों ने मिलकर इस आंदोलन को रूप को 
वह नवीनता ओर भाव की वह गहनता प्रदान की जो इसकी विशेषता 
है । मुसलमानों की भारत-विजय के बाद भारत की राजनीतिक अवस्था 
ने, जिसमें दो अत्यंत विरोधी संस्कृतियों का व्यापक संघर्ष आरंभ हुआ, 
इस आंदोलन के असार के लिये उपयुक्त भूमिका अस्तुत की | संत-संप्रदाय 
की विचार-धारा को अच्छी तरह सममने के लिये यह आवश्यक है कि 
हम पहले उन विशेष परिस्थितियों से परिचित हो जाय, जिनमें उसका 
जन्म हुआ। अतणएव पहले उन्हीं परिस्थितियों का उल्लेख किया 
जाता है । ह 


यद्यपि कुरान ऐलान करती है कि “धर्म सें बल का अयोग नहीं होना 
चाहिएं । विश्वास लाने के लिये कोई मजबूर नहीं किया जा सकता। 
विश्वास केवल्न परमात्मा की प्रेरणा से हो सकता 

२, मुस्तिम- है#”, फिर भी इस्लाम के असार सें तलवार ही 
आक्रमण. का अधिक हाथ रहा है। अरबों ने, ओर उनके बाद 
इस्लाम धम्म सें प्रवेश करानेचाज्जी अन्य जातियों ने, 

देश-देशांतरों में विनाश का प्रकांड तांडव उपस्थित कर दिया। चीन 
से स्पेन तक की भूमि पर उन्होंने खुदा का क़हर ढा दिया। जहाँ-जहाँ 
वे गए, देश वीरान, घर उजाड ओर जन-समुदाय काल के कवल हो 
गए । भारत की सस्य-श्यामल्ला भूमि, विश्वविश्वत लब्मी और जनाकीरणं 
देश ने बहुत शीघ्र मुसलमानों को आ्राकृष्ट कर लिया। यहाँ उन्हें धर्मे- 
पसार और राज्य-विस्तार दोनों की संभावना (दिखाई दी। निरपेद्षता, 
तत्वज्ञान और विभव की इस भूमि की भी धर्माध-विश्वासियों के लोभ- 





७ सेल, “अल क़्रान॑, पू. ५०३। 


पहला अध्याय दे 


प्ररित विनाशकारी हाथों ने वही दुशा करते का आयोजन किया जो 
उनसे अफ्रिंत ओर देशों की हुई थी | नर-नारी, बाल-वृद्ध, विद्या-मवन- 
पुस्तकालय, देवालय और कलाक्ृतियाँ कोई भी इतदी पवित्र न सममी 
गई कि नाश के गहनर में जाने से बच सकतीं | यद्यपि दुओं ने आसानी 
से पराजय स्वीकार न की ओर दे अंतर तक पद-पद पर छृढ़ता से विरोध 
करते रहे, तथापि उनकी निश्छुल निर्भयता, घर्मयुद्धू की भावना, पराजित 
शत्र के प्रति क्षमाशील उदारता तथा अनेक अंधविश्वासों ने मिलकर 
उनकी पराजय का कारण उपस्थित कर दिया और उपउन्हें काल की 
विपरीतता के आगे सिर झुकाना पड़ा । 


महमूद गृजनवों के बारह ओर मुहम्मद गोरी के दो-तीन श्राक्रमण 
प्रसिद्ध ही हैं । गजनची के साथ अल-बेरूनी नामक एक प्रसिद्ध इतिहास- 
कार आया था | उसने अपने आश्रयदाता के संबंध सें लिखा है कि उसने 
देश के वंभव को पूरी तरह से मटियामेट कर दिया और अचरज के वे 
कारनासे किए, जिनसे हिंदू धूल के चारों ओर फेले हुए कण मात्र, अथवा 
लोगों के मु ह पर की पुराने जमाने की एक कहानी मात्र रह गए & । 


वास्तविक युद्ध में तो असंख्य वीरों की खत्यु होती ही थी, उनके 
अतिरिक्त भी प्रायः प्रत्येक नुशंस विजेता हजारों लाखों व्यक्तियों की हत्या 
कर डालता था ओर हजारों को गुलाम बना लेता था। उनकी लूट-पाट 
का तो अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता। सरस्वती और 
संस्कृति के केन्द्र भी अछुते नदछोड़े गए। जब वि> सं> १२४४ 
( सन्‌ ११६७ ) में मुहम्मद बिन-बसर्त्यार ने बिहार की राजधानी पर 
अधिकार किया तब उसने वहाँ के बृहद्‌ बोरू-विहार को ध्यंस कर दिया, 
वहाँ के जिस निवासी को पकड़ पाया, तलवार के घाट उतार दिया और 


अिननिननीली व ल >लननना न न नल ननननलाना ५ 


' # ईदवरीप्रसाद की मेडीवल इंडियाञ', पु० ६२ में दिया हुआ 
अवतरर । द 





४ हिस्‍्दी काव्य मैं भिरगण संप्रदाय 


(एनावलौ? नासक पुस्तक-सवन अग्निशिखाओं को समर्पित कर दिया 
केवल्ल बख्त्यार ही की यह विनाशकारी अवृत्ति रही हो, सो बात नहीं | 
अल-बेख्नी सदश प्राचीन इतिहास-लेखक भी इस बात का साक्ष्य देता 
है कि हिंदू विद्या और कल्नाएँ देश के उन भागों से जिन पर मुसलमानों 
का अधिकार हो गया था, भागकर उन भागों में चल्ली गई थीं जहाँ 
उनका हाथ अभी नहीं पहुंच पाया था+ | 


जब तक मुसलमान विजेता लूट-पाट करके ही लोट जाते रहे, तभी 
तक यह बात न रही, जब मुसलमानों को देंश में बस जाने की बुद्धिमत्ता 
का अनुभव होने लगा ओर वे बाकायदा राज्यों को स्थापना करने लगे 
तब भी देश की संतान को अधिक से अधिक चूसने की नीति का त्याग 
नहीं किया गया। जहाँ तक हो सकता था, राज्य की ओर से उनकी 
जीवन-यात्रा कंटकाकी्ण बना दी जाती थी | उनके प्राण नहीं ज्ञिए जाते 
थे, यही उनके ऊपर बड़ी भारी कृपा समझी जाती थी। उनको जीवित 
रहने का भो कोई अधिकार नहीं था। सुसलमान शासक उनका जीवित 
रहना केवल इसलिए सहन कर लेते थे कि उनको मार डालने से राज्य- 
कर में कमी पड़ जाती ओर राजकोष खाली पड़ा रह जाता । अपने ग्राणों 
का भी उन्हें एक कर देना पड़ता था जो जजिया! कहलाता था। 
सुलतान अलाउद्दीन के दरबार में रहनेवाले क़ाजी मुग़ासुद्दीन सरीखे 
धर्मनिष्ठ व्यक्ति को भीः यह व्यवस्था स्वाभाविक ओर उचित जचती थी& | 


» रेवर्टी-संपादित 'तबकाते नासिरी', भाग १, पूृ० ५५२; ईर्वरी- 
"प्रसाद-मेडीवल इंडिया, पु० १२७ । 

+ देखों पादटिप्पणी १, पु० हे | 

$ बरणी-- तारीख फीरोजशाही”; “बिब्लोथिका इंडिका” 
पृ० २६०१; ईलियट, पृ० १८४; ईइवरीप्रसाद--मिडीवल इंडिया 
पृ० २०८ और ४७५ । 


पहला ऋध्याय भर 


'हृदुओं से वसूल किए जानेवाले कर कम न थे अल्ाउद्दीन के राजत्वकात् 
में उन्हें झपने पसीने की कमाई का आधा राज-कोष में दे देना पड़ता 
था । ऐसी स्थिति में उनके पास इतना भी न बच रहता था कि चे किसी 
तरह अपने कष्टमय जीवन के दिन काट सकते । बरणी के अनुसार, हिंदुओं 
में से जो धनाव्य समझे जाते थे, वे भी धोड़े पर सवारी न कर सकते 
थे, हथियार न रख सकते थे, सुन्दर वस्त्र न पहन सकते थे, यहाँ तक 
कि पान भी न खत सकते थे । उनकी पत्नियों को भी सुसलमानों के यहाँ 
मजदूरी करनी पड़ती थी& । 


हिंदुओं के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का तो अश्न ही नहीं उठ सकता 
था। उनके घर्म के लिए प्रत्यक्ष रूप से घणा प्रदर्शित की जाती थी। 
देवालयों को गिराना, देवमूर्तियों को तोड़ना ओर उनको अनुचित . स्थानों 
में चुनवाना आय; अत्येक सुस्लिस विजेता और शासक के त्िये शोक का 
काम होता था | फ़ीरोजशाह ने ( रा०--१३५७, रू०--१ ३८८ ) इस 
लिये एंक बाह्मण को जीता जला दिया था कि उसने खुले आम हिंदू 
विधि के अनुसार पूजा की थी)८ । फिरिश्ता ने कथन के रहनेवाले बुड्ढन 
नाम के एक ब्राह्मण का उल्लेख किया हे जिसकी सिकंदर लोदी के सामने 
इसलिए हत्या कर डाढ्दी गई थी कि उसने जन-समुदाय सें इस बात की 
घोषणा की थी कि हिन्दू धर्म भी उतना ही महान्‌ हे जितना पर्यंबर 
सुहम्मद का धर्म | कहते हैं कि यह दंड उसे उल्माओं की एक समिति 
के निर्यय के अज्लसार मित्रा था। उलमाशों ने उसे रूत्यु ओर इस्त्राम 
इन दोनों में से ऐंक को चुनने को कहा था। बुड्ढन ने आत्मा के हनन 





& “तारीख फ़ीरोजूशाही”, पृ० २८८; ई० प्र०-- मेडीवल 
इंडिया”, पृष्ठ १८२-८३; “बिब्लोथिका इ डिका”, ४७५ | 


स्मिथ स्टूडेंट्स हिस्‍्टी झ्राफ़ इण्डिया पष्ठ १२६ | 


| € [० 
हि हिन्दी काव्य में निगण संग्रदाय 


की अपेक्षा शरीर के हनन को श्रेयस्कर समस्या, ओर वह मण्कर इतिहास 
के पृष्ठों में असर हो गया ।+- 


इस प्रकार पठानी सत्तनत के समय तक आदरास्पद राष्ट्रअन 
( सिटिजन ) के समस्त अधिकारों से हिंदू जनता सवंथा चंचित थी । 
उसका निराशामय जीवन विपत्ति की एक लंबी गाथा मात्र रह गया था । 
कोई ऐसी पार्थिव वस्तु उसके पास न रह गई थी, जो उसके अनुभव की 
कटुता में सिठास का जरा भी सम्मिश्रण कर सकती | उसके लिये भविष्य 
सर्वाथा अंधकारमय हो गया था | अंधकार की उस अगाढ़ता में प्रकाश 
की चक्लीण से क्ीण रखा भी न दिखलाई पड़ती थी | 
। ' किंतु हिंदू-धर्म को केवल मुसलमानों के ही नहीं, स्वयं हिंदुओं के 
अत्याचार से भा बचाना आवश्यक था। अपने ऊपर अपना ही यह 
अ्रत्याचार हिंदू-सुस्लिम-संघर्ष से प्रकाश में आया | 
३, बर्ण-व्यवस्था हिंदुत्व ने इस बात का अयत्न किया है कि सामाजिक “ 
की विषमता हो अथवा राजनीतिक, - कोई भी धर्म ब्यक्तिगत : 
छीनामपटी का विषय होकर सामाजिक शांति में ' 
बाधक न बने । इस दृष्टि से उसमें । मनुष्य-मनुष्य के कार्यों की मर्यादा . 
'धहलें 'हो से प्रतिष्ठित करें दी गई है। यही वर्ण व्यवस्था है, जिसमें 
“शुणानुसार कर्मों का, विभाग किया गया हैं। इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य 
'के गुश 'बहुधा परिस्थितियों के ही परिणाम होते हैं । अतएव धीरे-धीरे 
चर्ण का जन्म से ही माना जाना स्वाभाविक था, क्योंकि प्ररिस्थितियाँ जन्स 
' सें ही प्रभाव डालना आरंभ कर देती हैं | परन्तु इसका यह अभिग्नाय नहीं 
कि जन्म से पड़नेवाला अभाव माता-पिता के गुणों का ही होगा अथवा 
'यह कि जन्म से पड़नेवाले प्रभाव अन्य प्रबलनर प्रभावों के आगे मिट 
नहीं सकते । परंतु धीरे-धीरे भारतीय इस बात को भूल गए कि कमसी- 


_अअन्‍पहनन 





+ ईदवरीप्रसाद-- मेडीवल इंडिया, पृष्ठ ४८१८२ | 


पहला अध्याय ७ 


कभो नियमों का ठोक-ठोंक पालन उनको तोड़कर ही ,किया जा सकता 
है। नियम के भी अपवाद होते हैं, यह उनके ध्यान में न रहा | इसका 
परिणाम यह हुआ कि हिंदुत्व के धार्मिक नियसों का वास्तविक अभि्राय 
दृष्टि से ओमकल हो गया और समस्त हिंदू जाति केवल शब्दों की अजु- 
गामिनी बन गई | जो नियम समाज में शांति, मर्यादा और व्यवस्था 
रखने के लिये बनाए गये थे, वे इस प्रकार समाज में वेषम्य ओर क्र,रता 
के विधायक बन गये | जीवन के कार्य-क्रम के चुनाव में व्यक्तिगत गवृत्ति 
का प्रश्न ही न रह! | जिस वर्ण में व्यक्ति-विशेष ने जन्म पा लिया, उस 
चर्ण के निश्चित कार्य-क्रम को छोड़कर ओर सब मार्ग उसके लिये सर्चंदा 
के लिये बंद हो गए | ड्यम का विभाजन तथा कार्य-व्यापार में कोशल- 
प्राप्ति का उपाय न रहकर वर्ण-विभाग सामाजिक विसेद हो गया। जिसमें 
कोई उच्च और कोई नीच समझा जाने लगा | शुद्ध, जो नीच्तम वर्ण 
में थे, सभ्य-समाज के सब अधिकारों से चचित रह गए। वेद और 
धमशास्त्रों के अध्ययन का उन्हें अधिकार न था। उनसें से भी अंत्यजों 
के लिये तो देव-दर्शन के लिये मंदिर-प्रवेश भी निषिद्ध था | उनका स्पर 
तक अपविनत्र समझा जाता था । 
,.._ शताब्दियों तक इस दशा सें रहने के कारण शूद्रों के लिये यह 
सामान्य और स्वाभाविक सीं बात हो गई थी । इसका अनोचित्य उन्हें 
एकाएंक खटकता न था | परंतु मुसलमानों के संसर्ग ने उन्हें जागरित 
कर दिया और उन्हें अपनी स्थिति की वास्तविकता का परिज्ञान हो 
गया । मुसलसान-सुसलमान में कोहे भेद-भाव न था | उनसें न कोई 
नीच था, न ऊंच # मुसलमान होने पर छोटे से छोटा व्यक्ति अपने 
आपको सामाजिक दृष्टि में किसी भी दूसरे सुसलमान के बराबर समम 
सकता था। अहले-इस्लाम होने के कारण वे सब बराबर थे | पर हिंदू 
धर्म में यह संभव न था । 

इस प्रकार के घृसाव्यंजक विभेदों को हिंदू समाज में रहने देना 


ज्फाण 


हिन्दी ०० के ए कः 
ध हिन्दी काव्य में निर्गुण संग्रदाय द 


क्या उचित है ? प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के आगे सारी परिस्थिति इस 
महान्‌ अश्न के रूप में उठ खड़ी हुई | शूद्रों के लिये तो यही एकमात्र 
समस्या थी जिसकी ओर उच्च वर्ण के लोग गहरे गहारों के द्वारा 

रह रहकर उनका ध्यान आक्ृष्ट किया करते थे । सतारा के संत नामदेव 

को लोगों ने किस प्रकार, यह मालूम होने पर कि वह जात का छीपी 

है, एक बार मंदिर से निकाल बाहर किया था, इस बात का उल्लेख 

स्वयं नामदेव ने अपने एक पद सें किया हे ।&& 


राजनीतिक उत्पातों के कारण जो अव्यवस्था ओर हाहाकार उत्तर 
भारत सें मचा हुआ था, उससे अभो दक्षिण बचा था। राजनीतिक 
दृष्टि से वहाँ कुछ शांति का साम्राज्य था और धार्मिक 

७, भसगवच्छुर- जीवन नवीन जागर्ति पाकर अत्यंत कमंण्य हो उठा 
णशागति था | बुद्ध के निरीश्वरवादी सिद्धांतों ने जन समाज के 
हृदय में जो शून्यता स्थापित कर दी थी, उसकी पूर्ति 

शंकराचाय का अद्व तवाद भी न कर सका था। अतएथ लोगों की रुचि 
फिर से प्राचीन ऐकांतिक धर्म की ओर सुड़ रही थी जिसका प्रवतन संभवतः 
बदरिकराश्रम में हुआ था । उपास्म देव को ऐकांतिक प्रेम का आलंबन 
बनानेवाले इस नारायणी धर्म में जनता ने अपने हृदय का आकषण पाया। 
गोपाल कृष्ण ओर वासुद्ेव क्ृप्ण ने सिलकर इससें एक ऐसे स्वरूप को 
जनता के सामने रखा था, जिसमें प्रेम-प्रवणता और नीति-निषुणता की 
एक ही व्यक्ति में वह अनुपम संस्ृष्टि हो गईं, जिसकी ओर दृष्टिपात करते ही 
जन-समुदाय के हृदय सें प्रेम ओर विश्वास एंक साथ जागरित हो गया । 
कृष्ण ने जनता के हृदय के कोमज्ञ तंतुओं का ही स्पर्श नहीं किया था, 


समन न कनन -३५५५ ५०७ कनन न न++ मन भ ५५१० नमन नी न नननननन न नानान+-+वननन- पतन न नकन न नानक ++4 तनमन मनन नि गति भगगियिगगगिगनिगगगगिनितीप नि न ननन न नीननषनीनननिननिनीननन न न न न ननन मन मनन ना + न “3-34 +++--न-- मन गगीगिगकगगगग पति दपर कप तक न त ५५ .+५५३५-3344७343५4>%५ नगरी गगगपाककशनत्अमनआमन» 4 


% हँसत खेलत तेरे देहुरे आया। भक्ति करध नामा पकरि उठाया । 
हीनड़ी जाति मेरी जाद भराया। छीपे के जनमि काहे को झाया ।। 


“आादि-ग्रथ, पृष्ठ ६२६ 


पहला अध्याय 8 


उनके हृदय में अपनी सुरहता की दृढ़ भावता भी बद्धमूल कर दो थी। 
कृष्ण के प्रेम में जनता ने अजुन के समान ही अपने आपको सुरक्षित 
समझा । इसा के चार सो वर्ष पहले चंद्रयुप्त मोर्य की सभा में रहनेवाज्ले 
यवत राजदूत सेगास्थनीज ने जिस 'दिसक्‍लीज” ( हरि>क्ृप्ण ) को “उन 
शौरसेनियों का उपास्य देव बतल्ाया जिनके देश में मथुरा नगरी 
अवस्थित है और यमुना प्रवाहित होती है”, वह कृष्ण ही था | पांचरात्रों 
के द्वारा यृहीत होने के कारण यह णुकांतिक घम पाचरात्र ओर सात्वतों 
के कारण सात्त्वत धर्म कहलजाया। नारायण के साथ एकरूप होकर, 
कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाने लगे थे इसकिए वह वेष्णव घर्मे 
कहलाया । इनके भगवान्‌ या सगवत्‌ कहलाने से इस धर्म दी भागवत 
संज्ञा भी हुईं । ईसा से १४० वर्ष पूथ तक्तशित्रा के यवन राजा एंटि- 
आल्काइडस का राजदूत, डिओस का पुत्र हेलिओडोरस जो विदिशा 
के राजा कारिपुत्र भागभद्व को सभा में रहता था, भागवत था| उसने 
“देवदेव वासुदव का! गरुदृध्वज-स्तंभ बनावाया था जिस पर उसने 
अपने आपको स्पष्टया भागवत लिखा था& | गुप्त-राजजुल, जिसका 
समय चोथी से आठवीं शताब्दी तक है, वेष्णव था । गुप्त राजा अपने 
आपको परम-भागवत कहा करते थे | उनके सिक्‍के तथा बिहार, मथुरा 
ओर मभिटारी के उनके शिलालेख इस बात के साही हैं+- । 


चोल मंडल ( कारोमंडल्न ) ठट पर बेंगी के पल्लवों के शिल्नालेखों 


क9 देवदेवस वासुदेवस गरुडडध्वजे अ्रय॑ 
कारिते इश्च हेलिश्ोदो रेण भागवतेन 
: दियसपुत्रे रा सखसिलाकेन योनदूतेन 
आगतेन महाराजस अतलितस उपंता सकास 
रजो कासिपृत्रस भागभद्रस त्रातारस । 
न कनिघम-- आक लाजिकल सर्वे, भाग १, प्लेट १७ झौर ३९ । 


मकर ए ्ह 
१० हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


से पता चलता है कि चोथी-पाँचवीं शताब्दी के पद्चव राजाओं में 
भी भागवत धर्म का सम्मान था & । गुजरात के बलभियों के सम्बन्ध 
में भी यही बात कही जा सकती है | उनके छुटी शताब्दी के शिलालेख 
से यह बात स्पष्ट है। सातवीं शवाब्दी मेँ बाणमटद्ट ने अपने ह्षचरित 
में पांचरात्र ओर भागवत दोनों का उल्लेख किया है। 


शड्भर-द्ग्विजय के अनुसार शंकर को पांचरात्र ओर भागवत दोनों 
से शास्राथ करना पढ़ा था | शंकर का समय कोई सातवीं शताब्दी 
मानते हैं ओर कोई नवीं । 

दक्षिण भारत सें यह नारायणीय भागवत धर्म कब ग्रचारित हुआ, 
इस्रका कोई स्पष्ट अनुसान नहीं किया जा सकता | हाँ, इतना कहा जा 
सकता है कि अत्यन्त आ्राचीन काल में ही वह वहाँ पहुंच गया था ; ओर 
दसवीं शताब्दी में यद्यपि शेव धर्म के अमुख स्थान को वह नहीं छीन 
सका था, फिर भी बछुमूल तो अवश्य हो गया था। तामिलभूमि के 
आलवार संतों को हम इस शताब्दी से पहले ही पूर्ण वेष्णव पाते हैं । 
चेष्णव धर्म का अनुगसन वे केवल शब्दों द्वारा ही नहीं करते थे, अत्युत 
वह उनके समस्त जीवन सें व्याप्त था । इन आलवार सुंतों ने सीधी- 
सादी तामिल भाषा की कविताओं में अफ्ने हृदय के स्वाभाविक उद्भारों 
को प्रकट किया है | अंतिम असिद्ध आलवचार शट्गोप अथया नम्मालवार 
था जिसके शिष्य नाथझ्ुनि ने आलवारों की चार हजार कविताओं का एक 
वृहत्‌ संग्रह अस्तुत किया था। इस समभ्रह का तामिल्र में वेदतुल्य 


आदर है | 


नाथमुनि से आलवारों की शाखा समाप्त हो जाती है और असिद्ध 
आचायों की शाखा आरस्म होती है । आलवार थाय: नीची जातियों के 
होते थे परन्तु ये वेष्णव आचायंगण उच्च ब्राह्मण कुल के थे। नाथमुनि 
आन] 


59 'इण्डियन ऐटिक्वेरी', भाग ५, पु० ५१ और १७६ । 


है पहला अध्याय ११ 


है वि० सं० १०४२-१ ०८७; सन्‌ श्य४-१०३० ई० ) परम कृष्णसक्त थे । 
कृष्ण के जन्म-सम्बन्धी समस्त स्थानों के उन्होंने दर्शन किए थे। मथुरा- 
वृन्दावन, द्वारका आदि स्थानों की यात्रा करके जब वे लोटे तो अपने 

नवजात पोन्न का उन्होंने यम्जुना-तट-विहारी की यादगार में यासुन नाम 

रखा । याझ्ुनाचार्य अपने पितामह से भी बड़ा पंडित हुआ। वह 

चोलराज का पुरोहित था। राजा ने एक बार सांप्रदायिक शाख्राथ में 

अपना राज्य ही दाँव पर रख दिया था। उस अवसर पर विजय प्राप्त 

कर यामुन ने अपने स्वामी की आन रखी थी। पितामह के मरने पर 

यामुन॒संन्‍्यासी हो गया और बड़े उत्साह से वेष्णव धर्म का प्रचार 

करने लगा । परन्तु वेष्णव धर्म को व्यवस्थित करने में इन दोनों से 

अधिक सफलता रामाजुज को हुईं जो बाद को नामानुसार लक्ष्मण 

ओर शेषनाग के अवतार माने जाने लगे | रामानुज भी दूसरी शाखा 

से नाथमुनि के प्रपीत्र थे | उनकी शिक्षा-दीक्षा शाॉकर अद्वेंत के आचार्य 

थादवप्रकाश के यहाँ हुईं थी। अद्वेतवाद उनके मनोनुकूल न था, 
इसलिये यादवग्रकाश से उनकी निभी नहीं । यामुनाचाय ने उन्हें अपने 

पास बुलाया, परन्तु उन्हें श्री संग्रदाय सें दीज्ित करने के लिये वे जीवित 

न रह सके | रामानुज को केवल्न उनके शव का दशंन हुआ। 

श्री वेष्णव संप्रदाय की आधारशिला विशिष्टाह्नेत को, जिसे नाथमुनि 

ने तेयार किया था, रामाजुज ने दृढ़ रूप से आरोपित कर दिया। 

चेदांत सूत्र पर उनका श्रीभाष्य बहुत असिद्ध हुआ। गीता और 

उपनिषदों के भी उन्होंने विशिष्टद्वेती भाष्य किएं। इन भाष्यों में 

उन्होंने शंकर के मायावाद का खंडन किथा ओर माया को ब्रह्म में 

निहित मानकर उससें गुणों का आरोप कर लिया जिससे तत्त्व रूप से 

भी भक्ति के लिये रंढ़ आधार निकल आया | यदि ब्रह्म सें ही गुश्शों का 
अभाव है, वह तत्वतः क्रुणावरुणालय नहीं हे, तो ईश्वर ही में गुणों 
का आरोप कहाँ से हो सकता है ? भक्त का उद्धार ही कसे हो सकता 


हिन्दी 5 ९ हट 
श्र्‌ दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


है १ शंकर के रूखे अद्ठ तवाद से ऊबे हुएं लोगों को यह विचारधारा 
अत्यंत आकषक प्रतीत हुईं। बड़े-बड़े प्रतिवादियों को शाखाथ में 
रामालुज के आगे सिर कुकाना पड़ा | नृपतिगण उनके शिष्य होने क्गे 

उन्होंने बीसियों मंदिर बनवाएं ओर शीघ्र ही उनके भक्तिमुल्क सिद्धांतों 
का जन समाज में प्रचलन हो गया । 

यादवाचल पर नारायण की मूर्ति की स्थापना के साथ रामानुज ने 
भक्ति की जिस घारा को ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया वह ससय 
पाकर देश को एक ओर से दूसरे छोर तक क्षावित करती हुई बहने 
लगी | उनल्नतमनाओं का एक समह, जिनके हृदय में परमात्मा की दिव्य- 
ज्योति अय्ती पू्०णं आभा से जगसगा रही थी, इस ज्ञावन के विशेष 
कारण | 

रामानुज का समय बारहवीं शताब्दी माना जाता है| रामाजुज 
ही के समय में सिंबाक ने अपने में भेदाभेद के सिद्धान्त को लेकर 
वेष्णवसत की पुष्टि की। निबाक॑ भागवत-कुल में उत्पन्न हुए थे। 
उन्होंने राधाकृष्ण की उपासना को आधान्य दिया ओर दृन्दावन 
में आकर आज्जीन स्मृतियों के बीच अपने राधाक्रृष्णमय जीवन को 
साथ्थंक सममा | 


कर्णाटक और गुजरात में आनंदतीथ (मध्य ) ने वि० सं० ११९७ 
से ५३३२ ( सन्‌ १२०० से १२७४ है० ) के बीच अपने ढं तवाद के 
द्वारा उपास्य ओर डपासक के लिए पूछ स्थूल आधार निकालकर वेष्णव 
भक्ति का प्रचार किया | 

महाराष्ट सें पंदरपुर का विडोचा का सम्दिर वेष्णव धर्म के प्रचार 
का केन्द्र हो गया। ग्यारहवीं शत्ताब्दी में मुकदराज ने अद्व तमूलक 
सिद्धांतों को लेकर चष्णव घम का समथन किय&।| नामदेव, ह्लानदेव 
आदि पर स्पष्ट ही उसका प्रभाव पड़ा था | 

बंगाल में चतल्यदेव ( सं० १४४२-१४६० ) और इनकी शिष्य- 


न चडला ऋत्याय १३ 


मंडलो ने भक्ति की उन्‍्मादकारिणी विह्लता में जन-समाज को भी 
पागल बता दिया | 
उत्तर में राघवानंद ओर रामानंद तथा वल्क्भाचाय के ग्रयत्न से 
वैष्णव भक्ति का प्रवाह सर्वप्रिय हो गया | राघवानंद रामानुजी श्रीवप्णव 
थे ओर रामानंद उनके शिष्य, जिनका अलग ही एक संप्रदाय चला | 
गोसाईं तुलसीदास उन्हीं के संग्रदाय में हुए। रासानंद ने सीतारास की 
भक्ति का प्रतिपादन किया और बल्जम ने शुद्धाइत और पुष्टिमाग को 
लेकर राधा-कृष्ण की भक्ति चलाई | 
ठीक इसी समय उत्तर भारत के हिंदुओं को मुस्लिसम-विजय के 
कारण समस्त विरक्तिमय धर्मों के उस मूल सिद्धांत का अपने हो जीवन 
में अनुभव हो रहा था, जिसके अनुसार संसार केवल दु।/ख का आगार 
मात्र हे। उस समय वे ऐसी परित्थिति में थे जिसमें संसार की 
अनित्यता का, उसके सुख और वेभव की विनश्वरता का स्वाभाविक रूप 
से ही अनुभव हो जाता है| अतएवं अत्याचार के नीचे पिसकर विपत्ति 
में पड़े हुए हिंदुश्नों ने सांसारिक सुख ओर विभसव से अपनी दृष्टि 
मोड़ छी, ओर उस एकमात्र आनद को श्राप्त करने के लिए जिससे 
उन्हें वंचित रख सकना किसी की सामरथ्य .में नहीं था, थे वष्णव 
आचारयों द्वारा प्रचारित इस भक्ति की धारा में उत्सुकता के साथ डुबकी 
लगाने लगे | रस 

इस आजंद का उद्बेक देश के विभिन्न भागों से कवियों की मधुर 
वाणी में छुलक-छुलककर बहने लगा। बंगाल में उसापति (१०४० वि 
सं० ) और जयदेव ( १२२५ वि० सं ) अपने हृदय के मदुल उद्गारों 
को दिव्य गीतों मे पहले ही प्रकट कर चुके थे | जयदव के जगठासिद्ध 
गीतगोविंद के राघामब्धव के ऋड़ा-कलापों की प्रतिध्वनि मेथिल कोकिल 
विद्यापति ( १३६० वि० सं० ) की कोमल-कांत 'पदावह्ली” में सुनाई 
दी। गुजरात में नरसी मेहता ने, मारवाड़ में मीराबाई ने, मध्यदेश में 


हक अी न 
१ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय / 


| 


सूरदास ने ओर महाराष्ट स॑ श्ञानदेव, नामदेव ओर तुकाराम ने इर्स 
भक्तिमूलक आनंद की अजख वर्षा कर दी | 

इससे हिंदुओं को प्रतिरोध की एक ऐसी निष्क्रिय शक्ति ब्राप्त हुई, 
जिसने उन्हें भय की उपेक्षा, अत्याचारों का सहन ओर प्राणांतक कष्टों 
को सहते हुए भी जी वन धारण करना सिखाया । इस प्रकार जो जाति 
नराश्य के गत में पढ़कर जीवन की आशा छोड़ चुकी थी, उसने चह सत्त्व 
संचय कर लिया जिसने क्षीण होने का नाम न लिया | 

भगवान्‌ के द्व्य सौंदय से उदय होनेवाला आनंदातिरेक निष्किय 
शक्ति का ही रूप धारण करके नहीं रह गया। उसने देत्य-विनाशिनी 
क्रियमाण शक्ति का रूप भी देखा | तुलसीदास ने पुरानी कहानी में 
इसी अनंत शक्ति से संयुक्त राम को अयने अमोब बाण का संधान किए 
हुए अन्यायी रावण के विरुद्ध खड़ा दिखाया। भक्त-शिरोमणि समर्थ 
रामदास ने तो आगे चलकर शिवाजी में वह शक्ति भर दी, जिसने 
शिवाजी को भारतीय इतिहास मे एक विशिष्ट स्थान दिल्ला दिया | 

परंतु वेष्णब आंदोलन से भी परिस्थिति की सब आवश्यकताओं 
की पूर्ति न हुईं। घटनाओं के अवाह ने जिन दो जातियों को 

भारत में ला इकठहा किया, उनके बीच साबंत्रिक 
४, सम्सिलन विरोध था। विजेता ओर विजित में स्थिति का कुछ 
का आयोजन अंत्फ तो होता ही है, परंतु इन दोनों जातियों के 
बीच ऐसे धार्मिक विरोध भी थे जो विजेताओं को 

अधिकाधिक दुष्यबहार और अत्याचार करने की श्रेरणा करते थे। 
मुस्लिम विजय केवल मुस्लिम राजा की विजय न थी, बल्कि मुहम्मद 
की विजय भी थी । इस्लाम की सेना केवल अपने राजा के राज्य-विस्तार 
के उद्देश्य से नहीं लड़ रही थी, बल्कि दीन” के प्रसार के लिये भी । 
अतएव यह दो जातियों का ही युद्ध न था, दो धर्मो का युद्ध भी था । 
हिंदू सूर्तिपुजक था, मुसलमान मूर्ति-भंजक | हिंदू. बहुदेववादी था पर 


पहला अध्याय ह श्र 


मुसलमान क जिये एक अल्लाह को छोड़कर, मुहम्मद जिसका रसूल 
है, किसी द्वसरे के सामने सिर भझुकाना कुझू था, ओर कुफझू के अपराधी 
काफ़िर की ह-या करना धामिक दृष्टि से अभिनंदनीय समझा जाता था, यहाँ 
तक कि हत्यारे को गाजी की उपाधि दी जाती थी | इस सम्मान के लिए 
फपेक अहले-इस्लाम लालायित रहता रहा होगा | अतएव कोई आश्च्य 
नहीं कि हिंदुओं पर मुसलमानों का अत्याचार उतार पर न था और न 
मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की ही वह “घोर घृणा” कम हो रही थी, 
जिसके अल्न-बेरूनी को दुर्शन हुए थे& ॥ इस प्रकार इन दो जातियों के 
बीच द्वष का विस्तीण समुद्र था जिसे पार करना अभी शेष था | 
सौभाग्य से दोनों जातियों में ऐसे भी महामना थे, जिनको यह 
अवस्था शोचनीय प्रतीत हुईं । वे इस बात का अनुभव करते थे कि न 
तो सुसलमान इस देश से बाहर खदेंढे जा सकते हैं ओर न घम-परिवतन 
अथवा हत्या से हिंदुओं की इतिश्री ही की जा सकती है । उस समय 
की यही स्पष्ट औवश्यकता थी कि हिंदू ओर मुसलमान अड़ोसी-पड़ोसी 
की भाँति प्रेस और शांति से रहें ओर इन उदारचेताओं को भी इस 
आवश्यकता का स्पष्ट अनुभव हुआ । दोनों जातियों के दूरदर्शी विरक् 
महात्माओं को, जिन्हें जातीय पक्षपात छू नहीं गया था, जिनको दृष्टि 
तत्काल के हानि-लासम सुख-दुख ओर हथष॑-विषाद के परे जा सकती थी, 
इस आवश्यकता का सबसे तीव्र अनुभव हुआ ९ असिद्ध योगिराज गुरु 
गोरखनाथ)८ ने---जिनका समय दसवीं शताब्दी के लगभग ठहरता हे-- 
करान में प्रतिपादित बलात्कार का निषेघ करनेवाले उस दिव्य सिद्धांत 
को सुसल्तमानों क्ले हृदय पर अंकित करने का प्रयत्न किया है, जिसका 





4# ई० प्र०-- मैडीवल इंडिया. पूृ० ६२॥ 


» गोरखनाथ संबंधों अपने अनुसंधान का में एक अलग निवंध में 
समावेशः कर रहा हूं । 


१६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


पीछे उल्जेख किया जा चुका हे | रंछ काजो को संयोजित करके उन्होंने 
कहा था कि “हे काजी ! तुम व्यर्थ मुहम्मद सुहस्मद न कहा करो | 
सुहस्मद को समझ सकना बहुत कठिन है, मुहम्मद के हाथ में जो छुरी 
थी वह लोहे अथवा इस्पात की बनी नहीं थी & |?” अरथांत चे प्रेम 
अयवा आध्यात्मिक आक्रषंण से लोगों को वश सें करते थे । हिमालय 
सें प्रचल्नित मंत्रों में इस बात का उल्ज्ेख हे कि महात्मा गोरखनाथ॑ ने 
हिंदू मुसलमान दोनों को अपना चेला बनाया था» । बाबा रतन हाजो 
उनका सुसलमान चेला माजूम पड़ता है, जिसने मुहम्मद नामक किसी 
सुसलमान बादशाह को अबोधित करते हुए 'काफिर-बोध! नासक पद्च- 
ग्रन्थ लिखा था, जो आजकल कहीं गोरखनाथ ओर कहीं कबोर का माना 
जाता है। 'काफिर-बोध” में यह दिखलाने का प्रयत्न किया गया हे कि 
हिंदू और सुसज्ञमान में सेद-भाव नहीं रखना चाहिए, क्योंकि जिस बिंदु 
से हिंदू-सुसलमान पेदा होते हैं, वह न हिंदू है, न सुसलसान | हिंदू 
मुप्तज़मान दोनों एक ही परमात्मा के सेवक हैं, अतएंव हम जोगी किसी 
से पतक्षपात नहीं रखते-- | 





& मुहम्मद मुहम्मद न कर काजी मुहम्मद का विषम विचार | 
मुहम्मद हाथि करद जे होती लोहे गढ़ी न सारं॥ 
-- जोगेश्वरी साखी ', ८, पोड़ी हस्तलेख । 
> हिंदू मुसलमान बाल गुदाई । दोऊ सहरथ लिये लगाई ।। 
“- रख्वाली | 
न+ जिस पाणी से कुल आलम उतपानां | 
ते हिन्दू बोलिए कि मुसलमाना ॥ २० ॥। 
हिन्दू मुसलमान खुदाइ के बंदे । 
हम जोगी ना रखे किस ही के छंदे ॥| ६॥। 
“- पौड़ी हस्तलेख , पु० २४३॥। 


पहला अध्याय १७ 


लगभग दो शताब्दों के बाद वेष्णव साथु रामानन्द ने कबीर 
नास# एक सुसलनात युत्रक को अपना चेला बनाया, जिसके भाग्य 
में एक बड़े मारो ऐक्च-अज्दोज्नन का प्रवर्तक होना लिखा था। 
स्वयं मुसलमानों से ऐसे कोगों का अमाव न था जो हिन्दू-सुस्लिम 
विउष के अनेवित्य को देख सकते | उनमें अमुख सूफी फकीर थे 
जिनकी विचार-घारा हिन्दुओं के अधिक मेल म॑ थो | 
६. हिंदू पिचार- सूफी मत का उदय अरब में हुआ था। अरब और 
धारा ओर सूफी भारत का पारस्परिक सम्बन्ध बहुन प्राचीन है | इतना 
धर्म. तो पाश्चान्य विद्वान भी मानते हैं कि अरब और 
भारत का व्यापार-सम्बन्ध इसा के १०८६ चर्ष पूर्च 
से हे । बीछ धर्म ने अशोक के राजत्व-काल्न में भारत की पश्चिमोत्तर 
सीसा को पार कर लिया था। महायान धमम, जिसमें बुद्ध धर्म ने 
भक्तियोग, ' दृशनशासत्र को बहुत कुछ अपना लिया था, इंसाकी 
पाँचवीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत से बाहर कदम रख चुका था । 
फाहियान को खूटान में उसके दर्शन हुए थे। डाक्टर स्टीन की खोजों से 
फाहियान का समथन होता है | ह० सन्‌ ७१२ में अरबों ने सिन्ध-विजय 
की | अरब विजेता भारत से केवल लूट-पाट का माल ही नहीं ले गए, 
प्रत्युत भारतीय संस्कृति में उन्हें जो कुछ सुन्दर ओर कल्याणकर मित्रा, 
उससे भी उन्होंने काम उठाया | भारतीय संस्कृति, भारतीय विज्ञान, 


& लंदन की रायल सोसाइटि झाँव झट के भारतीय विभाग के 
सामने कप्तान पी० जॉन्स्टन सेट का दिया हुआ ऐन आउट-ल्ाइन आँव 
दि हिस्टरी आँव मेडिसिन इन इंडिया ( भारतीय ओऔषध-विज्ञान के 
इतिहास की रूप-रेखा ) शीर्षक सर जार्ज बर्डउड-स्मारक व्याख्यान, 
जिससे कुछ अवतरर हिन्दू यूनिवर्सिटी मंग्रेजीन भाग २६, नं० हे, पु० 
२३० में और उसके आगे के पृष्ठों में छुपे थे । 


हिन्दी में नि ० 
श्छ हन्दी काव्य में निर्गृण संप्रदाय 


भारतीय दर्शन सबका उन्होंने समादर क्रिया और अरब को ले गएं। इसो 
शताब्दी में, अरब सें, सूफी मत का उदय हुआ । सूफी शब्द का पहला 
उल्हेख सीरिया के जाहिद अबवृहसन की रचनाओं सें मिलता हैं, जिसकी 
सत्यु हैं० सन्‌ ७८० में हुई | सन्‌ ७४६ से ८०६ तक बगदाद के 
अब्बासी सिंहासन पर मंसूर ओर हार रशीद सदश उदार खलीफा बेठे, 
जिन्होंने विद्या ओर सस्कृति को अपने यहाँ उदारता-पूर्ण प्रश्रय दिया । 
अपने बरामका मंत्रियों की सलाह से उन्हें इस सम्बन्ध में बड़ी सहायता 
मिलती थी । बरामका लोग पहले बोद थे, पीछे से उन्होंने इस्लाम धर्म 
को अहण कर लिया. | उनका भारतीय संस्कृति से आक्ृष्ट होना स्वाभा- 
विक ही था। सन्‌ ७६० से ८५० तक याहिया बरासकी मन्त्री रहा | 
उसने एक योग्य व्यक्ति को भारतीय धर्मों और भारतीय चिकित्साशास्र 
का अध्ययन ओर अन्वेषण करने के लिये भारत भेजा | इस व्यक्ति 
ने अध्ययन ओर अन्वेषण से जो कुछ पता लगाया, उसका लंबा-चौड़ा 
विवरण लिखा | यद्यपि यह विषरण अब लमभ्य नहीं हे, तो भी उसका 
संक्षेप इब्न नदीम की किताबुल फेहरिस्त में सुरक्षित हे | इब्न नदीम 
ने विवरण के लिखे जाने के ७०-८० वर्ष बाद अपना संक्षेप तेयार 
किया था-- | इस संछेप से पता चलता हे कि इस विच्रण के लेखक ने 
हिंदू धर्म के सिद्धांतों के दार्शनिक भूल्र तत्व को अच्छी तरह से समझ 
दिया था| अरबों को हिंदू-धर्म का साधारण ज्ञान तो पहले ही से रहा 
होगा, अन्यथा वे उसके ग्रगाढ़ परिचय के लिये लालायित न होते । 
कहना व होगा कि भारत में धर्म ओर दर्शन का अन्‍्योन्‍्याश्रय-संबन्ध 
है। सूफी धर्म पर शंकर के कट्टर अह्वेत वेदांत का असर नहीं दिखाई 
& अवारिफल मआारिफ ( अंगरेजी भ्रनवाद ); पृ० १ । 

> नदवी--अरब और भारत के सम्बन्ध, पु० ६४ | 

ल्‍+ नदवी--भ्ररव और भारत के संबंध, पृ० १६७ । 


पहला अध्याय १६ 


देता हे, इससे यह परिणास न निकालना चाहिए क्रि सूफी विचारधारा 
के निर्माण सें हिंदू विचारधारा का कोई हाथ नहीं है। सारत में भी 
देदांत के*अंतर्गत शांकर मत का विकास बहुत पीछे हुआ | संभव है, 
ग्तोस्टिसिज्म ओर नियो-प्लेटोनिज्स ने भी सूफी मत के ऊपर अभाव 
डाला हो । परंतु मिस्टर पोकोक ने अपनी पुस्तक इंडिया इन ग्रीस 
( यूनान में भारत ) में दिखलाया हे कि यूनान भारतीय प्रभाव से 
ओत-ओत है । कुरान ने विरक्ति का निषेध किया है । इसके विराध में 
जिन कुछ लोगों न सिलकर सन ६२३ मे तपोमय जीवन बिताने का 
निश्चय किया, उन्हें खुफी मानना भी ठीक नहीं । सूफी मत की विशेषता 
केवल तयोमय जीवन न होकर परमात्मा केग्रति अनन्य प्रेस-भावना 
हे, जिससे समस्त संसार उन्हें परमात्मा-मय मानूम होता है। जिसके 
आगे अंध-विश्वास ओर अंध-परंपरा कुछ भो नहीं ठहरने पाते ओर 
जिसका आधार अह तमृलक सर्वात्मवाद हे । 

जो हो, इस बात को सब विद्वान्‌ मानते हैं कि सूफी मत का दूसरा 
उत्थान, जिसको विकास फारस में हुआ, अधिकांश में हिंदू प्रभावों का 
परिणाम हे । यहाँ पर हमारा उसी से अधिक संदंध है । 
2” ' इस अकार सूफी सत का उदय अरब में और विकास फारस में 
हे कुछ भारतीय संस्कृति के प्रभाव से हुआ | उनका अद्ढ तम्यूलक 
_सर्वात्मवाद भारतीय दर्शन का दान है। नियोप्लेटोनिक सिद्धांतों ने 
उनकी दाशनिक तृषा को उभाड़ा अवश्य होगा, «परंतु उनके सिद्धांतों के 
अध्ययन से जान पड़ता हे कि उसकी शांति भारतीय सिद्धांतों से ही 
हुईं । जन्मांतरवाद, विरक्त जीवन, फरिश्तों के अति पूज्य भाव ( बहु 
देव-वाद ) ये सब्ब इस्लाम के विरुद्ध हैं ओर सूफी संग्रदाय को बाहरी 
संसर्ग से आघ हुए हैं। इनसें से विरक्त जीवन तथा फरिश्ता-पूजन में 
ईसाई प्रभाव मानना ठीक है परन्तु जन्मांतरवाद स्पष्ट ही भारतीय हे । 
उनका “फना” भो बोद “निर्वाण” का अतिरूप है । परंतु बोद निर्वाण 


| 


२० हिन्दी काज्य में निगुश संप्रदाय 


की तरह स्वयं साध्य न होकर वह “'मनमारण” के द्वारा द्व तमावना का” 
नाशकंर 'बक़ाः अथवा “अपरोक्ञानुसूति! का साधन है। असिद्ध सूफी 
फकीर बायजींद ने 'फ़ना! का सिद्धांत अबू अली से सिंध में सीखा था । 
अबू अली को अणायास की विधि भी मालूम थी, जिसे वे पास-ए-अन- 
फ़ास कहने थे। सूफियों पर भारतीय संस्कृति का इतना प्रभाव पड़ा 
था कि उनके दिल की मूर्ति के लिये भी विरोध न रह गया था और 
वे बुत” के परदे में भी खुदा को देख सकते थे। प्रभाव चाहे जहाँ से 
आया हो, इतना स्पष्ट है कि हिंदू चिचार-परंपरा ओर सूफी विचार- 
परंपरा में अत्यंत अधिक ससानता थी । 

'. विचार-परंपरा को इंस समानता ने स्वर्भावत: उन्हें हिंदुओं की ओर 
अ्रक्ृष्ट किया । उन्होंने हिंदुओं से खूब मेल-जोल बढ़ाया । हिंदू सखुओ्ों 
का उन्हें सत्संग ग्राप्त हुआ, हिंदू घरों से भी उन्होंने मिक्ा प्राप्त की । 

दुओ के जीवन को उन्होंने विजेता की ऊवाई से नहीं, बल्कि सहृदयता 
की निकट्ता से देखा | उनकी विपत्ति के लिए उनके हृदय में सहानुभूति 
का स्रोत उमड़ पड़ा । अपने सधर्मियों की डठी ३ तलवार के प्रहार, 
ने अपने हीं ढंग पर रोकने का प्रयत्त किया।, उन्होंने उनकी तक- 
पर असर डालने का अ्यत्न नहीं किया, उनके ह॒देय की भावुकता 
क़ो्‌ | उड्ीत क्र यह करना चाहा । हिंदू-हृदय की सरल सुषमा को 
नहोंने उनके समक्ष उद्घाटित कर सुस्लिम ह॒दुम के सौंदर्य को प्रस्फूटित 
के ॥7:5+ 
करना चाहा.। अंतएव उन्होंने मौलाना रूमी की _मसनवी के ढंग पुर 
हिंदू जीवन की मम-स्पशिणी ऋटानियों लिखकर भारतीयों की बद्धमूल 
संस्कृति की मनोहारिणी व्यवख्या की | हिंदी की ये पद्य-कहानियाँ अगरेजी 
साहित्य के संमांटिक आंदोलन की. समक्ष हैं. | इन कहानियों का»लिखा 
जाना कब ओर किसके द्वारा आरभ हुआ, इसब्या अभी दीक-ठीक़ पता 
नहीं । सबसे पुराना शात प्रेमाल्यानक कवि मुल्ला दाऊद मालूम होता 
है, जो अलाउद्दीन के राजत्वकात में वि. सं० १४६७ के आस-पास विद्य- 


; कद /५॥ 


पहला अध्याय २१ 


मान था। परंतु मुल्ला दाऊद भी आदि प्रेमाख्यानक कवि था या नहीं 
नही कह सकते | उसकी नूरक आर चुद की कहानी का हमें नाम ही 
नास माजूम है। कुतबन को मगावदी पहछी प्रम-कहानी है जिसकेक 
बारे में हम कुछ जानते हैं। यह पुस्तक सिकंदर छोडी के राजत्वकाल् 
मं सवत्‌ १५५७ .क़ लगभय लिझी गई थी। जब्र कि प्ररस्पर-विरोध्री 
संस्कृतियों का समझना सबसे अधिक आवश्यक जान पड़ता था| परतु 
सगावती में इस प्रकार की कहारी लिखने की कला इतनी कुछ विकसित 
है कि उसे भी हम इस प्रकार की पहली कहानी नहीं मान सकते | कुंतवन 
के बाद मंम्मन ने सघु-मालती, मलिक मुहम्मद जायसी ने पंद्मावत और 
उसमान ने चित्रावत्ती लिखी। इन प्रेम-कहानियों की धारा बराबर 
बींसवीं शताब्दी तक बहती चली आई है। ये कहानियाँ एक प्रकार से 
पौक्तियाँ हैं, जिनमें लॉकिक प्रेम ईैश्वरोन्मुख प्रेम का प्रतीक है। 
इनकी पढ़ने से माजूम होंता है, जसे इनके मुसलमान लेखक हिंदुओं के 
जीवन-सिद्धांतोंका उपदेश कर रहे हों। आदि मुस्लिस-काल की इन 
कहातियों में भी हिंदू जीवन की बारीक से बारीक बातें बदे हिक्ाने से 
चित्रित हैं । जिससे पता चलता है कि इचके सूफी लेखक हिंदू समाज 
तथा हिंदू साथुओं से घत्तिष्ट ,मेत्रजोब' रखते थे। इससे यह भी फ्ता 
चक्नता है क्लि उनके हृदय मे हिंदुओं के प्रति क्रितनी सहाजुभूति थी। 
इससे स्वभावतः हिंदुओं सें भी उनके प्रति श्रद्धा और आदर का भा 
उदित, हुआ.. होगा | हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान पं० रास़चंद्र शुक्ल का. अजु- 
भ्रव् हे कि ज़िन-जिन परिवारों से पद्मावत की फ्रोथी पाई गई, वे छिदुओं 
के झविरोधो, खद्दिष्णु ओर उदार पाए गए | इस प्रकार दोनों जातियों 
के साथुओं के कतृ त्क से एक ऐसी भूमि का निर्माण हो रहा था जिससे 
ट्िंढ़ू आर सुंसलमान दोनों प्रेग्रपूबक मिल सकते | . .. 
४5: पिव्काल से अग्रवस्त्‌ की शरण प्र जाकर हिंदू किख़ प्रकार हार्दिक 


गत प्राप्त करते का प्रयत्न कर हहे थे। बह हम देता शुफे हैं । धूद्ध को 


२२ हिन्दी काव्य में नि्गुण सं उदाय 


भगवान की शरण में जाने का द्विगुण कारण विद्यमान 

७. शूद्रोद्धार था। उस पर दुगुना अत्याचार होता था। हिंदू होने 

के कारण सुसलमान उसके ऊपर अत्याचार करता 

था ओर शूद्ध होने के कारण उसी का सधर्मी उच्च जाति का हिंदू । 

अतएव परमात्मा की शरण स जाने के लिए उसकी आकुल्नता का 
पारावार न रहा | 


मध्यकालीन भारत के धार्मिक इतिहास के पन्‍ने शूद् भक्तों के नामों 

से भरे हैं, जिनका आज भी ऊँच-नीच सब बड़े आदर के साथ स्मरण 
है ७5 कर.  .. 

करते हैं | शटगोप ( नम्मालवार ), नामदेव, रंदास, सेन आदि नीच 

जाति के भक्तों का नाम सुनते ही हृदय में श्रद्धा उमड़ पड़ती हे | हमारी 

श्रद्धा की इस पात्रता की सच्ची परख हमारी ऋरता हुई। बाधाओं 

को कुचलकर शूद्र आध्यात्मिक जगत्‌ मे ऊपर उठे | समाज की ओर से 
तो उनके लिए यह मार्ग भी बंद था| ० 


शुद्दों की तपस्या ने धीरे-धीरे परिस्थिति को बदलना आरम्म कर 
दिया | तामिल भूमि में तो मुसलमानों के आने के पहले ही शेव संत 
कवियों तथा वेष्णव आलवारों को यो न; पिता जनिता विधाता? के 
चेदिक आदर्श की सत्यता की अनुभूति हो गई थी। जब सबका पिता 
एक परमात्मा है जो न्‍्ययिकर्ता हे, तब ऊंच-नीच के लिए जगह ही कहाँ 
हो सकती है | उनकी धघर्मनिष्ठाजन्य साम्यभावना के कारण यह बात्त' 
उनकी समम्र में न आती थी | .एंक पिता के पुत्रों में प्रेस ओर समानता 
का व्यवहार होना चाहिए, न कि घणशा ओर असमानता का | अतएुच 
वे सामाजिक भावना सें वह परिवततन देखने के जल्िएं उत्सुक हो उठे, 
जिससे परस्पर न्याय करने की अभिरुचि हो, सौहाईं बड़े और ऊँच-नीच 
का भेद-भाव मिट जाय | तिरु मुलर ( १० वीं शताब्दी ) ने घोषणा 
की कि समस्त मानव-ससाज में एक के सिचा दूसरा वर्ण नहीं और 


पहला अध्याय ग्‌३ 


एक के सिवा दूसरा परमात्मा भी नहीोंऊः । नस्साजवार ने कहा, वर्ण 
किसी को ऊँचा अथवा नीचा नहीं बना सकता | जिसे परमात्मा का ज्ञान 
है, वही उच्च हे ओर जिसे नहीं, वही नीच)८ । शेच भक्त पद्टाकिरियर की 
यही आंतरिक कामना थी कि अपने ही भाइयों को यहाँ के लोग नीच 
सममने से कब बाज आवेंगे | वह यही मनाता रहा कि कब वह दिन 
आवेगा जब हमारी जाति एक ऐसे बहदू आतृमंडल्र में परिण्यत हो 
जायगी, जिसे वर्ण-सेद का अत्याचार भी अव्यवस्थित न कर सके--- 
चर्ण-लेद का वह अत्याचार जिसका विरोध कर कपिल्न ने प्राचीन काल 
सें शुद्ध मनुष्य मात्र होना सिखाया था + । भक्त तिरुप्पना-लवार को 
' नीच जाति का होने के कारण जब लोगों ने एक बार श्रीरंग के मंदिर 
' में अ्वेश करने से रोक दिया, तो उच्च जाति का एक भक्त उसे अपने 
कंधे पर चढ़ाकर मंदिर में ले गया-- | 
परंतु वेष्णव धर्म का पुनरुत्थान जिन कट्टर परिस्थितियों में हुआ, 
उन्होंने इस न्‍्यायै-कामना के अंकुर को पनपने न दिया। आजलवारों के 
बाद वेप्णव धर्म की बागडोर जिन महानाचार्यों के हाथ में गई, वे बहुत 
कट्टर कुल्ों के थे ओर परंपरागत शास्त्रों की सब मर्यादाओं की रक्षा करना 
अपना कर्तव्य समम्ते थे | शूद्रों के लिएं भक्ति का अधिकार स्वीकार 
करना भी उन्हें खला ( जिस अज्ञान की दशा में शूद्व युगों से पड़े हुए थे, 
उससे उनको उठने देना उन्हें अभीष्ट न था। राभाजुजाचार्य ने उनके 
लिए केवल उस प्रपत्ति मार्ग की व्यवस्था की जिसमें संपूर्ण रूप से भगवान्‌ 





88 'सिद्धांदीपिका' ११, १० ( अप्रेल १६११ ) पू० ४३३, 
कार्पटर--थीज्म इन मेडीवल इंडिया, पूल ३६६॥। 
» “तामिल स्टर्डीज , पु० ३२७, कार्पेटर-थीज्म, पु० रे८र | 
+  तामिल स्टडीज़ , पृ० १२६९, ३६६॥। 
न्‍ कार्पटर--थीज्म , पूृ० ३७६। 


२७ हिन्द्दी काव्य में निगुश संप्रदाय 


को शरण में जाना होता था, भक्ति साथ की नहीं। भक्ति से उनका 
अशिप्ररय अनन्य विन के द्वारा परमात्मा की हान-प्राति का, प्रयत्न था | 
जिसकी केवल ऊँचे वर्णवाल्ों के लिये व्यवस्था की गई थी। शूद्र इसके 
लिये अयोग्य समझा गया | 

किंतु उत्तर भारत में परिस्थितियाँ दूसरे प्रकार की थीं। वहाँ ये 
बात चल न सकती थी. । सुनज़्ना | समाज-यवस्था को तुलना से हिंदू 
चशु-व्प्रवस्था में शूद्रों की अरं रोपजनक स्थिति सहसा खटक जाती थी। 
अवएव इन आवचार्यों द्वारा प्रवर्तित वेष्णव धर्म दी लहर जब उत्तर-मारत 
में आई तो उस पर भो परिथ्यित्ियों ने अपना प्रभाव डालना आरंभ कर 
दिया । परिस्थितियों का यह अभाव बहुत पहले गोरखनाथ ही में दृष्टिगत 
होने लग श है । जिसने मुसलमान बाबा रतन हाजी को अपना शिष्य 
बताया था, तु दक्षिण से आनेवाली वेष्णव धर्म की इस नवीन लहर में 
इसका पहले पहल दर्शन हमें राज्ानंद में होता हे। रामानंद ने काशी में 
शाकर अट्ठत को शिक्षा प्राप्त की थी, तु दीचा दी भी उन्हें विशिश्टा- 
ढ् तो स्तरामी रावबवानंद ने जो रामानुज की शिष्य-परंपरा में थे। कहते 
हैं कि रापवानंद ने अयती योग-शक्ति से रामानंद की आसन्न म्रत्यु से 
रक्षा की थी । ह 

रामाननर ने उत्तरो सारत को परिस्थितियों को बहुत अच्छी तरह से 
सममका। उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि नीच वर्ण के लोगों के 
हृदय में सच्ची लगन प५दा हो गई है । उसे दबा देना उन्होंने अनुचित 
समझा | झतएव उन्होंने परमात्मा की भक्ति का दरवाजा सबके लिये 
खोल दिया | उन्होंने जिस बेरागी संप्रदाय का प्रवर्तन किया था, उसमें 
जो चाहता अवेश कर सकता था। भगवद्भक्ति के ज्ेन्र में उन्होंने चह 
भावना उत्पन्न कर दी, जिसके अनुसार “जाति-पाँति पूछे नहिं-कोई | 
हरि को भज सो हरि का होह ॥! भक्ति के क्षेत्र में उन्होंने चर्ण विभेद को 
ही नहीं, धार्मिक विद्वेष को भी स्थान न दिया और ऊंच-नीच, हिन्दू- 


पहला अध्याय श्् 


सुसंलमान सबवो शिष्य बनाया। एक ओर तो उनके अननन्‍्ताजन्द, 
भवानन्द' आदि ब्राह्मण शिष्य थे, जिन्होंने रामसक्ति को लेकर चलनेवात्ी 
वेप्खशवधारा को कहता की सीमा के अन्दर रखा; तो दूसरी ओर उनके 
शिष्यों में नीच वर्ण के छोग भी थे जिन्होंने कहरता के बिह॒द् अपनी 
आवाज उठाई। इनमें घन्ना जाट था, सेन नाई, रेदास चमार ओर 
कबीर मुसलमान जुत्ताहा | सविष्य पुराण से तो पता चलना हे फरि 
भक्ति के चेत्र सें हो नहीं, बल्कि सामाजिक चुत्र से भी रामानन्द ने 
कुछ उदारता का प्रवेश हिया था । कहते हैं. झे फेजाबाद के सूबेदार ने 
कुछ हिन्दुओं को जबदंस्ती मुसजमान बना लिग्रा था। रामानन्द्जी ने 
इन्हें फिर से हिन्दू बना लिया। ये लोग संग्रोगी कहलाते थे और 
अयोज्या मे रहते थे। कहा जाता है कि अब भी ये अयोध्या के आस- 
पास रहते हैं | भव्रिष्य पुराण के अनुसार स्वामी रामाननदजी ने इस 
अवसर पर ऐसा चमत्कार दिखकाया ऊिस ने दन लोगों के गज्जे में तुलसी 
की माला, जिह्ना पर रामनान ओर माथे पर श्वेत ओर रकत-तिलक अपने 
आप प्रकट हो गए& | कुछ छोगों का तो यहाँ तक कहना है कि 
इन्होंने खान-पान के नियमों को भी कुछ शिथित्र कर दिया | कहा जाता 
हे कि मूल श्रीसंप्रदायवालों को स्वामी रामानन्द जी दी यह उदार प्रवृति 
अच्छी न लगी ओर उन्होंने उनके साथ खाना अस्वीकार कर दिया | 
इससे रामानन्द को अपना ही सप्रदाय अल्नण चलाने की आवश्यकता 
का अनुभव हुआ | जिसे चलाने के लिये उन्हें अपने गुरु राघवानन्द जी 





%& म्लेच्छझ्घते वेष्णवाइचासन रामानन्दप्रभावत. । संयोगिनइच 
तेज्ञया अयोध्यायां वभूविरे ॥ कण्ठ च नुलमीसाला जिह्दा राममयी 
कृता । भाले त्रिशलचिहक्नू च श्वेतरक्त तदाभवत्‌ । 

--भविष्य पुराण ( वेकटेइवर प्रेस, १८६६ ) अध्याय २१. 
पु० ३६२, प्रपाठक ३, 


२६ हिन्दी-काव्य में निग॒ण संग्रदाय 


की भी अनुमति मिल गई। पर रामावन्दजी ने भी परम्परागत कहटर 
परिस्थितियों में शिक्षा-दीत्ा पाहे थी | इसलिए यह आशा नहीं की जा 
सकती थी कि उन्सेष-प्राप्त शूद्ों की आकांकाओं को वे पूर्ण कर सकते ॥ 
डनके शिष्यों में अनन्ताननर आदि कट्टर मर्यादावादी छोग भी थे | 
शास्तोक्त लोक-मर्यादा के परम-भक्त गोस्वामी तुलसीदास भी रामानन्द की 
ही शिष्य-परस्परा में थे। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने भक्त्युपदेशों 
ओर तत्वज्ञान को बे-हिचक अपनी वाणी के द्वारा ऊँच-नीच सबसे 
वितरित किया था, तथापि वे बहुत दूर न जा सकते थे। इतना भी उनके 
लिये बहुत था। वेदांतसूत्र पर आनंद-भाष्य नामक एंक भाष्य उनके 
नाम से प्रचल्रित हुआ है। उसके शूद्वाघिकार में शूद्ध को वेदाध्ययन 
का अधिकार नहीं माना गया है। अभी इस साष्य पर कोई मत निश्चित 
करना, #क नहीं है । 


: “ सामाजिक व्यवहार के चेत्र में हिंदू को मुसलमान से तथा द्विज को 

शुद्ध से, जो संकोच होता हे उसका निराकरण स्वामी रामानंद स्वतः 

कर सकते, थह आशा नहीं की जा सकती थी। यह उनके शिष्य 

कबोर के बाँट में हु रा, जिसके द्वारा नवीन विचार-घारा को पूर्ण 

अभिव्यक्ति मिली 

इस प्रकार मध्यकाल्लीन भारत को एक ऐसे आंदोलन की आवश्यकता 

थी, जिसका उद्देश्य हेता उस अज्ञान और अंधपरंपरा का निराकरण 

जिसने एक ओर तो मुसलमानी धर्मांचता कों जन्म 

८, निगुण दिया और दूसरी ओर शूद्धों के ऊपर सामाजिक अत्या- 

संप्रदाय चारको। यही दो बातें सांग्रदुयिक ऐक्य और 
सामाजिक न्याय-भावना में बाधक थीं | 

दोनों धर्मों के विरक्त महात्मा किस अकार आपस सें तथा दूसरे 

धर्मों के साधारणजन-समाज में स्वच्छुंद्तापूर्वक समागम के द्वारा सौदा, 

सहिष्युता ओर उदारता के भावों को उत्पन्न करने का उद्योग कर रहे 


पहतता अध्याय 4८ 


थे, यह हम देख चुके है । इस समागम में एुक ऐसे आध्यात्मिक आंदो- 
सन के बीज अंतहिंत थे, जिसमें समय की सब समस्याएँ हल हो सकतीं; 
क्योंकि इसी समागम में दोनों घ्मवाले अपने-अपने सघर्सियों की मूल्ले 
सममना सीख सकते थे, ओर यहीं दोनों धर्म एक दूसरे के ऊपर शांत 
रूप से प्रभाव डाल सकते थरे। जब समय पाकर धीरे-धीरे विकसित 
होकर यह आध्यात्मिक आंदोलन निगण संप्रदाय के रूप में प्रकट हुआ 
तो मालूम हुआ कि केवल एक से सुख-दुख, हर्ष-विधाद और आशा- 
आकांज्षाओं के कारण ही हिंदू-सुसलमान एक नहीं हैं; बल्कि उनके 
धार्मिक सिद्धांतों में सी, जो इस समग्र दोनों जातियों को एक दूसरे 
से बिलकुल विज्लण किए हुये थे, कुछ समानता थी | अनुभव से यह 
देखो गया कि समानता की बातें मूल तत्व से संबंध रखती थीं और 
असमानताएँ, जो बढ़ा-बढ़ा कर बताई जाती थीं ओर जिन पर अब तक 
जोर दिया जा रह था, केवल बाह्य थीं। दोनों धर्मों के संघर्ष से जो 
विचार-घारा उत्पन्न हुईं, उसी ने डस संघर्ष की कट्ठता को दूर करने का 
काम भी अपने ऊपर लिया। “सम्मिलन की भूमिका का मूल आधार 
हिंदुश्रों के वेदांत आर मुसलमानों के सूछी मत ने प्रस्तुत किया | सूफी 
मत भी चेदांत ही का रूप है, जिसमें उसने गदरे रंग का भावुक बाना 
पहन लिया था ओर इस्लास की भावना पर इस प्रकार व्याप्त हो गया 
था कि उसमे अजनबीपन जरा भी न रहा ओर उसे वहाँ भी मुल्न तत्व 
का रूप प्राप्त हो गया। इस नवीन दृष्टिकोण की पूरी अभिव्यक्ति 
कबीर स॑ मिली, जो मुसलमान मसा-बाप से पंदा होने पर भी हिंदू 
साधुओं की संगति मे बहुत रहा था स्वामी रामानंद के चरणों में 
बेठकर उसने ऐकांतिक* प्रेम-पुष्ट वेदांत का ज्ञान प्राप किया था और 
शेख तकी के संस्ग में सूफी मत का। सूफी सत ओर उपास नॉ-परक 
वेदांत दोनों ने मिलकर कबीर के मख से घोषित किया कि परमात्सा 
एक और अभ्ूतं है |, वह बाहरी कसकांड के-द्वारा अपग्राप्य है, उसको 


की ४५ (४ कक 
श्र हिन्दी काञ्य में निगंण संप्रदाय 


केवल. प्रेमानुअूति हो सकती हे, कमकांड तो वस्तुनः परमात्मा को 
हमारी आँखों स्रे छियाने का काम करता है। सचत्र उसकी सत्ता 


ब्याप रहो है। मनुष्य का हृदय भी उसका मंदिर है, अत्एंव 
 बाइर न भटककर उसे वहाँ टह्वढना चाहिए। तात्विक इष्टि से तो 


भावना रामानरइ में ही पूर्ण हो गई थो, कबीर ने उसको गतीक 

का वह आवरण दिया जिससे “मजनू को अच्लाह भी लंला नजर झातठा 
हु ।” आरम्भमिक शाल्ार्था की कट्ुता को जाने दीजिए, इसका सामना तो 
प्रत्येक नवीन विचारशेल्ी को करना पदूता हे, परन्तु वर्से इस नवीन 
विचारशज्ञी में कोई ऐसी ब़ात न थी जिससे कोई भी खममदार हिन्दू 
अथवा मुसलमान सड़क उठता मूर्ति परमात्मा नहीं हे, यह हिंदुओं के 
दिये कोई नवीन बात नहीं थी। उनके उद्चातिउच्च वेदांतो, दाशनिक 
सिद्धान्त इस बात की सदियों से घोषणा करते चले आ रहे थे ओर 
मूर्तिभंजक सुसलसानों वो तो यह बात विशेष रूप से रूची होगी | 
ग्रुथत्रि हिल्दू अद्वेतवाद, जिसे कबीर ने स्वीकार किया था, मुसलमाती 
प्रदेशवरबाद से बहुत सूदम था, तथापि दोनों,में ऐसा बोई स्थूल्-विरोध 
घ्टिगात न, होता था ज्ञिससे वह सुप्तकत्त्मान को अरुचिक्र लगता [इसमें 
संदेह उहीं, कि. मलुष्य और परसात्मा की एकता की भावना सुसत्तमानों 
की अल्लाह-भावना के बिलकुल विपरीत है, जो समय-समय पर मुस्लिम 
घ्रांथिंक (इतिहास, में " कु करार दी गई है ओर प्राणहानि के दंड़ के 
फ्लेरय क्नन्ी गई, है। फिडन्‍मी, सूफी मत ने, जिसे कुरान,;का चेदांतो भाष्य 
सूम़ुकना जवाहिए, मुसलमानों को उसका घनिष्ठ प्रिचय दे दिया था। 
मंसूर हज्ञाज ने अनलहक़ः ( में परमात्मा हूँ ) कहंकर,सतूली पर अपने. प्राण 
|. इस कोडि के सच्ची लगनवाले सूफियों न घर्मांघ शाहों ओर सुलतानों 

के आय्राजाएों: की परवान कर सी भांति सिद्ध कर्‌ दिया कि उनका मत 
ओर. विश्कास, ऐसी वास्तविक सत्ता है. ज़िसके लिये मसन्नतय के साथ. 


[ एक्षिद्ठात कद दिया. जा सकता) है । ,झतपृष जप इस, '्ीव 





पहला अध्याय रह 


विचारधारा ने उपनिषदों के स्वर में स्वर मिल्ाते हुए 'सोउढं की 
घोषणा की तो वह मुसलमानों को भइकानवालो बाद न रह गई थी । 
समानुभूति को इस भूमिका में काबा काशी हो गया और राम 
रहोम [# इस विचारधारा ने आँधों को तरह आकर मनुष्य और सनुष्य 
के बीच के भेद उदय दिए । उस जगत्पिता परमात्मा की सृष्टि में सब 
बराबर हैं, चाहे वह हिन्दू हों, चाहे मुसलमान, चाहे कीई अन्य 
धर्मावलंबी | इस अकार अनस्ति भेद-भावों के कारण मनुष्य" के 
पवित्र रक्त से भूमि को व्य4 रंगने की मूखंता स्पष्ट हो गई । हे 
जब जाति तथा धर्म के विभेद, जिनके साथ की कह स्खूतियाँ अभी 
ताजी थीं, इस प्रकार दूर कर दिए जा सकते थे तो कोड कारण न था 
कि वर्ख-सेद को भी क्‍यों न इसी तरह सिंटा द्विया जाय | अल्मा झोर 
घ्रतात्मा की एकता को अनुभव करनेवाले वेदांती के लिये तो ,वर्ण-मेद 
मिथ्या पर आश्रित था | भगवद्गीता के अनुसार के कस्तविक पणिडत 
विद्या-विनय-संपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते ओर श्वपाक ( चांडाज्न ) 
में कोई भेद नहीं समझता ३८ किन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि 
'नहीं कि परंपरागत व्यवस्था में वेदान्दी कोई परिवर्तन डपस्थित करना 
चाहता था। भेद को न रहने पर सेद.च समरूने में कोई अथ. नहीं। 
बेद्रान्त क्री विशेषता इस में, हे. कि व्यावहारिक जगत में इन सब भेदों के 
जहते भरी बह पारमार्थिक जगत से उनमें कोड़े भ्रेद, :चद्ी मानता । 
धार >्गीलुए क़हदती.. कि पंडितृ-्पंडित अं कोड भेद नहीं हे तो उससे 
ईै-क्या झमकक़र ॥ ज़ेदांव बाह्मण, और श्रृद्ध के बोच के भेद को, उसी 


चल ७ 





हिन्दी में (०. पु के 
३० नदी काव्य में निगुण संप्रदाय 


प्रकार व्यावहारिक तथ्य के रूप में ग्रहण करता है जिस प्रकार गाय 
दाथी ओर कुत्ते के बीच के अंतर को। कोन कह सकता हैं कि इन 
पिछुले जीवों में व्यावहारिक रूप में भी कोई भेद नहीं | परमात्मा के 
सामने मनुष्य मात्र की समता के दृठ पोषक स्वामी रामानंद को भी 
सामाजिक समता का उतना विचार न आया | “उन्होंने सामाजिक 
व्यवहार में भी कुछ सुधार किया सही, किंतु कथानकों का यह सुधार 
इतना भर था--दक्षिणी आचाय खान-पान में छुआछुत का ही विचार 
नहीं रखते थे अत्युत परदे का भी; या यों कहना चाहिये कि खान-पान 
में उनके स्पशोस्पश का विचार शरीर-स्पर्श में ही समाप्त न हो जाता 
था, वे दृष्टि-स्पश को भी हेय सममते थे | शूद्र के स्पश से ही नहीं, 
उसकी दृष्टि पड़ने से सी भोजन अपवित्न हो जाता हे । स्वामी रासानंद 
जी ने 'इदृष्टि-स्पश से भोजन को अखाद्य नहीं माना। उन्होंने केवल 
स्वयंपाक के नियम को स्वीकार किया, परदे के नियम को नहीं | कहते 
हैं कि स्वामीजी को तीथयात्रा, प्रचारकार्य इत्यादि के लिये इतना भ्रमण 
करना पड़ता था कि भोजन में परदे के नियस का पौजन करना उनके 
छए दुशसाध्य था| कुछ लोगों का कहना हे कि श्रीसंप्रदाय से अलग 
होकर एक नवीन संप्रदाय के प्रवतन का यही एकसात्र कारण था। 
कहते हैं कि एक बार के अ्मण से लोटन पर उनके स-सांग्रदायिकों ने 
बिना प्रायश्चित्त किये उनके साथ भोजन करना अ्रस्वीकार कर दिया था । 
स्वासी रामानंद जी भायश्चित करने के लिए तैयार न थे, अतएंव नवीन 
पंथ-प्रवर्तत के सिवा समस्या को हल करने का कोई गौरवपूर्ण उपाय 
न सूरा, जिसके लिए उनके गुरु स्वामी राघवानंद की भी सहमति ग्राप्त 
हो सकती | सामाजिक सुधार-पथ में वे इससे आगे बढ़ ही नहीं सकते 
थे। खान-पान तथा अन्य सामाजिक व्यवहारों में ब्राह्मण-आह्यणों में 
भी भेद-भाव था, तब केले आशा की जा सकती थी कि स्वामी रामानंद्‌ 
शुद्रों ओर सुसलमानों के संबंध में भी उसे मिटा ढेले। 


पहला अध्याय ३१ 


परंतु जब कबीर में वर्ण-मेद के विरूद्ध मुसलमानी अरूचि के साथ 
उच्छ वेदांती-भावों का समन्वय हुआ तो परंपरागत समाज-ब्यवस्था का 
एक एस! कट्टर शत्र उठ खड़ा हुआ, जिसने उसके सेद-भाव को पूणे- 
तया ध्वस्त कर देने का उपक्रम कर दिया | 


इस अकार कबीर के नायकत्व में इस नवीन निमशवाद में समय 
की सब आवश्यकताओं को पति का आयोजन हुआ | इतना ही नहीं 
इसमें भारतीय संस्कृति का बड़े सोम्य रूप सें सारा निचोड आ गया। 
ऋबीर के रंगभूमि में अवतरित होने के पहले ही इस आंदोलन 
ने अपनी सारग्राहिता के कारण भारत की समस्त आध्यात्मिक प्रणात्षियों 
के सारभाग को खवींचकर ग्रहण कर लिया था। भारत सें समय-समय 
पर उत्थित होनेवात्ब प्रत्येक नवीन आध्यात्मिक आंदोलन ने आत्म- 
संस्कार के मार्ग सें जो-जो सारयुक्त नवीन तथ्य निकाले वे सब इसमें 
समन्वित होते गये । योगमार्ग, बोदूमत, तंत्र आदि सबके कुछ न कुछ्च 
चिह्न इसमें दिखाई देते हैं जिनका यथास्थान चर्सनन किया जायगा | 
कबीर के हाथ में इस ने सूफी सत से भी कुछ ग्रहण किया। 

सामाजिक व्यवहार तथा पारमार्थिक साधना दोनों के छेत्र म॑ पूर्ण 
ऐक्च तथा समानता के प्रचार क रनेवाज्ञी समस्त आध्यात्मिक प्रणात्नियों 
के सार स्वरूप इस आंदोलच का नायकत्व कबीर के बाद सेकड़ों उदार- 
चेता संतों ने समय-समय पर अहण किया ओइ जी जान से उसके 
प्रसार का अयत्न किया | निर्गेश संप्रदाय के सिद्धांतों का विस्तृत विचे- 
चन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम उनका कुछ परिचय प्राप्त कर 
ले। अतणव आगे के अध्याय में उन्हीं का संक्िप्त परिचय दिया जाता है । 


दूसरा अध्याय 
निगंण संत संप्रदाय के प्रसारक 
४ प्रिगेण-संर-विचारध[र। को कबीर के द्वारा पूर्णता पाप्त हुई, परन्तु 
ख्याकार तो यह पहले ही से अहण करने लग गई थी। सूफी मत के 
दापत्य अतीक को छोड़कर ऐसी कोई बात न थी 
१ परवर्ती संत जिसने पहले ही कुछ न कुछ आकार न अहण 
लिया हो ।[ दार्शनिक सिद्धांतों तथा साधना-मार्ग 
के संबंध में जिस प्रकार की बातें कबीर ने कही हैं, प्राय; उसी ग्रकार 
की बातें कबोर के कतिपय गुरु-भाइयों ने भी कही हैं | स्वयं उनके 
गुरु रामानंद की जो कविता मिलती है उससें भी उसका काफी रूप 
दिखाई देता है। चोथे सिख-गुरु अज॒ुनदेव ने सं० १६६१ में जिस 
आदि ग्रंथ का संग्रह कराया, उससे स्वामी रामानंद आर उनके इन 
सब्र शिष्यों की कविताएँ भी सं 72हीत हैं, जिससे स्पष्ट हे कि निगुण- 
सन्त संप्रदाय में मी ये लोग बाहरो नहीं समझे जाते थे । इनके अति- 
रिक्त कुछ अन्य संतों को कविता का भी आदि ग्रंथ में संग्रह किया गया 
है ज्ञो उपर्यक्त संतों के समकालीन अथवा परवर्दी थे। ये हैं त्रिलोचन 
नासदेंव और जयदेव जिनमें से अंतिम दो का नाम कबीर ने बार-बार 
लिया है-- 
जागे सुक उन्बव अक्र, हणवंत जागे ले लणुर | 
संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नामा जंदेव& ॥। 
आंदि अंथ सें भी कबीर साहब ने जयदेव ओर नामा को भक्तों की 
अेणी में सुदामा के समकक् माना हे-- ॥॒ 
जप्रदेव नामा, विप्य सुदामा तिनको कृपा अपार भई ह » । 





क क० ग्र०, पू० २९६, रे८७ । 
> वही, पृ० २६७, ११३ । 


दूसरा अध्याय डे३ 


जयदेव और नामदेव के संबंध में कबोर की यह भावना मालूम 
पड़ती थी कि वे भक्त तो अच्छे थे पर अभी छाती की श्रेणी सें नहीं 
पहुँच पाये थ्रे---- 
सनक सनंदन जेंदेव नामा, भगति करी मन उनहूं न जाना [& 
अतगव निगंण संप्रदाय के प्रसारकों का परिचय देने के पहले इन 
लोगों का भी परिचय दे देना आवश्यक जान पदता है । 
इन सबसे समय की दृष्टि से जयदेव सबसे आचोन जान पढ़ते हैं; 
क्योंकि गीतगोविंद-कार को छोड़कर ओर दूसरा कोई संत ऐसा नहीं 
जान पडता ह जिसके संबंध मे कबीर के जयदेव- 
२. जयदेव संबंधी उल्लेख ठोक बठ सके | ये राजा लक्ष्मणसेन 
की सभा के पंच-रनों म॑ से एक थे, जिनका राजत्व- 
काल सन्‌ ११७० से आरम्म होता हैं। कहा जाता हैं कि जयदेव पहले 
रमते साधु थे; माया-ममता के भय से किसी पेड़ के तल्ले भी एक दिन 
से अधिक वास त्न करते थे। किंतु, पीछे भगवान को ग्ररणा से पद्मावती 
नाम की एक ब्राह्मण-कुमारी से इनका विवाह हो गया । इनके जीवन सें 
कई चमत्कारों का उल्लेख किया जाता है जिनके लिए यहाँ पर स्थान नहीं 
है। इन्होंने रसना-राघव, गीत-गोविंद ओर चंद्राल्ोंके ये तीन अंथ 
लिखे । गीतगोविंद की तो सारा संसार मक्त-कंठ से प्रशंसा करता हे । 
इसमें भी निगेण पंथियों के अनुसार जयदेव ने अन्योक्ति के रूप में शान 
कहा है। गोपियाँ पंचद्वियाँ हैं ओर राधा दिव्य ज्ञान | गोषियों को छोड़ 
, कृष्ण का राधा से प्रेम करना यही जीव की मुक्ति हे। परंतु इस 
तरह ' इसका अर्थ बेठाना जयदेव का उद्देश्य था या नहीं, नहीं कहा 
जा सकता। 
नामदेव का जन्म सतारा जिले के नरसी बमनी गाँव में एक शव 





क क० ग्ं०, पू० ६€€, ३३ | 


३० हन्दी काव्य सें निगण संग्रदाय 


परिवार में हुआ था । महाराष्ट्री परंपरा के अनुसार उसका पिता दामों 
शेट दरजी था। आदि ग्रंथ में नामदेव की जो 
३. नामदेव कविताय सुरक्षित हैं उनमे वे अपने को छीपी कहते 
हैं । सम्भव है, कि उनके परिवार में दोनों पेशे चलते 
हों । मराठो में उनके एक अंग से पता चलता है कि उनका जन्‍म 
संवत्‌ १३२७ (सन्‌ १२७० ) में हुआ था । लोग उनके सराठी अभंगों 
को नवोनता की दृष्टि से उनका आविभावकाल लगसग सौ वर्ष बाद 
मानते हैं, परंतु आधुनिक सापाएँ इतनी नवीन नहीं हैं जितनी बहुघा 
सममी जाती हैं । कछानदेव नामदेव के समकालीन थे, परंतु उनकी 
भाषा को ग्राचीनता कर यह कारण नहीं है कि उस समय तक आँघु- 
निक मराठी का आविभांव नहीं हुआ था, बल्कि यह, फ़ि विद्वान होने 
के कारण परंपरागत साहित्यिक भाषा पर उनका अधिकार था जिसे 
लिखने में, अपढ़ होने के कारण , नामदेव असमथ थे । स्वयं छानदेव ने 
सीधी-सादी मराठी में अभंगों की रचना की थी। श्रौ० रानडे का मत 
है कि ज्ञानदेव के अभंगों को सादगी तथा कारक-चिह्मों की विभिन्नतां 
का कारण छेु शताब्दियों से उनका स्म॒ति से रक्षित होते आना हे । 
समम में नहीं आता कि जिस ज्ञानदेव के गोता-भाष्य ओर अ्रमता- 
नुभव लेखबद्ध हो गये थे, उसके अभंस ही क्‍यों लेखबद्ध नहीं हुए ? 
जो हो, श्रो० रानडे भी इस बात से सहमत हैं कि उनका जन्म सं० 
१३२७ में हुआ था ओर रूत्यु सं० १४०७ ( सन्‌ १३६० ) मं। कहां 
जाता है कि जवानी में नामदेव डाकू बन बठा था और लूटमार कर 
आजीविका चलाता था। एंक दिन उसके दल ने ८४ आदमियों के 
समूह को मार डाला | शहर में ज्ञोटकर आने पर उसने एक स्त्री को 
अत्यन्त करुथ क्रंदन करते हुए पाया। पूछने पर मालूंस हुआ कि 
उसके पति को डाकुओं ने मार डाला है। उसे अपने कूृंत्य पर उत्कट 
घृणा हो आई ओर वह घोर पश्चात्ताप करने लगा । विशोवचा खेचर को 


दूसरा अध्याय प्‌ 


शुरु बनाकर वह सक्ति-पथ में अग्रसर हुआ ओर विठोद्ा की भक्ति में 
अपने जीवन को उत्सर्ग करके एक उच्च कोटि का संत हो गया। अपने 
जीवन का अधिक समय उसने पंढरपुर में विठोवा ( विष्णु ) के मंदिर 
में ही बिताया। परन्तु, अंत में वह तीर्थाउन के लिए निकला ओर 
समस्त उत्तर का भ्रमण करते हुए पंजाब पहुंचा । वहाँ लोग बड़ी संख्या 
मे उसके चेल हुए | गुरदासपुर जिज्ञ म शुमान नामक स्थान पर अब 
तक नासदेव का सन्दिर है| इस मन्दिर के लेखों से पता चलता है कि 
नासदेव का निधन यहीं हुआ था। माजूस होता है कि उनके भक्त 
उनके फूल पंढरपुर तले गये जहाँ वे विठोवा के मन्दिर के आगे गाड़ 
दिये गये । नामदेव की कुछ हिंदी कविताएँ आदि ग्र'थ में संग्रहीत हैं, 
जिनमे के तक के के बस को कक न कक मूर्ति 
जिनस उनके कई चमत्कारों का उल्लेख हैँ, जंख उनके हंड करन पर मूर्ति 
का दध पीना&, मरी हुई गय्य का उनके स्पर्श से जीवित हो उठना> 
प्स्मात्मा का स्वय आकर उनवी चूदी छुत की मरम्मत कर जाना+- ओर 
सीच जाति का होने के कारण मन्दिर से उनके बाहर निकाले जाने 
पर मूर्ति का पंडित की ओर पीठ कर उसी दिशा में सुड जाना जिधर 
वे मन्दिर के बाहर बैठे थे । अंतिम चमत्कार का उद्लेख कबोर ने 
भी किया हें- । 
लचिलोचन मासदेव का समकालीन था। उसकी भी कुछ कविता 
का 3 कक न मन से कक 
%& दूध कटोरे ..-- ग्रंथ, पृ० ६२६५ 
» सुलतान पूछे सुन बे नामा “-- ग्रंथ । 
न घर ..-अंथ , पृ० इध्र । 
+ हँसत खेलत. ..--- ग्रथ, पृ० ६२६ । 
- पंडित दिसि पछिवारा कीना, मुख कीना जित नामा। 
“-क० ग्रं०, पू० १२७, १२२ । 


हे | आर 0०७५. ९ ढ 
३६ हिन्दी काञ्य में निगुण संप्रदाय 


आदि ग्रन्थ में संग्रहोत है| ग्रन्थ में कबीर के दो दोहे हैं &। जिनमे 
नामदेव ओर ब्रिलोचन का संबद्ध दिय& हुआ है| 
४. त्रिलोचन इस संवाद से माजूम होता हे कि कबीर ब्रिलोचन 
से अधिक पहुच के साधक थे। त्रिलोचन ने कहा, 
मित्र नामदेव, तुम्हारा माया-मोह अभी नहीं छुटा ? अभी तक फर्द 
छापा ही करते हो ? नामदेव ने जवाब दिया कि हाथ से तो सब 
काम करना चाहिए; परन्तु हृदय में राम ओर मुख में उसका नाम 
रहना चाहिए । ओडइछेवाले हरिरामजी “व्यास! ने कहा है कि नामदेव 
ओर ब्रिल्षोचन रामानन्द से पहले दिवंगत हो गये थे । सेकॉलिफ़ ने 
अयोध्या के जानकीवरशरण के साक््य पर ब्रिलोचन का जन्‍म 
सं० १३२४ ( १२६७ है० ) माना है जो, जेसा हम रामानंदजी के 
जीवन-वृत्त के सम्बन्ध मे देखेंगे, 'व्यासः जी के कथन के विरुद्ध 
नहीं जाता । 


अगस्त्य-संहिता के अनुसार स्वामी रामानन्द 'का जन्म संचत्‌ 
१३४६ में, प्रयाग में, हुआ। इनकी माता का नाम सुशीला ओर 
पिता का पुण्यसदन था। भक्तमाल पर प्रियादास 
५. रामानन्द की टीका भी, इससे सहमत है। भांडारकर और 
ग्रियसन दोलों ने भी इसे माना हे । परंतु सेकॉलिफ़ 

+५े कि, |. कक ९ आप 
ने इनका जन्म मंसूर के सेलकोट स्थान सें माना है। फ़रहर ने भी उनको 
दक्षिण से लाने का प्रयत्न किया है। परन्तु परंपरा से चले आते हुए 





के नामा माया मोहिया, कहै तिलोचन मीतु । 

काहे छापे छाइले, राम न लावहि चीतु॥। 

कहे कबीर त्रिलोचना, मुख ते राम सँभालि । 

हाथ पाउँ कर काम सभु, चीत निरंजन नालि ॥| 
“- अन्थ पू० ७४०, २१२-२१३ 


देसरा अध्य 8५) 


५ जे, 


सोपदायिक सत का खणडन करने के लिए ज॑ंस इढ़ प्रमाणा की 
आवश्यकृता होती है, बसे प्रमाण दोनों मे क्रिसी ने नहों दिये । अतएव 
उनका जन्मस्थान प्रयाग ही में मानना उचित है । 

कहते हैं कि पहल पहल इन्होंने किसी घेदान्ती के पास काशी 
में शांकर अह्वत की शिक्षा पाई। परंतु इच्के अल्पायु योग थे । स्वासी 
राघवानन्द भी, जो रामानुज की शिष्यपरंपणा में थे ( रामाजुज--- 
देवाचाय--राघवानन्द ) और बड़े योगी थे, काशी म॑ रहते थे । उन्होंने 
रामानन्द को योग-साधन सिखाकर उन्हें आसन्न रत्यु से बचाया। 
जिस समय झ्त्यु का योग था उस समय रामारन्द्र को उन्होंने 
समाधिस्थ कर दिया ओर वे सत्यु-मुख से बच गये । अतप्च अद्वती 
शुरु ने कृतज्ता-वश अपने चल को उन्हीं को सौंप दिया । 

रामानन्दजी बड़े असिद्ध हुए । आजू और जूनागढ़ की पहादियों पर 
उनके चरण-चिह्न मिलते हैं ओर पिछले स्थान पर उनकी एक गुफा । 
उन्होंने स्वयं अपना अलग पन्‍थ चलाया जिसके एक सम्भव कारण का 
उल्खेख पिछुले अध्याय में हो चुका है, किल्तु उदकी अेती शिक्षा का 
भी इसमे कुछ भाग जरूर रहा होगा । उनके वास्तविक सिद्धान्त क्या थे, 
इसका पता लगाना बहुत कुछ कठिन काम हो गया है। मालूम होता है 
कि उन्होंने भक्ति, योग और अद्द रू चेदान्त की अलुपम संस्ृष्टि की ॥ 

डाकोर से सिद्धान्त पटल नामक एक छोटी सी पुस्तिका निकली 
है, जो स्वामी रामानन्दजी की कही जाती है। इनमें सत्यनिरंजन 
तारक, विभूति पलटन, लगोटी आइबन्द, तुलसी, रामबीज आदि कई 
विषयों के मन्त्र हें । केवल यज्ञोपचीत का मन्त्र संस्कृत में है, अन्य 
सब सघुक्कंडी हिंदी मं। इस ग्रन्थ में नाथपन्थ और वचेष्णव मत की 
पूर्ण संसक्ति दिखाई देती हैे। विभूति, धूनी, कोली आदि के साथ-साथ 
इससें शालिझ्माम तुलसी आदि का भी आदर किया गया है| यहाँ पर 
केवल एक मन्त्र देना उचित होगा जिससे इस बात की पुष्टि होगी--- 


भें पक न 
झ्८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


डे» अधेनाम अखंड छाया, प्राण पुरुष आवबे न जाया | मरें न पिंड 
थके न काय, सद्गुरु प्रताप हृदय समाय | शब्दरवह्पी श्रीगुरु राघवा- 
नंद जी ने श्री रामानंद जी कू सुनाया । भरे भंडार काया बाड़े ब्रिकुटी 
अस्थान जहाँ बसे श्री सालिग्राम । “फरार हाहाकार सुनती सुनती संसे 
मिटे ॥ इति अमरबीज मंत्र ॥ १७ ॥ 


इसमें योग की त्रिकुटी में चेष्णव लाशिग्राम विराजमान हैं | यह 
ग्रंथ चाहे स्वयं रामानंद जी का न हो, परंतु इससे इतना अवश्य प्रकट 
हो जाता है कि उन्होंने अपने शिष्यों को वेष्णव धर्म के सिद्धांतों के साथ- 
साथ योग की भी शिक्षा दी थी। इसीलिए शायद उनके कुछ शिष्य 
अवधूत कहे जाते थे। रामानंदी संग्रदाय में रामानंद जी महायोगी 
यथार्थ ही माने जाते हैं । 


उनके गंथों में से रासाचे त-पद्धति और वेष्णुबमतावज-भास्कर 
देखने में आये हैं। ये ग्रंथ उपासना-परक हैं । ग्रो० विरूपन ने चेद पर 
उनके एक संस्कृत भाष्य की बात लिखी है। “आनंद भाष्य” नाम से 
वेदांतसूत्र का एक भाष्य संप्रदायवालों की ओर से प्रकाशित हुआ है 
परंतु अभी उसकी निष्पक्ष जाँच नहीं हो पाई है। उन्होंने हिंदी सें भी 
कुछु रचना की है। उनकी एक कविता आदि ग्र'थ में संग्रहीत हैं जो 
आगे चलकर मूर्तियूज़ा के संबंध में उदाहत को गईठढे हे। उसमें वे 
निराकारोपासना का उपदेश करते दीखते हैं | मंदिर सें की पत्थर को मूर्ति 
और तोथ का जल उन्होंने अनावश्यक से मानें हैं, परंतु बरागी पंथ 
में उन्होंने शालिप्राम को पूजा का विधान किया। उनकी एंक और 
कविता आचार श्यामसुन्दर दास ने अपने रामावत संडदाय वाले निबंध 
में छुपवाई हे, जिसमें हनुमान की स्तुति की गई है । रज्बदास के 
संग्रह अन्ध सवांगी में उनका एक ओर पद संग्रहीत है जो यहाँ दिया 
जाता है-- 


दूसरा अध्याय ३६ 


हरि बिन जन्म चूथा खोयों रे । 
कहाण्भयों अति मान चढ़ाई, घन मद अंध मति सोयो रे ॥॥ 
अति उतंग तरु देखि सुहायो, संचल कुसुम सुवा सेयो र। 
सोई फल पुत्र-कलत्र धिपे सुष, श्रति सीस धुनि-धुनि रोयो रे ॥ 
सुमिरन भजन साथ की सगत्ति, भ्रतरि मन बैल न घोयो रे ॥ 
रामानंद रतन जम त्राने, श्रीपति पद काहे न जोयो रे & ॥| 
इससे उन्होंने नियुक्ति मांग का पूणे उपदेश दिया है ! 
रामानंद जी की विचार-धारा बहुत उदार थी जिसके कारण उनके 
उपदेशास्‌त का पान करने के रहिए ऊच-नीच सब उनके पास घिर आते 
थे | उनके शिष्यों में से, जिनका दिगेण विचारधारा ' 
६. रामानंद. से संबंध है, पीपा, सधना, धन्ना, सेन, रदास, कबीर 
के शिष्य ओर शायद सुरसुरानंद हैं । 
पीप गँगरौनगढ़ के खीची चोहान राजा थे ओर अपनी छोटी रानी 
सीता के सहित रामानंद जी के चेले हो गये थे | जनरल कर्निघम के 
अनुसार पीपाजी ऊतपाल से चौथी पीढ़ी में हुए थे । [ (१) जतपाल, 
( २) सावतर्सह, (३) राव केरचा, ( ४ ) पीपाजी, (४ ) 
द्वारिकानाथ, ( ६ ) अचलदास । ] 
अबुल॒फ़जल ने लिखा है कि मानिकदेव के वेशज जेतपात्र ने 
भुसलमानों से मालवा छीन लिया था | यह घटना एथ्वीराज की सृत्यु 
के १३१ वर्ष पीछे सं० १४८३ ( सन्‌ १३२४ है० ) की बताई जाती 
है। जेतराव मा्निकदेव से पाँचवीं पीढ़ी सें हुएं थे ओर मानिकदेव 
पृथ्चीराज के समकालीन थे | फिरिश्ता अनुसांर पीयाजी से दो 
पीढ़ी पीछे अचलदास से सुलतान होशंग गोरी ने हिजरी सन्‌ ८३० 
अर्थात्‌ वि० सं० १४८३ या सन्‌ १४८६ ३० में गँगरोनगढ़ छीन लिया | 


अभनािननाणतण अलमनननन धन का" 





९ पौड़ी हस्तलेख', पृ० ४२३ (श्र )। 





४० हिन्दी कात्र्य में निर्गुण संश्रदाय 


यह भी कहा जाता है कि सं० १४०९ ( सन्‌ १४४८ है० ) में अचल- 
दास मुसलमानों के साथ युद्ध में काम आये | इन सब बातों- को ध्यान 
में रखकर जनरल कनिंघस ने पीपा का समय सं० १४६७ से १४४२ 
(हैं० सन्‌ १३६० से १शे८४ )+ तक साता है। सं० १२४० से 
१९०४५ तक के २४४ वर्षों में पीपाजी के चंश में १० पीढ़ियाँ हुईं जिससे 
प्रत्येक पीढ़ी के लिए लगभग २९ वर्ष ठहरते हैं । इस हिसाब से १४२० 
से १४६४४ तक उनका समय मानना भी अनुचित नहीं। यह सामाल्य- 
तया उनका राजत्व-काल है । उनका जीवन-काल लगभग सं० १४१० 
से १४६० तक मानना चाहिए । 

स॒धुन्ता खटिक था। बेचने के लिये मांस तौलते समय बटखरे की 
जगह शाहिग्राम की बटिया रखता था। एुऊ वेष्णव को यह देखकर 
बुरा लगा और शालिग्राम की बटिया माँगकर ले गया। रात में उसे 
स्वप्त हुआ कि भाई, तुम मुझे बड़ा कष्ट दे. रहे हो | अपने भक्त के यहाँ 
मैं ( तराजू के ) कूज़े पर कूला करता था, उस सुख से तुमने मुझे 
वंचित कर दिया है। भज्ञा चाहो तो मुझे वहीं दे आओ । और वह 
दे आया । 


धन्ना जाट था और राजपूताने के टाँक इलाके में घुअन गाँव में 
रहता था। यह स्थान छावनी देवल्ली से बीस मील की दूरी पर है । 

सेन नाई था जो-किसी राजा के यहाँ नोकर था । डसकी भक्ति की 
इतनी महिमा प्रसिद्ध है कि एक बार जब वह साधु-सेवा में लीन होने के 
कारण राजा की सेचा करने के लिए यथा-समय न जा सका, तब स्वयं 
भगवान्‌ सेन का रूप धारण कर राजा की सेवा करने पहुचे । 

रेदास काशी के चमार थे। प्रियादासजी ने इनके सम्बन्ध सें कई 
आश्वचय जनक कहानियाँ लिखी हैं । चित्तोर की माज़ी रानी इनकी शिष्या 


उन्‍+नामलकतन्‍ाक काल 


न- आाकियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग २, पृष्ठ २६९५-६७ । 


दूसरा अध्याय ५? 


बतलाई जातो हैं | आदि ग्रन्थ में रविदास नाम से इनकी कविताओं 
का संग्रह किया गया है। ये स्वयं बहुत ऊंचे ह्ञानी भक्त थे जिसे मूर्ति 
की आवश्यकता नहीं रह जारी परन्तु दूसरों के लिए थे मूर्ति को 
आवश्यकता सममते हैं । कहा जाता है कि उन्होंने एक मन्दिर बनवाया 
था, जिसके वे स्वयं पुजारी रहे थे | इनका भी अलग पनन्‍्य चल्ना जिसमें 
अब केवल इन्हीं की जात के लोग हैं जो अपने को बहुधा- चमार न 
कह कर 'रदासी” कहते हैं | 
परन्तु रामानन्द के सबसे प्रसिद्ध शिष्य कबीरदास थे जिन्होंने भक्ति 
के मार्ग को ओर भी प्रशस्त, विस्तृत और उदार बना दिया। उनका 
जीवन वृत्त स्व॒तन्त्र रूप से आगे दिया जायगा | 
सुरसुरानन्द बआाह्मण थे। डनके विषय सें विशेष कुछ नहीं मालूम 
हैं| इतना अवश्य प्रकट होता है कि वे बहुत सच्चे सुधारक रहे होंगे । 
खान-पान के सम्बन्ध सें शायद उन्होंने रामानन्द जी से अधिक सुधार 
की मात्रा दिखाड़े ड्वो | भक्तमाल में लिखा हे कि इनके मुह में म्ल्नेच्छ 
की दी हुई रोटी भी तुलसीदल हो जाती थी | 
अगस्त्य-संहिता के अनुसार रासानन्द का जन्म संवत्‌ १३४६ (१२६४६ 
इै०) में ओर रूत्यु सं० १४६७ ( १४१० ई० ) में हुई। भिन्न-भिन्न 
दृष्टियों से विचार करने से भी यह समय गलत नहीं 
७, रामानन् मालूम, होता । वे रामानुज की शिष्य-परंपरा की 
का समय चोथी पीढ़ी सें हुए हैं । रामानुज की कर्मण्यता का 
क्षेत्र तीन राजाओं का समय रहा हे जिनका शासन- 
काल सं० ११२७ ( १०७० हैं० ) से १२०३ ( १६४६ हैं० ) तक 
ठहरता है । अस्तु, याँदि हम डनकी झरूत्यु सं० १२१८ ( प्राय; ११६० 
ईै० ) में भी मानें ओर एक-एक पीढ़ी के लिए. तीस-तीस वर्ष भी दें 
तो भी रासानंद का जन्म सं० १२६६ सें इतना पहले नहीं आ जाता हे 
कि इस दृष्टे से अनुचित माजूम हो। ओड्छे के हरिरास व्यास! 


२ हिन्दी काव्य में निग॒ण संग्रदाय 


जी के एक पद से साजूम होता है कि नामदेव ओर ब्रिलोचन, रामानंद 
जी से पहले स्वर्गंवासी हो गये थे । त्रिल्लोचन का जन्म - सेकालिफ़ ने 
खसं० १३२४ ( १२६७ ईै० ) में माना है। बत्रिलोचन कितने ही दीघ- 
जीवी क्‍यों न हुए हों, सं० १४७६७ ( १७१० है० ) से पहले ही अवश्य 
दिवंगत हो गये होंगे । नामदेव भी त्रिज्रोचन के समकालीन थे, यद्यपि 
मालूस होता है कि आयु में उनसे कुछ छोटे थे। सं० १४६७ से पहले 
बहुत काफी आयु भोगकर उनका भी दिवंगत होना असंभव नहीं । 
जनरल कर्निंधम ने रामानंद के शिष्य पीपा का जो समय स्थिर किया हे, 
चह भी इस समय के विरुद्ध नहीं जाता | इससे रामानंद जी की आयु 
११० वर्ष की ठहरती है, जो उनके लिए बहुत बड़ी नहीं | यह प्रसिद्ध 
है कि रामानंद जी दीर्घायु हुए थे । नाभा ज ने भी कहा हे--- 
बहुत काल वपु धार के प्रतत जनम को पार वियो। 
श्री रामानंद रघुनाथ ज्यों, दुतिय सेतु जगतरन कियो ।। 

कबीर के परवर्ती इन संत कवियों को सगुण ओर निर्गेण संप्रदाय 
के बीच की कड़ी समझना चाहिए । उनसें सगुशवादी ओर निगंणवादी 
दोनों से कुछ अंतर है । न तो वे सगुणवादियों की तरह परमात्मा की 
नि्गंण सत्ता की अवहेलना कर उसकी श्रतिभासिक सगुण सत्ता को ही 
सब कुछ सममते हैं ओर न निगेणियों की तरह मुति-पूजा और अवतार- 
याद को समूल नष्ट ही कर देना चाहते हैं। यद्यपि अंत सें वे सब बाह्य 
कर्मकांड का त्याग आवश्यक बतलाते हैं, परंतु उनके व्यवहार से यह' 
मालूम होता हे कि वे आरंभसिक अवस्था सें उसकी उपयोगिता को 
स्वीकार करते थे । 


परंतु इतना होने पर भी वे सब विशेषताएँ, जिनके विकास से 
निर्गेण संत संग्रदाय का उदय हुआ, उनमें मूल रूप में पाई जाती हैं । 
जाति-पाँति के सब बंधनों को तोड़ देने की प्रवृत्ति, अं तवाद, भगवद- 
नुराग, विरक्त ओर शांत जीवन, बाह्य कर्मकांड से ऊपर उठने की इच्छा 





दूसरा अव्याय ४३ 


संब उनमें विद्यमान थी। इस प्रकार इन संतों ने कबीर के लिए रास्ता 
खोला जिससे इन प्रवृत्तियों को चरमावस्था तक ले जा सकना उनके 
द्विएं आसान हो गया | 
कबोर जुलाहा थे | अपने पदों में उन्होंने बार-बार अपने जुल्नाहा 
होने की घोषणा की है ।& जुलाहे मुसलमान होते हैं। हिंदू जुलाहे 
कोरो कहलाते हैं | एक स्थान पर उन्होंने अपने को 
८, कवीर कोरी” भी कहा है ।+ संभव है, 'जोज्ाहा” कडने से 
उनका अभिप्राय केवल पेशे से हों, उनके धर्म का, 
उसमें कोई संकेत न हो । जनश्रति के अनुसार वे जन्म से तो हिंदू थे, 
किंतु पाले-पोसे गये थे मुसल्लमान के घर में । परंतु इस बात का प्माख 
मिलता हैं कि उनका जन्म बस्तुतः मुसलमान परिवार में हुआ था। 
एंक पद में, जो आदियंथ में रेदास के नाम से और रजबदास के सवोंगी 
में पीपा के नाम से मिलता हे, लिखा है कि जिसके कुत में ईंद- 
बकरीद मनाई जाती है, गोवध होता है, शेख शहीद ओर पौीरों 
की मनोंती होती है, जिसके बाप ने ये सब काम किये उस पुत्र कबीर 
ने ऐसी धारणा धरी कि तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गया ॥>< पदकर्ता 
का अभिग्राय यह है कि भक्ति के लिए कुल की उच्चता कदापि आवश्यक 


न्‍बजमन>भ9मकनतमतशक/मताभ ानलनन॒नकजक»मककन+ कम न + पक ०५५५ ५१९५५५७५५०३०»+ककमम«»»+ मम कक नमन» ओपन ५५-.4+7++ ऑन ९ कनपान ५ ५५५७५ 33५५43५33333433+++34++त+-+ननीनयनियन-मनननननननननननननननननननन नव नन+१++3+34»-43»-०.३-५४.-३५५२० ३०४५ >+अमनननमनन-ओ न + नमन न न -ननन मन मन न नानमक न ++ 3 अत परम मन नमक गए पकला पा घन म.०१५५४५४५५३०+ नकल न नकनमप३५७५/॥ ९४४ सम_नकक पक +ऊफ «न 9बन_ नमन न मनन» ५३५५५ काल पान. 


& त्‌ ब्राह्मण, में कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना ।--- 
क० ग्र ०, पृ० १७३, २५० ओर उदाहरणो के लिए देखिए क० ग्र ०, 
पुृ० १९८, १२४; १३१, १३४; १८१, २७० ओर २७१ | 
+ हरि कौ नाँव अभे पद दाता, कहे कबीरा कोरी | 
“-+क० ग्र ०, पृ० २०५, र३२४६। 
» जाके ईद बकरीद कूल ग़ऊरे बध करहिं मानियहिं शेख शहीद पीरा। 
जाके बापि ऐसी करी, पूत ऐसी धरी, तिहुरे लोक परसिध कबीरा ॥ 
“-- ग्रन्थ, पू० ६६८; सर्वागी, पोड़ी हस्तलेख पृ० ३२७३, २२ | 


कक. हु, हे [4 
४४ हिन्दी काव्य में निगुणश संप्रदाय 


नहीं | इसले प्रकट होता है कि कबीर मुसलमान कुल में केवल पाले- 
पोसे ही नहीं। गये थे, पेदा भी हुए थे । पोषा और रदास,दोनों कबीर 
के समकालीन ओर गुरुभाई थे। इसलिए कबीर के कुल के संबंध में 
जो कुछ उनमें से कोई कहे, उस पर विश्वास करना चाहिए। 

जनश्रति के अनुसार कबीर के पोष्य पिता का नाम नीरू अथवा 
नूरुद्दीन था ओर माता का नीमा जिन्हें उसके वास्तविक माता-पिता के 
ही नाम समममना चाहिए | 

जनश्रति ही के अनुसार कबीर का जन्म काशी में हुआ था ओर 
निधन मगहर में | इस बात सें तो संदेह नहीं कि कबीर उस प्रांत के 
थे जहाँ प्रत्री बोली जाती हे, क्‍योंकि उन्होंने स्वयं कहा है कि मेरी 
बोली “पूरबी' हे, जिसे कोई नहीं समर; सकता; उसे वहीं समझ सकता 
है जो ठेठ पूरब का रहनेवाला हो ।»< पंजाब सें संग्रहोत अंथ साहब सें 
भी उनकी बाणी ठेठ पूरबो है । 

किसी ज्ञान-गर्वित आाह्मण के यह कहने पर कि “तुम जुलाहे हो, 
ज्ञान-वान क्या जानो १? उन्होंने बड़े गय॑ के साथ कहा था मेरा ज्ञान 
नहीं पहचानते १ अगर तुम ब्राह्मण हो तो में भी तो “काशी का 
जुलाहा” हूँ + | सचमुच काशी में किस जिज्नासु को छान की प्राप्ति नहीं 
हो जाती ? आदि ग्रन्थ में के एक पद में उन्होंने कहा है कि सारा 
जोवन मैंने काशी ही में बिताया है |-- अतपएंव इस बात में संदेह नहीं 


४७-७७७७७७॥७॥७/ए"॥७-७८"शशशशश/श/श/"शआआआआआआ आ खआआआआआआआ  0आआ७णणशााााशाााााााणााभभभााााााााआााआकक सम इअभ भा भइइइआ आन भजन अल बल मजजलल नल विश कि विश किन लिन लिन लनलिलीक 





$% इन पदों में यह स्प्रष्ट नहीं कहा गया हैँ कि उनके माता-पिता 
मुसलमान थे । सम्भव है, यहाँ माता-पिता से तात्पय' पालने-पोसनेवाले 
माता-पिता से हो ।--संपादक | 
» मेरी बोली पूरबी ताहि लखे नहि कोय । 
मेरी बोलीं सो लखे घुर पूरब का होय ॥---क » ग्रं०, पृू० ७६ पाद २। 
- देखो पृष्ठ ४४ की टिप्पणी (१)। 
+ सकल जतम सिवपुरी गंवाया-- ग्रन्थ, पृ० १७६, १५। 


दूसरा अध्याय ४५ 


कि कबीर के जीवन का बड़ा भाग काशी में व्यतीत छुआ था। परन्तु 
क्या इससेयह भी मान लिया जाय कि पेदा भी वे काशी ही सें हुए ' 
थे १ यह असस्भव नहीं; हिन्दू भावों से ओत-प्रोत उनकी विचार-घारा 
भी इस बात की ओर संकेत करती है कि उनका बाल्यकाब काशी-सदहश 
किसी हिन्दू नगरी में हिन्दू वातावरण में व्यतीत हुआ था । आदि ग्रन्थ 
में के एक पद से मानूम होता है कि उनके विचार ही नहीं, आचार भी 
आरम्भ ही से हिन्दू साँचे में ढल गये थे। 'राम राम! की रट, नित्य नई 
कोरी ग्गरी में भोजन बनाना, चोका-पोतवाना, उनकी इन सब बातों से 
डनकी अस्मा तंग आ गई थीं &। 

परन्तु आदि ग्रन्थ के एक पद में कबीर कहते हैं कि मगहर भी 
कोई मामूली जगह नहीं, यहीं तुमने मुझे दर्शन दिये थे । काशी में तो 
मैं बाद में जाकर बसा। इसी से फिर तुम्हारे भरोसे मगहर बस गया 
हैँ | इससे जान पढ़ता है कि काशी में बसने के पहले वह केवल 
मगहर में रहते ही नहीं थे, वहीं उन्हें पहले पहल परमात्मा 
का दर्शन भी प्राप्त हुआ था । अधिक संभव यह हे कि कबीर का जन्स 
मगहर ही में हुआ हो, जो आज भी प्रधानतया जुलाहों की बस्ती हे । 
गोरखनाथ जी का प्रधान स्थान गोरखपुर मगहर के बिलकुल नजदीक 
है । जिस जमाने में रेल नहीं थी उसमें योगियों का गोरखपुर आते-जाते 


$# नित उठि कोरी गंगरी आने लीपत जीउ गयो । 
ताना बाना कछ न सूझे हरि रसि लपटथो ॥ 
हमरे कूल क़उने राम्‌ कह्मो | 
“ही, पूृ० ४६२, ४१ 
< तेरे भरोसे मगहर बसियो,मेरे तन की तपनि बुभाई । 
पहले दरसन मगहर पायो, फूुनि कासी बसे आई ।॥ 
“वही, पु० ४२३; क० ग्रं० पृ० २६६, १०। 


४६ हिन्दी काव्य में निग॒ण संग्रदाय 


मगहर में ठहर जाना असंभव नहीं । यहीं से कबीर पर हिंदू भावों और 
योगमूलक विरक्ति का आरंभ हो जाता है। जान पड़ता है कि कबीर को 
योग की बातों का ज्ञान गोरखपंथी योगियों से ही हुआ था । योगाभ्यास 
के द्वारा उनको परमात्मा की मलक तो मिलन गई थी परंतु वे किसी ऐसे 
पहचे योगी के पतले न पड़े जो उनको पूर्णोनुभूति की दशा तक पहुचा 
देता । उनके ग्रन्थों सें हम गोरखनाथ की तो सूरि-थुरि अशंसा पाते हैं 
किंतु अधकचरे गोरखपंथियों की निंदा । साया के वास्तविक स्वरूप को 
गोरखनाथ अच्छी तरह जानते थे, इसी से वे उसको लक्ष्मण की भाँति 
त्याग सके थे& | नारी से विरक्त होकर वें अमर हो गये थे | कलिकाल 
सें गोरखनाथ ऐसा भक्त हुआ कि माया सें पढ़े हुए अपने गुरु से उसने 
राज्य छुद्वा दिया ।|- जिस आनंद का सुखदेव भी बहुत थोड़ा ही 

सा उपभोग कर सके थे, उसका पूर्णापभोग गोरखनाथ, भतृ हरि 
अलेकद सगे शशि के विश शामिल अमककी सोनी हे अचार 





भेकालिफ ने गलती से दूसरी पंक्ति का अर्थ किया हैं पहले मेने 
काशी में दर्शत पाये और फिर मगहर में आकर बसा, जो प्रसंग के 
प्रतिकल हैं और स्पष्ट ही गलत हूँ । 
९७ राम गन बेलड़ी रे अवध गोरषनाथि जाणी । 
“-क० ग्र ०, १० ६४२, १६३ ॥ 
निरणुस सगुण नारी संसारि पियारो, लखमरिस त्यागी, गोरषि निवारी। 
“यहीं, पृ० १६६, रेरे२ । 
+ गोरषनाथ न मुद्रा पहरी मस्तक हू न मुंड़ाया । 
ऐसा भगत भया कलि ऊपर गुरु पै राज छुड़ाया ॥। 
“वही, पु० १८६, २६८५। 
-- ता मन का कोइ जाने भंव | रंचक लोन भया सूषदेव ।॥। 
गोरष भरथरि गोपीचन्दा । ता मन सों मिलि करें अ्नंदा ॥ 
“के ग्रं०, पु० ६६, रे३े 


दूसरा अध्याय ४७ 


कहा है कि वे जटा बाँध-बाँध कर मर गये पर उन्हें सिद्धि न ग्राप्त हुई ।२ 
इन सब बहतों को देखते हुए मेरी प्रवृति मगहर ही को उनका जन्म- 
स्थान मानने की होती हे | माजूस होता है कि इसी लिए काशी छोड़ने 
पर सगहर को उन्होंने अपना निवासस्थान बनाया। 

योगियों तथा साधुओं के सनन्‍्संग से जब कबीर के हृदय में विरक्ति 
का भाव उदय हुआ तब वे पूर्ण आध्यात्मिक जागर्ति के लिए व्याकुल हो 
उठे। घर में रहना उनके लिए दूभर हो गया | कामकाज सब छोड़ दिया । 
ताना-बाना पड़े रह गए ।%< संसार से उदासीन होकर जंगल दछुन डाले,-- 
तीथॉटन किए-- , पर उनके मन को शांति न हुई | परमात्मा के दर्शन करा 
देनेवाला कोई समर्य साथ उन्हें मिला नहीं। हाँ, ऐसे बहुत मित्ले जिनमें 
भक्ति कम, अ्रहंकार अधिक था ॥% परंतु कबीर को ऐसे लोगों से क्या 
मतलब था १ उनसे वे क्‍या सीखते ? हाँ, उन्हें सिखा अवश्य सकते थे । 


७७॥७॥एए८७॥/0॥00॥0॥॥७७७॥७॥७॥७७॥७॥/७॥/ए॥७७७४॥७७७७॥७७७७॥७॥७॥७॥७॥७७/श"-/"शशाशआआ॥७७/श/७॥/॥//एशशशशशशशशशशभाााआाााभाअ॒ न जन चलन जमजरज पा शक्ल मलकीमनक नल निकननिनिशिकि अमन की कक लीक नल नकल निकल जज नकल कली नि आअ मलीलिल 


कामिनि भ्रंग विरकत भया रक्‍त भया हरि नाईं। 
साथी गोरपनाथ ज्यू, अमर भग्रे कलि माई।॥ 


--वही, पृ० प्‌१, १२ । 
+ जटा बाँधि-बाँधि जोगी मूए, इनमे किनहु न पाई । 


“वहीं, पु० १६५४५, ३१७। 
* तचना बुचना तब तज्या कबीर, राम' नाम लिख लिया सरीर।* 


“वही, प्‌ृ० ४५, २१। 
| जाति जुलाहा वाम कबौरा, बन-बन फिरों उदासी। 


“हीं, पु० १८१, २७० । 
४ वृदाबन दृरूचों, ढंढयों हो जमुना को तीर । 
राम मिलन के कारते जन खोजत फिरे कबीर ॥ 
““ पोड़ी हस्तलेख', पृ० १६४ (अर) 
$# थोरी भगति बहुत अ्रहँकारा । ऐसा भक्‍ता मिलें अपारा ॥॥ 
“-क० ग्रं०, पृ०« ६१३२, १३७ । 


छ्र्< हिन्दो काव्य में निर्गण संप्रदाय 


कबीर कुछ दिन मानिकपुर में भी रहे | शेख तकी को प्रशंसा खुनकर वे 
बहाँ से ऊजी जोनपुर होते हुए ऋूँसी गए। कूसी में भी वे कुछ दिन 
तक रहे । उन्हें शेख तक़ी को बतलाता पड़ा कि परमात्मा सर्वव्यापक 
है; अकर्दी' सकदी' को जताना पड़ा क्रि तुम क़र्बानी जिबह इत्यादि करके 
पाप कमा रहे हो, किसी जमाने मे भी ये काम हलाल नहीं हो सकते | 
वे गुरु बनने नहीं आये थे पर कया करते, उनसे रहा नहीं गया |» वे 
तो स्वयं ऐसे एकाघ आदमी को हू ढ़ रहे थे जो रामभजन में शूर हो | -- 
उनको अनुभव हुआ कि परमात्मा के दर्शनों के ल्लिएु वन में ही कोई 
अनुकूल परिस्थिति नहीं होती ।८ अंत में उनकी भी खोज सफल हुई 
ओर जनाकी्ण काशी में उनको एक आदमी मिला, जो ज्ञाति-पाँति के 
अहंकार से दूर था, परमात्मा के सम्मुख मनुष्य मनुष्य सें किसी भेद- 
भाव को न मानता था, और जो अपने ज्ञान-बल से कबीर की महती 


> घट घट अबिनासी अहै सुनहु तकी तुम सेख । 

-“बीजक?, रमनी ६३. 
मानिकपुरहि कबीर बसेरी। मदहति सुनी सेख तकि केरी ॥। 
ऊजी सुनी जवनपुर थाना। भूसी सुनि पीरन के नामा ॥। 
एकइस पीर लिखें तेहि ठामा | खतमा पढें पैगंबर नामा॥ 
सुनत बोल मोहिं रहा न जाई। देखि मुकर्बा रहा भुलाई॥। 
नबी हबीबी.-. के जो कामा । जहेँ लौ श्रमल सबे हरामा || 

सेख अ्रकर्दी सकर्दी तुम मानहु बचन हमार । 
आदि अत और जूग जुग देखहु दृष्टि पसार ॥। 
' “वही, रमेनी ४८। 
-+ कहे कबीर राम भजवे को एक झाध कोइ सूरा रे । 
| “क० ग्रं०, पृ० ११५, ८५। 
# घर तजि बन कियो निवास | घर बन देखों दोउ निरास । 
“वही, पु० ११३, ७९। 


दूसरा अध्याय ५६ 


आकांत्ा को पूण कर सकता था, जिसके उपदेश से कबीर को मालूम 
हुआ कि जिसको हूं ढने के क्षिए हम बाहर भटक्ते फिरते हैं. वह 
परमात्मा तो हमारे ही शरीर मे निव।स करता है । यह साधु स्वासी 
रामानंद थे । 

कहते हैं कि रामानंद पहले सुसलमान को चेल्ा बनाने में हिचके । 
इस पर कबीर ने एक युक्ति सोची । रासानंद जो पंचर्ंगा घाट पर रहते 
थे ओर सदेव ब्राह्म-मुहृर्त में गंगास्तान करने जाया करते थे | एक दिन 
जब कबीर ने देख लिया कि रामानंद स्नान करने के लिए चल्ने गये तो 
सीडी पर लेट कर वह उनके लौटने की बाद जोहने लगा। रामानंद 
लोटे तो उनका पाँव कबीर के सिर से टकरा गया। यह सोचकर कि 
हमसे बिना जाने किसी का अपकार हो गया हे, रामानंद 'राम राम” कह 
उठे | कबीर ने हर्षोत्फुर्ज् होकर कहा कि किसी तरह आपने मुझे दीछित 
कर अयने चरणों में स्थान तो दिया | डसके इस अनन्य भाव से रामानंद 
इतने प्रभावित हो*“गये कि उन्होंने उसे तत्काल अपना शिष्य बना त्रिया | 


समुहसिनफनी काश्मीरवाले के लिखे फारसी इतिहास ग्रन्थ तवारीख 
दर्तिस्ताँ से भी यही बात प्रकट होती है । उसमें लिखा हे कि कबीर 
जोलाहा और एकेश्वरवादी था। अध्यात्म-पथ में पथप्रद्शक गुरु की 
खोज करते हुए वह हिंदू साधुओं ओर मुसलमान फकीरों के पास गया 
ओर कहा जाता है कि अंत में रामानंद का चेला ही गया) । 

परंतु कुछ लोग रामानंद को न मानकर शेख तकी को कबीर का गुरु 
मानते हैं| इस मत का सबसे पहला उल्लेख ख़ज़ीनतुल आसफ़िया 
में मित्रता हे, जिसे प्लोलवी गुलाम सरबर ने सन्‌ १८६८ है० में छुपवाया 





४8 जिस कारनि तटि तीरथ जाही । रतन पदारथ घटही माहीं । 


“यही, १०२, ४२। 
> कबीर ऐड दि कबीर पंथ' में उद्घृत, पृ० ३७। 


४० हिन्दों काव्य में सिगंण संग्रदाय 


था। विस्कट” साहब ने भी इस ग्रंथ के आधार पर अपने कबीर ऐण्ड दि 
कबीर पंथ में बड़े जोर-शोर से इस सत का समर्थन कियए है। परंतु 
दविस्ताँ का साच्य उनकी सरगर्मी से कहीं अधिक सूुल्यवान है । इति- 
हासकार झुहसनफनी अकबर के समय में हुआ था | रामानंद के समय 
को पहले से पहले ले जाने पर सी सुहसनफनी ओर उनके समय सें सवा- 
डेढ़ सो वर्ष का अंतर रहता हे। अतएवं उन्होंने जिन जनश्रतियों 
के आधार पर यह लिखा है, थे आजकल की जनश्र॒तियों से अधिक 
गआरमाणिक हैं । शेख तकी कबीर के गुरु थे, इस संबंध में किसी इतनी 
प्राचीन जनश्रति का होना नहीं पाया जाता। इस बात की भी 
आशंका नहीं हो सकती कि मुहसनफनी ने पत्चपणात के कारण ऐसा 
लिखा हो | 


सुहसनफनी ही ने नहीं, ओर लोगों ने भो इस बात का उल्लेख 
किया है कि कबीर रामानंद के चेले थे । नाभाजी ने सं० १६४२ के 
लगभग भक्तमाल की रचना की थी। उसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में 
कबीर को रामानंद का चेला लिखा है। उनसे एक-दो पीढ़ी पहले 
ओदछेवाले हरीराम शुक्ल हो गये थे, जो साहित्य-संसार तथा संत- 
समुदाय में व्यास! जी के नाम से प्रख्यात हैं । इनके संबंध में यह 
ख्याति चली आती हे कि ४४ वर्ष की अवस्था में ये संवत्‌ १६१८ में 
राघावहुलभी संग्रदायं के ग्रवतक स्वामी हितहरिवंश जी के शिष्य हुए 
|& हितहरिवंश जी का जन्म-संवत्‌ देर से देर सें मानने से संवत्‌ 
१५५६ ठहरता है, यद्यपि सांप्रदायिक मत के अनुसार उनका जन्म 
१९३० में हुआ था | अतएव व्यास जी का संसर्ग ० ऐसे लोगों के साथ 
था जिनके समय के आरंभ तथा कबीर के समय के अंत में आधों 
शताब्दी से अधिक का अंतर नहीं था| उनसे इस संबंध में बव्यासजी 


अल न्‍«न«क--, 


& शिवसिहसरोज', पृ० ५०७। 


दूसरा अध्याय ४१ 


ने जो कुछ सुना होगा, वह विश्वसनीय होना चाहिएं। व्यासजी 
चंकंठवासी संतों की रूत्यु पर शोक मनाते हुए कहते हैं--- 
साँचे साथ ज्‌ रामानंद | 
जिन हरिजी सो हित करि जान्यो, और जानि दुख-दंद ॥ 
जाको सेवक कबीर घीर अति मसुमति सुरसुरानंद। 
तब रेदास उपासिक हरि कौ, सूर सु परमानंद ॥ 
उनने प्रथम तिलोचत नासा, दुख-मोचन सुख-कंद । 
खेम सनातन भक्ति-सिधु रस रूप रघ्‌ रघुनंद ॥ 
अलि रघ्वंशहि फब्पो राधिका-पद-पंकज-मकरंद | 
कृष्णदास हरिदास उपास्यो, ब्‌ दावन को चंद ॥। 
जिन बिन जीवत मृतक भये हम सहत विपति के फंद। 
तिन बिन उर को सूल मिटे क्‍यों जिये व्यास झ्ति मंद ॥& 
इससे स्पष्ट हे कि कबीर रामानंद के शिष्य थे | 
कबीर के शिष्य धर्मदास की वाणी से भी यही बात प्रकट होतो 
है। कबीर के कट्दर भक्त गरीबदास भी यही कहते हैं, यचपि वे गुरू 
से चेले को अधिक महत्व देते हैं ओर उसे गुरु के उद्धार का कारण 
बताते हैं-- 
गरीब रामानंद से लख गुरु तारे चेले भाइ । 
चेलो की गिनती नहीं,--पद में रहे समाइ) ॥॥ 





& बाबू राधाकृष्णदास ने इंस पद को अपने सूरदास के जीवन- 
चरित्र में उद्धत किया हे | वे प्राचीन साहित्य के बड़े विद्वान्‌ थे। खेद 
हैं कि में व्यास जी की बानी नहीं पा सका ।-- राधाक्ृष्णुदास-म्र था- 
बली' प्रथम भाग, पृ० ४५४ 

> हिरंबर-बोध, पारख भंग की साखी, २२ । 


+ हि ० 
श्र हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय 


“हम काशी सें प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये (! & कबीर की मानी 
जानेवाली इस उक्ति का भी यह अथ नहीं कि रामानन्द ने कबीर को 
जगाया बल्कि यह कि कबीर ने रामानन्द को जगाया। परतु यह मान 
लेने पर भी, यह कोड़े नहीं कह सकता कि यह रामानन्द को कबीर का 
गुरु मानने सें बाधक हे। गोरखनाथ ने मछुंदरनाथ को जगाया किन्तु 
यह कोई नहीं कहता कि गोरखनाथ मछंदर के चेले नहीं थे । असल 
से यह -बचब-यही-..बतक्वावे-के. क्विएं.. गढ़ ,गया है कि रामानन्द के 
चेले होने पर भी कबीर उनसे बड़े थे | परंतु स्वतः कबीर ने अपने 
आपको अपने शुरू से बढ़ाने का पयत्न नहीं किया और रामानन्द की 
रूत्यु का उल्लेख करते हुए बीजक के एक पद में बढ़े उत्साह से उन्होंने 
उनकी महिमा गाई हे-- 


+ आपने अ्रस>< किये बहुतेरा। काहु न मरम पाव हरि केरा॥॥ 
इंद्री कहाँ करे बिसरामा । (सो) कहाँ गये जो कहत हुतेन- रामा ।। 
सो कहाँ गये जो होत सयाना । होय मृतक वहि पदहि समाना ॥ 
रामानंद रामरस माते । कहहि कबीर हम कहि कहि थाके* ।। 
कबीर कहते हैं कि उन हरि का भेद कोई नहीं जानता, जिन्होंने 

बहुतों को अपने समान कर दिया है | [ लोग सममते हैं कि रामानंद 
वैसे ही मर गये जेसे ओर मनुष्य मर जाते हैं, इसी से पूछा करते 
हैं---. ] उनकी इंद्विक्ोँ कहाँ विश्राम कर रही हैं ? उनका “रास” 'रास! 
कहनेवाला जीवात्मा कहाँ गया ? [ कबीर का उत्तर है कि ] वह मरकर 
परम पद्‌ सें समा गया हे । [ क्‍योंकि | रामानंद रामरूप मद्रि से मत्त 


क क० श०, भाग २, पृ० ६१ । 

» कुछ प्रतियों में 'अपन आस किजे?, पाठ भी मिलता है। 
न होते । हे 

- बीजका, पद ७७। 


दूसरा अध्याय श्३्‌ 


थे । हम कहते-कहते थक गये [ परंतु लोग यह भेद हो नहीं समझ 
पते ]। « 

क्या अ.श्चय है कि कबीर इस पद सें रामानन्द को साज्षात्‌ हरि बना 
रहे हों ? गुरु तो उनके मतानुसार पस्मात्मा होता ही है। रामानंदी 
संप्रदाय में तो रामाननद राम के अवतार माने ही जाते हैं, नाभाजी ने 
भी उनको कुछ ऐसा ही माना है-..- 

श्रीरामानंद रघुताथ ज्यों दृत्तिय सेतु जग-तरन कियो । 

कबीर कर “आपन अस किये बहुतेरए और नाभाजी का “दुतिय सेतु 
जरग-तरन कियो” अगर एक साथ पड़े जाये तो सानूम होगा कि दोनों 
रामानंद के संबंध में एक ही बात कह रहे हैं । 

कबीर अ्ंथावली के एक पद में कबीर ने परमात्मा के सम्मुख 
परमतत्त्व-रूप, सुख के दाता, अपने साधु-गुरुकी खूब प्रशंसा की हे, 
जिससें सच्चे गुरु के गुख पूरी मात्रा में विद्यमान थे, जिसने हरि-रूप रस 
को छिड़ककर कामारिन से उसे बचा लिया था ओर पाषंड के किवाइ 
खोलकर उसे संसार-सागर से तार दिया था--- 

राम! मोहि सतगूर मिले अनेक कलानिधि, परम-तत्व सुखदाई | 

काम-अ्गिनि तन जरत रहो हे, हरि-रसि छिरकि बुराई | 

दरस-परस ते दुरमति नासी; दीन रटनि ल्‍यो श्राई। 

पाषंड-भरस-कपाद खोलिके, प्रनभै का सुनाई ॥ 

यहु संसार गंभीर अधिक जल, को गहि ल्याबे त्तीरा। 

नाव जहाज खेवइया साथू उतरे दास कवीरा#& ॥ 
ये सब बातें रामानंदु पर ठीक उतरती हैं । उस समय मध्यदेश में चही 
एक साधु था जिसने पाषंड के दरवाज़े खोल डाले | 

अंथ साहब में कबीर का एक पद है जिसमें उन्होंने कहा है कि 


कक कृ० ग्रं०, पृ० १५२, १६०। 


श्छ हिन्दी-काव्य में निगुण संप्रदाय 


मैंने अपने घर के देवताओं ओर पितरों को बात को छोड़कर गुर 
के शब्द को अहण किया है ।& इससे प्रकट होता है कि उन्होंने कोड़े 
ऐसा गुरु बनाया था जिसके लिए उन्हें अपने कुछ की परंपरा छोइनी 
पढ़ी | अगर शेख तक़ी उनके गुरु होंते तो वे यह बात क्‍यों कहते ? 
अतएव यह बात असंदिग्ध है कि रामानंद कबीर के गुरु थे। 

रामानन्द के अतिरिक्त कबीर के समकाल्ीनों में से एक ही व्यक्ति 
ऐसा है जिसका नाम कबीर ने विशेष आदरपूर्वक लिया है ।*८ इनका 
नाम कबीर ने पीर पीतास्बर बतलाया है जिनके पास जाना वे हज्ज 
अथवा तीर्थाटत समझते थे। कबीर ने उनका जो चर्णन किया हे 
( उनका कल कीतन, उनके गले सें की कंठी और जिह्ना पर का राम” ), 
वह यद्दी सूचित करता है कि कि वे वेष्णव थे जो रामानन्द की ही भाँति 
हिंदू-सुसलमान का भेद्‌-भाव नहीं मानते थे ओर इसी लिये शायद कबीर 
की श्रद्धा के भाजन हुएं। उनके नाम के पहले आये हुए 'पीर” शब्द को 
केवल “गुरू! का पर्याय सममना चाहिये । उनकी महिसा कबीर ने यहाँ 
तक गाई कि देवर्षि नारद, शारदा, बह्मा ओर जक्षी को भो उनकी 
सेवा करते हुए दिखाया है| पता नहीं कि ये पीर पीतांबर रहनेवाले 
कहाँ के थे । 'गोमती-तीर” जौनपुर की ओर संकेत करता है । 





& घर के देव पितर की छोड़ी गुरू को सबद लयो । 

के “-+ ग्रन्थ, ४६२, ६४ 

»* हज्ज हमारी गोमती-तीर। जहाँ बसहि पीतम्बर पीर ॥! 
वाहु वाहु क्या खूब गावता है। हरि का नाम मेरे मन सावता हैं । 
नारद सारद करहि खवासी । पास बैठी विधि कंवला दासी | 
कठे माला जिहवा राम। सहस नाम लैें,ले करो सलाम ॥॥ 
कहत कबीर राम-गुन गावौ। हिंदू तुरुक दोड समभभावो |। 
“-“क० ग्र०, पृ० ३३०, २१४ | 


दूसरा अध्याय भ्ज्‌ 


कबोर का समय बढ़े विवाद का विषय है | उनके जन्म के संबंध 
में यह दोहन सांसद हे--- 
चौदद सौ पचपतन साल गये, चंद्रवार एक ठाठ ठये। 
जेठ सुदी वरसायत को, पूरनसासी तिथि प्रगट भये | 


इसके आधार पर कबीर कसोटी में उनका जन्म सं० १४५५ के 
ज्येष्ठ की पूर्णिमा को सोमवार के दिन माना गया हे | बाबू श्यामसुन्दर 
दास जी ने “साल गये” के आधार पर उसे १४६६ सं० माना हे, जो 
गखित के अनुसार भी ठीक बेंठता है। परंतु इस संवत्‌ को मानने से 
रामानंद जी की झूत्यु (सं० ५४६७ ) के समय कबीर की अचस्था 
केवल ग्यारह वर्ष को ठहरती हे, जिससे उसका रामानंद का शिष्य होना 
घटित नहीं होता। रामानंद जी के शिष्य होने के समय कबीर निरे 
बालक न रहे होंगे। बिना विशेष विरक्तावस्था के जागरित हुए न रामा- 
नंद ही किसी सुसलमान को चेला घना सकते थे और न कबोर हो किसी 
हिंदू के चेले बनन के लिए उत्सुक हो सकते थे। उस समय कस से 
कम उनकी अवस्था अठारह वर्ष की होनी चाहिय | एक-दो चष कम से 
कम उससे रामानंद जी का सत्संग भी किया होगा । अतएब कबीर का 
जन्म सं० १४४७ से पहले हुआ होगा, पीछे नहीं । 

कबीर के समय तक नामदेव करामाती कथाओं के केन्द्र हो गये थे 
जिससे मालूम होता है कि वे कबीर से पहले हुए थे। नामदेव की 
रत्यु सं० १४०७ के लगभग हुई थी, अतएुव कबीर का आविर्भाव सें० 
१४०७ ओर १४४७ के बीच किसी समय में मानना चाहिए। मेरी 
समझरू में सं० १४२५ के आस-पास उनका जन्म मानना उचित हे | 


कबीर साहब पीपा के समकालीन थे | पीपा के जीते जी कबीर को 
बहुत प्रसिद्धि आप्त हो रह थी। पीपा का ससय हम १४१० से १४६० 
तक मान आये हैं | कबीर पीपाजी से अवस्था में छोटे हो सकते हैं, 


हा | आ में ७ ९ कक 
शव हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


किंतु बहुत छोटे नहीं । इस इष्टि से भी १७२७ के आस-पास उनका जन्म 
मानना उचित हे। 


सरत्यु के निकट कबीर बहुत प्रसिद्द रहे होंगे | इसलिए उनको जन्म- 
तिथि का लोगों का ज्ञान रहा हो, चाहे न रहा हो, उनकी पुएयतिथि का 
शान अवश्य रहा होगा । उनकी निधन-तिथि के बारे में दो दोहे प्रचलित हैं, 
जो प्राय; एक ही के रुपाँतर मालूम होते हैं& । एक के अनुसार उनकी 
रत्यु सं० १४०९ ओर दूसरे के अचुसार १९७४ में हुईं | इनमें से एक 
अवश्य सही होना चाहिए। पहला अधिक संगत साजूम पड़ता हे | 
उसके अनुसार उनकी आयु लगभग ८० वर्ष की होती हे । अनुमान यह 
होता है कि सिकंदर लोदी ( राज्य सं० १४४६ से १६७२ ) के साथ 
कबीर का नाम जोड़ने के उद्देश्य से ही किसी ने ओऔ पाँच मो? की 
जगह “पछुत्तरा' कर दिया हे | कबीर पर किसी शासक की कोप-दृष्टि 
अवश्य हुईं थी, पर वह शासक सिर्कंदर ही था, इसका कोई विशेष प्रमाण 
नहीं मित्रता | प्रियादास जी ने सिकंदर ही को अधिक जुल्मी सुना होगा, 
इसी से उसके द्वारा कबीर पर जुल्म होना लिख दिया होगा । 


कबीर के जीवन की घटताओं में शेख तक़ी का नाम भी लिया जाता 
है| रेवरेंड चेसस्‍्क्ट ने इस नाम के दो व्यक्तियों का उल्लेख किया है, 
एक मानिकपुर कड़ा के ओर दूसरे #ऋूसी के । मानिकपुरवाले शेखर तक़ी 
चिस्तिया खानदान के थे। उनकी झत्यु सं०१६०२ ( ई० १५४५ ) में 
हुई | कूं सीवाले तक़ी सुहवंदी खानदान के थे ओर स्वामी रामानंद 


शक 


& संवत पंद्रह सौ ओऔ पाँच मो, मगहर को कियो गँवन । 
अगहन सुदी एकादसी, मिले फ्वत में फ़्वन॥ १॥ 
संवत पंद्रह सौ पछत्तरा। कियो मगहर को गवन । 


छा, 


माघ सुदी एकादसी, रलो पवन में पवन ॥ ३ ॥ 


दूसरा अध्याय भ््छ 


के समकालीन थे | इनकी झत्यु सं० १४८६ ( डै० १४२६ ) में हुई । 
परंपरा के अनुसार भू सीवाले शेख तक़ी ही कबीर के समकाञ्जीन थे& । 
इनके समय की प्राचीनता के कारण विद्वानों को इसमें संदेह होता हैं । 
परन्तु सं० १५०४ (३० १४४८) में कबीर की झत्यु मानने से इस संदेह 
के दिए जगह नहीं रह जाती | उत्मा लोग भी इसी संबत्‌ को मानते हैं । 

मॉनुमेंटल एऐटिक्विटीज़ आँब दि नाथ बेस्टने प्रॉविसेज़ के 
लेखक डाक्टर फ्यूरं के अनुसार संवत्‌ १९०७ ( १४६४० ई० ) सें नवाब 
बिजलीखाँ पठान ने कबीर की कबर के ऊपर रोजा बनवाया था जिसका 
जीर्णोड्ार संचत्‌ १६२४ ( १५६७ ईै० ) में नवाब फिदाईखाँ ने करवाया । 
इससे भी इस मत की पुष्टि होती है | परन्तु खेद है कि डाक्टर फ्यूर ने 
अपने प्रमा्णों का उल्लेख नहीं किया | 

जान पड़ता हे कि कबीर विवाहित थे | उनकी कविता में स्थान- 
स्थान पर “ल्ोई” शब्द आया है जिससे अनुमान किया जाता है कि लोइ 
उनकी खत्री का नाम॑ है जिसे संबोधित कर ये कविताएँ कही गई हैं । 
परन्तु अधिक स्थानों पर लोई “लोग” के अर्थ में आया हे ओर 'जोग” छोक 
का श्रपश्र श रूप है। हाँ आदियंथ में दो स्थ्+ ऐसे हैं, जिनमें 'ल्वोई? 


$9 कहते है कि कबीर कुछ दिन तक मूसी में शेख तक़ी के पास 

रहे थे । खाने-पीने के संबंध में सत्कार का अभ्रभाव देखकर जब कबीर 

कुड़बुड़ाये तब शेखजी ने उन्हें शाप दे दिया जिससे वे छः मास तक 

संग्रहणी से ग्रस्त रहे | अब तक भूसी में एक कबीर नाला हैं। कहते 
हैं कि उन दिनों कबीर जिस नाले में जाया करते थे, वह यही था। 

न कहत कबीर सुनहु रे लोई। अभ्रब तुमरी परतीत न होई ॥ 

“अ्न्थ, पृ० २६२ 
सुनि अंघली लोई बे पीर । इन मृडियन भजि सरन कबीर ॥। 
““-क० ग्र ० २६६, १०६ 


ध््द हिन्दी काव्य में निर्गंण संप्रदाय 


खी-वाचक हो सकता है। आदिय्ंथ में एक पद्‌ ऐसा भी है जिससे ऐस' 
प्रतीत होवा हे जेसे कबीर का विचाह धनिया नामक युवती से हुआ हो 
जिसका नाम बदलकर उसने रामजनिया कर दिया हो | इसी से कबीर 
की साता को शोक होता है, क्योंकि 'रामजनी” तो चेश्या अ्रथचा 
चेश्या-पुत्री को ही कह सकते हैं । परन्तु इससे कबीर का अभिप्राय दूसरा 
ही है | माता” माया है और धनिया? उसका अधान अख कामिनी ओर 
'रामजनी? भक्ति, जिसमें कुल-सयादा का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। 
जनश्रति के अनुसार कबीर के एक पुत्र और एक पुत्रो थो | पुत्र का 
नाम कमाल, पुत्री का कमाली था। पंथवालों के अनुसार ये उनके सगे 
लड़के-लड़की नहीं थे, बल्कि करामात के द्वारा सुर्दे से जिंदे किये हुए 
बच्चे थे जो उन्हीं के साथ रहा करते थे। इस छोटे से परिवार के 
पालन के लिए कबीर को अपने करघे पर खूब परिश्रम करना पड़ता था| 
परन्तु शायद उससे भी पूरा न पड़ता था, इसी से कबीर ने दो वक्त 
के लिए दो सेर आटा, आध सेर दाल, पाव भर धीं और नमक ( चार 
आदमियों की खुराक ) के लिए & परमात्मा से प्राथना की जिससे 
निश्चित होकर भजन में समय बिता सके | साधु-सेवा की कामना से 
ओर अधिक अरथ-संकट आ उपस्थित होता था| बाप की कमाई शायद 
इसमें खर्च हो चुकी थी | कबीर की स्त्री को यह बात खलती थी कि 
अपने बच्चे तो घर“में भूखे ओर दुखी रहें ओर साधु लोगों की दावत 
होठी रहे »< | मालूम होता हे कि कमाल घन कमाकर संग्रह करके 


जज शनि नल जी नीली लकी जज नल आल अभंभ भरमार राधा आआ%७आाााााआ॥॥आ७७७७७७७७७७७७७७७७७७/७७७७॥/७///शआआआ॥॥//श॥आ७७॥७ए"श/श/श/श/॥/॥/एएएए,ीा 


& दुइ सेर माँगौ चूना। पाव घीड सँग लूता ॥॥ 
भ्राध सेर माँगौं दाले । मोको दोनो बखते जिवाले ॥।..- 
““क० ग्रं०, पु० ३१४ १५६॥ 
> इन म्‌ डिया सगलो द्रव खोई। झ्रावत जात कसर ना होई ॥।... 


लरिका लरिकन खेवो नाहि। मुड़िया अनदिन धाये जाहि ।॥ ... 
“वही २६६, १०६। 


दूसरा अध्याय ६ 


माता को प्रसन्न करता था। परन्तु इससे कचीर को दुःख होता था ।& 
पिता की झूत्यु पर उसने भी अपने पिता के साग का अजुसरण किया 
ओर, चह अहमदाबाद की तरफ उनके सिद्धांतों का प्रचार करता रहा | 
“ कबीर ने सत्य के शोध में अपना जीवन व्यतीत किया था। अ्रश्ञान 
के विरुद्ध उन्होंने घोर युद्ध किया था । हिंदू-सुसल्मान दोनों पर उन्होंने. 
व्यंग्यों की बाण-वर्षा की, जिससे दोनों तिलमित्रा उठे। सुलतान के दरबार 
में उनकी शिकायतें पहुंचीं। 'राजा राम”! का सेवक भज्ना पृथ्वी के किसी 
शासक की क्‍या परवा करता ? उसने बेधघइक सुलतान का सामना 
किया । » काजी ने दंड सुनाया | पर, कहते हैं कि द्वाथ-पाँव बॉधकर 
गंगा में डबाने, आय म॑ जलाने, हाथी से कुचक्षवाने के सब प्रयत्न 
निष्फल्ल हुएं । संत-परंपरा में ये कथाएँ बहुत ग्रचत्षित हैं. कि अह्वाद के 
साथ कबीर की पूर्ण तुलना के लिये कथाएँ गढ़ी गई हैं । म्लेच्छ-कुल में 
पैदा होने पर भी कबीर वेष्णव दो गया था, इस दृष्टि से उसकी प्रह्माद 
के साथ समानता थी ही । कचीर-प्रंथावली में भी इनका वर्णन हे । 
इसी से उसकी प्रामाखिकता को भी हस अमेद्य नहीं कह सकते | 
हाँ, अगर हम काजी? का अर्थ हिरण्यकश्यप का न्यायाध्यक्ष सा्ने 





& बूडा वंग कबीर का, उपजा पूता कमाल | 
हरि का सुमिरन छाँड़ि के, ले आया घर भाल ॥ 
“-बही १०१, ४१॥। 
» अहो मेरे गोविंद तुम्हारा जोर | काजी बकिवा हस्तीतोर ॥... 
तीनि बार पतियारों लीना । मन कठोर अजहें न पतीना ॥ 

». “हीं पृ० २१०, १६५; रेरैंड, १५५। 
गंग गोंसाइनि गहिर गभीर, जजीर बाँधिकर खरे है कबीर |... 
गंग लहरि मेरी टूटी जेजीर, मुगछाला पश्‌ बेठे कबीर ॥ 

--वही . धूृ० २६०, ५० || 


ता ॥ 
६० हेन्दी काव्य में निग एु संप्रदाय 


॥। 


और इस पद को अह्वाद के सम्बन्ध का मानें तो कुछ खप सकता हैं। 
जो हो, इसमें तो संदेह नहीं कि बुढ़ापे में कबीर के लिए काशी में 
रहना लोगों ने कुछ दूभर कर दिया था। इससे तंग आकर वे सगहर 
चले गये | किसी के आदेश से वे मगहर नहीं आये थे, इसका पता 
आदि ग्रन्थ के एक पद से चलता है। कभी-कभी फिर काशी जाने के 
लिए उनका मन मचल उठता था |& ज्ोग भी, खास करके उनके 
हिन्दू शिष्य, मोक्तदा पुरी का यश गाकर उन्हें काशीवास करने को कहते 
होंगे। परन्तु वें अन्धविश्वासों को कब माननेवाले थे, जन्म भर की 
लड़ाई को अन्तिम घड़ी ही में केसे छोड़ देते ? उन्होंने कहा---'हृदय 
का क्र.र यदि काशी में मरें तो भी उसे मुक्ति नहीं मिल सकती ओर यदि 
हरिभक्त सगहर में भी मरे तो भी यम के दूत उसके पास नहीं फटक 
सकते | + काशी में शरीर त्यागने से लोगों को भ्रम होगा कि काशी- 
वास से ही कबीर की मुक्ति हुई है। में नरक भले ही चला जाऊँ पर 
भगवान्‌ के चरणों का यश काशी को न दूँगा ।? & इसलिए राम का 
: स्मरण करते करते-उन्होंने मगहर में शरीरत्याग किया |- वहाँ उनकी कबर 


$ जिउ जल छोड़ि बाहिर भइ मीना 
तजिले बनारस मति भइ थोरी । 
“अंथ, १७६, १५। 
+ हिरदे कठोर मरया बनारसी, तरक न वच्या जाईं। 
हरि का दास, मरे मगहर, सेना सकल तिराई॥। 
“क*० ग्रँं०, पृ० २२४, ३४५। 
» जो कासो तब तज कबीर, रामहि कहा निहोरा 
“वही पृ० २३१, ४०२ । 
चरन विरद क्ासीहि न देह | कहे कबीर भल नरके जहूँ । 
““वही, पृ० १८५, २६० । 
- मुआ रमत श्रीराम । +अन्धथ, पृ० १७६, १५। 


दूसरा अध्याय ६१ 


भैब तक विद्यमान है| कहा जाता है कि राजा वीरसिंद की इच्छा कबर 
को खोदकर हिन्दू प्रथा के अनुसार उनके शव का दाह करने की थी, 
परन्तु उसमें वे सफल नहीं हुए । इस सम्बन्ध सें ओर भी कर स्थान 
कहे जाते हैं । 

कबीर का एंक अल्य पंथ चलना । उनके शिष्यों मे हिन्दू-सुसलमान 
दोनों सम्मिल्नित थे । बढ़े-बढ़े राजा-नवाबों ने अपने आत्मा की रहा की 
आशा से उनकी शरण ह्ली। बघेल राजा वीरसिंह ओर बिजल्ली खाँ 
नवाब दोनों उनके चेले थे। उनके अन्य चेल्नों में धर्मदास, सुरत 
गोपाल, जागूदास और भगवानदास ( भागूदास ) असिद्ध हैं । रूत्यु के 
बाद कबीरपंथ को दो प्रधान शाखाएँ हो गई | काशीवाली शाखा को 
गही पर सुरत गोपाल बेठे ओर बान्धव गढ़ की गद्दी पर धर्मदास | 
सुरत गोपाल ब्राह्मण थे, इसके अतिरिक उनके बारे में ओर कुछ नहीं 
मालूस है। धर्मदास बांधवगढ़ के वेश्य थे। कबीर से उनकी सेंट 
पहले-पहल वृन्दावन में हुईं थी । वहाँ उनके ऊपर कबीर के उपदेशों का 
कुछ असर नहीं हुआ | परन्तु एकबार फिर कबीर ने स्वयं बान्धवगढ़ 
जाकर उनको उपदेश दिया और वे कबीर के बड़े भक्तों में से हो गये । 
धर्मदासियों का प्रधान स्थान धामखेंडा ( छत्तीसगढ़ ) है, किन्तु 
हाटकेश्वर में भी उनकी एक ग्रशाखा है | मंडला, कवरधा ( दोनों 
मध्यप्रान्त में ), घनौटी तथा अन्य कहे स्थानों: में भी कबीरपंथ की छोटी- 
मोटी शाखाएं हैं । पक 

कबीर के मत का प्रचार बहुत दूर-दूर बक़ हुआ, लेकिन अधिक- 
तर हिन्दुओं में ही, मुसलमानों में ४ सगहर में सी कबीर का 
एक स्थान है परन्तु वहाँ पर वे साधास्ण पर” समझे जाते हैं, जब कि 
अन्य कबीरपंथी उन्हें साक्षत्‌ परमाबऋ मानते हैं। दिल्ली के आस- 
पएस के जुलाहे अपने को: कबीरवंशी कहते हैं किन्तु कबीरपंथी नहीं। 
देश के कोने-कोने में कबीरपंथी लोग पाये जाते हैं | बहुत कुछ लोग ऐसे 


६२ हिंदी काव्य में निगुण संप्रदाय 


भी हैं जो कबीरपंथ से अपना संबंध भूल गये हैं। पहाड़ के डोम 
प्रायः निरंकारी हैं। उनकी पूजाओं में कबीर का नाम आता है| पहाड़ 
में प्रचलित माइ-फू क के मत्रों में कबीर की गिनती सिद्धों मं की गई है | 

कबीर पढ़ै-लिखे नहीं थे। उन्होंने स्वयं कहा है “विद्या न पढ़ों 
वाद नहिं जानों? |[& अत्एंव उनकी कविता साहित्यिक नहीं हे | उसमें 
सत्यनिष्ठा का तेज, दद॒ विश्वास का बल ओर सरलहृदयता का सौंदय 
है। बाबू श्यामसुन्दर दास-ह्वारा संपादित कबीर-गन्थावली में आईं हुई 
साखी, पद और रमेणी में उनकी निगण वाणी बहुत कुछ प्रमाणित हे | 
संपूर्ण बीजक भी प्रमाणित नहीं जान पड़ता | उनकी कुछ कविताओं 
का संग्रह सिखों के आदि्यिंथ में भी हुआ है । इनके अतिरिक्त भी ओर 
कई ग्रंथ कबीर के नाम से प्रचलित हैं जो कबीर के नहीं हो सकते । 
उनके बहुत से अंथ धर्मदासी शाखा के महंतों ओर साधुओं के बनाये हुए 
हैं। उनके अन्थों की प्रमाणशिकता का विषय नि्गण साहित्य नामक श्रध्याय 
में जिया जायगा | 

धर्मदासजी की कविता में थद्यपि वह ओज ओर तीच्णता नहीं हे 
जो कबीर की कविता में, फिर भी वह कबीर की कविता से अधिक मधुर 
ओर कोमल है। उन्होंने अधिकतर प्रेम की पीर की अभिव्यंजना की 
है । उनकी शब्दी का कबीरपंथ में बहुत मान होता है | 


कबीर की स॒त्यु के इक्तीस वर्ष बाद सं० १५२६ ( १४६६ ६० ) 

सं हक समीप तबघंडी नामक एक छोटे से गाँव में एक बालक 

क का जन्म हुआ! जिसके भाग्य सें कबीर के सत्य-प्रसारक 
आंदोदन के नेतृत्व को भार अहण करना लिखा था। 

यह बॉल्क नानक था। उसके पिता का नाम कह्लू 
ओर माता का तृप्ता था। बहुत छोटी अवस्था में उसका विवाह कर 


& क० ग्र'०, पु० १२२९, १८७ | 


रे, 


दूसरा अध्याय ६३ 


दिया गया था | उसकी स्त्री का नाम सुलक्षणा था जिससे आगे चक्तकर 
उसके श्रीचंद्र ओर लच््मीचंद नामक दो पुत्र हुए | श्रीचंद ने सिखों की 
उदासी नामक एक शाखा का प्रवर्तन किया जो गुरु नानक को भी 
मानते हैं ओर अपने आप को हिंदू घेरे से अज़्ग नहीं सममने। 
ज्षद्मीचंद के वंश के लोग आज भी पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों सें पाये 
जाते हैं 
नानक सांसारिक दृष्टि से बहुत बोदा समझा जाता था | चटसार 

( पाठशाला ) में उसने कुछ नहीं सीखा । वह गृहस्थी के कुछ काम 
का न पाया गया। खेत रखाने सेज्ञा जाता तो खेत चराकर आता; बीज 
बोने के बदले वह किसी भूखे को दें आता । उसके बाप ने चाहा कि 
वह दूकान करे परन्तु दूकान भी थोड़े ही दिनों सें चोपट हो गई | अंत 
में उससे निराश होकर उसके बाप ने उसे उसकी बहिन ननकी के यहाँ 
भेज दिया | ननकी का पति जयराम सरकारी नोकरी पर था। उसके 
कहने-सुनने से “नानक को नवाब ने भंडारी का पद दे दिया|। अपनी 
बहिन का सन रखने के लिए नानक अपने नए काम को बड़ी लगन के 
साथ करने त्रगा | ऐसा मालूम होता था कि नानक अब दुनियाँ सें किसी 
काम का हो जायगा। परंतु लिखा कुछ ओर ही था। साघु-संतों की 
सेवा उसने अब भी नदोड़ीथी। उनका सत्कार करने के लिएं वह 
सदा मुठ्ठी खोले रहता था | इससे लोगों को उसू पर संदेह होने लगा | 
उस पर सरकारी रुपये हृडंप जाने का अभियोग लगाया गया। जाँच 
होने पर उसका पाई-पाई का हिसाब ठीक निकला। उसके मान की 
तो रक्चा हो गई पूर उसका उचटा हुआ मन फिर दुनियाँ के धंधों 
में जगा नहीं; क्योंकि उसके भीतर की आँख खुल गई थीं। उसने 
देखा कि संसार सें मिथ्या का राज्य है। अतएंव मिथ्या के विरुद्ध 
उसने लड़ाई छेद दी । किंवदंतियों के अलुसार यह दिग्विजय करते 
हुए मक्‍का से आसाम और काश्मीर से सिहल तक कह स्थानों में 


६ हिंदी काव्य में निगुंश संप्रदाय 


पहुँचा | उसका स्वामिभक्त सेवक मरदाना, जहाँ-जहाँ चह वह गया 
वहाँ-वहाँ, छाया की तरह उसके साथ गया। उनका रूबसे अधिक 
प्रभाव पंजाब प्रांत में रहा जो उस समय इस्लाम का गढ़ था| 
नानक को यह देखकर बढ़ा दुःख होता था कि मिथ्या और पाषंड का 
जोर बढ़ रहा है । “शासत्र ओर वेद कोई नहीं मानता । वह अपनी-अपनी 
पूजा करते हैं | तुरकों का मत उनके कानों और हृदय में समा रहा है | 
लोगों की जूडन तो खाते हैं ओर चोका देकर पवित्र होते हैं-... देखो 
यह हिंदुओं की दशा हेै”” | #& एक हिंदू चुंगीवाले से उसने कहा था--- 
यो-त्राह्यण का तो तुम कर छेते हो | गोबर तुम्हें नहीं तार सकता | 
घोती टीका लगाये रहते हो, माला जपते हो, पर अ्रन्न खाते हो स्लेच्छ 
का | भीतर तो पूजा-पाठ करते हो, किंतु तुरकों के सामने कुरान पढ़ते 
हो। अरे भाई ! इस पाषंड को छोड़ दो और भगवान्‌ का नाम लो 
जिससे तुम तर जाओगे ।”+- 
यदि वस्तुतः देखा जाय तो नानक उन महात्माश्रों में से थे जिन्हें 
हम संकुचित अथ में किसी एक देश, जाति अथवा धर्म का नहीं बतला 
सकते | समस्त संसार का कल्याण उनका धेय था | इसीलिए उन्होंने 


&9 सासतु वेद न माने कोई | आपौ आप पूजा होई ॥ 
तुरक मंत्र कनि रिदे समाई। लोकमुहावहि छाँडी खाई ॥ 
चौका देके सुच्चा होई। ऐसा हिंदू देखहु कोई ॥ 
आदि ग्रंथ, पृ० १३८ । 
- गऊ बिरामण का कर लावहु, गोबर तरण न जाई। 
धोती टींका ते जपमाली, धानु मलेच्छां खाई ॥ 
श्रंतरिपूजा, पढ़हि कतेना संजमि तुरुकां भाई। 
छोडिले पखंडा, नामि लइए जाहि तरंदा ॥ 
““ ग्रंथ, पूृ० २५५। 


वूसरा अध्याय ६५ 


हिन्दू-मुतजनाव दो तों की घार्मिक संडी्णता का विरोध किया। परन्तु 
अपने समय के वःस्तव्रिकर तथ्यों के लिए वे आँखें बन्द किये हुए न थे । 
सिह्टर सेक्स आधर मेकॉलिफ़ का यह कथन कि सिखधर्म हिंदू धर्म से 
बिल्कुल सिन्न हे, आज चाहे सही हो पर नानक का यह उद्देश्य न 
था कि ऐसा हो | नानक हिंदू धस के उद्धार ओर सुधारक होकर 
अवतरित हुए थे, उसके शत्र होकर नहीं । सुधार के वे ही प्रयत्न सफल 
हो सकते हैं जो भीतर से सुधार के लिए. अग्रसर हों, नानक यह बात 
जानते थे | उन्होंने परंपरा से चल्ले आते हुए धर्म में उतना ही परिवर्तन 
चाहा, जितना संकीशवा को दूर करने तथा सत्य की रचा करने के ल्षिए 
आवश्यक था। उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारबाद ओर जाति-पाँति का 
खंडन किया परन्तु त्रिमूर्ति ( ब्ह्मा-विष्णु-महेश ) के सिद्धांत को रुष्ट 
में स्वीकार किया |& प्रणव 3» को उन्होंने अपनी वाणी में आदर के साथ 
स्थान दिया | एक सद्दित्रा बहुधा वर्दति” से वेदों में ऋषियों ने जो 
दाशनिक वितन का, आरंभ किया था, उसी का पूर्ण विकास वेदांत में 
हुआ, ओर उसी का सार लेकर नानक ने ऊ सति नामु करता पुरुष 
निरभो निरबेर अकाल मूरति अजूनि सेसं की भक्ति का असार किया 
ओर एकेश्वरवाद का जो आकर्षण इस्लाम में था, उसके स्वधर्म में ही 
लोगों को दशन कराये, क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि लोग एक ग्रपंच से 
हटकर दूसरे अपंच में जा पड़ें | हिंदू धर्म में ही नहों, इस्ज्ाम में भो 
पाषंड और प्रपंच भरा हुआ था। आध्यात्मिक प्रेरणा के बिना प्रत्येक 
धर्म ग्रपंच ओर पाषंड हे | जो बातें हिन्दू धर्म को सावभौम घमम के 
स्थान से गिरा रही थीं उन बातों को हटाकर नानक ने फिर से शुद्ध धर्म 


9 एका माई जुगत वियाई, तिन चेले परवान । 
एक संसारी, एक भंडारी, लाये दीवान ॥ 
“जपजी, ग्रंथ, पृ० २। 


६६ हिन्दी काव्य में निग॒ण संप्रदाय 


का प्रचार किया । वह खावंभीम धर्म, नानक जिसके प्रतिनिधि हैं, किसी 
धर्म का विरोधो नहीं, क्योंकि शुरू रूप में सभी धर्मो को उसके अंतर्गत 
स्थान है, वह घमं-धर्म के भेद को नहीं मानता | किर भी परिणाभतः 
उनको मध्ययुग का पंजाबी राममोहन राय सममना चाहिए। “उन्होंने 
इस्लाम की बढ़ती हुडे बाढ़ से हिन्दू धर्म की उसी अकार रक्षा की जिस 
प्रकार राममोहन राय ने इंसाइयत की बाढ़ से | डा० ट्ग्प चाहे अच्छे 
अनुवादक न हों परन्तु उन्होंने नानक के सम्बन्ध में अपना जो मत दिया 
है वह बहुत सयुक्तिक हे। मिस्टर फू डरिक पिंकट ने डसके निराकरण 
का व्यर्थ प्रयत्न किया हे |& डा० ट्म्प ने लिखा है--“ “नानक की 
विचारशैली अन्त तक पूर्ण रूप से हिंदू विचारशेली रही | मुसलमानों 
से भी उनका संसगग रद्दा और बहुत से मुसलमान उनके शिष्य भी हुए, 
परन्तु इसका कारण यह है कि ये सब सुसलमान सूफी मत के माननेवाले 
थे ओर सूफी मत सीधे हिंदू मत से निकल्ने हुए सर्वात्मवाद को छोड़- 
कर ओर कुछ नहीं, इस्लाम से उसका केवल बाहरी सम्बन्ध हे ५९ 
जो नानक को मुसलमान मानने में मिस्टर पिंकट का साथ देते हैं वे उसी 
तरह भूल करते हैं जसे वे लोग जो राममोहन राय को हसाई मानते 
हैं। हाँ, इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि नानक की 
विचारशेत्नी को ढालने में इस्लाम का भी ग्रकारान्तर से हाथ रहा है | 

नानक बहुत 'ऊची लगन के भक्त थे | पाषंड से सदा अलग रहते 
थे | दिखलाने भर के पूजा-पाठ ओर नमाज-इबादुत में उनका विश्वास 
न था। जब नोकरी ही में थे तभी उन्होंने नवाब और क्राजी से कह 
दिया था कि ऐसी नमाज़ से फायदा ही कक्‍्य€ जिससे नवाब घोड़ा 





49 डिक्शनरी श्रॉव इस्लाम में सिख संप्रदाय पर मिस्टर पिकट 
का लेख । 


९९ टूम्प- आदि ग्रन्थ! का अंगरेज़ी झनवाद, प्रस्तावना,पु० १०१। 


दूसरा अध्याय ६ 


खरीदने के और क़ाजी घोड़े के बच्च की रक्चा करने के खयाल को दूर 
न कर सके | थे दया, न्याय ओर समता का असार देखना चाहते थे | 
अन्याय की खीर-खाँड म॑ उन्हें खून की ओर मेहनत की रूखी-सूखी रोटी 
में दूध की धार दिखल्लाई देती थी | साहूकार के घर ब्रह्ममोज का 
निमन्त्रण अस्वीकार कर उन्होंने लालू बढ़ह की ज्वार की रोटी बढ़े प्रेम 
से खाई थी | सं> १४८३ ( १६२६ है० ) में बाबर ने सय्यदपुर को 
तहस-नहस करके एक घोर हत्याकाशड उपस्थित कर दिया था, जिसे 
नानक ने खुद अपनी आँखों से दखा था। नानक भी उस समय बन्‍्दी 
बनाये गये थे | उस समय बाबर को उन्होंने न्यायोी होने, विज्ित शत्र 
के साथ दया दिखलाने आर सच्चे भाव से परमात्मा को भक्ति करने का 
उपदेश दिया था । शासकों के अत्याचार की उन्होंने घोर निन्‍्दा की | 
उन्हें वे बूचढ कहते थे । उनका अत्याचार देखकर शानित के उपासक 
नानक ने सी “खून के सोहिले! गाये ओर भविष्यवाणी की कि चाहे 
काया रूदी वस्र , टुकड़े-टुकड़े हो जाये फिर भी समय आयगा जब ओर 
मर्दों के बच्चे पेंद्रा होंगे ओर हिन्दुस्तान अपना बोल सँमसालेगा |& 
नानक का गुरु कोन था, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलत्नता। 
संतबानी-संपादक के अनुसार नारद सुनि उनके गुरु थे। कवीर मंसूर 
में भाई बाला की जनसमसाखी से कुछु अवतरण दिये हैं जिनमें नानक 
के गुरु का नाम “जिंदा बाबा” लिखा हे। जिंदा का अथ मुक्त पुरुष 
होता है| परमार्थव; केवल परमात्मा ही जिंदा बाबा है । कबीर-पंथा- 
चली में यह शब्द इसी अर्थ में अयुक्त हुआ है--“कहे कबीर हमारे 


# काया क्षड़े टुक-टुक होंसी हिंदुस्तान सेभालसि बोला | 
झ्ानि अठतरे जानि सत्तानवे, होरि भी उठसि मरद का चेला। 
सच की बाणी वानक आखे, सचु सुणाइसि सच की बेला 
-+ गन्थ', पु० ३८६। 


6१५. में ५ ९ है] 
द्द हिन्द्दी काव्य में निगुंश संप्रदाय 


गोब्यंद | चौथे पद में जन का ज्यंद |? विहारी दरिया ने भी इससे 
यही अभिप्राय माना हे--- * 

अरछे वच्छ ओह पुरुप हृहि जिंदा अजर अमान |; 

मुनिवर थाके पडिता; वेद कहहि अनुमान 

किंतु ज्ञान श्राप्त हो जाने पर अत्येक संत सुक्त पुरुष ( जीवन्मुक्त ) 
हो जाता है और जिंदा कहला सकता है। कई हिन्दू साधु भी अपने 
को जिंदा फकीर कहा करते थे | कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखावाले 
कबीर को भी जिंदा फकीर कहते हैं | 

बाबा जिंदा के संबंध सें भाई बाला ने नानक खरे कहलाया हे “जित्थे 
तोड़ी पवन और जल है, सब उसदे बचन बिच चलते हैं ।”-- जिंदा 
बाबा के गुरुत्व के संबंध में व्याख्या करते हुएं एक मुगल फकीर के 
प्रति भाइईंजी ने नानक से कहलाया ढे--“यक खुदाय पीर शुदी कुल 
आलम सुरीद शुद्दी? (८ इन स्थलों से तो यही जान पड़ता हे कि 
उनमे जिंद का अर्थ परमात्मा हो किया गया हे | डैनमें नानक अपने 
गुरु को परमात्मा नहीं बल्कि परमात्मा को अपना गुरु बतला रहे हैं । 
अंधीत्‌ नानक स्वत; संत थे, उन्हें गुरु धारण करने की कोई आ्रावश्यकता 
नथी। 

कबीर मंसूर से यह भी जान पड़ता है कि भाई बाला के अनुसार 
नानक ने बाबर से कहा था कि में “कल्लंद कबीर” का चेला हूँ जिसमें 
तथा परमेश्वर में कोई भेद नहीं हे ।५८ यदि कबीर मंसूर में इस अवतरण 





$# क० ग्र ०, पृू० २१० । 

- सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १२३ | 
न जनमसाखी, पूृ० ३३६ | 

-+ वही, पृ० ३४६ | 


> जनमसाखी, पृ० ३६६ | 


दूसरा अध्याय द६ 


| 


सें कुछ फेरफार नहीं हुआ है तो यहाँ साई बाला भी कबीर को नानक 
का गुरु सान्‍ले जान पढ़ते हैं निसस लिंदा बाबा से कबीर ही अभिग्राय 
डहरता है। परंतु कबीर मंसूर में 'कविमनीषी परिभू: स्वयम्भू” का, चेंद 
में कबीर के दर्शन कराने के उद्देश्य से क्रीमनोपी हो गया है | इससे 
इनिश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता | 
“कबीर पंथी ल्लोग सी नानक को कवीर का चेला मानते हैं| बिशप 
चेस्कट ने २७ वर्ष की अवस्था में नानक का कबीर से मित्रना माना है, 
कितु कोर का जो समय पीछे निश्चित किया जा चुका हे उसके अनुसार 
यह ठीक नहीं जचता | अतएव यदि जिंदा बावा परमात्मा का नाम न 
होकर किसी साथु का नाम है तो वह साथु कबीर न होकर कोई दूसरा 
होगा | यदि कबीर ही नानक के युरु हों तो, उसी अर्थ में हो सकते है 
जिस अथ में वे सं०. १७४५ के आस-पास गरीबदास के गुरु हुए थे । 
इसका इतना ही अर्थ निकलता है कि नानक कबीर के मतानुयायी थे 
ओर उनकी वाणी से उनको अध्यात्म-सार्ग में बहुत प्रोत्साहन मिला था | 
आपदियभ्रन्थ इस बात का साझी है कि यह बात स्वेधा सत्य है | 
युह नानक ने सं० १५६५ ( १५श८ ई० ) में अपना चाला 
छोड़ा | उनका मत सिखमत अथवा शिष्यसत कहलाया | उनके बाद 
एक-एक करके नो और गुरु उनकी गदी पर बेठे; गुरु अंगद सं० १६४६३ 
में, गुरु अमरदास सं० १६१६५ सें, गुरु रामदास सं० १६३१ में, गुरू 
अजनदेव स० १६३८ में, हरगोविंद सं० ३१६६३ में, हरराय सं० 
१७०२ में, गुरु हरकिसन सं» १७१८ सें, युह तेगबहादुर सं० ३७२३ 
में और सं० १७३२ में गुरु गोविंद्सिह | ये सब शुरू नानक की ही 
आत्मा समझे जाते थे | एक की झत्यु पर दूसरे के शरीर में उसका प्रवेश 
साना जाता था | अपनी कविताओं सें सबने अपनी छाप नानक रखी 
है| अपने आदि गुरु के समान सभी गुरु कवि थे। सबने अपनी कविताश्रों 
में नानक के भावों ओर आदशों का पूर्ण अनुकरण किया है। पहले 


[+ अल ग्‌ है. 
४० हिन्दी काव्य म॑ निम॒ण संत्रदाय 


पाँच गुरुओं की स्चनह आदि ग्र'थ में संगृहीत है जो गुरु अजनदेवः के 
समय में संवत्‌ ५६६५ ( १६०४ ई० ) में संपूर्ण हुआ, इस संग्रह 
में तब तक के सिख गुरुओं के अतिरिक्त अन्य भकजनों की चाणी कह 
भी समावेश हुआ । नपनक के बड़े आकर्षक ओर र्चिर पढों मे भगवान्‌ 
के चरणों में आत्सम-निवेदुन किया है | उनकी कविता मर्मस्पर्शी, सीघी- 
सादी ओर साहित्यिक कक्काबाजी से मुक्त हे। उन्होंने क्जमाषा में 
लिखा है, मिसम थोड़ा सह पंजाबीपन भी आ गया हे। 
नानक की आध्यात्मिक अनुभूति अत्यत गहन थी इसलिए उन्होंने 
धन का तिरस्कार किया, किंतु श्रद्धालु भक्तों की भक्ति-संट के कारण 
उनके पीछे के गुरुओं का विभव उत्तरोत्त बढ़ने लगा, इसलिए उन्हें 
खांसारिक बातों की ओर भी ध्यान देना पड़ा। अकबर के समय तक तो 
गुरुओं का विभव शांतिपूर्वक बढ़ता रहा | स्वयं अकबर भी उसमें 
सहायक हुआ; उसी की दी हुई्टै भूमि पर गुरु रामदास ने अमस्तसर का 
प्रसिद्ध स्वर्णसंदिर बनवाया | परन्तु गुरु अजुन ने- शाहजादा खुसरो से 
सहानुभूति दिखलाक्र जहाँगीर से शत्र॒ता मोक्नल ले ली ओर शाही केद- 
की यंत्र णा से पाँचव दिन उनके 5 छुट गये। प्रत्येक नवीन गुरु को 
आत्मरज्ञा की अधिकाधिक आवश्यकता का अनुभव हुआ । नवम 
गुरु तेगबहादुर को औरंगजेब ने बढ़ी ऋरता के साथ मरवाया । बच- 
स्थान में गुरु तेमबहादुर ने, पश्चिम से आनेवाले विदेशियों के द्वारा, 
मुगलशासन के नाश की भविष्यवाणी की जो अगरेजों पर दीक उतरी | 
सिखों ने इन अत्याचारों का बदला लेने का पूरा यत्न किया। छुठे गुरु 
हरगोविंद के हाथों शाही सेना को गहरी हार्‌ खानी पड़ी थी | दृशम 
गुरुगोविदर्सिह ने और भी महान फल के लिए प्रयत्न आरम्म किया । 
उन्होंने अपने सिखों में साहसी चीरों को चुन-चुनकर खालसा का संगठन 
किया, तमाखू और मदिरि का व्यवहार निषिद्ध कर दिया ओर केश, कंघा 
कटार, कछ ओर कड़े इन पाँच “क'-कारों के व्यवहर का आदेश किया 


दूसरा अध्याय ७९ 


झओर राहस-मर्दिती सगवती रख-चंडी का आवाहन किया। उन्होंने 
शुरुओं की परंपरा का अन्त कर दिया और उनके स्थान पर ग्रंथ को पूज्य 
खहराया, परन्तु साथ ही शत्राल्रों को भी वे पूज्य समझते थे। उनमें 
साधु और सेनिक दोनों का एक में समव्वय हुआ | छाव को भी उन्होंने 
चीरता के उद्दीपनों में सम्मित्षित कियॉ-- 
धन्य जियो तेहि को जग में मुख ते हरि, चित में जुद्ध चिचारे। 
देह श्रनित्ता न नित्त रहे, जस तनाव चढ़े भवसागर त्तारे ह 
धीरज घाम बनाय इहू तन. बुद्धि सुदीपक ज्यों उजियारे। 
ज्ञानहि की चढनी मनो हाथ ले कादरता कतवार बुहारे ॥ 
इस प्रकार सिख-संप्रदाय सेनिक धर्म सें बदल गया ओर भावी सिख 
साम्राज्य की पक्की नींव पड़ी । 
नानक की झूत्यु के छुः वर्ष बाद अहमदाबाद सें दादू का जन्म 
हुआ । ये निरगण संत मत के बड़े पुष्ट स्तंसों सेंसे हुए। इन्होंने 
राजपूताना और मंजाब में उपदेश का कार्य किया | दादूका गुरु कौन 
था, इस विषय में चड़ा वाद-विवाद्‌ चला हे | जनश्रति तो यह हे कि 
परमात्मा ने ही छुड़ढा के रूप में उन्हें दीज्ित 
४. दादू “ किया था। दादू ने एक साखी में स्वयं ही यह बात 
कही है| परन्तु इसका यह अ्रथ नहीं कि यूढ़ा रक्त- 
मांस का आदमी नहीं था | क्योंकि निगण पथ में गुरु साज्षात्‌ परमत्सा 
माना जाता है | स० म० पं० सुधाकर द्विवेदी का मत है कि दादू का 
शुरु कबीर पुत्र कमाल था। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से बह ठीक नहीं जान 
पड़ता । दादू ने स्थान-स्थान पर कबीर का उल्लख बड़े आदर के साथ किया 
है जिससे प्रकट होता हे कि वह उनको उपदेष्टा गुरु से भी बढ़कर 
सममते थे, यहाँ तक कि साक्वात्‌ परमात्मा मानते थे | दादू की चारों 
विचारशेली, साहित्यिक प्रणाली ओर विषय-विभाजन सबकी दृष्टि से 
कबीर की वाणी का अनुगमन करती है । यह, इस बात का दृढ़ प्रमाण 


हिन्दी मेँ 2 न 
छ्र्‌ नदी काउय में निर्गंण संग्रदाय 


है कि किसी ने उन्हें कबीर की वाणी की शिक्षा दी थी। बोधसागद 
के अनुसार कमाल ने अपने पिता के सिद्वान्तों का अचार अहमदाबाद 
आदि स्थानों म॑ किया था [& अवश्य अहमदाबाद का यह संत यदि 
कमाल का नहीं तो कम्ताल की शिप्य-परंपरा से किसी का शिष्य अवश्य 
था । ड7० चिल्‍्सन के मत से कमाल की शिडब्प-परंपरा में दादू से पहले 
जमाल, विमल और बुड्ढा हो गये थे। इसमें संदेह नहीं कि आज तक 
जिंतने बाह्य और आम्यंदर प्रमाथ उपछब्ध हुए हैं वे सब इस मत की 
पुष्टि करये हें । 

दादू जाति के घुनिया थे ॥+- उन्होंने अपना ऋधिक समय आमेर 
में बिताया । वहाँ से वे राजपूताना, पंजाब आदि स्थानों में अमण के 
लिए चल पड़े, ओर अन्त में दराना में बस गये । चहीं संचत्‌ १६६० में 
उनकी झूृप्यु हो गई। उनकी पोधी और कपड़े उस स्थान पर अब तक 
स्मारक-रूप में सुरक्धित हैं । दादू कई भाषाएँ जानते थे और सब पर 
डनका अधिकार था| सिंधी, मारवाड़ी, मराठी, गुजराती, पारसी सबसे 
उनकी कविताएं मिलती हैं परन्तु उन्होंने विशेषकर हिंदी में रचना की 
है जिसमें राजस्थानी की विशेष घुट है। दादू की रचना कोमल ओर मृदु 
है किंतु उसमें कबीर की सी शक्ति ओर तेज नहीं है । सबके प्रति उनका 
भाई के ऐसा व्यवहार रहता था, जिससे वे 'दादू” कहलाये ओर उनके 
द्रच॑णशील स्वभाव ने उन्हें 'दयाल्न” की उपाधि दिलाई । उनकी गहन 
आध्यात्मिक अनुभूति की कथा अकबर के कानों तक भी पहुची । कहा 
जाता है कि बीरबल की प्रार्थना पर अकबर का निमंत्रण स्वीकार कर 





8 चले कमाल तब सीस नवाई। अहमदाबाद तब पहुँचे आई |) 
“-“बोधसागर, पृ० १५१५ | 
+ बूती गंभ उतपन्यो दादू योंगेद्रो महामुत्ती । 
सवोंगी' पौड़ी हस्तलेख, पृ० २७३ । 


दूसरा अध्याय दे 


वे एंक बार शाही दरबार में गये थे, जहाँ उनके सिद्धांतों की सत्यता को 
सबने एकमत्त होकर स्व्रीकार किया। उनके शिद्य रज्वबदास ने एक 
साखी सें इस घटना का उल्लेख किया है |& 

दांदू के कुल मिज्ञाकर १०८ चेल्ने थे जिनम से सुन्दरदास सबसे 
प्रसिद्ध हुआ सुन्दरदास नाम के उनके दो शिष्य थे | बड़ा सुन्द्रदास, 
जिसने नागा साधुओं का संगठन किया, बीकानेर के राजघराने का था | 
प्रसिद्ध सुन्ददास छोटा था| वह छुः ही वर्ष की अवस्था में दादू की 
शरण में भेज दिया गया था किन्तु उनकी देखभात्न में वद एक ही वर्ष 
रह सका, क्‍योंकि एक साल बीतते-बीतते दादूदयात्न की मृत्यु हो 
गई । इसलिए सुन्दरदास का गुरुसाई जगजीवनदास उसे काशी ले आया, 
जहाँ उसने अठारह वर्ष तक व्याकरण, दर्शन ओर घमंशात्््र की शिक्षा 
पाई । निगल-संतों में वही एक व्यक्ति हे जिसे पोथी-पत्रों की शिक्षा 
मित्री थी | उपयुक्त जगजीवन दास नारनोत्र के उस सतनामी संप्रदाय 
का संस्थापक जान - पढ़ता है जिसके श्नुयायियों ने ओरंगजेब के विरुद्ध 
विद्रोह खड़ा किया और जिन्हें उसकी सेना ने सं० १७२६ ( १६७२३ै० ) 
में समूल नष्ट कर दिया । दादू का प्रधान शिष्य ओर उत्तराधिकारी उन्हीं 
का पुत्र ग़रीबदास था। उनके दूसरे पुत्र का नाम मिस्कीनदास था। 

उनके प्रायः सब शिष्य कबि थे | छोटे सुन्दस्दास ने ज्ञानसमुद्र, 
सुन्दर विलास, ये दो मुख्य अन्य लिखे | इनकी साखियों और पदों 
की भी संख्या काफी हैं| सुन्दरदास के उपयुक्त अन्थों के अतिरिक्त पोड़ी 
हस्तलेख में गरीबदास, रज्बदास, हरदास, जनगोपाल, चित्रदास, 
बखना, बनवारी, जगूजीवन, छीतम ओर विसनदास की रचनाएँ संग्रहीत 


न्‍अजलकतकीती अनयनकनन अमन नम 3 पाप न नकल न फसल क कप न मन नमन >नननन नम नमन -+ “न ऊननननमन-मक+ 4 कनवनकन-ं पवन पतन चकनियान नमन -+ जप तन नम ५ न तप ननननननमननमती पक -+ न कप काफ न न न नननन+ न नंन--तीन -नननन---ने+ पन जग"परयलय नकल 9 कनन-मनमत नमन न न न-मनतपा जन फनन न ५ कान" फल ना घन नाऊ93५५५++नक पक न न नककनननतपनीनननननन मनन वन नमन न नमन" नमन "वन मम नमन क ऊन नं पान नन “१. 


$ झकबरि साहि बुलाइया गुरु दादू को आप । 
साँच झूठ व्योरो हुओ, तब रह्यो नाम परताप ॥ 
“-सर्वा गी? पौड़ी हस्तकेख, पृ० ३६५ ( भर )-३६६ । 


| हिन्दो काव्य में निगण संग्रदाय 


हैं। इनमें से रजबजी सुसलमान थे। उन्होंने ख़बंभी ( सवांग। ) 
नामक एक अत्यंत उपयोगी वृहत संग्रह बनाया जिसम निरगण संत-मता- 
नुकूल कविताएँ संग्रहीत हैं, चाहे उनके रचयिता निगरी हों या न हों। 
स्वयं रत्बबदास ने भी सबंये अच्छे कहे हैं | 
दादूपंथी साधुओं की दो प्रधान शाखाएँ हैं। एक भेषधारी विरक् 
और दूसरे नागा । भेषघारी साथु संन्यासियों की तरह भगवा धारण 
करते हैं और नाया श्वेत वल्ध धघारख करते हैं तथा साधारण गृहस्थों की 
तरह रहते हैं । दोनों प्रकार के साधु ब्याह नहीं कर सकते, चेज्ा बना- 
कर अपनी परंपरा चल्लाते हैं । नागा ज्लोग जयपुर राज्य की सेना में अधिक 
संख्या में पाये जाते हैं। नराना में इनका जो शिष्य-समुदाय हैं, वह 
'खालसा” कहलाता है; क्योंकि वह दादू की मूल शि्षाओं की रहा किये 
हुए है। उत्तराधी नाम की भी उनकी एक शाखा ओर होती है जिसके 
संस्थापक बनवारी थे । 
दादूपंथी न तो मु्दों क्रो याइ़ते हैं, न जलाते; वे उन्हें यों ही जंगल 
में फेक देते हैं जिससे वह पशु पद्ियों के कुछ काम आचे । 
ऑंखनाथ जाति के कत्रिय थे ओर रहनेवाले काठियावाड़ के । उनका 
जन्म खं० १६७५ में हुआ था। संघ, गुजरात ओर महँराष्ट्‌ सें भ्रमण 
करने के बाद वे पन्ना में बस गये जहाँ महाराज छुन्न- 
५. ग्राशनाथ साक ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया | जान 
पड़ता हे कि उन्हें सुसजमान-हसाई सभी प्रकार के 
बाचु-संतों का सत्संग लाभ हुआ था | उनकी रचनाओं से मालूम होता 
कुरान, इंजीज़, तोरेव अपपदे घम-पुस्तकों का ज्ञान था। फारसी 
लिपि में किखा हुआ उनका एक ग्रंथ लखनऊ की आसफुद्दोल्ा पब्लिक 
ल्लाइबरी में हं जिसका नाम कलजमेशरीफ है । कल्जसेशरीफ का अर्थ 
ड् मुक्ति की पवित्र घारा । यह हिंदी में बिगइकर कुलजमस्वरूप हो गया 
है। इस अन्य का कुछ अंश उनके मुख्य निवास-स्थान पन्ना सें सुरक्षित 





दुसरा अध्याय जह्‌ 


है । इंपीरियल * जेटियर आवब इंडिया & में उनके महातरियात्र 
नास के एक झृन्य की सूचना प्रकाशित हुईं थी, जो माजूम होठा हे कि, 
कलजमेशरी फ से भिन्न नहीं है। इसके अतिरिक्त उन्होंने, प्रगटबानी, 
बरह्मवानी, बीस गिरोहों का बाव, बीस गिरोहों की हकीकत, कीवेन, 
ब्रेमपहेली, तारतम्य और राजविनोद, ये अन्य भी लिखे जो अभी 
तक प्रकाशित नहीं हुए हैं। मागरी-पचारिणी सभा की खोज रिपोर्टों +- 
में इन अन्थ से जो अवतरण दिये गये हैं, उन्हीं से हमे संतोष करना 
पड़ता है । आखनाथ विवाहित थे। उनकी खत्री भी कविता करती थी। 
पदावली इस दंपति की संयुक्त रचना है । 
प्राणशनाथ बहु-भाषा-विक् थे । जहाँ जाते वहा। की भाषा सीख लेते 
थे । उनके कलजमे शरीफ की सोलह किताबों में से कुछ गुजराती में 
हैं, कुछ उदूं में, कुछ सिंधी में ओर अधिकांश हिंदी में । हाँ, उनकी 
भाषा अत्येक दशा में ऊबड-खाबड़ और खिचड़ी हे। अरबी, फारसी 
तथा संस्कृत का भी, उन्हें ज्ञान मालूम पढ़ता है । 
आखनाथ बहुत पहुँचे हुए साधु समझे जाते थे। यहाँ तक कहा 
जाता है कि उन्होंने महाराज छुत्रसाल के लिए हीरे की एक खान का 
पता कगाया था । मैं तो सममता हूँ कि वह खान सगवद्धक्ति थी। 
उन्होंने एंक नवीन पृंथ का अवर्तव किया जो घामी पंथ कहलाता है। 
और भगवान्‌ के धाम की आप्ति जिसका प्रधान उद्देश्य हे। इस पंथ के 
द्वारा उन्होंने प्रेम-पंथ का प्रचार किया जिसमें केवल हिंदू और सुसल्लमान 
ही नहीं, हसाई भी एक हो सके । अपने को तो वे मेहदी, मसीहा और 
कल्कि अवतार तीनों एक साथ समझते थे। राधा ओर कृष्ण के 


49 भाग १६, पु० ४०४ । 
+ १६२४ से १६ तक की रिपोर्ट और दिल्ली में खोज की 
अप्रकाशित रिपोर्ट । 


७६ हिन्दी काव्य में निगृण संप्रदाय 


प्रेम के रूए उन्होंने भगवान्‌ और भक्त के प्रेम के गीत गाये । मुहम्मद 
उनके ल्लिए परमात्मा का प्रेमी था । उनके अनुसार प्रम परमात्मा का 
पूर्श रूप था और विश्व उसका एक अंश सात्र । # उन्होंने मांस, मदिरा 
और जाति का पूर्ण रूप से निषेध कर दिया । काठियावाइ और बुंदेलखंड 
में उनके भक्त पाये जाते हैं; कितु वे नाम मात्र के लिए धाभी हैं । हिंदू 
घर्म की सब प्रथाओं का वे पूरी तरह श्राचरण करते हैं । 
प्राणशनाथ की सृस्यु सं० १७२१ में हुईं। पंचमसिंह ओर जीवन 
मस्ताने प्राशनाथ के अन्य भक्तों सें से थे। पंचमर्सिह महाराज छुत्रसाल 
का भतीजा था। उसने भक्ति प्रेम आदि विषयों पर सबेये लिखें ओर 
जीवन भस्ताने ने पंचक दोहे । 
बाबाज़ाल मालवा के जत्रिय थे। इनका जन्म जहाँगीर के राजत्व- 
काज् में हुआ था । इनके गुरु चेतन स्वामी बड़े चमत्कारी योगी थे। 
उन्होंने इन्हें वेदांत की शिक्षा दी थी। स्वयं बाबालाल 
६, बाबाज़ाल के आश्वयजनक चमत्कारों की कथाएं भ्रचक्षित हैं। 
कहते हैं, एक समग्र इन्हें मित्ता में कच्चा अनाज 
ओर छकढ़ी मिली । अपनी जाँबों के बीच जकड़ी जल्बाकर ओर जाँव पर 
बर्तन सखकर इन्होंने मोजन को सिद्ध किया। शाहजादा दाराशिकोह 
बाबाजलारू के भक्तों सें से था । काबाजाल की कोई हिंदी रचना नहों 
मिल्कती, परन्तु उनके सिद्धांत नादिरुन्निकात नामक एक फाससी ग्रथ 
सुरक्षित हैं | सं० १७७२ में शाहजादा दाराशिकोह ने इस संत के 
उपदेश अवशण करने के लिए सात बार इसका सत्संग किया थर । इस 
सन्संग सें जिश्ासु दाराशिकोह के प्रश्नों के बाबाज़ाल ने जो उत्तर दिये 


४४७७७७७७॥७७७७७॥७७॥७॥७॥७॥७७॥७॥७७॥७॥७॥७॥७॥७७७॥७॥७॥७॥७७॥७७॥७॥७॥७७॥७/७ए॥७॥/"७॥/७७॥७॥७७४७७७७७७७७७॥७७॥७॥७७/शएएाशशाााा २ आजिडअ अल लडकी मनन नि शक 


#& भ्रब कहें इसक बात, इसक सबदातीथ साख्यात... 
ब्रह्मसृष्टि ब्रह्म एक अंग; ये सदा अनंद अति रंग # 
““बह्मबानी, पृ० १। 








अिरीनियनिशनरनननन नागा 


दसरा अध्याय ७ 


८ 


वें सब नादिरुज्ञिकात में संग्रहीत हैं। इन्होंने सूफकियों की कविताओं 
का भी अध्ययन किया था । मालाना रूम के वचनों को इन्होंने स्थान- 
स्थान पर अपने सत की युष्टि में उद्ट्त किया हैँ । सरहिंद के पास देहन- 
पुर में बाबालाल ने मठ और मन्दिर बनवाये थे, जो अब तक विद्यमान 
हैं । इनके अनुयायी बाबात्नाली कहलाते हैं। & 
बाबा मलूकदास सच्चो लगन के उन थोड़े से संतों में से थे 
जिन्होंने सत्य की खोज के लिए अपने ही हृदय को छेच्र माना कितु 
जिनके सिद्धान्त किसी सीमा की परवा न कर नेपाल, जगन्नाथ, काजुद्ध 
आदि दूर दूर देशों में फल गये वह भी उस जमाने सें जब दूर-दूर की 
यात्रा इतनी आसान न थी, जितनी आज है। 
७. मलूकदास उपयेक्त स्थानों के अतिरिक्त उनकी गद्दियाँ कड़ा, 
जयपुर, गुजरात, सुल्तान ओर पटने में हैं । उनके 
भानजे और शिष्य सथुरादास ने पद्य में परिचयी नाम की उनकी एक 
जीवनी लिखी हे,“जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई हे-- 
मलूक को भगिनी-सुत जोई । मल्‌क को पुनि शिष्य है सोई ॥। 

-« | सथरा नाम प्रगट जग होई |! 
तिन हित-सहित परिचयी भाषी | बसे प्रयाग जयत सब साषी ॥ 
इसके अनुसार बाबा मलूकदास के पिता का नाम सुन्दरदास था, 

पितामह का जठरसल ओर अ्पितामह का बेंसीराम । इनके हरिश्चन्द्रदास, 
शज्ञरचन्द्र, रायचन्द्र ये तीन भाई और थे | सलूकदास का प्यार का 
नाम मल्लू था। ये जाति के कक्‍्कड़ थे। इनका जन्म चेशाख कृष्ण £ 
सं० १६३१ में कड़ा में हुआ था और १०८ वध की दिव्य और 
निष्कलंक आयु भौगकर वेशाख कृष्ण चतुदंशी सवत्‌ १७३६ में वहीं वे 
स्वगंवासी भी हुए । मिस्टर आउज ने अपनी मथुरा में इन्हें जहाँगीर 


ँय्ममनाकक. अपमकााआ+ #०७;३हकक 


& विक्सन--रिलिजस सेक्ट्स आाव दि हिंदुज़ः, पु० ३४७-४८। 








३ हे & 
छ्य्र हिन्दी काव्य में निगश संप्रदाय 


का समकाल्लीन बताया हैं । वेशीमाधवदास ने अपने मल गोंसाइचरित 
छिखा हैं कि मुरार स्वामी के साथ इन्होंने मोस्वासी तछसीदास जी 
के दुशन किये ये ॥& कदा में अब तक इनकी समाधि, वह मकान जहाँ 
इनको परमात्मा का साझ्षात्कार हुआ था, साला, खड़ाऊं, ठाकुरजी+- 
इत्यादि विद्यमान हैं. हज्लिनका दुशन कराया जाता है। जगन्नाथजी में 
भी इनकी एक समाधि बतलाई़े जाती है, पर शायद वह किसी दूसरे 
मलूकदास की हैं। आचार्य स्थवामसन्दरदासमजी ने कबीर ग्रन्थावली 
की भूमिका में:: कबीर के एक शिष्य मलूकदास का उरक्षख किया हैं, 
जिसकी असिद्ध खिचड़ी का उन्‍होंने वहाँ अब तक सोग क्षगना बताया 
है और कहा है कि कबीर को नीचे लिखी साख्खी उन्हीं को संबोधित 
करके लिखी गई हे--- 
कबीर गरूपसे बसारखी सिख समंदा तीर । 
बीमारया नहि बीसर, ज॑ सगे होइ सरीर । 
संभव हैं, पुरीवाल्ली समाधि कबीर के शिष्य मचूक की हो । पीछे 
से दोनों मलूंक एक द्वी व्यक्ति में मिज मये ओर ज्ोगों ने दोनों स्थानों 
पर समाधि की उल्लमल को सुल्म्माने के द्विए वह दुन्‍्तकथा गढ़ डाली 
मिसके अनुसार मलूकदास के इच्छानुकूल उनका शक गंगाजी में बहा 
दिया गया ओर स्थान-स्थान पर सन्‍्तों स्ते सेंट करता हुआ वह, समुद्र के 
रास्ते, जगन्नाथपुरी पहुँच गया । 
नाम मात्र की दीका इन्होंने दवनाथज्री स्रे छी थी; किन्त 


रतन... 3०-०८ मकान. #स्‍का कप किमननौकनन-ंनानफशकलननीकिता- परिजन 


४४ गोस्वामी तुलसीदास' (हिन्दुस्तानी एकेडमी), पृ० है४४; फझे | 
+ इनकी रचनाओं से तो मालूम हड़ता हूँ कि थ मूति के ठाकुरजी 
की शायद ही पूजा करते रहे हों । 
> कः० ग्रं०, मूमिका, पु० २। 
# वही, पु० ६८। 

















अलदुकनट न 


इसरा अध्याय डेट 


आध्यात्मिक जीवन में उनको वस्ततः दी ड्डेत करनेवाले गुरु सुरार स्वामी 
थे। सन्तवाझी संग्रह में उनके ग्रुरुका नाम गलती से विठल्ल द्रचिढ़ 
लिखा हुआ है । विद्वज्न द्वविड़ तो उनके नाम-मात्र के दीचागुरु देवनाथ 
के गुरु भाऊनाथ के गुरु थे । कहते हैं कि सिखगुरू तेगबहादुर ने कड़ा 
में आकर उनसे भेंट की थी ॥ परिचयी में इस बात का उल्लेख नहीं 
है । हाँ, ओरक़जब द्वारा गुरू तेग के वध का उल्देख अवश्य हे । 

ओऔरगर्जब बहुत कट्टर तथा अखहिष्णु मुसलमान शथ्य; किंतु कहते 
हैं कि मनचूकदास का वह भी सम्मान करता था । एक बार ओरंगजेब ने 
उन्हें दरबार में भी बुलाया था। +िवदंती तो यह हे कि बादशाह ने 
जो दो अहदी भेजे थे, उनके आने के पहले ही ओरगजेब के पास पहुंच- 
कर मलूग्दाख ने उसे आश्चन में डाल दिया था । कहते हैं कि मलूंकदास 
ही के कहने से औरंगजेब ने कद एर से जजिया उठा दिया था । फतहखाँ 
नामक औरंगजेबं का एंक कम्मंचारी उनका बड़ा भक्त हों गय। ओर 
नोकरी छो इकर उन्हीं के साथ रहने लगा । सलूकदास ने उसका नाम 
मीरमाधव रखा । दोनों गुरु-शिष्य जीवन में एक होकर रहे और सृत्यु में 
भी वे एक हो रहे हैं । कड़ा में उन दोनों की समाधियाँ आमने-सामने 
खड़ी होकर उनके इस अनन्य प्रेम का खाक्य दे रही हैं । 

माजूम होता है कि सलूकदास ने कई ग्रंथों की रचना की है । लाला 
सीताराम ने इनके र्मखान और ज्ञानबोध का उल्लेख किया हैं और 
विल्सन साहब ने साखी; विष्शुपद्‌ और दृशरतन का। इनके स्थान 
पर इवका सबसे उतम अंथ भ्रक्तिवच्छावली माना जाता है । किंतु इनके 
ये अन्य हमारे लिए नाम ही नाम हैं । हमें तो इनकी उन्हीं कविताओं 
से सनन्‍्तोंब करना पर्ड़ा हैं जो लाला सीताराम जी के संग्रह सें दी गई हैं 
अथवा जो वेल्वेडियर प्रेंस मे समलूकरास की बानी के नाम से छापी 
हैँ। इनकी रचनाओं सें विचारों की पूर्ण उदारता तथा स्वतन्त्रता मल- 
कती है। गीता फे ल्विए इनके हृदय में बढ़ा भारी सस्मान था। रामनाम 


प्प० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


की मी इन्होंने बढ़ी महिमा गाई है । परन्तु इनके राम अवतारी राम 
नहीं थे । 
मक़ूकदास ने अक्तिपाँ भी बहुत अच्छी-अच्छी कही हैं। कबीर के 
नक्म से यह दोहा प्रसिद्ध ह६--- 
चलती चक्को देखकर, दिया कबीरा रोय। 
दीउ पाटन के बीच में, साबित रहा न कोय ॥ 
इसके जवाब में सलूकदास ने कहा हें-- 
इधर उधर जई फिर तेई पीसे जायें। 
जे मलूक कोली लगे, तिनको भय कछ ना हि ॥। 
एक जगह कबीर ने कहा है कि कोयला सो मन साबुन से धोने पर भी 
सफेद नहीं होता । किसी ने इसके जवाब में कहा हे कि अगर कोयला 
जल्नने के लिए तेयार हो जाय तो उसके सफेद होने में कोई अड्चन 
नहीं । हो सकता हैं कि यह भी मलूक का ही हो। 
मजूकदास विवाहित थे, किंतु पहले ही प्रसव में उनकी ख्री एक 

कल्या जनकर मर गई । उनके बाद कढ़ा में उनके भतीजे रामसनेही गद्दी 
पर बेठे । तदुपरांत कृष्छसनेही, कान्हम्वाल, ठाकुरदास, गोपालदास, 
कंजविहारीदास, रामसेवक, शिवप्रसाद, मंमाप्नसाद तथा अयोध्याप्रसाद, 
यह परंपरा रही । आजकल्न मलूक के सभी वंशज महंत कहलाते हैं, 
परन्तु गद्दी अयोध्याअसाद जी ही में समाप्त समझी जाती हे। प्रयाग सें 
इनकी गद्दी का संस्थापक्र दवालदास कायसरंथ था, इस्फहाबाद में हृदयराम, 
जखनऊ में मोमतीदास, सुल्तान सें मोहनदास, सीताकोयल में पूरनदास 
ओर काबुज में रामदास । इनके सप्रदाय का एक स्थान ओर 'राम जी का 

इन्द्र! वृन्दावन में केशी घाट पर सी है । इनके संप्रदाय सें गरहस्थजीवन 
निधिद्ध नहों ह ,्स्‍न्तु गदी मिलने पर महंत को अह्मचयंमय जीवन 
विताना पढ़ता है, बद्यपि रहता वह अपने बाल-बच्चों ही सें हे । 











दूसरा अध्याय ८६१ 


दोन दरवेश पाटन के रहनेवाज़ सूफ्षी साथु थे जिन्होंने सब तरफ 

से निराश हस्कर अपने हृदब् की शांति के लिए निर्गुर भन्धि की लहर 

में इुबतग लगाडे । वे पद्र-लिखे बहुत नहीं। थे । फारसी 

८. दीन दरवेश का उनको कुछ मोटा सा ज्ञानथा। गिनु सत्य की 

खोज में वे लगन के साथ लगे ओर अपनी अध्या- 

स्मिक शाक्चियों को विकसित करने का उन्दोंन खुब प्रधास किया। सत्त्य 

की खोज सें व पहल सुसलमानी तीथस्थानों सें गव, फिर हिंद तीथ- 

स्थानों में । प्र-येक पू।झं भा को वे बढ़ी सान्च-भावना के साथ सरस्वती में 

स्नान किया करते थे। परन्तु सब ब्यथ । अन्त में उस दिव्य ज्योति को 

उन्होंने अपने हृदय में ही, पूण अक्राश के साथ, चमकने हल देखा । 

हैं अनुभव हुआ कि इस ज्योति का जगमग अफ़राश हमेशा हमार हृदय 

को प्रकाशमान किये रहता हे । उसके दर्शन के छिए केबल दृष्टि को 
अंतमंख कर देने की आवश्यकता हावी हू । 


ऑऔ 


अ,ने हृदय के उद्गारों को बपकत करते हुए उन्होंने बहुत सुन्दर 
कुडलिया छुद लिखे हैं। कहा जाता है कि उन्होंने सवा लाख कुडलिया 
लिखी थीं। प्रसिद्ध इतिहासश महामहोपयाध्याय पं० गारीशंकर हीराचंद 
ओमा के पास उनकी वानी का एक सझूह है, परन्तु ओका जी कहते 
हैं कि इस रूग्रह सें उनकी बानी की सख्या इसके शर्तांश भी नहों है । 
किंतु इधर-उधर संतों के संग्रहों में इनकी कुछु च«णों मिलती है । इनकी 
कविता सादी, भाषा सरल तथा भात्र सीध हैं । इनका समय विऋम 
की अठारवीं शताब्दी का मध्य हे । 


यारो साहब एक मुसलमान संत थे। इतका समय संचत्‌ १७४३ 
से १७८० तक माना जाता हैं। इनकी रत्तावली बड़े भव्य 
भावों से पूर्ण हं। अध्यात्मिक संयोग ओर वियोग की इनकी 


दर हिन्दों काञ्य में निगुंण संप्रदाय 


६, यारी साहव कविता सें बढ़ी मधुर व्यंजना हुई है । इनके पद्यों में 
ओर उनकी साहित्यिक चमक-दइमक का अमाव होने पर भी लोच 
परंपरा काफी रहता है। सूफी शाह, हस्तमुहस्मदशाह, बुल्ला 
आर केशवदास इनके शिष्यों में से थे। बुल्ला साहब 
और केशवदास की रचनाएँ प्रकाश में आई हैं । कशवदास का समय 
सं० १७४७ से १८२२ तक है। दे जाति के वेश्य थे। उन्होंने अमीधघूंट 
की रचना की । बुल्ला जाति के कुनवी थ । उनका असल नाम बुलाकी- 
रास था । फजाबाद जिले के बसहरी ताहनबुके में गुलाल नामक एक 
राजपूत जमीदार के यहाँ वे हल जोतते थे। बुल्ला कभी-कभी कास 
करते-करते ध्यानस्थ हो जाते थे। काम से उनका ध्यान खिंच जाता था 
गुलाल उसे कामचोर समम्झककर उसके ऊपर खूब डाट-डफ्ट रखता था, 
पीटने सें भी कसर नहीं करता था, यहाँ तक कि एक बार तो उसने उसे 
लात भी चखा दी । परन्तु धोरे-धीरे गुलाल को अपनी भूल मालूम 
होने कृगी । जब उसे अनुभव हो गया कि बुढ्लां एक साधारण हरवाहा 
नहीं हे, बल्कि पहुँचा हुआ साधु हे, तब वह उसका शिष्य बन गया । 
बुल्ला ओर गुल्ाल दोनों ने अपने हृदय के भावों को सीधे-सादे अनल्लं- 
कृत पद्ों में प्रकट किया है। दोनों का निवासस्थान भरकुड़ा गाँव था, 
जो जिला गाजीपुर सें है । अवस्था में दोनों आय: एक समान रहे होंगे 
ओर केशवदास के समकालीन । असिद्ध संत पल्रदू ओर उनके समसाम- 
यिक भोखा भी यारी की ही शिष्यपरंपरा में थे, क्योंकि वे गुलाल के 
शिष्य गोविद के शिष्य थे | 
दोनों जगजीवनदास और उनके चलाये हुए दोनों सत्तनामी संग्रदायों 
में कुछ अन्तर समझना चाहिये । पहले जगजीवनदास का दादूदयाल के 
साथ उल्लेख हो चुका हैं। वह दादूदयाल का 
१०. जगजीवनदास शिष्य था । पिछले सत्तनामी संग्रदाय के संस्थापक 
द्वितीय. को जगवीबनदास द्वितीय कहना चाहिए | यह जाति 


दूमत अध्याय ८३ 
का ज्ात्रिय था। जब वह दो हो वष का रहा हांगा, तभी ऑरइ्जेब 
ने पहल सततन्एसी संप्रदाय को ध्यंस कर डाला था। जगजीवन का 
पित। किसान था। एक दिन जब जग्गा गोरू चरा रहा था ता छुल्ला 
ओर गोविंद दो साथु उस रास्ते से आये। उन्होंने जग्गा से तंबाकू 
पीने के लिए आग मेंगवाई । जग्गा गाँव से आग तो लाया ही, 
साथ हो उनको पिलाने के लिये दूध भो ले आया | थोड़ो हो देर के 
सत्संग से वह साथुओं को बहुत भित्र हो गया ओर उसके छृद्रत्र सें सो 
वराग्य जाग गया । परन्तु साथुओं ने उसे इस छोटी उमर में शिष्य 
बनाना स्वीकार नहीं किया; कितु अपने सत्संग ओर स्नेह की स्छति के 
रूप में उन्होंने उसे एक-एक घागा दे दिया, एक ने काला ओर दूसरे ने 
सफेद । जगजीवन के अनुयायी इस घटना को स्मथ्ूति में अपने दाहिने 
हाथ की कलाई पर एक काला ओर एक सकेद धागा बाँवते हैं जो 'ऑँदु' 
कहलाता है । भीखापंयी इन्हें गुलाल साहब की परंपरा में मानते हैं 
परंतु अपने सप्रदाय में ये विश्वेश्वर पुरी के चेलें माने जाते हैं । इन्होंने 
शुद्ध अवधी में रचना की । इनकी शब्त्रवत्ती प्रकाशित हो चुकी है । 
ज्ञालप्रकारा: मदराप्रलथ ओर प्रथप्त अ्न्थ भी इचको रचनाएं हैं जो 
अब तक प्रकाश में नहीं आई हैँ । इनके चलाये सत्तनामी संग्रदाय पर 
जनसाधारण के धर्म का विशेष अभाव पड़ा है| यह अभाव उनके शिष्य 
दूजमदास में अधिकता से दिखाई पड़ता है । दूलमदास ने हनुमानजी, 
गगा और देवी भगवतों की आर्थना गाई हैं । दूल्मदासजी की वानी 
भो अऊक्ाश में आ चुकी हे । उनको कविता में शक्ति और अवाह दोनों 
विद्यमान हैं । तु 
पत्रददास जाति के काँदू बनिया थे । इनका जन्म्र फेजाबाद जिले के 
नागपुर (जलाबयुर) में हुआ था । वे अयोध्या सें रहते 
११, पल्टूदास थे। इन्होंने गुलाल के शिष्य गोविंद से दीहा ली थी | 
भजनावली में इनका परिचय इस प्रकार दिया गया हे- 


प्श् हिन्दो काव्य में निर्गेण संप्रदाय 


गग जलालपुर जन्म भयों है, वसे अवध के छोर । 
कहे पतल्रट्‌ प्रसाद हो, भयो जक्त से 'सोर॥। 
चानि चरन को मेटिके, भक्ति चलाई मूल। 
गुरू गोविंद के बाग में, पलट फूले फूल ॥। 
सहर जलालपुर मड म्‌ ड्राया, अवध तुडाकर धर्ियाँ । 
सहज करे व्यापार घट में पलट नरगुन बनियाँ |। 
भजनावल्ली इनके भाई पलट्म्रसाद की बनाई कही जाती है; लेकिन 
पत्रदूप्रसाद खुद इन्हीं का नाम भी हो सकता हे | 
इनका अखाड़ा अयोध्या से चार-माॉच सील की दूरो पर है| मूत्ति- 
पूजा और जॉति-पॉति के तीत्र खंडन से अयोध्या के चेरागी इनसे बहुत 
चि६ गये थे । इसीलिए उन्होंन इन्हें जाति से चाहर कर दिया था । 
किनु पत्नटू ने इसकी कोई परवा न की--- 
बेरागी सत्र बदुरके पलटुड्ि कियो अ्रजात ।... 
लोक-लाज कुल छॉडि के, कर लीजे अपना काम । 
जगत हँसे तो हंँसन दे, पलट हँसे न राम ॥ 
इन्होंने रामकुंडलिया ओर आत्मकमें ये दो रथ लिखे हैं | इनको 
सब रचनाएँ तीन भागों सें बेल्वेडियर प्रेस से छुप चुकी हैं । इनके 
अरिब्ल ओर कुंडलिया बहुत सुंदर बने हैं। ये अवध के नवाब शुजा- 
उद्दोज्ा के समकालीन थे ओर सं० ६८२७ के आस यास वर्तमान थे । 
धरनीदास बिहार के रहनेवाले एक कायस्थ मुशी थे। संसार से 
इनका जी इतना उच्टा हुआ था कि परमात्मा के साज्षात्कार' सें बाधक 
सममकर इन्होंने मुशोगिरे छोड़ दी ओर ये भगवान्‌ 
१२, धरनीदास के प्रेम में तन्‍्मय होकर निःस्वा्थ जीवन व्यतीत करने 
लगे । यह तन्‍्मयता इनके अथ पग्रेमग्रकाश और 
सत्यप्रकाश से स्पष्ट परिलज्षित होती है। देश के विभिन्न भागों'सें 
ओर खासकर बिहार में अभी सहस्रों धरनीदासी हैं: । इनके संग्रदाय का 


दूसरा अध्याय प्‌ 


प्रधान स्थान छुपर जिल का मा्भी गाँव है | सं॑० १०१३ में इनका जन्म 
हुआ था । ये बड़े करामाती असखिद्द है । कहने हैं कि एक बार ये अचा- 
नक और अकारण अपने परव पर पानी डालने लगे। बहुत पूछने पर 
इन्हान बताया कि जगन्नात जी के पंदे का रात जल गया ह उसी को 
पानी डालकर बुझा रहा हूँ। जाँच करने पर बात सहो माजूम हुई 
संवत्‌ १५७३७ ओर १८२७ के बीच दरिया नाम के दो संत हो गए 
हैं। दोनों मुसलमान कुल में पा हुए थ्रे । इनमें एक का जन्म बिहार 
में, आरः जिले के धारखंड नामक गाँत्र में हुआ ओर 
१३, दरिया-द्वय दूसरे मारव्राइ के ज़तरास नामक गाँव सें | बिहारी 
दरिया दरजी था आर मारवाडी घुनिया । बिहारी 
दरिया के पंथ में श्र:थना का जो ढंग प्रचलित है वह सुसलमानी नमाज 
से बिलकुल मिलता-जुनता ह। कोनिंश! और “सिज्द:” ये उसके दो 
भाग हैं। सीधे खड़े हकर नोच ककना कोर्निश ओर माथे को जमीन से 
लगाना सिज़्द; कहलावा है । यह दरिया, कबीर के अवतार माने जाते 
हैं। कहते हैं कि इन्हें स्वयं एरमान्मा ने दीजा दी थी । इनका लिखा 
दरियासागर छप चुका है| 
मारवाडी दरिया सात ही वध की अवस्था में पितृविहीन हो गए 
थे। रेना, मेड़ता में इनके लाता ने इनका पालल-पोपण क्रिया । इनके 
गुरु बीकानेर के कोड़े प्रमजी थे । कहा जाता है कि अपनी चमनन्‍्कारिणी 
शक्ति से इन्होंने एंक दूत भेजकर ही महाराज बख्तर्सिह को एक बड़े 
भयंकर रोग से मुक्त कर दिया । इनकी भी वानी प्रकाश सें आ चुकी है। 
बुस्लेशह एक सूझी संत्र थे। कहा जाता हैं कि इनका जन्म 
सं० १७६० के लगभग रूम देश में हआ था। £€ जान पड़ता है 
पारिवारिक विपत्ति ने इन्हें बहत छोटी अवस्था में रमते 


चर सरल... अमन सिम पारा फिसलेननकलग/ आता कत-2५० से, 3का-३७+कानक. कक ५-नलन्‍जकन ।िररलनतापन--लकनिनोनिनकना तनमन नमन न न नजनान 





(७ कक 





फलनकललननननतने वगनतामशताकलभारका्लाामक++ऊ+ाकफ. पक ञ्क करा... कजनाबम 
ह 


क मंतबान,-संग्रट, भाग १, १० १५१ | 


दो हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


१४. बुल्लेशाह फकीरों की संगति में डाल दिया था जिनके साथ दस 
चर्ष की अवस्था में ही ये पंजाब आ गये | इनके गुरु 
का नाम शाह इनायत बतलाया जाता है। ये परंपरागत धम्म को 
नहीं मानते थे। क़रान ओर शरशञ्र का इन्होंने खुल्लमखुल्ला खंडन 
, किया | इसी से मुल्लाओं ओर मोलवियों से इनकी कभी नहीं पटी । 
इन्होंने सीधी-सादी पंजाबी में कविता की है । अपने क्रांतिकारी भावों 
को इन्होंने अपनी रचनाओं में बड़े धड़ाके से पेश किया है। कबीर के 
भावों को इन्होंने बहुत श्रपनाया है। ये जन्म भर ब्रह्मचारी रहे। इनका 
आश्रम जिला लाहोर के कसूर गाँव में था | वहीं लगभग पचास वर्ष की 
अवस्था में, सं० १८१० में, इनका देहान्त हुआ | इनकी गद्दी और 
समाधि भो वहीं हैं । 
चरनदास घूसर बनिया थे । इनका जन्म अलवर ( राजपूताना ) 
के डेहरा नामक स्थान में सं० १७६० के लगभग हुआ था । & कहते हैं 
कि डेहरा में, जहाँ इनकी नाल गाड़ी गड थी वहाँ 
१५, चरनदास पर, एक छुतरी बनी हुईं है | यहाँ इनकी टोपी ओर 
सुमिरनी भी सुर'क्षत बतलाई जाती हैं । इनके पिता 
का नाम सुरल्लीधर और माता का कुजो था । इनका घर का नाम रनजीत 
था | सात ही वष की अवस्था में ये घर से भाग निकज्ञे थे और अपने 
नाना के यहाँ दिल्‍ली चल्चे आये । वहीं इनका लालन-पालन हुआ । 
कहते हैं कि वहीं इनको उन्नीस चर्ष की अवस्था में परमात्सिक ज्योति 
का दशन हुआ | इन्होंने अपने गुरु का नाम श्रीक्षकद्ेव बताया है। 
कहते हैं ये श्री शुकदेव मुनि मुजफ्फरनगर के, पास शुकताल गाँव के 





#& बानी ( संतबानी सोरीज ), भूमिका, पडित महेशदत्त शुक्ल 
ने अपने भाषा काव्यसंग्रह” ( नवलकिश्ञोर प्रेस, सं० १६३० ) में 
इन्हें पडितपुर जिला फैजाबाद का निवासी बताया हैं। निधन संवत 
१४६३७ लिखा हैं ।--राधाकृष्णग्रंथावली, भाग ६, पृ० १०० । 


दूसरा अध्याय प्प 


या 


श्रीसठ्रागवन्‌ के अखिद्द छुऊदेव ही समझने थे, जिनको साता के गम में 
हो हान हो जाने की बात कही जाती है ओर जो अमर माने जाते हैं । 
जान पड़ता है कि उनके हान-चत्च भागवत पुराण के ही अध्ययन से 
खुले थे। इस पुराण फी समस्त कवा को शुक्रव जी ने राजा परीक्षित 
को पापों से मुक्त करने के उ्ं श्य से कहा था | यदि भागवत का भल्रो 
भाँति अध्ययन किया जाय तो पता लगेगा कि गठमए-भावना से ओच- 
प्रोत होने के कारण वह संत साहित्य का सत्रसे सह-ब्रगम्ली महाकान्य 
है, जिसमें कथानक के बहाने प्रेम को प्रतीक बनाकर ज्ञान की शिक्षा दी 
गई हे। चरनदालियों के लिये सागवत का नायक श्रीकृष्ण समस्त कारण 
का कारण है। गीता के भावों को उन्होंने स्वच्छुंदता से अपनाया है और 
स्थानस्थान पर साहस के साथ उससे उद्धरण भी दिए हैँ -साहस इसलिये 
कहते हैं कि निगणी संतों ने प्राचीन अन्थों ले अकारण घृणा अदर्शित की 
हे; परन्तु चरनदासियों में ग्रे मानुभूति की वह विशेषता भी हैं जिसके 
कारण हम उन्हें निगण संत्-संग्रदाय से अलग नहीं कर सकते । चरन- 
दास के ज्ञानम्वरादय और बानी प्रकाश में आये हैं । 

ज्ञानस्वरोदय योग का अन्थ है ओर वाती में संतमतानुकूज 
आध्यात्मिफ जीवन के विभिन्न अंगों पर उपदेशत्मक विचार तथा स्ववंत्र 
उद्गार हैं । चरनदास को रूस्यु सं० १८३६ के लगभग दिल्की में हुईं 
जहाँ उनकी समाधि आर मंदिर अरब तक हैं | मंदिर में उनके चरण्यचिह्न 
बने हुए हैं । वर्संतरंवमी को यहाँ एक मेला रहूगतवा है। चरनदास के 
बहुत शिष्य थे जिनसे से वग्वन शिष्यों ने अलग-अलग स्थानों पर चरनदास 
मत्र की शाखा: स्थापित की जो आज भी चतमान हैं। चरनदास कीं 
सहजोबाई ओर दयाबाई नाम की दो शिष्याएं सी थीं जो स्वयं उसकी 


(कनममककभलक+-क कमल“ तकननककनान- “नम, निनननानलमननानाल-++५०७४पका*ममकभ कर “काट एल दत्ता ५... ग#पातकपलत फारनकया: 


निवासों एफ साथु थे | | परनतु जान पहता है कि चरनदास उन्हें 


न 


क संतवानी-संग्रह, भाग १, १४२ साखी ४, ५, ६ | 


८ हिन्ददो काव्य में निगुश संप्रदाय क 


फायर 


चचेरी बहने थीं। उन्होंने भी अच्छी कविता की है। सहजोबाई में 
सहज़प्र काश लिखा ओर दयावाड़े ने व्यावोघ । ५ 
शिवनारायण गाजीपुर जिले सें चंदबन गाँव के रहनेवाल चत्रिय थे । 
वे बादशाह मुहृस्मदशाह (सं० १७६२ सें वर्तमान ) के समकालीन 
थ | सनिकों के ऊपर उनका बडा प्रभाव था । उनके 
25. शिवनाराण अनुयायी प्राय; सभी राजपूत सनिक थे। उनके मत 
में जाति-पाति का कोई शेंद नहीं माना जाता था। 
अब तो यह संप्रदाय आयः समाप्त हो चुका हे ओर शिवनारायर के 
उत्तराधिकारियों को छोड़कर कुछ थोड़े से नीच जाति के लोग ही उसके 
माननेवालों में रह गये हैं | शिवनाराए की समाधि बिलसंडा सें है । 
उनके ग्रंथों में लवग्रथ, संतविलास- भजनग्रथ, शांतसुंदर; गुरु- 
न्यास, संतअचारी. सनन्‍्तत्पदेश- शब्दावली, संतपवन, संतमहिमा: 
संतसागर के नासों का डल्जेख होता है | उनका एक ओर मुख्य ग्र थ 
ह जो गुप्त माना जाता है। सित्रों की भाँति शिवनारायणी भो पुस्तक 
की पूजा करते हैं । नवीन सदस्यों को संग्रदाय में दीक्षित करने के लिए 
एक छोटा सा उन्सव होता ह जिससें लोग मूल-प्रथ के चारों ओर पूर्ण 
रूप से मोन होकर वृत्ताकार बंठ जाने हैं । ओर पुस्तक में का कोई एंक 
भजन गाकर पान, मेचा, सिठाई वितरण के बाद उत्सव समाप्त कर 
दिया जाया है । 
गरोबदास कबीर के सबसे बड़े भक्त हो गए हैं। ये जाति के जाट 
ओर पंजाब के रोहतक जिलेके छुड्ानी गाँव के रहने वाले थे। 
इन्होंने हिरंबरवोध नामक एक बृहत्‌ अंथ की रचना 
१७, गरीबदास की जिसमें सत्रह हजार पत्च बतलाये जाते हैं। इनमें 
से सात हजार कबीर साहब के कहे जाते हैं । परन्तु 
इनका यह अंथ अभी प्रकाशित नहीं हुआ है, उसका केवल एक बहुत 
संदित संकलित संस्करण, संतबानी पुस्तकमाज़ा में, प्रकाशित हुआ है । 


दुसरा अध्याय द्डे 


इधर-उधर साथु-संत्रों की रचनाओं सें उसमें से और भो अवतरण 
मिल जाते हूँ। संतबाती-संपराइक के अनुसार इनका समय संवत्‌ 
१499४ से १८४४ तक है। इनका दावा हु कि स्वयं कबीर साहब ने 
सुझे संत-मत सें दीज्षित किया है । 

संतबानी साला के संपादक ने तुलसी साहब की एक जीवनी के 
आधार पर कहा हे किये रखुनाथराव के जेठे लडके और बाजीराव 

द्वितीय के बे भाई थ। संसार सें मिथ्या के भार 
१८.तुलसीसादव का वहन उन्हें अमोष्ट नहीं था | इसलिये राजलिहा- 
सन को अपने छोटे भाई के लिये छोड़कर थे आध्या- 

त्निक राज्य को अधिकृत करने के लिए घर से निकल पड़े | रमते-रमाते 
अंब में ये हाथरस में बस गये। जब अंगरेजों के कारण बाजीराव द्वितीय 
बिहूर में आकर बस गये, तब कहते हैं कि तुलसी साहब एक बार उनसे 
मिले थे | इनका घर का नाम श्यामराव बतलाया जाता है, परंतु इति- 
हास रघनाथराव के सबसे ज्येष्ट पुत्र को असूतराव के नाम से पहिचानता 
है । हो सकता हैं कि उसके दो नाम रहे हों । 

तुलसी साहब अक्खड़॒ स्वभाव के आदमी थे, पर थे पहुँचे हुए 
संत | कहने हैं, एक बार उनके एक घी श्रद्धालु ने अपने घर में उनकी 
बड़ी आव-भगत की | भोजन करते सनय उसने उनके सामने संतान 
के अभाव का दुखड़ा गाया ओर पुत्र के लिए वरदान माँगा । तुलसी 
साहब बिगड़कर बोले कि “तुम्हें यदि पुत्र की चाह है तो अपने सगुख 
परमात्मा से माँगो। मेरे भक्त के यदि कोई बच्चा हो तो में तो उसे भी 
ले लू ।” ओर यह कहक्तर बिना भोजन समाप्त किये चल दिये। 

निगण संग्रदाय सें, समय की प्रगति के साथ, जा बाहरी प्रभाव आ 
गये थे उनसे उसे मुक्त करने का भी उन्होंने प्रयत्व किया । निगेण पन्‍्थ 
के अनुयात्रियों को उन्‍होंने समझाया कि एक संप्रदाय के रूप में उसका 
प्रवतन नहीं किया गया था । उस समय तक निगेण पंथ के झाधार पर कई . 


६० हिन्दी-काव्य में निगुण संप्रदाय 
संप्रदाय उठ खड़े हुए थे जो सिद्धांत रूप में कमकांड के विरोधी होने पर 
भी स्वतः कमकांड के पाधघंड से सर गए थे । तुलसी साहब ने समझाया 
कि निर्गेश पंथ किसी संप्रदाय के रूप में नहों चलाया गया था । नाम-मेद . 
से जिगेश पंथ में अंतर नहीं पड़ सकता । अलग अलग नाम होने पर 
भी सब पंथ सार रूप में एक हैं । 

जान पढ़ता है कि उनका ग्रायः सब धम के प्रदिनिधियों से बाद- 
विवाद हुआ था, जिनमें अंत में सबने उनके सिद्धांतों की सत्यता 
स्वीकार की | तुलसी साहब ने स्वयं अपनी घटरामायछ में उनका उद्लेख 
किया है। यदि ये वाद-विवाद कल्पना सात्र भी हों, ओर यही अधिक 
संभव है, तो भो उनका महत्व कम नहीं हो सकता । उनसे कसम से कम 
यह तो पता चल्नता हे क्रि तुलसी साहब का उद्देश्य क्या था। परतु 
उनके सिद्धांतों का गांभीय उनके ओदे श्लेषों तथा व्यथं के आइंबर के 
कारण बहुत कुछ घट जाता है। उन्होंने बहुधा विलक्षण नामों की 
तालिका देकर लोगों को स्पभित करने का यत्न किया हैं। उनकी दीनता 
में मी बनावट ओर आइंबर स्पष्ट कलकता है। 

इनके पंथ में इनको आयु तीन सो वर्ष को मानो जातो हे । कहते 
हैं कि ये वही तुलसीदास हैं भिन्हांने रामचरितमानस की रचना की 
थी | घटरामायण में उनके किसी आडउस्वबर-थ्रिय शिष्य ने इस बात की 
पुष्टि के त्िये एंक क्ेपक जोड़ दिया है । उसके अनुसार घटरामायश 
की रचना रामचरितमानम से पहले हो चुडी थी परंतु जनता उसके 
लिये तेयार नहीं थो | इसलिये उसके विरुद्द,आन्दोलन उठता हुआ 
देखकर उन्हंने उसे दबा दिया ओर सगुण रामायण लिखकर प्रकाशित 
की | इस क्ेप्रक-कार को इस बात का छात्र था कि उसके जाल की ऐति- 
हासिक जाँव होगी | उसने तुज्लों साहब-ले प्रकरास नानकपंथी के 
साथ नानऊ के समय का, ऐतिहासिक ढंग से, विवेचन कराया है और 
इसका भी प्रयत्न किया है कि मेरों गत भी ऐतिहासिक जाँच में दीक 


दूसरा अध्याय ६९ 


उतर जाय | किनतु उसे इस बात का ध्यान न हुआ कि मैं अपने गुरु की 
प्रशंसा करने के बदले निंदा कर रहा हूँ । तुलसी साहब सरीखे मनुष्य 
को भी उसने ऐसे निबंल चरित्रवाला बना दिया हे जिसने लोक सें 
अग्रिय होने के डर से सग्र को छिपा दिया ओर ऐसी बातों का प्रचार 
किया जिन पर उसको स्वयं विश्वास न था। वह इस बात को भी भृत्र 
गया कि स्वयं घटरामायरा ही में अन्यत्र तुलली साहब ने स्पष्ट शब्दों 
में सगुणग रामायण का रचयिता होना अस्वीकार फ़िया है |& इसके 
अतिरिक्त इस क्षेपककार ने एक ऐसा घोर अपराध किया है जिसका माजन 
नहीं। उसने गामचरितमानस को, जिसने समस्त मानव जाति के 
हृदय में अपने लए जगह कर ली हे, एक धोखे की कृति बना दिया है। 
तुलसीदास पर साथ उनके नाम-साच्श्य से ही उनको अपनी पुस्तक का 
नाम घटरा 7 ण॒ रखने की सूकी होगी परन्तु इससे आगे बढ़कर वे 
लोगों को यह धोखा नहीं देना चाहते थे कि सानस भी मेरी ही रचना 
है । उसका तो बल्कि उन्होंने खंडन किया है। 


घटरामायणु के अतिरिक्त तुलसी साहब ने शब्दावली, पद्मसागर 
ओर रत्नसागर इन तीन ग्रन्थों की रचना की | 


शिवद्याल्जी का जन्म रूँ० १८८४ में आगरे के एक महाजन कुत्ल 
सें हुआ था । इनके सम्बन्ध में कहा जाता हे कि ये बाल्यकाल से ही 
सननशील ओर आध्यात्मिक शवृत्ति के थे । कई दिन 
१६. (स्वामीजी तक ये एकांत में ध्यानमग्न रहा करते थे | इनसे 
महाराज ) जो सम्प्रदाय चला वह राधास्वामी मत कहलाता 
शिवदयालजी है। अपने संप्रदाय में ये स्वामीजी महाराज कहलाते 
हैं ओर स्वशक्तिमान्‌ राधास्वासी के अवतार समझे 

$# राम रावन जुद्ध लड़ाई । सो में नहि कीन बनाई । 
“- पटरामाबण, भाग २, १० ११४। 


के १७०५: ५ हु 
ध्रः हिन्दी काञ्य में निगण संप्रदाय 


जाते हैं। यद्यपि वहा जाता है कि उन्होंन कसी गुरु से दीक्षा नहीं दी" 
फिर भी इसमें कोई सन्‍्देह नहीं कि उनके ऊपर तुलसी साहब का पूर्ण 
प्रभाव पढ़ा था । कहते हे कि उनके जन्म के पहले ही तुलसी साहब ने 
उनके अवतार की भविष्यवाणी कर दी थी | तुलसी की झूत्यु के उपरांत 
उनके प्रायः सब शिष्य शिवदयाज्षजी के पास खिंच आए । राधास्वामी 
संप्रदाय की प्रमुख शाखाएं आजकल आगरा, इलाहाबाद ओर काशी , 
आदि स्परानों में हैँ | संप्रदाय बहुत सुन्दर रूप से गठित है ओर बड़े - 
उपयोगी काय कर रहा है। दयालबारा आगरे में उनका विद्यालय एक 
अत्यन्त उपयोगी संस्था है जो सांम्रदायिक ही नहीं राष्ट्रीय दृष्टि से भी 
महत्व पूर्ण ह। स्वामीजी महाराज के शिष्य रायबहादुर शाल्िग्नाम ने, 
जो इल्लाहाबाद में पोस्ट मास्टर-जनरल थे ओर संग्रदाय में हुज्ूर साहब 
के नाम से अखिद्ध हैं, संग्रदाय को दृढ़ सित्ति पर रखने के लिये बहुत काम . 
किया । परन्तु इस मत के सबसे बड़े व्याख्याता प० बह्मशंकर मिश्र 
( महाराज साहब ) हुए हैं जिन्होंने अंगरेड़जी में ए डिस्कोस ऑन 
राधास्वासी सेक्‍्ट नामक अन्य लिखा हे । डुजूर साहब ने भी अंगरेजी 
में राधास्वासी मत-प्रकाश नासक पुस्तक लिखी | स्वामीजी महाराज 
की प्रधान पद्यच-रचना सारवचन है । इसका गद्य सार भी मिलता है। 
हुबूर साहब का प्रधान अन्ध प्रेमवानी है। जुगतप्रकाश नामक उनका 
एक गद्य अन्य ओर भी है | 


तीसरा अध्याय 
निगंण संप्रदाय के दाशनिक सिद्धांत 

जिन परिस्थितियों ने इस नवीन निगंण पंथ को जन्म दिया था 
एकश्वरवाद उनकी सबस बढ़ी आवश्यकता थी । बेदांत के अह्ठ तवादी 
सिद्धांतों को सानने पर भी हिन्दू बहु-दव-वाद में 

१, एकेश्वर बुरी तरह फंसे हुए श्र, जिसले वे एक अहलाह को 
माननेवाले मुसज्षमानों की शणा के भाजन हो रहे 

श्र | एक अल्लाह को माननेवाले मुसलमान भी स्वयं एक अकार से बहु- 
देव-वादी हो रहे थे, क्योंकि काफिरों के लिए वे अपने अल्लाह की 
संरक्षा का विस्तार नहीं देख सकते थे, जिससे प्रकारांतर से काकिर का 
और सब अह्लाह से अज़ग सिद्ध हुआ । अतणएव ((निमुशवादियों न हिंद 
मुसलमान दोनों को एकेश्वरवाद का संदेश खुबाया # और बहु- 
दिव-बाद का घोर विरोध किया | चरनदास कहते हैं कि-सिर द्वटकर 
पृथ्वी पर भले ही लोदने लगे, झत्यु भले ही आ उपस्थित 
हो, परन्तु राम के सिवा किसी अन्य देवता के लिए सेरा सिर न 





& एक एक जिनि जागियाँ, तिनहीं सच पाया। 
प्रेम प्रीति ल्यौजीन मन, ते वहुरि न आया ॥ 
“० ग्र०, पृ० १२६, शृ८९१ । 
केवल नाम जपहु रे प्रानी परहु एक की सरना । 
“वहीं, पृ० २६८, ११४ ॥ 
आऔर देवी देवता उपासना अनेक करे 
आँवन की हौस कंसे. आकडोडे जात है 
सुन्दर कहत एक रवि के प्रकास विन 
जेगना की जोति, कहा रजनी क्लिात हूँ ? 
--सं० बा> स०, भाग २, १० १२३ । 


६ हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रयाय 


झुफ्े ।  निरेदधी एकश्वर के भक्त को आल्नंकारिक भाषा में पतिव्रता नारी 
कहते हैं | कबीर की दृष्टि में बहु-दुव-वादी उस व्यभिचारिणी र्री के समान 
है जो अपने पति को छोड़कर जारों पर आसक रहती ह::; अथवा उस 
गशिका-पुत्र के समान है जो इस बात को नहीं जानता कि उसका वास्त- 
विक पिता कौन है +- | नानक जिस समय--१ ४# < सतिनामु करता 
पुरुख निरभो निरवेर अकालमूरति अजूनि सैभ (गुरु प्रसादि) की भक्ति 
का प्रचार कर रहे थे उस समय उनका प्रधान लक्ष्य बहु-देव-वाद का 
खंडन ही था। दिदुओं को संबंधिर कर कबीर ने कहा था--- 

एक जतम के कारणों कत पूजो देव सहेसो रे। 

काहे न पूजो रामजी जाके भक्‍त महेसो रे॥ *. 





& यह सिर नवे त राम क्‌, नाही गिरियो टूट । 
आ्रान देव नहिं परसिए, यह तन जायो छूठ ॥। 
थ --सं ० बा० स॒० १, पू० १४७। 

# नारि कहावे पीव की, रहे ओर संग सोय | 

जार सदा मन से बसे, खसम खुसी क्यों होय ॥। 
“वही, पृ० १८। 

न राम पियारा छाड़ि कर, करे आन को जाप । 

वेस्वा केरा पूत ज्यू कहूँ कौन सू बाप ॥ 
““क० ग्र०, पृ० ६, २२। 

# ऊ के प्लृत होने से कभी कभी ओम इस तरह भो लिखा 
जाता हूं । इस तीन अंक को कोई इस बात का सूचक भी मानते हैं कि 
& अभ्र+उर्मू--इन तीन अक्षरों के योग से बना है । इन बातो से कोई 

न समझ बठ कि प्रलय का त्रिविध स्वरूप है अथवा वह खंडित हो 
सकता हूँ, इस भय से नानक ने ओर म्‌'की जगह १३» कर दिया हैं । 
-+- सहेसोनसहस्त्रो “ क० ग्र०, पु० १२६, १२७। 





तीसरा अध्याय धर 


मुसलसानां को 
बडुट जगदास कहाँ ते आये कह कोवे भरमाया । 
ग्रतल्ना, राम, करीमा, केसा, हरि हजरत नाम धघराया |! 
गहता एक कनक ते गहना तामे भाव न दूजा। 
हने सुनन को दुडइ करि थापे, एक नमाज एक पूजां ॥ »& 
तथा दोनों को 
कहे कबीर एक राम जपहु रे हिंदू तुरक ने कोई ॥ + 
हृदू तुरक का कर्ता एक ता गति लखी ने जाई ॥ # 
निगंश संतों ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि जगत्‌ का 
कर्ता-धर्ता "क ही परमात्मा हैं जिसको हिंदू ओर मुसलमान दोनों सिर 
नवाते हैं । 

:, यहाँ पर यह बता देना आवश्यक है कि हिंदू-बहुदेववाद बेंसा 
नहीं है जेसा बाहर-बाहर देखने से प्रकट हो सकता हे । हिंदुओं के 
प्रत्येक देवता का ह्वेंघ रूप है--एक व्यावहारिक और दूसरा पारमार्थिक 
अथवा दात्विक | व्यावहारिक रूप सें वह परबह्म परमात्मा के किसी 
पदविशेष का ःतिनिधि हं जिसके द्वारा याचक भक्त अपनी याचना की 
पूति की आशा करता ह। ब्रह्मा विश्व का सुजन करता है, विष्णु पालन 
ओर रुद्र उसका उद्दश्य पूण हो जाने पर संहार ; लक्ष्मी धनघान्य की 
अधिष्ठात्री हे, सरस्वतो विद्या की, चंडी वह अचंड दिव्य शक्ति है जो 
अत्याचारी राक्षसों का विध्वंस करती हे आर युद्ध-यात्रा में जाने के पहले 
जिसका आवाहन किया जाता हे इत्यादि । परंतु परमार्थरूप सें प्रत्येक 
देवता पूर्ण परबह्म परमात्मा हे ओर व्यवाहारिक पक्त सें अन्य सब देवता 


ना ननान पन्ना निगल बगल नमन लिन क नि नि ना नननतनना नलत.* री. लगन मम नमन“ कितग ि िकलिनितियिसन वतन वन नाल न पननन. पटननमनक. मानकर 


&# क० श०, ४, पू० ७२ । 
न कृ० ग्र॑ं०, पृ० ९५०६, ५७॥ 
»> वहीं, ९१०९, #८ ।॥ 


५ रे 
६्द्‌ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


उसके अधोनस्थ हैं | इन्हों सब बातों को ध्यान में रखकर मंक्समूलर 
ने भारतीय देववाद को पेलोथिज्स (बहुदेववाद) न कहकर हीनोथिन्म 
कहा हे । हिंदू पूजा-विधान ( यहाँ पर मेरा अभिप्राय दुर्शन से नहीं 
ह_केसकांड से है ) को चाहे कोई किपी नास से पुकारे उसके मूल सें 
॥ निश्चय ही एकेश्वर-भावना हुं। बंदिक काल क ऋषि भी जिन आकृतिक 
शक्तियों के विभव का गाव किया करते थे, उनसें एक परमात्मा का 
दुशन करत थे, उन्होंने घोषणा की कि बुद्धिमान लोग एक ही सतत को 
अग्नि, इन्द्र ( जल्न का स्वामो ) , मातरिश्वान ( वायु का अधिपति ) 
आदि नामों से पुकारते हें&। अतएवं जो अलग अलग देवता समझे 
जाते हैं, वे वस्तुत: अवग देवता न होकर एक हो परमःमा के अज्ञग 
अल्वग रूप हैं । इसो बात को ध्याव में रखकर स्पेन-निवासोी अरब-वंशो 
काजी साईंद ने, जिसकी झूस्यु स्ं० ११२७ सें हुई थी, लिखा था कि 
| “हिदुआं का इंश्वरीय ज्ञाव इश्वर की एकता के सिद्धान्त से पवित्र 
| है|” + डाक्टर ग्रियर्सन को भो यह बात साननो पद है कि हिंदुओं को 
मूर्तिपूजा जार बहुदेववाद हिंदू-बर्म के गहन सिद्धांतों के बाहरी आचरण 
मात्र हैं |. यदि हिंदू-पूजा-विधान के इस मूल तत््त की अवहेलना न 
की गई होती तो कबीर उसका विरोध न करते | क्‍योंकि वे जानते थे कि 
' एक परमात्मा के अनेक नाम रख देने से वह एक अनेक नहं। हो जाता । 
उन्होंने स्वयं ही कहा था “अपरंपार का नाऊँ अनंत /” < परंतु तथ्य तो 
यह हं कि जिस समय पश्विमोत्तर के द्वार से देश में मुसलमानों की 











जा शिकायत नवनननमननत न न ७3 >3++>ननन++-नतन-मनननननत«>मकथ. अब... 


क एक स्‌ द्ष्ना बहुधा वर्दत्यग्निमिच्द्र मातरिष्वानमाहु । 
“ऋक २, हे, २३, ६१॥ 
+ तबकातुल उमम (बेरूत सस्करण), पृ० १५; अरब और भारत 
के सम्बन्ध, पृ० १७४। 
* क० ब०, प्रस्तावना, पृ० ६६ । 





दि 


तौखसरा अध्याय ६3 


सेनैय-घरा निरंतर उसडी चल्ली आ रही थी । डस समय उन्होंने हिंदुआओ्रों 
को घोर बहुदबवादी पाया जो दिदओं को उनकी घुणा का भाजनत बनाने 
का एक कारण हुआ | परन्तु अच्लाह के इन प्यारों को रवन्न में भरी 
विचार न हुआ कि जिस बहुदेववाद से हम इतनों छुणखा कर रहे हैं 
हमारा मूर्ति-भंजक ०केश्वरवाद उससे भिन्न कोटि का नहीं ह। विश्व 
का कर्ता-घर्ता चाहे एक देवता हो अथवा अनक्र, इससे परिस्थिति में 
कोई विशेष अंवर नहीं आता | सामो एकेश्वरत्राद ओर विक्ृत हिंदू 
बहुदेववाद एक ही देववाद के दो विभिन्न रूर हैं। फिंतु निगुण संतों ने 
परमात्मा-संबंधी जिस विचार-छड्ुला का प्रसार किया, वह इनसे तत्वत: 
भिन्न थी | उसका मूर्ति-पूजा कू विरोधी होना, इस बात का अमाण 
नहीं कि चह और सुसलमानी एकेश्वरब:द एक ही कोर्ट के हैं। दोलों 
में अकाश पाताल का अंतर हे। मुसलमानों के इश्वर-संद्रती विश्वास 
का निचोड़, 'ला इत्राहे इल्विब्याह मुहम्मदर्रसू,लल्ताह', में आ जात! है, 
जा कुरान के दो झूरों के अंगों के मेल से बना है। इसका अधथ हे, 
अ्न्नाह का कोई अल्लाह नहीं, चह एक मात्र परमेश्वर है ओर मुहम्मद 
उसका रसूज अर्थात्‌ पेमंवर या दूत है। इस पर टिप्पणी करते हुए 
प्रसिद्ध इतिह[सकार गिवन ने कहा था कि जिस धर्म का मुहम्मद ने अपने 
कुख और राष्ट के लोगों में प्रचार किया था वेह पक सनातन सत्य 
ओर एक आवश्यक कल्पता ( ऐन एटनल ट थ एड ए नससरो फिक्शन ) 
के योग से बना है & | निगण पंथ के प्रवर्तक कबीर ने इस कल्पना का 
तो सर्वथा निराकरण कर दिया ओर वह सत्य के माग पर बहुत आपे 
बढ़ा । मुहम्मद के दूतत्व को तो उसने अस्वीकार करके ईश्वर संबंधी 
विचार को और भो महान, ओर आकर्षक बना दिया । 





& रोमन इंपायर, भाग ६, पृ० २२२ ॥ 





ध्द हिन्दी काव्य में निरगंण संप्रदाय 


(इस्लाम ओर निगण पंथ दोनों परमेश्वर को एक मानते हैं--परंतु 
दोनों के एक मानने में अन्तर हं। इस्लोॉम की अल्लाहं-भाव॑ना में 
अल्लाह एकाधिपति शाहंशाह के समान है जिसके ऊपर कोई शासनकर्ता 
नहीं, जिसकी शक्ति अनंत ओर अपरिमित है । हाँ; वह परम बुद्धिमान 
ओर न्यायकर्ता है| उससे कोई बात छिपी नहीं रह सकती | हर एक 
आदमी के किये हुए छोटे से छोटे पाप और पुण्य का उसके यहाँ हिसाब 
रहता है। श्रद्धालु धमनिष्ठों को वह मुक्तहस्त होकर पुरस्कार वितरित 
करता है कितु अविश्वासी पापिष्ठ उसको निगाह से बच नहीं सकता; “ 
उसे अवश्य दंड मिलता है | क्योंकि जेसा कुरान कहती है, “जिधर 
ही मुड्ठों उधर ही अल्लाह का सुख है” | & 


यह बात नहीं कि इस्लाम में अल्लाह दयालु न माना गया हो | 
कुरान का प्रत्येक सूरा अल्लाह की दयात्ुता का उल्लेख करते हुए 
आरंभ होता है | मुहम्मद के अनुसार परमेश्वर च्रमाशील है। पत्तिणी 
का जितना गाढ़ा प्रेम अपने बच्चे पर होता हे, उससे अधिक अल्लाह 
का आदमी पर | किंतु, इतना होने पर भी कुरान का अल्लाह “भय 
बिनु होय न प्रीति! की नीति को बरतता है। वह प्रेम का परमात्मा 
होने के बदल्ले का भय का भगवान्‌ हे। उसकी अनुकंपा ओर दयाल्ुता 
उसकी अनंत शक्ति के ही परिचायक हैं। वह घोर दंड भी दे सकता है 
तो असीम अनुग्ह भी दिखा सकता है। “इस्लाम में प्रेरक भाव परमात्मा 
का प्रेम नहों अल्लाह का सय है (” प्रेम से अभावित होना सामी जाति 


ऋषफफान४५रक/आा॥ ४०रदमप्कांगपदाा७॥ ३७ तक हि 


का स्वभाव नहों हे, उनके ऊपर केवल भय का असर पड़ सकता था [+ 





के २, १०६। 

+ डिक्शनरी झ्याँव्‌ इस्लाम, पु० ४०१ में मिस्टर स्टेनली लेनपोल के 
झवतरण के आधार पर। उलठे कामाओ में उनके शब्दों का यथा अनु- 
बाद हू- दि फ़ियर रादर देन दि लव प्लाँव गॉँड इज्ध दि स्पर टु इस्लाम ।”” 


तोसरा अ्रध्याथ ६8. 


परमेश्वर की इस अनंत शक्ति को निगुणपंथी अस्वोकार नहीं 
करने | परंतु" उनके लिए परसेश्वर के स्वरूप का यह केवल्ल एक गोख 
लत्तण है। परमेश्वर इस विश्व का कर्ता-धर्ता, नियन्‍ता, शासक ओर 
अधिपति ही नहीं बल्कि व्यापक तर्र सी है। वह घट-घट में कण-कण 
में अणु-परमास्यु में व्याप्त हे ओर वही हमसें सार वस्तु है। परमेश्वर 
परमेश्वर ही नहीं परमात्सा सी है | वह हमार आत्मा का आत्मा है । 
सुसलसानो विश्वास ओर निर्गेणपंथी अनुभूति में जो अन्तर है, डसे 
कबीर ने संक्षेप सें इस तरह व्यक्त किया हे--- 

मुसलमान का एक खुदाई । कबीर का स्वामी रह्या समाई ॥+ 

_दादू ने वेदांत के सर्वश्रिय दृष्टात का आसरा लेकर कहा, दूध में 
घी की तरह परमात्मा विश्व में सत्र व्याप्त है ।:: नानक ने परमात्मा 
के सम्मुख निवेदन किया--- 

“जेते जीअ जंत जतबि थत्रि माहीं 
न्‍ अलो जन्न कन्न तू सरब जीआ | 
गुरु परसादि राखिले जन कड 
हरिरस नानक मोलि पीआ ॥<- 

परमात्मा का यह व्यापकत्व उसकी अनंत शक्ति का एक पक्ष सात्र नहीं, 
जसा सामो विचार-परंपरा के अनुसार ठहरेगा, बल्कि उसी सें उसकी 
सार-सत्ता है। यहीं उनके प्रेम-सिद्धान्त की आधार-शिला हे । 

यह व्याप्ति कहीं न्‍्यून ओर करसीं अधिक नहीं । परमात्सा सब जगह 
अपनी पूर्ण सत्ता के साथ विद्यमान है। परंतु उसकी पूणंता यहीं समाप्त 





+ ग्रंथ; पू० ६२६ । क० ग्रं०, पू० २०० ३००। 
» घीव दूध में रमि रहा व्यापक सब ही ठोर । 
““बानी, भा० १, प० ३२॥ 


क 


+ ग्रथ,, ६०६ । 


१७७ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


नहीं हों जातो | इस विश्व सें पूर्णूूप से व्याप्त होने पर भो वह पूर्ण 
रूप से उसके परे है । इस अदभुत राज्य सें गणिर की गणना बे-काम 
हो जाती है। बृहदारश्यकापनिषत्‌ के शब्दों में अगर कहें तो कह 
सकते हैं कि पूर्ण में से अगर पूर्ण को निकाल ले तो भी पूण ही शेष 
रहता है ।& इसी भाव को दृष्टि में रखकर दादू ने कह। था कि परमात्मा 
से कोई ऐसा पात्र नहीं बनाया है जिसमें सारा समुद्र भर जाय और और 
पात्र खाल्ली ही रह जाय--- 

चिट्ठी चोंत्र भर ले गई नीर निघट न जाइ | 

एसा वासरणा ना किया सत्र दरिया माहि समाइ ॥+ 

यह ज्यप्ति इतनी गहन ह कि व्यापक ओर व्याप्त में कोई अंतर ही 

नहों रह जाता । सिद्धान्तवादी कबीर की सहायता के लिए उसी के 
हृदय में से कवि बाहर निकलकर रसपूर्ण व्याति को इस तरह संदेह के 
रूप में व्यक्त करता हैं-- 


सुन सखि पिउ महि जिउ बसे, जिउ महि बसे कि पीठ ॥> 
पूर्ण सत्य तक तब पहुँच होती है जब यह संदेह निश्चय सें परिणत हो 
जाता हैं और प्रिय हृदय में तथा हृदय ग्रिय मे बसा हुआ दिखाई देता 
है कबोर ने स्पष्ट शाब्दों में कहा है कि परमात्मा विश्व में ओर विश्व 
ध्प्य्न्प में श्रवस्थित ह--- 
लक खलक खलक में खालिक सब घट रह्या समाई ८ .* 
परमात्मा की इसी व्यापकता के कारण उसे मन्दिर-मस्जिद आदि 







&# पूर्णामद. पूर्णो मिद्र पूर्रात्यूणोमुदच्यते । 
पूर्णास्य पूरा मादाय पूण मेवाव शिष्यते ॥--२, ५, १६ । 
+ बानी ६ ज्ञानसागर ), पृ० ६३, ३२७ । 
> क० अं>, प० २६३, १८६ । 
ने वही, पु० १०४. ₹३१। 


तोसरा अध्याय १०१ 


में सोमितर मान लेना मुचता हो जाती है । सुसलमानों के लिए खुदा 
मस्जिद सें अर हिंदुओं के लिए ईश्वर मनिदर में हे तो क्या जहाँ मंदिर- 
मस्जिद नहीं वहाँ परमात्मा नहीं -- 
तुरक मसीत, देहुरे हिंदू, दृहुँों राम खुदाई । 
जहाँ मसीति देहुरा ताहों, तहें काकी ठकुराई ॥।न* 
निर्गेणो को मन्दिर मस्जिद से कोई अयोजन नहीं । वह जहाँ देखता 
है, वहां उसको परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं | सर्वेत्र परमात्मा हीं 
परमात्सा हे, सत्ता ही केवल्न उसकी हे-- 
जहँ देखाौं तहें एक ही साहव का दीदार 
नानक--- 
सब संत इस बात का उद्घोष करने में एकमत हैं। 
गुरु परसादी दुरमति खोई, जहेँ देखा तह एको सोई [| 
किंतु निगणियों का सर्वत्र परमा-मा का ही दर्शन करना केवज उसके 
अधिदेवस्वु, तथा व्यौपकतच का सूचक नहीं हे | उन्मेषबशील जीव को इस 
बात का अनुभव होता है कि मेरी सता केवल भौतिक 
५८ २. पूर्ोँ ब्रह्म नहीं। अपनी पारमात्मिकता की भी उसे बहुत 
धुँधली सी मूलक मिल जाती है । अतणव उद्धार की 
आशा से वह ऐसे किसी दृढ़ अवलंबन की आवश्यकता का अनुभव करता 
है जो दूर से दूर होने पर भी निकट से निकट हो । परमात्मा के अधि- 
देवत्व और व्यापकत्व नाम रूप की उपाधियों से रहित उस परमतत्व को 
इसी पक्ष दृष्टि से देखने के परिणाम हैं । उसकी पूर्णता उन्हीं में नहीं; 


| 


हाँ उनकी ओर वे अस्पष्ट संकेत अवश्य करते हैं । 





न वही, पृ० ९०६, ८ | 
» सं० बा० सं० ह, पृ० रे३ | 
% ग्रन्थ, १० १६३, आसा | 


श्ण्र हिंदी काज्य में निगुण संप्रदाय 


पूर्सरूप सें उस सत्तत्व का कोई उपयुक्त विचार ही नहीं कर सकता 
है। चह वांड्मनस के परे हैं । बुद्धि मूते रूप का आधार चाहती है और 
वाणी रूपक का इसलिए उस अमूर्त आर अलुपम को ग्रहण करने में 
बुद्धि, ओर व्यक्त करने में वाणी, असमथ है । बुद्धि से हमें उन्हीं पदार्थों 
का ज्ञान हो सकता है जो इंद्वियों के गोचर हैं, इंद्रियातीत का नहीं । 
इसी से नानक ने कह था कि लाख सोचो, परमात्मा के बारे में सोचते 
बनता ही नहीं है ।& यही कारण है कि यह परमात्मा है” ऐसा कहकर 
डसका निर्देश नहीं किया जा सकता । 

४ इसी कठिनाई के कारण सब सत्यान्वेषकों को न-कारात्मक 
प्रशाली का अनुसरण करना पडता है। परमात्मा यह है! न कहकर 
वे कहते हैं परमात्मा यह नहीं है? 'स एप नेति नेति आत्मा! 
कहकर उपनिषदों ने इसी अणाली ,क्रा अनुगमन किया हैं हमारे 
संतों ने भी यह किया हैं “परमात्मा अवर्थ हैं, अकल हे, 
झविनाशी हे।न उसके रूप है, न रंग हे, न देह ।+ न वह बालक है 


38० कुक न उसका .तोत्र है, न मोल है, न ज्ञान हे; न वह 
कर ० 
हू, न भारी, न उसकी परख हो सकती हैं [5 परन्तु इससे 


& सोचे सोच न होवई जे साचे लख बार --ग्र॑थ', पृ० १। 
» बृह॒दारण्यकोपनिषद, ४, ४, २२ । 


+ अवरण एक अविनासी घट घट आप रहे। 
“-के० ग्र ०, प० १०२, ४२ । 
“रूप बरण वाके कुछ नाही सहजो रंग न-देह । 
-““सहजो, सं० बा० सं ०, पूृ० १६ | 
| ना हम बार बढ़ हम नाहीं, ना हमरे चिलकाई हो । 
“>क० ग्र०, पू० १०४, ४० | 
तोल न मोल, माप किछु नाही गिने ज्ञान न होई। 
वा सो भारी ना सो हलग्ना, ताकी पारिख लखे न कोई । 
“वही, पृ० १४४, १६६। 


दूसरा अध्याय १०३ 


परिणाम क्या निकज्ञता है ? परमात्मा के वास्तविक छान को प्राप्त करने 
में हम कहाँ“तक सफल होते हैं ? कबीर ने कहा था, चारों वेद ( नेति 
नेति कहकर ) सब वस्तुओं को पीछे छोइते हुए आपका यशोगान करते हैं 
परंनु उससे वास्तविक ज्ञाभ कुछ होता नहीं दीखता, भटकता हुआ जीव 
लूटा अवश्य जाता है ।+ क्योंकि जेसा नानक कहते हैं, परमात्मा के 
सम्बन्ध में कितना ही कह डालिये, फिर भो बहत कहने को रह जाता 
हैं ५८ इसी से कबीर ने कु कलाकर कहा कि परमात्मा कुछ है भी या 
नहीं १?- सुन्दरद्यस ने तो उसे अस्यताभाव? कह दिआ---हाँ, नास्तिकों 
के मतानुकूल अत्यवाभाव नहीं। परमात्मा ह भी ओर नहीं भी है| 
जिस अथ में संसार के भातिक पदाथ हें? उस अथ में परमात्मा हें? 
नहीं ओर जिस अथ में परमात्मा 'हे! उस अर्थ में सांसारिक पदार्थ 
नहीं हैं। इसीलिए सुन्दरदास कहते हैं कि परमात्मा है भी और चहीं 
भीह। बल्कि उसको हैं” ओर “हीं? इन दोनों के बीच. देखना 
चाहिए [& सारो समस्या को हल करने के उद्देश्य से सहजोबाडई़ के शब्दों 

निर्गंणी उसे 5६” और नहीं” भाव ओर अभाव दोनों से रहित 


निभाने लिजनगनग#2#2#2«<>-नन-+नमनननननतीनमननमकान34५८»++ननाननन..ल्‍न ल्‍विनासन शक». >न्‍नन 3 बन धननतन अलनमी मन >कनननननीयनन--नलनवतझा 








न रावर को पिछवार कं गावे चारिउ सेन । 
जीव परा बहु लूट में ना कछ लेन न देन ।, 
--बीजक', पृ० ४८८ | 
> बहुता कहिये बहुता होई ।--जपजी, २२। 
- तहाँ किछु आहि कि सुन्य ।--क० ग्र० पु० १४३, १६४ । 
& यह अत्यताभाव हैं, यहई तुरियातीत । 
यह अनभव साक्षात है, यह निच्चे अत ॥ 
नाहीं नाही” कर कहे 'है है” कहें बखानि। 
नाही” हु के मध्य है, सो अनुभव करि जानि |! 
“जान-समुद्र, ४४। 


१०४ हिन्दी काव्य में निगुग॒ संप्रदाय 


उद्योषित करते हैं ।)८ जसे हम एक अर्थ में परमात्मा को 'ह नहीं कह 
सकते वेसे ही नह? भी नहीं कह सकते, क्योंक्रि अन्य सभी पदार्थों 
का तो वही आधार है | परन्तु यह भी एफ प्रकार का अभाव हो है 
अतएव यह उन्हें एक स्वयं विरोधी स्थिति में पहुंचा देता है । 

/ इसी स्थिति के कारण आचीन ऋषि भाव ने परमात्मा के वर्णन 
में एक नवीन प्रणात्ली का अनुसरण किया था। चास्क्रलि ने भाव से 
पूछा था कि आत्मा क्‍या है। पहली बार प्रश्न करने पर जब उत्तर न 
मित्ना तो वास्कलि ने समझा कि शायद ऋषि ने सुनाया सममा 
नहीं । फिर पूछने पर भी जब उन्होंने तीर दृष्टि से चास्कलि की ओर 
केवल्न देखा भर तो उसे भय हुआ कि कहीं अनजान से मैंने ऋषि को 
अग्रसभ्न तो नहीं कर दिया | इसलिए डसने बडी विनय के कक & 
का दुहराया । इस बार ऋषि ने कु कल्ाकर उत्तर दिया--.“'में बर्लौता 
तो हूँ कि श्रात्मा मोन है, तुमसें समझ भी हो !?”+- और बात भी ठोक 
ही है। परमात्मा को निर्विशेष कहने पर भी उस पर विशेषयों का 
आरोप करना--चाहे वह विशेपषण “निर्विशेष” ही क्‍यों न हो--असंगत 
है। निरगशियों को भी इस वात का अनुभव हुआ था। ब्रह्म के वणन . 

में वासी की व्यर्थता की घोषणा करके कबीर ने भाव ऋषि का साथ 
दिया । उन्होंने कहा--भाई बोलने की बात क्या कहते हो १ बोलने 
से तो तन्‍व ही नष्ट हो जाता हैं |-- 


. #ए बह पु रक्षा है उन के पद 77 'नाही” सू रहित है, सहजो' यो भगवत । 
“स० बा० सं०, भाग १, पृ० १६५। 
प ब्रह्मसत्र, शाकर भाष्य, ३, २, १७; दास गुप्त-हिस्टरी आव 
इंडियन फिलासफी, भाग १, पृ० ४५। 


-+ बोलना का कहिए रे भाई । बोलत बोलत तत्त नसाई । 
““ऊ० ग्र ०, पृ०. १०६, ६७॥ 


तोसरा अध्याय ५०३५ 


परन्तु जंसा नानक कहते हैं, जो ज्ञोग परमान्‍मा में एंकतान भावना 
से क्लीन हा ज्ञाते हैं, वे चुप भी तो नहाों रह सकते | परमात्मा के 
यशोगान की भूख इंद्रियार्थों से थोड़े ही बुक सकती है । अतएव 
वाणी का आधार लेना ही पड़ता है। बोलने से अधूरा सही, भगवद्धिचार 
का आरम्म तो हो जाता हैं। बिना बोजे वह भी नहीं हो सकता ।+ 
इसीलिए नानक ने कहा--“जब लगि दुनिया रहिये नानक, किछु 
सुणिये किछु कहिये |?”> परमास्मः यदि त्यन' अर वयन! के अगोचर अगोचर 
हु फिर भी वह संतों के "कानों! और कामों का सार है । भगवच्चचों मे 
सम्मिल्नित होना उनके जीवन का अधथान सुख हैं । परमान्‍्मा के गुणगान 
ही में वे जिछ, की साथंकता मानते हैं |& बोलने की इसो आवश्यकता के 
कारण कबोर ने परमात्मा को बोल” ओर 'अबोल?” के बीच बताया ह ॥<* 


ल्‍पपाप:८बकतमयाक 


फीज+--+ज.५+व नितिन जनाल+ १५००० ०..-++>० ना आज अं. -+ नाश, अऑिभीना-निनभािगाटिीनिरनिीनिन लि नननन ञलण।। ट। गएख।ण एफ: कल कल नननन-०4८०न० मम मातलकीली 





» चुर्य चुपि न होवई लाइ रहा बिवरतार। 


भुखिया मूव न ऊतरी जवता पु रिया भार 4--जपजी , २। 
न बिन बाले क्यों होय विचारा। - के० ग्र ०, ६०६, ६७। 
न्‍ ग्रन्थ, पू० ३५६। 


ई# कहते सुनत सुख ऊपर्ज अरु परमारथ होय । 
नैना बेन अगोचरी स्वगा करणी सार | 
बोलन के सुख कारण कहिये सिरजनद्वार ॥ “+वही, पृ० २३६॥। 
-+ जहाँ बोल तहँआखर आवा | जहे पब्ोल तहें मन न रहावा। 
| »बोल अबोल मध्य है सोईं। जस झोहु हैं तस लखे न कोई || 
“वहीं पृ० ५१०॥ 
बीजक में अंतिम पद्म का कुछ भिन्न पाठ हैं-- 
जहाँ बोल तह अक्षर झावा । जहूँ अक्षर तह मनहि दिल्लाया ॥ 
बोल-ग्रवोल एक छू जाई जिन यह लखा सो बिरला होई ॥ 
““ बीजक', साखी, २०४। 
अबोल ही जब बोल हो जाता है तब श्रक्षर ब्रह्म के दशेन होते हैं । 


हिन्द ध्ग 25 हु 
१०६ दो काव्य में निगगंण संप्रदाय 


परंतु इतना सब होने पर भी कबीर के स्पष्ट शब्दों सें सच तो यह 
हु कि “परमात्मा को कोई जसा कहे वसा वह हो नहीं सकता, वह जसा 


है वसा ही है 5 कसा ह ? कोड नहीं बता सकता। परमात्मा को 
संबोधित कर कबीर ने कहा था--. 


000 


। जस त्‌ तस तोहि कोइ न जान | 
लोग कहे सत्र आनहि आन ॥+ 
सुन्द्रदास भी प्राय; इन्हीं शब्दों में कहते हैं--- 
>जीइ कह सोइ, है नहिं सुन्दर, है तो सही पर जैसे को तेसों ।८ 
५ “यहाँ पर इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि सूच्म ब्रह्म- 
भावना का विस्त्र-पूर्ण उल्लेख थोड़े ही संता में पाया जाता है। उदा- 
हरण के लिए नानक में ऐसे स्थल भो मिलते हैं जो परबह्म की सूक्ष्म से 
सूच्म निविकल्प भावना सें भी घट सकते हैं । एक जगह नानक ने कहा 
हैं, श्रार आगे क्‍या है, इसे कोई कह नहीं सकता, ज्ञों कहेगा उसे पीछे 
पछुताना पढ़ेगा ।५५ क्योंकि उसका कथन ठीऊक हो नहीं सकता, 
परतु नानक ने अपने समय की स्थिति के कारण, जिसका में उनके जीवन- 
वृत्त सें उद्लेख कर आया हूँ, एकेश्वर अधिदेवता की ही भावना की 
ओर अधिक ध्यान दिया हे। इसीजिए उन्होंने जपजी में कहा कि 
अगर परमात्मा का लेखा हो सकता ह तो लिखो परंतु लेखा तो 
नाशवान्‌ है, वह अविनाशी का केसे वर्णन कर सकता है, नानक तू इस 


2 अन कान न+५क न तनमन“ कक» 5 तथा कक +नान_न_न न न ननननन न न न न ननन नमन न न न न नम नमन न न» +ननननननननननननं- नमन > कन+-+ननन न +नननननन-+ नमन +नननंन_«%नानन-न- तन ननततननत खत ग7"40५५५७५५५+नकननननल नमनन--पन-न-न-न- नमन नन-_नन_नत न ल+प नाक ५५4५५ .५५५»>५न०-णनन+म»-॥००... 





# जस कथिये तस होत नहिं, जस हे वेसा सोइ-वही . पृ० २३० । 

न क०, ग्र ०, पृ० १०३, ४७ | 

| ज्ञान-समद्र । 

> ताकी झआगला कथिया न जाई । जे को कहे पिछे पछिताउ । 
--जपजी', ३५। 


तोसरा अध्याय १०७ 


फेर में मत पड़, वह अपने को आप जानता हे, तू केवल उसे 
बड़ा कह | 
परंतु कुछ संत्र ऐसे भी हैं जो, जेसा आये चलकर मालूम होगा, 

इस निर्विकल्प भावना तक पहुँच ही नहीं पाये हैं। जहाँ पर वे पूर्ण 
अद्वत बह्म का सा वर्णन करते हैं, वहाँ पर निर्विकल्प अवस्था के स्थान 
पर उनका अभिम्राय परमात्मा की अद्वितीय महत्ता से होता है | किंतु 
इसके विपरीत कबीर ओर कुछ अन्य संतों की ब्रह्म-मावना तो ऐसी 
सूचम है कि वे उस “एक? भी कहना नहीं चाहते | कोई वस्नु अनेक” के 
ही विरुद्ध एक” हो सकती हैं। परंतु ब्रह्म तो केवल है |+ चह 'एक' केसे 
हो | हैं? कबीर ही के शब्दों में परमात्मा को एक कहना--- 

एक कह तो है नहीं, दोय कह तो गारि । 

हैँ जसा तेसा रहे, कहे कबीर विचारि |॥ 

वह जेसा हे वेसा, जान सकता है, हम तो इतना ही कह 
सकते हैं कि केवल चही है और कोई है नहीं ।)८ दादू भी कहते हैं, “चम्म- 
दृष्टि से अनेक दिखाई देते हैं, आत्म-दृष्टि से एक, परन्तु साज्ञात्‌ परिचय 
तो बह्य-दृष्टि से होता है, जो इन दोनों के परे है ।”-- फिर कहा हें-- 


तीनताअनन्‍यकनननऊकेककल, 


& लेखा होइ लिखिये, लेखें होइ विणास । 
नानक बड़ा आखिये, आप जाएो झराप ॥ --जपजी, २२। 
न अब में जारिए बोरे केवल राइ की कहाणी । 
“क० ग्रं०, पृु० १४३, १६६॥। 
> वो है तेसा वोही जाने, वोहि आहि, आहि नहि आने ।। 
“वही, पृ० २४१। 
-5 चमदृष्टी देखे बहुत करि, आतमदृष्टी एक । 
ब्रह्मदृष्टी परिचय भया, ( तब ) दादू बैठा देख ॥ 
--बानी ( ज्ञान-सागर », पुृ० ४८ ।॥ 


१०८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


दादू देखों दयाल को, बाहरि भीतरि सोइ | 
सब दिसि देखो पोव को, दसर नाही होइ ॥।-. 


भीखा भी कहते हें--- 
भीखा केवल एक है, किरतिम भया अनन्त । 
एक आतम सकल घट, यह गति जानहि सत ॥>< 
हम यह देख खुके हैं कि परमात्मा भाव ओर अभाव दोनों 
प्रशात्षियों से अवशुनीय हैँ; क्‍योंकि वह भाव ओर अभाव दोनों के 
परे हैं। परमात्मा की सभुण भावना भावदत्मक 
है. अल प्रशाल्ली हं, ओर निगुण भावना अभावात्मक । परन्तु 
परमात्मा का पूर्ण हान ग्राप्त करने के लिए सगुण 
और निगंण दोनों के परे पहँचना चाहिए | कबीर का अपने को निगंणी 
कहना नकारान्‍्मऊ प्रणाली के अनुसरण मात्र की ओर संकेत करता हैं, 
जिसके साथ जिहासु का ज्ञान-साग में प्रवेश होता है | सूचम गुण तीन 
माने जाते हैं | इसलिएं कबीर ने परमात्मा के सत्य स्वरूप को तीन 
गुणों से परे होने के कारण चाय पद भी कहां है --- 
राजस तामस सातिग तीन्यू , ये सब तेरी माया। 
चौथे पद को जो जन चीन्‍्हें तिनहि परम पद पाया | + 
नांचे लिखा पक्ति में सी इसो बात को ओर संकेत हे-- 
कहे कबीर हमार गोंब्यद चौथे पद में जन का ज्यंद ।& 
कबोर तीन सनेही बहु मिले; चौथे मिले न कोय। 
सबे पियारें, राम के, बेठे परवश होंय ॥। 


उरकरापकिकननलतततऊभकन्पेर 





+ बानी, भाग १,प० ५३ । 
»> स॒० बा० सं०,, भाग १, पृ० २१३। 
पल क० ग्रं०, पृू० १५०, १८४ । 

#& का० ग्र०, पृ० २१०, ३६५ । 


तीसरा अध्याय श्ध्ह्‌ 


अंतिम उद्धरण सें तोन का अर्थ त्रल्लोक्ब भी लगाया जा सकता 
है | बिहारी दरिया ने असय ससत्यलोंक को त्रज्ञोक्य के ऊपर बतत्ाया 
है ।८ परमात्मा को त्रल्लाक्य के परे मानना ठोक भी है। परन्तु कबीर- 
पंथ में इसका बिहकुज्ञ हो बाह्य॒ार्थ लगाया गया ओर सत्यपुरुष निगुण 
से दो लाक ऊपर माना गया । बीच के दो लोकों के नाम सुन्नच ओर 
भवरगुरा रखे गये ओर उनके घनियों ( अधिठात।ओ्रों , के बिना किसी 
संगति के ब्रह्म और परतह्म । 

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है क्रि सुन्न बोद्धों के शूल्यवाद की 
$ तिध्वनि हे, जिससें सत्तत्व शून्यमात्र माना जाता है; योग में वह सूक्ष्म 
आकाश तत्व का बोधक होकर तत्रकुटी के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। 
इसी प्रकार मंडकोपनिषद्‌ में परमात्मा का निवास शुहा में माना गया 
है ।+ यह ज्ञानगृहा अववा हृदयगुहा दोनों हो सक्रता है। हृदय में 
योग के एक कमल्न ( चक्र ) का भी स्थान है अतएवं हृदयस्थ परमात्मा 
उसका अ्रमर हुआ* और हृदय उस अमर की गुहा | मँबरगुद्दा आगे 
चलकर अनाहत चक्र से अल्लगग हो एक-चक्र मानी जाने लगी। कबीर ने 
भा ऐसा हो किया है ।& उन्होंने भंवरगुहा को लोक के अथं सें प्रयुक्त 
नहों किया हे । 

>» तीन लोक के ऊपरे अभमयलोक विस्तार । 

सत्त सुकृत परवाना पाव, पहुँचे जाय करार || 
“+झसं० बा० स०, भाग १) पृ० १२३॥। 
+ बृहच्च तहिव्यमनंतरूप सूक्ष्माच्च तत्सुक्ष्मतर विभाति। 
दूरात्मुद्रे तदिहातिके च पश्यत्स्विहेंव निहित गृहायाम्‌ ॥ 


““र, २ै, ७३ 
4 बंकनालि के अतरे, पछिम दिसा के बाद ॥ 


नीभर भरे रस पी जिये, तहाँ भंवरगूफा के घाट रे ॥ 
“करू ० थ्थ, पू० स प्र॥ डे | 


११० हिंदो काव्य में निर्गुण संप्रदाय 


नाजक ने सचलखंड अर्थात्‌ सत्यलोक को वष्णवों के समान सर्वोच्च 
छोक माना हे जहाँ निरंतर कर्ता पुरुप का बास हे। इसक्ले नीचे चार 
ओर लोक हैं जिनके नाम उन्होंने---नीचे से ऊपर का क्रम रखते हुएँ-- 
यों दिये हैं -- धरमखंड; सरझ ( शर्म ) खंड, हानखंड ओर करमखंड | 
सचखंड की यह भावना बाह्याथ-परक हो ह, परंतु ऐसा भी नहीं मालूस 
होता कि नानक ने सूचम भावना को सर्वथा त्याग ही दिया हो । उन्होंने 
अपने सत्यनाम करता पुरुख का वर्णन प्रायः वेसे ही शब्दों में किया 
जो कबीर के मुख में रखे जा सकते हैं | उन्होंने कहा कि परमात्मा 


'त्रिगुश॒त्मक त्रेज्नोक्य में व्याप्त हे, परन्तु है वह दोनों जोक अर ल्ोकों अथवा तीनों 
(एु्ों से बाहर, 'तोनि समावे चोंथे वासा |. गुज्ञाल उसे चोथे से २ 
ऊपर बल्ले गये--..ब्रह्म सखूप अखंडित पूरन, चोथे पद सों न्‍्यारो [”+ 
(प्राथनाथ ने भी कहा हे--- 


बागी मेरे पीउ की, न्‍्यारी जो संसार । 
निराकार के पार थे तिन पारहु के पार ॥< 


इस प्रकार परत्रह्म क्रमश: एक के बाद एक पद्‌ ऊपर उठने लगा। 
कबीर के नाम से भी कुछ ऐसी कविताएं अ्रचलित हैं, जो वस्तुतः कबीर 
की नहीं हो सकतीं, जिनमें सत्य समथ ओर निरंजन के बीच छु; पुरुषों 
के लोक हैं | इन छुः पुरुषों के नाम हैं---सहज, ओंकार, इच्छा, सोहम, 
अखित्य ओर अत्तर । इन छः पुरुषों की सिद्धि के लिए एक नवीन सृष्टि- 
विधान की कल्पना की गई जिसके अनुसार सत्य पुरुष ने क्रमश: छु: 
ब्झों ओर उनके लिए छु; अंडों की रचना की । छुठे अच्तर ब्रह्म की दृष्टि 


३८ “ग्रथ”, पृ० अप | 


न सं० बा० सं०, भाग २, पृ० २०६ | 
+ प्रगट बानी, पूृ० १, ना० श्र० स०, सोज-रिपोर्ट । 


तीसरा अध्याय १११ 


से छुठा अंड फूटा तो उसमें से श्रेज्नोक््य का कर्ता निरंजन अपनी शक्ति 
ज्योति अथवा माया के खाथ निकल पड़ा ३८ 
परन्तु इन नये-नये वाह्याथवादी लोकों तथा उनके घनियों की कल्पना 
का क्रम यहीं पर न रुका, क्योंकि नाम तो शब्द मात्र हैं और परमात्मा 
की ओर संकेत मात्र कर सकते हैं । इन संकेतों को छोड़कर यदि उनका 
बाह्यार्थ त्रिया जाय तो उनका कोई भी पारमार्थिक मूल्य नहीं रह जाता । 
इस प्रकार कलाम को चाहे जिस नाम से पुकार, वह उससे परे 
ही रहेगा; इसीलिए दर्शनशास्त्रों में उस “परान्पर कह है| परमास्मा 
को परे से परे ले जा रखने को इस प्रवृत्ति के कारश चलकर पर- 
आत्मा सत्य पुरुष” से भी पर चला गया । परिणासतः परमात्मा, जिसे 
कबीरपंथियों ने अनामी ओर शिवदयालजा ने राधास्वरामी नाम से 
अभिहित किया, सत्य पुरुष से भी तीन ज्ञोक ओर ऊपर जा बेठा | बीच 
के पुरुषों का नाम अगस ओर अलख रखा गया। शिवदयालजी ने 
अनामी शब्द को राध्तास्वामी का विशेषण माना था परन्तु राधास्वामी 
संप्रदाय के अनुयायियों ने अनामी को एक अलग पुरूष मानकर राघा- 
» प्रथम सुरति समरथ्‌ू कियो घट में सहज उचार। 
तातें जामन दीनिया, सात करी विस्तार ॥... 
तब समरथ के श्रवण ते मल सुरति भें सार । 
शब्द कला ताते भई, पाँचब्रह्म अनुहार ॥। 
पॉचा पॉचौ अंड धरि, एक एक मह कीन्‍न्ह ।... 
ते अचित्य के प्रेम ते उपजे पअ्रक्षर सार ।... 
जब अक्षर के नींद गे, दबी सुरति निरबान। 
इयास वरन इक अड है, सो जल में उत्तरान ॥..- 
अक्षर दृष्टि से फूटिया, दस द्वारे कढ़ि बाप ॥॥ 
तेह ते जोति निरजनौ, प्रकटे रूपनिधान । 
“-क० द०, पृ० ६५-६६ | 


११२ हिन्दों काठ्य में निर्गण संप्रदाय 


ध्वासी के नोचे रख दिया | उनका कहता हे कि शिवदयाल जी ने जान 
बूककर अवासी पुरुत को गुर रखा था ! हु 
इतना ही नहीं, शिवदयात्र जी ने सत्य को भी निगंण से चोथा न 
मानकर चर लोक ऊपर माना और इस प्रकार बढ़ी हुईं जगह को भरने 
के ज्षिण एक ओर लोक और पुरुष की कल्पना को जिनके नाम क्रमशः 
सोहंग कोक ओर सोइंग पुरुष रखे गये । 
इस प्रकार सबसे नवीन संत- ( राधास्वामी ) साहित्य सें हम 
निरंजन अथवा निगेण को उत्तरोत्तर उच्च पदवाले धनियों अथवा पुरुषों 
की अशी के पाद पर पाते हैं। निरंजन के ऊपर क्रम से ब्रह्म, परत्रह्म, 
सोहंग ( सोहम्‌ ) पुरुष, सम्य पुरुष, अलख पुरुष, अगस पुरुष ओर 
अनामी पुरुष है ओर सबके ऊपर राधास्वासी दयाल | इस संग्रदाय के 
अनुसार ओर धर्मों के ल्ञोग निरजन अथवा उसके थोड़े ही ऊपर-नीचे 
के किसी पुरुष की आराधना करते हैं। यदि संत संग्रदायों में यह पर- 
प्रवृत्ति इसो प्रकार बढ़ती रही तो क्या आश्चय कि परमतत्व को कोई 
राधास्वामी से भी ऊपर ले जा रखे । परन्तु द्शन-बुद्धि से तो यह आव- 
श्यक जान पड़ता है कि आवश्यकता से अधिक पर', ब्रह्म पर न जोड़े 
दि । इस दृष्टि से इस अतिशय “'पर'- प्रवृत्ति की कोई संगति नहीं 
श्रेठती । एक बार जब परमात्मा को सग्रुण निरगेण दोनों से 'पर” बतला 
। दिया तब एक के बाद एक और पर” जोइने से क्लाभ हो क्‍या हो 
/ सकता ह€ ? 
इस असंगत “पर”-अन्रत्ति का कारण यह है कि स्वामी रामानंदजी के 
सत्संग से प्राप्त जिन सूच्म दार्शनिक विचारों का अचार कबीर ने किया 
था, कुछ काल उपरान्त उनके तत्त्वा्थ को दशंन बुद्धि से समझना उनके 
अनुयायियों के ल्षिए कठिन हो गया और वे अपने से पूव॑वर्दो संतों तथा 
भिन्‍य धर्मावलंबियों के अनुभवों को अपने से नीचा ठहराने लगे। बोद्ध 
और सूफ़ी सी आध्यात्मिक अभ्यासमार्ग में उत्तरोत्तर अग्रसर आठ पद 





ैंस्‍रे 


तीसरा अध्याय ५१ 


मानते हैं | संभवतः यह प्रवृत्ति इन्हीं के अनुकरण का फल है, परस्तु 
बोद्धों आर सूक्रियों सें इन पढ़ों की भावना विभिन्न पुरुषों ओर उनके 
विभिन्न लोकों के रूप में नहीं की गई है; किन्तु केवल सोपानों के रूप 
में । अभ्यास पच्च में संतों ने भी ऐसा ही किया है किंतु इससे उनको 
लोक और पुरुष भी मानना संगत नहीं ठहराया जा सकता । 

एक स्थान पर शिवद्याज्षजी ने राबास्वामी दयाल से कहलाया है 
कि अ्रगस, अलख ओर सत्य पुरुप में सेरा ही पूर्ण रूप है । & यदि यह 
बात है तो यह केसे माना जा सकता है कि इन रूपों को अहण करने के 
लिए राधास्वामी को नीच उतरना पद्मा ह। जहाँ परमात्मा को एक पग 
भी नीचे उतरना पड़ा, ससमना चाहिए कि पूर्णता सें कमी आ गई । 
साधक के पूर्ण आध्यात्मिकता में प्रवेश पाने में उत्तरोत्तर बढ़ती हु सात्राएं 
हो सकती हैं; परन्तु निल्वप परमतत्त्व सें, जब तक वह निलंप परमतत्त्व हे. 
न्यू तधिक मात्राओं का विचार घट नहीं सकता । पूर्ण ब्रह्म की जब तक 
पूर्ण आप्ति नहीं हो जाती तब तक साधक अपूर्ण ही कहलायेगा, चाहे 
उसकी अपर्णा सूचम हो अथवा स्थूल । 

यदि पूण वरह्य-नावना पर बाह्यार्थ का आरोप किया जायगा तो वह 
अवश्य ही सारहीन होकर ऐसी अदाशंनिक गवृत्ति में बदल जायगी; यही 
यहाँ हुआ भी है । 

कहना न होगा कि निरंजन, अल्ख, अगम, अनामी, सत्य आदि 

शब्दों को--जिन्हें पिछुले संतों ने विभिन्न पुरुषों! का नाम सान जिया 





&? पिरथम अगम रूप में धारा | दूसर अलख पुरुष हुआ न्यारा ॥ 
तीसर सत्त पुरुष मैं भया। सत्तलोक मैं ही रचि लिया॥। 
इन तीनो में मेरा रूप । हाँ से उत्तरी कला अनूप ।। 
ह्याँ तक निज कर मुझको जानो | पुरन रूप मुझे पहचानो !। 
““सारवचन, भाग ९, पृ० ७५॥ 


११४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


हे-पहल्ले के संतों ने परसतर्व या परमात्मा के विशेषण मानकर उसके 
पर्याय के रूप में गदर किया हे। विभिन्न जोक होने के बदले वे निति 
नेतिः प्रसात्वी-द्वारा पूर्ण पुरुष को ही देखने के विभिन्न इृष्टि-कोख हैं । 
निरंजन से भी ( अंजन अथवा माया से रहित ), जिसे पिछले संत 
कालज-पुरुष का नाम मानते हैं, कबीर का अभिप्राय परमात्मा से ही था, 
यह इस पद से स्पष्ट होता ह--- 
गोब्यंदे तू निरजन, तू निरजन, तू निरजन राया। 
तेरे रूप नाही, रेख नाही म॒द्रा नाही माया । 
तेरी गति तूही जाने कबीर तो सरना ॥# 
अभ्यास-मार्ग में उन्नति के सोपानों के रूप सें इन पदों की चाहे जो 
साथ्थकता मानी जाय, परन्तु इसमें संदेह नहीं कि लोक अथवा पुरुष 
रूप में उनका कोई दाशंनिक महत्व नहीं । 
निगेख संतों को सर्वत्र परमात्मा ही के दर्शन होते हैं। यदि कोई 
पूछे कि “यदि सत्ता 'एकः ही की है तो अनेक के सम्बन्ध सें क्या कहा 
जायगा ? क्‍या यह समस्त चरांचर सृष्टि, जो इन्द्रियों 
४. परमात्मा, के लिए उस अलचक््य परमात्मा से भी वास्तविक 
आत्मा और है, मिथ्या है? क्‍या उसका अस्तित्व नहीं ?” तो वे 
जड़ पदार्थ सब एक स्वर में उत्तर देंगे कि उनकी भी सत्ता है, वे 
भी वास्तविक हैं, परन्तु परमात्मा से अलग उनकी 
कोई सत्ता अथवा वास्तविकता नहीं । उसी की सत्ता में उनकी सत्ता है, 
उसी की वास्तविकता सें उनकी वास्तविकता, क्योंकि सबसें परमात्मा 
सार रूप से विद्यमान है |. छोटे से छोटे जीव, तुच्छु से तुच्छ पदार्थ 
सबसें परत्रद्म का निवास है। कठिनाई केवल इतनी है कि जब तक हम 
इंद्विय-झान पर आ्ित बुद्धि की माप से सब पदार्थों को मापने का प्रयत्न 


& क७ ग्रं०, पृ० १६२, २१६९। 


तीसरा अध्याय ११४ 


करते रहते हैं, तब तक उनके अंतरतस सें प्रवेश कर उनको पूर्ण ख्यः 
में नहीं समझ सकते । 
परन्तु इस कथन से सब संतों का एंक ही अभिप्नाय न होंगा। हमें 
उनसें कम्र से कम तीन प्रकार की दाशनिक विचार-घाराओं के स्पष्ट दर्शन 
दोते हैं । वेदांत के पुराने मतों के नाम से यदि उनका निर्देश करें तो 
उन्हें अद्वेत, भेदासेद और विशिष्टाद्नेंत कह सकते हैं । पहली विचार- 
| धारा को माननेवालों में ऋवीर प्रधान हैं। दाद, सदरदास, जगजीवन- 
दास, भीखा और मलूक उनका अनुगमन करते हैं। नानक और उनके 
अनुयायी भेदाभेदी हैं। और शिवदयालजी तथा उनके अनुयायी विशिष्टा- 
दवती | प्राणनाथ, दरियाद्यय, टीन दरवेश, बुल्लेशाहइ इत्यादि शिवदयात्र 
की ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं । 
! (झबीर आदि अद्वेती विचार-घारावालों के अनुसार प्रत्येक ब्यक्ति के 
'मीतर परमात्म तत्व पूछे रूप से विद्यमान है। रहस्थ केवल इतना ही 
है कि वह इस बात को जानता नहीं है] इस बात का अनुभव तमी हो 
सकता है, जब वह मन ओर सामान्‍य चुद के केन्र से ऊपर उठ जाता 
है | मनुष्य ( जीवात्मा ) और परमात्मा सें पूर्ण अद्वेत भाव हे--दूर 
किया संदेह सब जोव ब्रह्म नहि भिन्न | & अपने वास्तविक स्वरूप को 
भूल जाने के कारण वह अपने आपको बह्यतर समझता है। आत्मतत्व 
को भूलकर वह पंचभूतों की ओर दृष्टि डालता है ओर उन्हीं में अपने 
वास्तविक स्वरूप की पूर्णता मानता हे--सूधी ओर न देखई, देखे 
दरपन पृष्ट"। +- यही देहाध्यास उसके अ्रम की जड़ है | जब व्यक्ति दृश्य 
आवरखणों के अस में न पढ़कर, नाम ओर रूप को सेदकर, अपने अंतरतम 
में दृष्टि डालता है तब उसे मालूम होता है कि मैं तो वस्तुत३ एकमात्र 
सत्तत्व हूँ । तब उसे विदित होता है कि किस प्रकार मैं अपने आपको 


& सुन्दरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०७। 
न वही । 


११६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


अम में डाले हुए था--सु दर श्रम थे दोय थे +--श्रोर उसे तत्काल 
अनुभव हो जाता है कि में पूर्ण बह्म केवल हूँ ही नहीं, बल्कि कभी 
उसके अतिरिक्त कोई दूसरा पदाथ था ही नहीं । इस" प्रकार प्रत्येक 
व्यक्ति पूर् ब्रह्म है | उसके इस तथ्य से अनभिक् होने ओर उसकी 
अनुभूति न कर सकने से भी उसके वास्तविक स्वरूप सें कोई अंतर नहीं 
आता | वह जाने चाहे न जाने, पर ब्रह्म तो वह हे ही। पांचभोतिक 
जगत्‌ के बधनों से मुक्त होने के लिए यही अपरोज्ानुभूते अपेज्षित हे | 
संत-संप्रदाय के इन अद्ग ती संतों ने इस सत्य को स्वयं आपने जीवन 
में खनुमूत कर जिया था । कबीर ने इस सम्बन्ध में अपने भाव बड़ी 
इढ़ता तथा स्पष्टता के साथ व्यक्त किये हैं। आत्मा ओर परमात्मा की 
एकता में उनका अटल विश्वास था | इन दोनों सें इतना भी मेद नहीं 
कि हम उन्हें एक हो मूल-वस्तु के दो पक्ष कह सके | पूर्ण ब्रह्म के दो 
पछ हो ही नहीं सकते । दोनों सर्वथा एक हैं। अद्व तता की इसी 
अनुमति के कारण वे समस्त सृष्टि में अपने आपको देखते थे। उन्होंने 
स्ष्ट शब्द्रों में ददूवोषित किया-था - 
| टरैंस सब माहि सकल हम माहा । हम थे और दूसरा नाही ॥। 
हीन लोक में हमारा पसारा । ग्रावानमन सब खे न हमारा ॥। 
खट दशंन कहियत हम भखा | हमहि अतोत रूप नहि रेग्वा ।। 
हमही आप कबीर कहावा | हमही अपना आप लखावा |; 
जो कबीर को, अंडरहिल के समान रामानुज के “विशिष्टाह्े तवादी 
सिद्धांत” का ओर फकंहर के समान निंबाऊ के 'सेदासेद” का समर्थक 
मानते हैं वे श्रम के कारण कबीर के संपूर्य विचारों पर समन्वित रूप 
से विचार नहीं करते । (कबीर ने पूसंबह्म का एक ही दृष्टिकोण से 


"निफिलिनकनन वपोनल्‍नओमननननन नकल नल पननिरल लि लय टनता+ 








+ सुन्दरदास, सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०७ | 
$ क० ग्र० पू० २०१, ३३२ । 


तीसरा अध्याय ११७ 


विचार नहीं हक. है | उसका निवंचन करने के लिए सत्र दृष्टि-कोणों से 
विचार करना है, परंतु अत सें सबका समनन्‍्त्रय कि०े बिना पूर्णा- 
वस्था का ज्यून नहीं हो सकता । कबीर जैसे पूर्ण अं तवादियों ने यही , 
किया भी है | इसी से कबीर में एक साथ ही निंबाक के भेदाभेद और ' 
रामानुज के विशिष्टाह्नत का दर्शन हो जाता है। उनकी उदठ्तियों में से 
कोई भी बाद निकाला जा सकता हैं| परंतु स्वतः कबीर ने उनसें से | 
किसी एक को नहीं अपनाया हैं। उन सबसे उन्होंन ऊपर उठने के लिए / 
सोपान मात्र का काम लिया है | कबीर के सूच्म दार्शनिक विचारों को 
पूर्ण रूर से समझने के लिए हमें उनकी एक हो दो उक्तियों पर नहीं 
बल्कि उनकी सब रचनाओं पर एुक साथ विचार करना होगा । ऐसा करने 
से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वे पूछ अ़्ढ ती थे | बस्तुतः पूर्ण 
भू त में कबीर का इतना अटल विश्वास है कि वे उस परमतत्व को 
ई नाम देना भी. पसंद नहीं करने, क्योंकि ऐसा करने से नाम और 
नामी में हं तभाव हो जाने का आशंका दो जाती है--- 
“उनको नाम: कहने को नाह , दृजा धोखा होई । ८ 
जो तक से द्व त-सिद्धि करना चाहते हैं उनकी वे सोटी अक्ल 
मानते थे - ढ 
“कह कबीर तरक दुइ साथे, तिनकी मति हैं मोटी ।'& 
33 की इष्टि से मोक्ष जीवात्मा का परमात्मा सें घुल-मिलकर 
कार हो जाना है। इस मित्रन में सेद-हान जरा भी नहीं रहता । 
र आदि संतों ने चेदांत का अनुसरण करते हुए घड़े के ( घटाकाश 
(हक के अनुरूप ) फूट जाने पर उसके भीतर के पानी के बाहर के पानी 
से मित्र जाने के दृर्ंतों-द्वारा समम्ाने का प्रयत्न किया हैं; इन इृशंतों 





४७७७७७७७७७७७७७॥७॥७॥७॥/७/॥//७॥७॥७॥७॥७७७७७७७७७॥/८/८श"/८शशआ/श/॥॥॥४७७४७७७॥७७७७८ए्ए्शरशश/शश/शशशआशशआशशआाााणाआााशाकाआआ असल न ननु॒ न मनन मप्र न नवीन केल न नमन नर अत जजलक अत नि लक लकी 


२ क० श०, भा० १, पृ० ६८ | 
& क० ग्र ०, पु० १०४, १४। 


श्श्द हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


से कोई यह न समर ले कि इस सित्रन में आत्मा को परमात्मा से कम 
महत्व दिया गया है। इसलिए कबीर ने बूंद और समुद्र का एक दूसरे _ 
मे पूछत) मिल्ल जाना कहां हं-- 
| हेरत हेरत है सखी, रह्या कबीर हेराइ। 
॥ बूद समानी समुद में, सो कत हेरी जाइ॥ 
' हेरत हेरत हे सखी, रह्मा कबीर हेराइ। 
समुद समाना ब्‌ द में, सो कत हेरथा जाइ ॥ न: 
परंतु मुक्त पुरुष के इष्टिकोश से मिल्लनन का सवाल ही नहीं उठता, 
क्योंकि कभी भेद तो था ही नहीं जिससे मुक्ति होने पर मित्न कहना 
संगत ठहरे । मोक्त तो केवल्न दोनों की नित्य अद्दें तता की अनुभूति मात्र है, 
जिससे अ्रक्ान का आवरण मनुष्य को वंचित रखता हे । इसीलिए-कबीर 
ने अपनी मुक्ति के संबंध में परमात्मा के प्रति ये उद्गार प्रकट किए थे-- 
राम  मोहि तारि कहाँ ले जेहो। 
सो बंकुठ कहौ धौं कंसा जो करि पसाव मोहि दैहौ ॥ 
जो मेरे जिउ दुइ जानत हो तो मोहि मुकति बतावौ । 
एकमेक हछ्वं रमि रह्मा सबन में तौ काहे कौ मरमावौ ॥ 
तारन तिरन तब लग कहिए, जब लग तत्त न जाना । 
एक राम देख्या सबहिन में, कह कबीर मन माना ॥& 
इस गहन अनुभूति की कज्षक इस श्रेणी के संतों की वाणियों में 
यत्र-तत्र मित्र जाती हूं, क्योंकि वे दादू के शब्दों में अपने ही अनुभव 
से इस बात को जानते थे कि--- 


जब दिल मिला दयाल सो, तबअंतर कछ नाहि। 
जब पाला पानी को मिला त्यों हरिजन हरि माहि ॥% 
+ क० ग्रं०.पृ० १७, ७, हे और ४ । 


ई? वहो, पृ० १०५, ५२ | 
> सं० बा० सं०, भाग १, पृ० ६२। 








तीसरा अध्याय ११६ 


आत्मानंद में जीन दादू को सहज रूप परब्रह्म को छोइकर ओर 
कोई कहीं दिखल्ाई ही नहीं देंता हे-- 
सदा लीन आनंद में, सहज रूप सब ठोर । 
दादू देखे एक कौ, दूजा नाहीं ओर ॥+ 
इसी स्वर में मलूकदास भी कहते हैं-- 
साहब मिलि साहब भये, कछ रही न तमाई | 
कहें मलक तिस घर गय जहूँ पवन न जाई [८ 
भीखा भी कहते हैं-- 
भीखा केवल एक है, किरतिम भया शझ्रनंत ।-६- 
इस अद्दे तानंद की जगजीवनदास ने इस प्रकार उत्साहपूर्ण असि- 
ब्यंजना की हं-- 
आनंद के सिघ में आन बसे, तिनको न रह्मौ तन को तपनों । 
जब आपु में आ्रपु समाय गये, तब आपु में आपु लक्यो अपनो ॥ 
जब आपु में आपु लक्यो ग्रपनो तब आपन्वे जाप रह्मयों जपनो | 
जब ज्ञान को भान प्रकास भयो जगजीवन होय रह्यो सपनो ॥% 

. संद्रदास को तो शांकर अह्व त का पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान था जो उनकी 
रचनाओं से पूछ रूप से प्रकट हो जाता हैं| अद्व त ज्ञान के सम्बन्ध सें 
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा हं--- 

प्रमातम अरु आतमा, उपज्या यह अविवेक | 
सुन्दर भ्रत' दोय थे, सतगुरु कीये एक ॥>< 





+ बानी ( ज्ञानसागर ), पु० ४२-४१ | 
-+ सं० बा० सं०, भाग रे, पृ० १०४ | 
- वही, भाग १, पृ० २१३॥। 
49 वही, भाग २, पृ० १४१ । 
* वही, भाग ९१, पृ० १०७॥ 


मेँ आप ए ५ 
१२० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


परंतु'शिवदयाल, ग्रा"एनाथ आदि अन्य संत यद्यपि इस बात को 
मानते हैं कि जीवात्मा का अंततः परमात्मा में निवास है. किर भी बे 
यह नहीं मानते कि वह पूर्णबरह्म है| उनके अनुसार 
४५, अशांशि संबंध जीवात्मा भी परमात्मा है अवश्य, परंतु पूर्ण नहीं, 
परमात्मा अंशी हे और जीवात्मा अंश । आ्रणशनाथ 
कहते हैं--.. 
प्रव कह इसक बात, इसक सबदातीथ साख्यात । 
ब्रह्म सृष्टि ब्रह्म एक अंग, ये सदा अनद अतिरंग ॥» 
अर्थात्‌ सूश्टि अत्यंत आनंदमय प्रेम-स्वरूप परमात्मा का एक अंग 
मात्र हे । शिवदयाल ने अद्गै तवादी वेदांतियों के सम्बन्ध सें कहा है कि 
सत्य पुरुष के पास से आनेवालो अंरारूप जीवात्मा ( सुरत ) का चे 
रहस्य नहीं जानते--.- 
सुरत झ्रश का भेद न पाया । जो सतपुरुष से झ्रान समाया ।< 
रायबहादुर शाल्रिग्राम ने भी अपनी प्रेमबानी में कहा है-.. 
जीव अंस सत पुरुष से आई ।... बे 
पुरुष भ्रस तू घुरपद से श्राई । तिरलोकी में रही फेंसाई ।|८ 
शिवद्याल ने आत्मा और परमात्मा का सेद इस तरह स्पष्ट किया है- 
भक्त और भसगवन्त एक हे, प्रेम रूप तू सतगुरु जान। 
प्रेम रूप तेरा भी भाई सब जीवन को यो ही जान ।। 
एक भेद यामे पहिचानों, कही बूंद कही लहर समात । 
कही सिध सम करे प्रकासा, कहीं सोत औ पोत कहान ॥।& 





साफ का ला... ॥:उआ का 2्हल कल 


> 'ब्रह्मबानी,पृ० १ ( खोज रिपोर्ट )। 
सार बचन, भा० १,१० ८६५। 

< प्रेमबानी, भा० १, पृ० ५४। 

& सारवचन”, भाग १, पृ० २२६। 


*[* 


तीखैंरा अध्याय .. १११ 


* सुरत ( ज्ञोवार्मा ) ओर राधास्वासी ( परमात्मा ) सूल-रुवरूप सें 
अवश्य एक हैं परन्तु विस्तार अथवा सह्दत्ता हे नहीं। सुरत भी प्रेम- 
स्वरूप है, परन्तु राधास्वासी तो प्रेम का सांडार ही है ।+« अगर सुरत 
जल की बूंद है तो परमात्मा समुद्र । जिस प्रकार सागर की पक दूद में 
सागर के सब गुण विद्यमान रहते हैं डसी प्रकार जीवात्मा-में-अी 
परमात्मा के सब गुण विद्यमान हैं, परन्तु कम मात्रा से | 

शाहजादा दाराशिकोद के प्रश्नों फे उत्तर में बाबाजञाल ते भी इस 
सम्बन्ध सें अपना संत बहुत रुपए्ठता के साथ प्रकट किया हैं। दारा- 
शिकोह ने पूछा-- क्या जीवात्सा, प्राण ओर देह सब छाया सात्न हैं १? 
याबालाल ने उत्तर दिया--“जीवात्मा और परमात्मा सूल-स्वरूप सें 
एक समान हैं झोर जीवात्सा उसका एक झ्ंश है। उनके ब्रीच वही 
सम्बन्ध ह जो बंद ओ सिंधु में | जब बंद सिंधु में मिल ज्ञाता है तो 
यह भी सिंधु ही हो ज्ञता ह।”? इससे सी जब दाराशिकोह का पूरा 
समाधान म हुआ तो उसने फिर पुश्ठा--'तो फिर जीवात्मा और 
परमाश्मा में भेद क्या है ?” इसके उत्तर सें बाबालाक ने कहा--- उनसें 
कोई भेद नहीं ह। जीवास्मा को हृष-विषाद की अनुभूति इसलिए होती 
है कि बह पांचभौतिक शरीर के बंधन सें पढ़ा है। परस्तु गंयाजल हमेशा 
गंगाजल रहेगा चादे बह गदी सें बहता हो सथवा घड़े में भरा दो ।& 
इस प्रकार बाक्षाज्षाण्त ने भी अंशांशि भाव को ही अपनाया था । 

परण्तु सानक का इस सस्वम्ध सें क्या सत है, यह साफ-साफ नही 
ज्ञात होता । आत्सा ओर परसात्सा को एक कर दुविधा के निवारण का 
डपदेश उन्होंने सी दिया ह--- 


४४ 





+ वहू भंडार प्रेम का भारी जाका भादि न झत देखात। 
“-सारवचन', भाग $, पृ० २२७ । 
& विल्सद- हिंदू रिलिजस सेक्ट्स', पृ० ३५० ॥ 


१२२ हिन्दी काञ्य में निगुण संप्रदाय 


श्रातमा द्रवे रहे लिव लाई |... 

आतिमा परमातमा एको करे। अंतरि की दुविधा अंतरि मरे ॥+ 

इसके साथ-साथ जब हम इस बात पर ध्यान देते हैँ कि सुक्ति को 
सिख संग्रदायवाले “निर्वाण” मानते है तब यह स्पष्ट हो जाता हे कि अन्त 
में आत्मा ओर परमात्मा अमेद रूप से एक हो जाते हैं ; किन्तु यह 
विदित नहीं होता कि जब तक यह दुविधा 'मरती” नहीं तब तक भी 
आत्मा और परमात्मा में पूर्णाह्षेत भाव रहता है या नहीं । हाँ, उनकी 
सामान्य उक्तियों को तथा उनके भक्ति-भाव को देखने से यही समम 
पढ़ता है कि वे भी जीवात्मा और परमात्मा सें, जब तक जीवास्मा हे, 
अंशांशि सम्बन्ध ही मानते हैं । जड़ सृष्टि के सम्बन्ध में उनकी सम्मति 
भी, जिसका आगे चलकर उल्लेख होगा इसी बात को पुष्ट करती है । 

परन्तु शिवदयाल और वाबालाल के मतों का जो उल्लेख ऊपर 
किया गया है, उससे स्पष्ट हे कि अ्रंशांशि भाववाल्नों में भी साहमत्य नहीं 
है | बाबालाल और नानक तो अंश का अर्थ चस्तुतः अंश लेते हैं। हाँ, 
इतनी विशिष्टता उस अंश में अवश्य होती है कि अंश सें भी अंशी के 
सब गुण वतंमान रहते हैं, यद्यपि कुछ परिमाण में । किन्तु शिवदयात्र 
और प्रायः अन्य सब संत, जो न तो अ्रह्मेत' धारा के अन्तर्गत श्राते हैं 
और न बाबालाल तथा नानक के अनुयायी हैं, अंश का अथ चस्तुतः 
अंश नहीं लेते, बल्कि अंश तुल्य । उनके लिए अंशांशि भाव केवल एंक 
अनुपात की ओर संकेत करता है। परमात्मा के सामने जीव वेसा ही है 
जेसा समुद्र के सामने बूँद | जीवात्मा, परमात्मा के एुंक लघु से लघु 
अश के बराबर है। जीवात्मा के सम्मुख परमात्मा कितना बढ़ा है, 
इसका वर्णन नहीं किया जा सकता | वह जीव का स्वामी और भाग्य- 
विधाता है| जीव, परमात्मा न होकर परमात्मा का है । 








न ग्रथाी, पृ० २५७। 


तीसरा अध्याय १२३ 


इन दोनों मतों में जो भ्रेद हे वह उनके मुक्ति-सम्बन्धी विचारों से 
ओर सी स्पष्ट हो जाता है | नानक और बाबालाल के अनुसार मोत्ष 
होने पर जीवात्मा परमात्मा सें इस प्रकार घुल्-मित्र जाता है कि 
जीवात्मा की कोई अलग सता ही नहीं रह जाती। दोनों में जरा भी 
भेद नहीं रहने फाता । 
परन्तु . शिवद्याल का इृष्टिकोश इससे बिलकुल भिन्न हे | उनके 
मताजुसार मुक्ति होने पर सुरत ( जीवात्मा ) की अलग सत्ता बिलकुल 
नष्ट नहीं हो जाती, हाँ राधास्वामी (परमात्मा) के चरणों में उसे अनन्त 
चिन्मय जीवन अवश्य प्राप्त हो जाता है । वे भी सुरत की उपमा बूँद 
से और राधास्वामी की सागर से देते हैं और इस तरह मोक्ष की आछि 
पर सिंधु ओर बूँद का मिलन मानते हैं । परन्तु बूँ द सिंधु में समाकर 
उसके साथ अभेद रूप से एक नहीं हो जाती। 'समाना? के स्थान पर 
उनके अम्थों सें 'घैसना? क्रिया का भी प्रयोग हुआ है । घसने का तात्पयय 
है किसी वस्तु में प्रविष्ट होकर उसमें अपने लिए स्थान कर लेना | 
शिवदयालजी का मत यह मालूम होता है कि सागर में जलराशि का चह' 
परिमाण जो भाप होकर कभी नहीं उड़ता राधास्वामी हे और जो बू दें 
भतिपल उससे उड़ती तथा उसमें से मिलती रहती हैं, वे सुरत हैं। ये बू दें 
देखने सें तो उस मूल जलराशि में मिल गई हैं, परन्तु फिर भी हस देख 
पावें चाहे न देख पायें, हैं तो वे वहाँ ही । मुक्त सुरत. राधास्वामी के 
साथ सायुज्य-सुख भोगा करते हैं ओर अनन्त काल तक उनकी शरण सें 
विश्राम पाते हैं । धरनी ने भी निम्नोकित रूपक में यही बात कही है-- 
“छुटी मजूरी, भये हजूरी, साहिब के मनमाना |? ( हज्री-हुजूर में 
रहनेवाला, द्रबारी) प्रेम पहेली और तारतम्य के जो श्रवतरण नागरी 
म्रचारिणी सभा की दिरली की खोज (अप्रकाशित) में दिये हुए हैं, उनको 
3 अल दम लत अल पल त लव अ लि त किट कक 2 4 लक 


#3 “बानी, पू० १४। 


मं रे 
१२७ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


पढ़ने से मालूम होता है कि प्राणनाथ के अनुसार भोद्द उस चिंद्र प छोला 
में सम्मिलित होकर सहायक होने का सौभाग्य प्राप्त करना हैं, जिसमें 
'ठाकुर! और 'ठकुराइन! अपने धाम में निरन्तर निरत हैं। यह भी इसी 
बात का सूचक है कि अंत में भी प्राशनाथ जीवात्मा परमात्मा में स्पष्ट 
सैद मानते हैं । 

/ इस प्रकार इस श्रेणी के संतों का भत है कि जीवात्मा की 
घरमावंस्था परमात्मा के साथ समेद मिलन है। अंत तक परमात्मा 
परमास्मा ही रहता हे और भी जीव ही; दोनों का भेद कभी नह 
नहीं होता । 

कबीरें सरश भ्रद्वेतवादी के मतानुसार यह मत आमक है, क्योंकि 
यह पूर्ण ब्रह्म का अपूर्ण स्वरूप है। इसके अबुसार अखण्ड ब्ढ्षा या तो 
इतनी जीवास्माओं में विभाजित हो जांता है या परवढ्ा परमात्मा के 
अतिरिक्त और वस्तुओं ( जीवातमाओं ) की भी सत्ता मान की जाती है 
और इस प्रडार अखणड पूर्ण बढ़ा की अ्रलंडता और पूर्णता स्यवधान में 
पढ़ जाती है । अतएव उनके झनुसार ऐसे संतों की साधना अधूरी है । 
उन्हें अभी अपनी पूर्ण सत्ता का ज्ञान नहीं हुआ हैं, जेसा दावू ने 
कहां है-- ह ् 
खंड खंड करि ब्रह्म॑ को पल पल लीया बाँटि | 
दादू प्रण ब्रह्म हजि बंधे भरम की गाँठि ।।# 
परस्तु स्वयं इन अंशांशि भाववालों के भसुसार मात ऐसी नहीं है । 
थे भी इंस बात की घोषणा करते हैं. कि परमाध्म! भखंड और पूर्ण है 
प्रायनाथं कहते हैं, इश्क जो सब संतों के लिए परंमात्मा का ही दूसरा 
नाम है, अखंड, चिरंतन और नित्य है-'हसंक अखंड हमेशा नित्त (4 


_अलन्‍मन्‍ीक -+जपीजीनेनान 





/#िसनेकन+->+>>नो. 3 कक + 332४५. 3 बममकर. कि: बटन... बल2नरमंफेनम्- 


4 बानी! ( ज्ञानसागरे ), पृ० ११० । 
+ प्रेमपहेली', पृ० ५ ( ज्ोज रिपोर्ट » 





तीसरा अध्याय १२६४ 


जिस प्रकार समुद्र में की कुछ बूदों के भाप बनकर उसमें से उड़ जाने 
से था कुछ और बूदों के उसमें गिरकर मिलन जाने से कुछ अंतर नहीं 
आता उसी अकार परमात्मा में भी जीवास्माशों के वियुक्त अथवा संयुक्त 
होने से कोई अंतर नहीं आता। दो बस्तुएँ केवलावस्था में एक हीकर 
ही एक महीं कहलाती, एक समाने द्वोने से तथा पुक में मित्र जाने 
से भी एक कहलाती हैं । | 

अब प्रश्न यह उठता है कि उस ऐक्यावस्या से चाहे वह किसी 
प्रकार का ऐक्य हो, श्रात्मा और परमात्मा वियुक्त कैसे होते हैं ? 
शिवदयाल ने इस प्रश्न पर प्रकाश डालने के लिए सुरत और राधास्वामी 
के बीच एक संवाद कराया है। सुरत को इसका कारय सममाते हुए 
राधारवामी कहते हैं । ' 

“सुनो सुरत तुम प्रपना भेद | तुम हम थे थीं सदा श्रभेद ॥। 

कांल करी हम सेवा भारी | सेवा बस होय कुछ न विचारी ।। 

तुमकों माँगा हमसे उसने । सौंप दिया तुम्हें सेवा बस में ।। 

सुरत-- सेवा बस तुम काल को; सौंप दिया जब मोहिं । 

तो भ्रब कोन भरोस है, फिर भी ऐसा होय ! ”' 


राधास्वामी- जान बूक हम लीला ठानी | मौज हमारी हुई सुन बानी ॥ 
काल रचा हम समझे बू्क के । बिता कॉल नहिं खौफ जीव के |॥। 
ऋदर धाल नहिं बिना काल के । मौज उठी तब अ्रस दाल के ।। 
दिया निकाल काल को हाँ से | दखल काल अब कभी न हाँ से ।। 
काल न पहुँचे उसी लोक मे । भव न' करूँ ऐसी भौंज में । 
एक बार यहूं मौज जरूर । भ्रब मतलब नही डाली दूर ॥ 
तू शंका मत कर भ्रव चित मे । चलो देश हमरे रहो सुख मे ॥& 


इसके अनुसार अपनी 'मौज' श्रथवा क्षीक्षामयी स्वतंत्र इच्छा के 





4 सारबंजनं, भाग १, ४७-४२ । 


१२६ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


कारण राधास्वामी ( परमात्मा ) सुरत ( जीवात्मा ) को अपने से वियुक्त 
कर कालपुरुष ( यम ) को सौंप देता है ; अन्यथा जीव दयाल की दया 
के महत्व को नहीं समझ पाता । इसी दया के महत्व को प्रकट करने के 
उद्देश्य से कालपुरुष की भी रचना हुई है । जब सुरत को दयाल की 
दया का महत्व मालूम हो जाता हे, तब वह काल के फंद से छुड्ा 
लिया जाता है और उसे फिर परमात्मा के शाश्वृत्‌ समागम का सौभाग्य 
ग्राप्त हो जाता हे । 
आय; सभी धार्मिक दशनों में वियोग का यही कारण बतलाया 
जाता है । विशिष्टाह तियों तथा भेदामेदियों के लिए यह वास्तविक 
कारण हे ओर इस संबंध में चह उनकी जिज्ञासा की भी शांति कर देता 
है । परन्तु अरद्व तवादियों के अनुसार तो वियोग भी केवल एक व्याव- 
हारिक सत्य है। पारमार्थिक रूप सें तो कमी वियोग हुआ ही नहीं था 
इसलिए वियोग का यह कारण भी व्यावहारिक ही हो सकता है । 
इसका उपयोग केवल उन्हों लोगों को समझाने के लिए किया जा सकता 
है जो अभी अज्ञान के आवरण को नहीं हटा पाये है | 
केवल जीवात्मा हीं नहीं, परिचतनशील तथा नाशवान्‌ जड़ पदाथ 
/ भीजों आत्मा के आवरण का काम देता है और 
६, जीवात्मा बाह्य जगत का निर्मायक है, परमात्मतत्व के घेरे के 
ओर जड़ जंगत्‌ू बाहर नहीं। “जहँ देखो तहँ एकोएक” का यह 
एक दूसरा स्वाभाविक परिणाम है | जब सब कुछ 
हो परमात्मा हे तब जड़ पदार्थ को ही केंसे कह सकते हैं कि यह पर- 
मात्मा नहीं | परन्तु इस संबंध में भी के रे' इन संतों में तीन प्रकार 
की विचारधाराएं दिखाई देती हैं। कबीरें आदि पूर्णाद् ती तो विंवत- 
वाद के समर्थक हैं | उनके अनुसार दृश्य जगत का मूल श्रधिष्टान भी 
परनहा ही हे। परबह्म ही एक मात्र सत्तत्व है जिसके ऊपर नाम और 
रुप का अध्यारोप होता हे । श्रत्नचदय परअह्म हो मायाविष्ट जनों को जच्य 


तीसरा अध्याय... १२७ 


जगत्‌ के रूप में दिखाई देता हे। परन्तु जो कुछ दिखाई देता है वह 
चस्तुत: सत्य नहीं, वह अज्ञान और अम के कारण दिखाई देता है और 
सवधा मिथ्या हे । 
सृष्टि साँदय को देखकर कबीर के मन में जो विचारधारा उठतो 
है वह इस बात को पूर्ण रूप से पुष्ट करती है-- 
कहो भाई अभ्रबर कॉसू लागा। कोइ जाणेगा जानन हारा । 
अंबरि दीसे केता तारा। कौन चतुर ऐसा चितरन हारा || 
जो तुम देखो सो यहु नाही। हैं यह पद अ्गम अभ्रगोचर माही ।# 
तारों से जगमगाता हुआ सुन्दर नीलाकाश जो विधाता रूप चतुर 
चितेरे के निर्माण-कोशल का प्रमाण है, वह जेसा दिखाई देता हे कबीर के 
लिए बसा नहीं हे, वह भी गम्य और गोचर होने पर भी अगम श्रगोचर 
के अंतर्गत है | दादू ने भी निम्मलिखित पंक्तियों में यही बात कहो है-- 
मन रे तू देखें सो नाही । है सो अ्रगम भ्रगोचर माही ॥। 
निसि अंधियारी कछ न सूके, ससे सरप दिखावा। 
ऐसे भ्रँंध जगत नह जाने, जीव* जेवड़ी खावा ॥> 
इसी प्रकार सुन्द्रदास भी कहते हैं-- 
मृत्तिता समाइ रही भाजन के रूप मारहि 
मृत्तिता को नाम मिटि भाजन ही गद्यौ है । 
सुन्दर कहत यह योही करि जानो 
ब्रह्दा ही जगत होय ब्रह्म दूरि रह्यौ है ॥८ 
ब्रह्म ही के मायाविष्ट जनों की श्राखों में जगत्‌ का रूप धारण 
करने से ब्रह्म उनकी आँखों से छिप रहा हे । 


है? कृ० ग्र॑ं०, पु० १३४३, ४२१ ॥। 
>* सं० बा० सं०, पूर, पृ० १००। 
न्‍ै सुन्दर बिलास, अंग ३४, ४॥ 





श्र्ष हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


इस प्रकार जगत विशिष्ट अर्भ में सरय और मिथ्या दोनों हे | जिसे 
मूल तत्व पर शाशवानू मास और रूप का अध्यारोप होने से जगत्‌ 
दिखाई देता है, उसके सत्य होने के कारण जगत्‌ सत्य हैं; परन्तु उस 
मूल तरव के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान में चिश्लेत्त डालने के कारण यह 
इश्य जगत भूठ हैं । 

एक दूपरे अर्थ में भी जगत्‌ सत्य है। जब तक इस अजश्त के 
झं।वरण को हद! नहीं पाते हैं सब तक जगत्‌ हमारे लिए वास्तविक हू । 
जगत्‌ के बम्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति ज़गात्‌ को मिथ्या कहे, बह 
फबता नहीं, ब्यवहार में वह सत्य ही है । इस व्यावहारिक सत्यता को 
समझाने के लिए श्रद्टोतियों ते माया के सिद्धांत को' स्वीकार किया है । 
परन्तु साथ ही शरह्व त सिद्धांत कौ हु ते थे। मल से बचाये रखने के लिए 
माया के अस्तित्व को उन्होंने सिद्धांत रूप से अरवोकार कर दिया है । 
इसी लिए माया को कबीर ने ते विद्वाही गाय का दूध, खरगोश के सींग 
का नाद और बंध्या के पुत्र का रमण बसक्ाया है |--- 
५ भाँगरि बेलि प्रकासि फल्त, प्रणव्यावर का दूध । 
 ससा सोग की धनहड़ी, रमे बॉँक का पूत 

परन्तु ध्यावहारिक सेत्र में माया का निरसम हु जड़ा कठिन काम । 
परमार्थश। उसके सत्य म होने पर भी व्यधहारत) जीव को बह ऐसे 
जकड़े रहती हैं कि उससे मुक्त होना दुष्कर है। देखने में पेसा का सकता 
है कि साया मर गई है, किंतु चह सूचम रूप धारण किये हुए अपना 
अवसर देखती रहती है और लज् उसके प्रकट होने फी झाशा नहीं रहती 
है इस समय प्रकट हो ज्ञाती ह--- 

भ्ब तो ऐसी हू पड़ी ना तंब्ड़ी न ब्रेलि। 

जालण आशणी खाक़ड़ी ऊठी कपल मेहिह॥ 

“-क ० ग्र० पृ० ६ 





क क० ग्रें०, पृ० ८६, ४। 


तीसरा अध्याय १२६ 


"व्यक्त होने के लिए. अव्यक्त को माया का आवरण घारण करना ही 
पड़ता हे । इसकी आवश्यकता तभी तक है जब तक कि जिशहासु साधक 
को ज्ञान के लिए मनःभ्रेरित इंद्रियों पर अवर््नबित रहना पड़ता है परल्तु 
जब वह इंद्वियों के ऊपर उठ जाता हे तो इंद्रियातीत अव्यक्त का यह 
आचरण अपने आप हट जाता हे | 


सृष्टि-विज्ञान का दाशनिक दृष्टि से सर्वोत्तम विवेचन सांख्यशास्त्र 
सें हुआ है। सांख्यद्र्शन स्पष्ट ही हू त को लेकर चला है; परन्तु व्यव- 
हार ही में सही चेदांत को भी उसे अंगीकार करना पड़ा है। हमारे 
(निगुण संत् संतों ने भी समस्त सांख्य-ह्ञान को अपनी विचरधारा में मित्ा 
लिया है । संख्य की संख्याश्रों का उनकी कविताओं में बर।बर सामना 
होता है। तीन” 'पाँच” 'पचीस” पद-पद पर दिखाई पढ़ते हैं | इनसे 
अशभिप्राय सत्‌, रजस्‌, तमस्‌ तीन गुणों, एथ्वी, जल, श्ररिनि, वायु, आकाश 
पंचतत्वों और पचीस प्रकृतियों से हे जिनमें ऊपर कहे गये तीन गुण 
आर पाँच तत्वों के अतिरिक्त शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, पंच तन्मात्राएँ, 
इनका ज्ञान करनेवाली पंचेन्द्रियाँ ओर मन, चित्त, बुद्धि, अहंकोर, मह- 
तत्व तथा प्रकृति ओर पुरुष सम्मिलित हैं जगत इनसे बना है अवश्य 
पर व्यवहार मात्र सें, वस्तुत: नहीं ; क्योंकि परमाथत; तो जगव है ही 
नहीं | अतएंव तीन, पाँच, पचीस की भी वास्तविक सत्ता नहीं है । सष्टि- 
क्रम का वर्णन करते हुए संदरदास को अश्शंका हुई कि उनके शिष्य 
इनको सत्‌ न मान लें इसलिए, उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि 
वे “मिथ्याः तथा “अ्रम-जाल'” माज्न हैं-. 


ब्रह्म ते पुरुष भ्ररु प्रकृति प्रकट भई प्रकृति ते महत्तत्व अहंकार है । 
ऐसे अनुक्रम से सिस्थन सों कहत सू दर यह सकल मिथ्या श्रमजार है ॥& 








$& सुंदर विलास | 





१३० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


कबीर सी कहते हैं-- “नहि ब्रह्मांड, 
प्यंड पुनि नाही पच तत्त भी नाही ।+- 
_नहिं तन, नहि मन, नहि अ्रहका रा, 
नहिं सत रज तम तीनि प्रकारा ।+ 
कबीर जब बिना धड़ के एक बृत्ञ का वर्णन करते हैं जो बिना फूले 
फलता है जिसकी न शाखाएँ हैं न पत्तियाँ, फिर भी जो आठों दिशाओं में 
फेला हुआ है ( अथवा जो पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश, मन, 
चित्त, अहंकार के द्वारा फेला हुआ है ), तो उनका अभिप्राय विश्व से 
ही रहता है ।& एक दूसरे पद सें उन्होंने वृत्त को अनंत-मूर्ति तथा 
अनंत-वाणि कहा है। बिना फल-फूल के भी अ्रमर ( जीवात्मा ) 
बाल्यावस्था से ही उससे अनुरक्त रहता हैं। इस अ्रमर को वास्तविक 
फल तब आप्त होता है जब बह्ारंध्र में सहज-समाधि के द्वारा एथ्वी, जल 
आदि तत्व सोख लिये जाते हैं ओर पेड़ अद्श्य हो जाता है |-- 


इस बृत्त की असत्यता भगवद्गीता की अश्वत्थ भावना के सर्वथा 


३७ ०नकमे'रपाथकाओ 





किक० ग्रं०,प०, ९८, ३२। 
५ वही, १० १००, ३८ | 
9 तरवर एक पेड़ बिन ठाड़ा, बिन फूलां फल लागा। 
साखा पत्र कछू नहि वाके, अष्टगगन मुख बागा ॥ 
““के० ग्रं०, पू० १४३, १२५। 
- तरवर एक ग्रनंत मूरति सुरता लेहु पिछाणी | 
साखा पेड फूल फल नाही, ताकी अ्रमृत वाणी । 
पुहुप वास भंवरा एक राता बारा ले उर घरिया । 
सोलह मंझे पवन्त भकोरे आकासे फल फलिया। 
सहज समाधि विरिष यह सीच्या, धरती जलह सोष्या । 
“हीं पृ० ६४३, १६६ | 


तीसरा अध्याय १३१ 


अनुछझूप ह जिसका श्रीकृष्ण ने पंद्रह अध्याय के आरम्भ में चर्णन किया 
है ओर विरक्ति के कुठार से जिसे काट डालना आवश्यक बतलाया हैं। 
गीता के अश्वेत्थ के समान कबीर के इस तरुवर की जड़ें ऊपर ओर 
शाखाएं नीचे नहीं बतायी गयी हैं, परन्तु इससे इन दोनों सें कोई विशेष 
अंतर नहीं आता | कठोपनिषत्‌ का अश्वत्थ जो पूर्ण बह्म का स्वरूप होने 
के कारण सत्य माना गया है अद्वेत्ियों के मतालुकूल न होकर भेदा- 
भेदियों तथा विशिष्टाह्न तियों के मतानुकूल है। तुलसीसाहब ने भी इस 
जगत्‌ को एंक उल्लटा वृत्त बताया हे, यद्यपि अपने सिद्धांत के विपरीत वे 
उसे असत्य नहीं बना सकते थे । उनका सिद्धांत कठोपनिषत्‌ के अनुकूल 
जान पड़ता ह। इस बृह्त की जड़ ऊपर ओर डाली नीचे बताने से अभि- 
प्राय यह हे कि परबह्म ही उसका मूल हे ।३८ 


वास को ववीय 5 को कबीर आदि अद्व ती, अह त चेदांत की ऐनकों से _ 
देखते थे,। सांख्य पुरुष ओर प्रकृति दोनों को भिन्न तथा श्रनादि अनंत 
ओर नित्य मानता हूँ। परन्तु यह बात इन संतों के सिद्धांत के अनुकूल 
न थी। सांख्य का सिद्धांत भी सवंधा गलत न था। जहाँ दक उसकी 
गति ५ हाँ तक बह ठीक है, परन्तु पूर्ण ज्ञान तक उसकी पहुच 
नहीं हैं। अतएंव शंकराचाय के अनुयायियों की भाँति कबीर आदि निग- 
णियों ने भी सांख्य-सिद्धांत का उपयोग किया परन्तु उसपर अद्ठ त की 
छाप लगाकर प्रकृति ओर पुरुष को भी उन्होंने व्यावहारिक सत्य के रूप । 
में अहण किया ओर उनके संयुक्त रूप को ब्रह्म का व्यावहारिक व्यक्त- ! 


सखूप आाजा,) जिसके परे अव्यक्त पूर्ण बह का स्थान था। चहाँ पर इस- जिसके परे अव्यक्त पूर्ण बह्य का स्थान था। यहाँ पर इस 


>६ दरक्खत एक हैँ उलटा। 
कधी होब॑ नही सुलठा | 
अ्रगर बह पेड़ अड़बड़का । 
तले डाली अ्रधर जड़ का ।॥ “- रत्नसागर , पृ० १७४। 


० कि. ५ 
१३२ 'हिन्दो काव्य में निगुंण संप्रदाय 


बात पर ध्यान देना आवश्यक हे कि पहले संतों ने निरंजन को भी जिसे 
कुछ पिछले संतों ने परब्रह्म का एक चिचत माना हे, पूर्ण ब्रह्म के पर्याय 
के रूप में महण किया था । 

॥ / बहा का पहला विचत प्रणव, ४? अथवा शब्द अह्म हे जिसमें पुरुष 
(और प्रकृति, व्यक्त ओर अव्यक्त, ईश्वर और माया दोनों समाहित हैं । 
प्रणव का अव्यक्त स्वरूप बिंदु हे ओर व्यक्त स्वरूप नाद। अव्यक्त रूप 
में वह गणित के बिंदु के समान है जिसक्ता अस्तित्व तो हैं पर माप 
नहीं । इस बात को तो सब जानते हैं कि रेखागरित के सब आकार 
बिंदुओं की वृद्धि से ही बनते हैं।नाद अथवा इच्छा या मौज का 
प्रकंपन ही एक चिंदु को अनेक में परिणत कर विश्व-खजन का कारण होता 
है। नाद के प्रकंपन के सिसिट कर बंद हो पर यह' समस्त सृष्टि भी 





सिमट कर बिंदु में समाविष्ट हो जाती है॥ भीखा को उपदेश देते हुए 
गुलाल जी ने कहा था--- 


इच्छा पलक मूदि जब लीन्हा । तब सब प्रलय आपुही कीन्‍्हा । 
फिर विस्तार करे जब चाहा। माया दृष्टि खोलि जग लाहा ॥।& 
इसी बात को दाद ने दूसरी तरह से यों कहा हे-.- 
एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ ।न- 
यह हमारे यहाँ के प्राचीन सिद्धांतों के अनुकूल जान पड़ता है | 
भतृ हरि के वाक्य पदीय के अनुसार भी आयंतहीन शब्द तत्व अक्षर 
अह्य ही अर्थ भाव से विचर्त अहण करता है | इसी से जगत की प्रक्रिया 
होती है | मल के अनुसार भी भूतों के नाम, रूप और कर्मों का , 


$ महात्माओं की बानी, पृ० २०३, 'गूलाल गुल? । 
ने बानी, प्रथम, पृ० १६६९, १० । 
» अनादि निधन ब्रह्म शब्दतत्व यदक्षरं । 

विवर्तेथ भावेन प्रक्रिग जगतो यत. ॥ वाक्य पदीय । 








तीसरा अध्याय १३३ 


प्रवर्तन ये चेद-शब्दों से ही एथक्‌-एथक्‌ रचे गये | तेत्तिरीय के अनुसार 
बह्म के 'भू? उच्चारण करने से ही पएथ्वी की सृष्टि हो गई ।-+- 

इसाइयों के धर्म ग्रंथों में भी इस सिद्धांत का उल्लेख मिलता ह। 
मूसा के उत्पत्ति प्रकरण ( 'जिनेसिस” ) अध्याय १ में, लिखा हर 
“इंश्वर ने कहा, प्रकाश” हो जाय और श्रकाश हो गया |?” इत्यादि 
इत्यादि । यदि इसके साथ-साथ संत योहन की किताब का नीचे लिखा 
वाक्य पढ़ा जाय तो सेरा अभिप्राय ओर भी स्पष्ट हो जायगा । आरंभ 
सें शब्द था, शहद इेश्वर के साथ था, शब्द ही इेश्वर था। आदि में 
वह ईश्वर के साथ था | सब चस्तुएँ उसी ने बनायीं । कोई चस्तु ऐसी 
नहीं बनी जिसे उसने न बनाया हो, ( अध्याय १-१, २, मे 2 सुसल- 
मानों का यह विश्वास भी कि खुदा के 'कुन! कहते ही सारा विश्व 
आकाश में कूल पड़ा, इसी सिद्धांत की ओर संकेत करता है। निगुण 
| संप्रदाय के सभी संतकवि सारतः नाद ओर चिंदु के सिद्धांत को जिसे 
वेदांव की शब्दावली सें स्फोटवाद कहते हैं, मानने में एंकमत हैं, 
यद्यपि इस विषय का स्पष्ट उल्लेख किसी-ही-किसी की कविता में मि्रता 
है ।& भेद इतना ही हे कि ओर सब संत इन सब बातों को वस्तुतः 
सत्य मानते हैं परन्तु कबीर आदि अह्ू तवादी संत केवल व्यावहारिक दृष्टि 


न्‍ै नाम रूप चा भूताना कर्मणा च प्रवर्तन । 
वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक्सस्थाइच निममे । 
लत ३ ३९) 

-+ समभूरिति व्याहरत्स भूमिमसूजत्‌ | 

“-तैत्तिरीय ब्रा० २, २, ४, २। 
तैत्तिरीय ब्राह्मण में श्रागे बढ़ते जाइये। इस भाव का विशेष 

विस्तार मिलेगा। 

क क० ग्रें० पु० ६४, ९८ ॥। 


१३१७ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


में । पारमार्थिक दृष्टि में उनके लिए उनका अस्तित्व ही नहीं है । परंतु 
दार्शनिक दृष्टि से फिर भो उनका कम महत्व नहीं हे। वस्तुतः थे ही 
इस सागर से पार होने के लिए उस नौका का काम देते हैं, जिसको 
राम खेते हैं... 
ताद व्यद की नावरी राम नाम कनिहार। 
कह कबीर गुरा गाइले गुर गम उतरे पार ॥८८ 
» / अपनी भूमिका विशेष सें--और भूमिकाओं का श्रन्यत्न वर्णन 
करेंगे-- समस्त सृष्टि प्रणव का शरीर हे ओर प्रणव, समस्त सृष्टि का 
आत्मा । न इस आत्सा के बिना माया का ही अ्रस्तित्वः रह सकता हे 
ओर न माया के बिना अच्यक्त व्यक्त ही हो सकता है । इस भूमिका सें 
भणव, सृष्टि का कर्ता तथा उपादान दोनों एक साथ है, परन्तु यह बात 
प्रशव ही तक के संबंध सें कही जा सकतो है । इससे आरे बढ़कर अगर 
हम यह सोचने लगे कि परमार्थतः परमात्मा जगत का कर्ता है तो यह 
हँत भावना के आगे सिर कुकाने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता 
हे, जो कबीर आदिकों को अभीष्ट नहीं । डनके मतालुसार तो मनुष्य 
कुछ करता धरता हो नहीं है । यह तो केवल कहने-सुनने की बातें हैं कि 
परमात्मा ने जगत्‌ की रचना की हे । स्व कबीर. के शब्दों में--- 
कहन सुनन को जिंहि जग कीन्‍न्हा। 
जग भुनान सो किनहुन चीन्‍्हा ।॥॥& 
ते तो आहि निरजना आंदि अ्रनादि न आन । 
कहन सुनन को कीन्ह जग आप श्राप भुलान ॥॥न॑ 
अत्व परमात्मा का विव्त रूप में नीचे उतरना ही द्श्य जगत का 


(लटक ++ अर +कट पाक " 








नाक ग्र०, पू० ६४, १८॥। 
9 क० ग्रं०, पृू० २२५ । 
+ वही, पृ० २२७ | 


तीसरा अध्याय १३४५ 


काहण है। जेसा हम देख चुके हैं, बह्म का प्रथम विवर्त प्रणव, डैं अथवा 
शब्द अह्म है। यहाँ से ओर नीचे उतरकर पंच तत्व मन, चित्त, अहंकार, 
के द्वारा हम' शरीर ओर जड़ जगत्‌ तक पहुँचते हैं । दादूदयाल- के 
शब्दों सें-. 
पहली कीया आप थे उत्पत्ती *# कार। 
ई* कार थे उपज पंच तत्त आकार।॥॥ 
पच तत्त थे घट भया, बहु बिध सब विस्तार । 
दादू घट ते ऊपजे, में ते बरण विचार ।॥। »< 
कबोर ने भी कुछ ऐसा ही कहा हे-- 
कारे जग ऊपजे बीकारे जग जाय ।< 
एक बिनानी रच्या विनान; भ्रयान जो आपे जान | 
सत रज तम थे कीन्ही माया; चारि खानि विस्तार उपाया ॥ 
पंच तत्त ले कीन बंधान; पाप पुन्नमि समान अभिमान। 
अहकार कीने माया मोहू, संपति विपत दीनि सब कोह ॥& 
जहाँ तक मुझे पता है, इन संतों ने बहुधा यह बताने की चेष्टा 
नहीं की है कि तत्वों की उत्पत्ति किस क्रम से हुईं है | परन्तु गुलाल जी 
ने सुद्राओं का वर्णन करते हुएँ सीखा जी से पंचतत्वों की उत्पत्ति का 
बड़ा रोचक वर्णन किया है। उन्होंने कहा, जब परमात्मा ने सृष्टि रचने 
की इच्छा की तो बिना मिद्दी के काम चलता न देखकर मिट्दी ( एथ्वी ) 
उत्पन्न की | लेकिन मिट्टी के गीले न होने से उसे रूपाकार सें ढाला 
नहीं जा सकता था इसलिए कतो ने जल की इच्छा की | अधिक जल 
मिल जाने से मिट्टी ढीली हो गहे जिससे वह किसी एंक रूप सें ठहर 


>६ सं० बा० स०, १, पृ० ७७, ७५। 


कं० ग्रं०, पृ० १२६, १२७ 
वही, पृ० २२९ ॥ 


 «[* 





१३६ हिन्दी काव्य में निर्गण संप्रदाय 


न सकी, इसलिए उसको स्थिर करने के लिए गरमी ( तेज ) की जरूरत 
हुईं जिससे अग्नि पैदा की गई । किन्तु अग्नि अज्ज्वलित न होतो थी 
इसलिए चायु की आवश्यकता हुईं । परंतु अचंड वायु भी थमी नहीं 
इसलिए आकाश का निर्माण हुआ जिससें शब्द ओर पवन दोनों घुल- 
मिल गये हैं ( आँखों से आकाश और वायु की अलग-अलग पहचान 
नहीं हो सकती । ) आकाश में पाँचों तत्वों का निवास हे ।& 

परंतु दादू के बचन, रचना में किसी भी ऋ्रम को मानने के विरोधी 
जान पड़ते हैं। उनके अनुसार परमात्मा इतना असमर्थ नहीं है कि 
उसे एक-एंक करके तत्वों की सृष्टि करती पड़ी हो । उसके शब्द से सारी 
सृष्टि एकद्स उत्पन्न हो गई ।+ 


$& करता सृष्टि करन जब लागो। तब माटी बिनु काम न जागो ॥ 
इच्छा माटी तेहि छिन झ्राई । मूल पुहुमि मुद्रा समुझाई ॥। 
माटी भूरि पिड नहिं बनई | कियो अक्षर ते हिंत भई ? ॥ 
जल अ्रधिकार माटि मिहि लाई । दूजे अपि मुद्रा कहवाई ॥। 
माटी ढील पिड नहिं बने । हरि को मौज तेज तब गने।। 
तेज प्रवेश पिड बनि आओ्ो। तीजे मुद्रा तेज कहाओो ॥। 
अग्नि प्रज्ज्वलित होय नहिं ऐसे । मन बुक्ति उठो पवन तब तेसे ॥॥ 
भयो प्रकाश पवन संग लहियो । चौथे वायु मुद्रा सो कहियो ॥ 
वायु अपर्बल थामि न जाई। मौजे मौजि श्रकाश बनाई ॥। 
शब्द पवन तहूँ मिश्रित भयऊ । पँचये भ्रकाश मुद्रा सो लयऊ ॥ 
पाँचौ बसे अभ्रकाशें माही। भिन्न-भिन्न स्थान के माही ।। 
भीखा मुद्रा यहि बिधि भयऊ । धारन तेहि जिन आगे लयऊ ॥ 








“-चय० बा० १० १९२॥। 
पर सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ। 

गे पीछे तो करे जे वतहीणा होइ॥ 
“जानी, १ मंपृ०, १९८, १०। 





तीसरा अध्याय १३७ 


४ » इस प्रकार ब्रह्म से प्रणव, अरणव से महत्त्व, वहाँ से मन, अहंकार 
आदि विवत होते जाते हैं। प्रत्येक नीचे भूमिका पर उतरने पर नये 
बंधन जकड़ते चलते हैं ओर माया के आवरणों की तह मोटी होती चल्ली 
जाती हे; यहाँ तक कि अंत सें मूल वस्तु ही हमारी दृष्टि से ओमूल हो 
जाती है। माया के इस स्थूल आवरण को भेद कर वहाँ तक पहुँचने में 
हमारी दृष्टि असमथ हो जाती हे। परंतु मूलतत्व तो उसके अंदर रहता ही 
है। हमारी वास्तविकता अभी भी नष्ट नहीं हुईं है । अगर कहें तो कबीर 
के शब्दों में कह सकते हैं, “आपे आप भझुलान! | हम अपने भुलावे में 
आप ही पड़ गये हैं। इस अकार एक तरह से यह जगत्‌ हमारी ही इच्छा 
का फल है, अ्रपनी ही इस लीला को भूलकर अब हम इस भ्रम में पड़े 
हुए हैं । उस प्रारंभिक क्रीड़ापूर्ण इच्छा ने अब मन का रूप घारण कर 
लिया है। इसी से कह सकते हैं कि यह जगत्‌ हमारे ही मन की परद्धाई 
है । इसीलिए कबीर ने कहा था-- 
जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा। ताक्‌ तैसा कीन उपावा ॥& 

सुंद्दास भी कहते हैं --सूदर यह सफल दीसे मन ही के भ्रम, 
मन ही के भ्रम गये ब्रह्म होइ जात हैं ।+ हस अपनी आँखों पर रंगोन 
चश्मा चढ़ाये हुए हैं जिससे मूल वस्तु का यथातथ्य रूप इष्टिगत नहीं 
होता, बल्कि उसका अवास्तविक रंगा हुआ! चित्र हमारे सामने खड्दा हो 
जाता है जिसे हम भूल से सच समझने लगते हैं | ये रंगे हुए आवरण 
सब ऊठे हैं जसा दादू ने कहा है ऊंकार भी सत्य परमतर्व नहीं है ।--- 

आदि सबद श्रोकार है, बोले सब घट माहि । 
दादू माया बिस्तरी, परम तत्तु यह नाहि ॥८७ 


$ क० ग्र ०, पृ० २२७ । 
+ सुन्दर विलास, अंग ११, २५। 
# बाती, प्र, प० २००, १२। 


१८ हिन्दी-काव्य में निगुंण संप्रदाय 


अपने आपको इन आवरणों में छिपाकर हम अपने आप भूले हुए 
हैं-आप आप झुलान |» कबीर ने स्थिति को और भी स्पष्ट करने के 
लिए कहा हे--.. ड् 

भूठे झूठ वियापिया ( कबीर ), अलख न लखई कोइ। 

भूठनि झूठ साँच करि जाना, भूठनि मैं सब साँच लुकाना ॥< 

भूठ में छिपे हुए इस सत्य का, असत्य के आवरण में छिपे हुए 
इस सत का अनुभव करना, ढूंढ निकालना ही निगंण संतों का परमोदिश्य 
है। अनुभव की इस ऊँचाई पर पहुँचने पर व्यक्त जगत्‌ का सारा महत्व 
विल्लीन हो जाता हे, द्वष्टा को चह एक बीते हुए स्वप्न की भाँति भान 
होने लगता है। उसकी अस्थिरता उसे स्पष्ट हो जाती हे, वह अलुभव 
करने लगता है। 


सॉाँच सोइ जो थिरह रहाई | उपजे बिनसे भूठ हूँ जाई ॥ ४५ 

इसी अनुभूति ने कबीर से कहलाया था--- 

साधो एक आप जग नाही । 

दूजा करम भरम' है किरतिम, ज्यों दरपन में छाही +- 

संसार सें एक के अतिरिक्त ओर सब दर्पण सें की परछाई की तरह 
कृत्रिम है। लेकिन जो कृत्रिम है. वह भी अधिष्ठान ( मूल वस्तु ) की 
सहज सत्ता को छीन नहीं सकता--- 
दरियाव की लहर दरियाव है जी दरियाव और लहर मे' भिन्न कोयम्‌ ९ 
उठो तो नीर हे बंठो तो नीर है कहो दूसरा किस तरह होयम ? 

> क० ग्र०, पृू० २२७ । 

- वही, पृ० २२६। 

५ बही पृ० २३२ । 

न क० श०, १, पृ० ६६ | 


तीसरा अध्याय २३६ 


उसी नाम को फेर के लहर धरा लहर के कहे क्या नीर खोयम्‌ ! 
जगत ही को फेरि सब जगत और ब्रह्म मे ज्ञान करि देखि कबीर गोयम्‌ ! & 

भीखा ने, भी कहा है--- 

नाम' एक सोन आस गहनता द्ेत भास ।+ 

अव्यक्त नित्य एकरस रहता है यद्पि व्यक्त में सतत परिचतन दिखाई 
देता है। नाम और रूप का उदय अव्यक्त ही से होता हे ओर अव्यक्त ही 
में वे लीन हो जाते हैं । सुन्दरदास स्पष्ट शब्दों में कहते हैं--- 

सुन्दर जाने ब्रह्म मे ब्रह्म जगत हे नाहि | 

इस कार धीरे-धीरे अपने अह् तवाद के द्वारा वे आदर्शवादी 
सर्वात्मवाद के उस उच्चतम शिखर पर पहुँच जाते हैं जहाँ जाकर सब 
कुछ ब्रह्म ही हो जाता है। 'सर्व खल्विदं ब्रह्म कहने में थे भी छांदो- 
ग्योपनिषत्‌ का साथ देते हैं। सुन्द्रदास के शब्दों में--- 

ब्रह्म निरीह निरामय निगुण नीति निरंजन और न भासे। 

ब्रह्म अ्रखंडित है अध ऊरध, बाहर भीतर ब्रह्म प्रकाश ॥ 

ब्रह्महि' सूछुम थूल जहाँ लग, ब्रह्माह साहब ब्रह्महि दासे। 

सुन्दर और कछ मति जानहु ब्रह्महि देखत ब्रह्म तमासे ॥> 

सब कुछ ब्रह्म तो हे पर केवल तत्वतः उस रूप में नहीं जिस रूप 
में वह दिखाई देता है, क्योंकि जो कुछ दिखाई देता है मायाक्ष॒त है, 
मिथ्या है । 

कबीर आदि विवतचादियों ने जिस दृश्य जगत्‌ को केवल व्यावहा- 
रिक रूप में सत्य माना है उसे हमारे अन्य संत कवि वस्तुतः सत्य 


4 क० श०, ४, पूं० ८५६ ६० । 
न॑- सं० बा० सं०, रे, पृ० २१३ । 
न्‍5 वही, १, पृ० ५१०८। 

» सुन्दर विलास 


१४० हिन्दी काव्य में निग॒ण संप्रदाय 


मानते हैं। उनके लिए विवत, विवत न होकर विकास है। उनके अनुसार 
सष्टिरवना-क्रम केवल कहने-सुनने भर का नहीं, वास्तविक है। जहं 
जगत्‌ भ्रम मात्र नहीं, त्रिगुण पंचतत्व, पच्चीस प्रकृति आदि की व्यावहा- 
रिक सत्ता ही नहीं, वास्तविक अस्तित्व हे, जेसा सांख्यशाखर में माना गया 
है । वे यथानियम उदय और नष्ट होते हैं । हाँ, इन नियमों का उन्होंने 
स्पष्ट वर्शन नहीं किया है । एक स्थान पर शिवदयात्र जी ने तत्वों की 
उत्पत्ति निम्नलिखित क्रम से मानी हे--आकाश, पवन, अग्नि, जल 
ओर प्रथ्वी । प्रत्येक नवीन तत्व का उदय उन्होंने पुराने तत्व से माना 
है | यह ठीक तत्तिरोयोपनिषद्‌ के अनुकूल हे जिसमें लिखा है, तस्माद्वा 
एतस्माह्वात्मम आकाश सभूतः झराकाशाद्वायु: वायोरग्नि श्रग्नेराप. 
प्रदभ्य: पृथिवी 9 प्रल्लय का वर्णन करते हुएं शिवदयाल जी ने इससे 
उलटे क्रम से स्थूल का सूचम में लीन होता जाना कहा है--- 


पृथ्वी घोली जल ने आय । जल को सोखा अगिनी धाय ॥ 
अगिनी मिली पवन के रूप । पवन हुई आकाश स्वरूप ॥ 
ग्राकाश समाना माया माहि। तम रूपा दीखे कुछ भी नाहि ॥-+- 


इन लोगों के अनुसार भी विभु की लीलामयी इच्छा ही सृष्टि का 
भूल कारण है ओर माया का सूच्मतम रूप है। शिवदयात्ञ जी के 
शिष्य रायसाहिब शालिग्राम ने कहा हे--म/ज उठी रचना भई 
भारी ।%_ नानक कहते हैं. कि परमात्मा ने जगत्‌ की रचना स्वयं की 
ओर स्वयं सृष्टि-पदार्थो का नामकरण किया। अपनी कुदरत ( साया ) 
से इस हु त सृष्टि को बनाकर वे आनद से उसे देखने लगे--- 

९ तैत्तिरीय, २, १ । 

+ सारवचन, २, पृ० हे४ | 

» प्रेमबानी, पृ० ५४, २। 


तीसरा अध्याय १४१ 


आपिने आपि साजियो, आपिने रचिश्रो नाऊ। 
दुद कुदरति साजिश्रो; करि आसन दिठो चाउ ॥४8 
इससे पता चलता हे कि नानक भी परमात्मा की आरंदेच्छा को ही 
सृष्टि-खजन का मूल कारण मानते हैं जो 'एको5हं बहु स्थाम? सें निहित हे । 
इन संतों की दृष्टि में भो माया मिथ्या है परन्तु स्धा अभाव 
अथवा अनस्तित्व के अर्थ में मिथ्या नहीं जेसा विवतंबादी अद्ठ तिंयों की 
इृष्टि सें होता, परन्तु परिचतनशील ओर नाशवान्‌ होने के अथ सें । नहीं 
तो माया का वास्तविक अस्तित्व है, सृष्टि नाशवान्‌ हे सही, पर उसे 
अनस्ति नहीं कह सकते । इसी से नानक ने जहाँ एक ओर कहा हे-- 


जो कुछ दी से सकल बिनासे ज्यों बादल की छाही । 
जनू नानक यह जग भूंठा रहो राम सरनाही ४॥+॑- 
तथा-- 
न सूर ससि मडलो । न सपत दीप नह जलो | 
अन्न पवण थिर न कुई । एक तुई एक तुई ॥ 
ऊ+ग्रं० पू० ७७ । 
वहाँ दूसरी ओर यह भी कहा हें--- 
साँचे तेरे खंड, सॉँचे ब्रह्मद, साँचे लोऊ, साॉँचे आकार ॥% 
इसलिए गुरु अंगद ने पंच तत्वों का भी बड़े आदर से उद्लेख 
किया है--- 
पवरण गुरू पाणी पिता, भाता धरनि महत्तु । 
दिन सु राति दुंइ दाइ दाया, खेले सगल जगत्त्‌ शे 
्-ः- गग्रथ हट ० जद ॥ 


"सकल -जैनन- नमन जनम, 


६8 ग्रन्थ, १ू० २५१ 
+ सं० बा० सं०, २, पु० ५४। 
* ग्रन्थ, पृ० २५। 


१8२ हिन्दो काव्य में निगुण संप्रदाय 


परन्तु इन वास्तव-वादियों की विचार-परस्परा में साम्य का यहीं 
पर अन्त हो जाता है। यहाँ पर से उनमें दो अलग-अलग दृष्टिकोण हो 
जाते हैं , क्योंकि 'जगत का उपादान कारण क्या है ९?८इस प्रश्नको 
लेकर उनमें मतभेद है। भेदा-सेदी नानक सर्वात्मवाद की ओर अधिक 
कुके हुए हैं। अतएवं उनके अनुसार परमात्मा सृष्टि का कर्ता और उपा- 
दान दोनों हे--- 
आप पवत पाणी वैसतरु आप मेलि मिलाई हो ।#8 


आपिने आपि साजिशो चाला, जो पद्य ऊपर उद्छत किया गया है, 
उसमें भी नानक ने यह बात स्पष्टरूप से कह दी है कि वह अपने आप सें 
से आपही सृष्टि की रचना करता है। स्थूलता की और विकसित होता 
हुआ परमात्मा स्वतः इस सृष्टि के रूप में परिणत हो जाता है यद्यपि 
वह अपने वास्तविक स्वरूप को भी नहीं छोड़ता है । 


विशिष्टाह ती शिवदयाल जगत्‌ के उपादान को परमात्मा ( राधा" 
स्वामी ) से भिन्न मानते हैं। सृष्टि का मूल बीज जिसे हम माया 


कह सकते हैं, परमात्मा और सुरत ( जीवात्मा ) की ही भाँति नित्य हे 
उसका रूप बदल सकता हे, वह नष्ट नहीं हो सकती। माया के दो. 
रुप होते हैं शुद्ध अथवा सूचम ओर प्रबल अथवा स्थूल। शुद्ध रूप सें . 
माल्निक की शक्ति उसे इतना सूच्म तथा शुद्ध बना देती है कि वह भी 
सत्य लोक सें निवास कर सकती हैं, जहाँ प्रलय की पहुँच नहीं | सत्य 
लोक तक राधास्वासी का शुद्ध रूप है ( देखो पीछे प० ११४ ) उसके 
ऊपर माया नहीं जा सकती । सब वस्तुओं का पवित्र आदि स्रोत राधा- 
स्वामी माया रहित हैं-.. 
सोत पोत में माया नाही ! ” + 





&8 ग्रन्थ, पृ० ५५१। 
न सार वचन, £. पृ० २२७ । 


तीसरा अध्याय १७३ 


तब रहे श्राप अनाम अमाया । अपने में रहे आप समाया ॥' # 
भाया का शुद्ध रूप निष्क्रिय होता हे परंतु फिर जब मोज की लहर 
उठती है ह तो भाया प्रबल्न रूप घारण करने लगती हे ओर उससे नाना 
अकार का सृष्टि का निम हं। परन्तु राधास्वामी स्वयं सृष्टि 
को निर्भर करते । उनकी खाली मोज ही होती ह। स्वृष्टि-निर्माण का 
वेक काय तो उनकी मौज होने पर निरंजन करता हे जो निस्सीम 

शक्ति के धाम, दयाल देश से बहुत नीचे है। अथवा यह पहले बताया जा 
खुका हैं कि निरंजन के ऊपर बहुत से घनी हैं जिनके नाम क्रमश; नीचे 
से ऊपर को हैं--बह्ाय, परबह्म, सोहंग ( सोहम्‌ ) पुरुष, सत्य पुरुष, 
अलख पुरुष, अगमस पुरुष, ( अनामी पुरुष ) ओर राधास्वामी । इन 
विभिन्न धनियों के लोकों की भावना अत्यंत रोचक है । राघास्वामी 
घास से लेकर अलख लोक तक मायः का निवास नहीं हैं। सत्यलोक 
में शुद्ध रूप सें माया का निवास है, वहाँ से क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह 
निरंजन लोक सें पहुँच कर श्रत्यंत स्थूल हो जाती है। नीचे के लोकों 
का विस्तार क्रमशः घटता जाता है और उनमें स्थूलता बढ़ती जाती है । 
नीचे के लोक अपने अस्तित्व के लिए. ऊपर के लोकों पर अचलंबित हैं । 
यद्यपि अपनी मात्रा की स्थूलता पर उसी लोक के धनी का स्वाधीन 
शासन ह फिर भी सूच्म शासन में ऊपर के लोकों का सी हाथ है। नीचे 
* के लोक क्रमशः ऊपर के बोकों के घेरे में हैं, क्योंकि बिना सूच्रम चेतन 
तत्व के माया भी नहीं रह सकती । हुजूर साहब शालिआम जी ने अपनी 
अंगरेजी पुस्तक राधास्वासी सत भ्रकाश के अंतिम आ्रावरण पृष्ठ पर इस 
भाव को एक चित्र (042 घ्वा॥) के द्वारा प्रदर्शित किया है। एक बड़ा 
सा वृत्त खींचो उसके भीतर क्रमश३ छोटे ओर कई बृत इस तरह से खींचो 
कि उनके केन्द्र एक ही व्यासारं में पढ़ें ओर भीतर के सब कुत्तों की 


है? सार वचन, पृ० २२२ । 


१४४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


परिधियाँ बाहर के बृत्त की परिधि को एक ही स्थान पर छुव | सधसे 
बड़े वृत्त के बाहर दयाल देश ( राधास्वासी धाम ) है और भीतर के 
बवृत्त ऋमश३ नीचे के लोकों की सीमा हैं | जो भाव नादबिदु-युक्त शब्द 
बह्म सें श्रथवा यूनानी लोगोस” सें ह उसी का विस्तार निरंजन से 
लेकर सत्य पुरुष तक हुआ है ओर पुर ब्रह्म-भांवना का विस्तार उनसे 
ऊपर के तीन-चार धनियों के रूप में । इस विस्तार का कारण शिवद्यात्र 
जी की अत्यंत 'पर” अवृत्ति है जिसका वर्णन 'परात्परः नामक स्तंभ सें 
पहले किया जा चुका ह यदि इस पर प्रवृत्ति की ओर ध्यान न दें तो 
यह कबीर आदि अं तियों के सूच्म विवतंबाद का स्थूलरूप मात्र जान 
पड़ेगा । तुलसी साहब के अनुसार भी जीव तो पुरुष का अंश हे, किन्तु 
स्थूल मायिक जगत्‌ की सृष्टि निराकार निरंजन करता है |+ 


बाबालाल भी इस बात में शिचद्याल जी से सहमत जान पड़ते हैं 
कि कर्ता श्र अक्ृति माया सें अंतर है और दोनों नित्य हैं । अक्ृति और 
सष्टि-पदार्थों में क्या अंतर है १ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने दारा- 
शिकोह से कहा था “कुछ तो बीज ओर बृच्ध से उनकी तुलना करते हैं । 
बीज ओर बृत्त के सारतः एंक होने पर भी उनकी एक सी सत्ता नहीं 
है। समुद्र आर तरंग से भी उनकी तुलना की जा सकतो है। समुद्र 
के बिना तरंग नहीं उठ सकती, परन्तु तरंग के बिना भी समुद्र रह 
सकता है. तरड्ों के उठने के लिए वायु का कोका आवश्यक है। 
इसी प्रकार अकृति आर सृष्टि भी सारतः एक हैं । फिर भी प्रकृति से 
सृष्टि का विकास, बिना किसी कारण के, बिना कर्तों के हस्तक्षेप 


(किन कल नननननन> कक“ प-> का कल - ९६." अल मरल्‍कतमत 


» जीव तो अस पुरुष से श्राया । निराकार रचि कीन्ही काया ॥ 
जोति सरूप तेज उपजाया | यों जग माहि प्रगट भइ माया ॥ 
“- रत्नसागर”, पु० १५८। 


तीसरा अध्याय १४५५ 


के लहीं हो. सकता !?& इससे स्पष्ट हे कि कर्ता माया से भिन्न हे 
ओर उसको सूचम से स्थूल सें बदल देने का कारण हे | शिवद्यालजी 
की पर-प्रवृत्ति 'को छोड़कर बाबालाल ओर उनके मत में विशेष कोई 

अन्तर नहीं। दिखाहे दता। सभी संत जिन्होंने दर्शन का उतना ध्यान 
नहीं दिया ओर केवल भक्ति और आत्मनिवेदन सें लगे रहे, इसी श्रेणी 
सें आवेंगे। 

इस अकार निगण संत-संप्रदाय सें तीन प्रकार का दाशंनिक मत 
दिखाई देता ह जिन्हें मैने चेदांत की शब्दावल्ली का व्यवहार कर अह्ढ त 
भेदासेद ओर विशिष्टाह्नेत के नाम से पुकारा है। इनके भेद को स्पष्ट 
करने के लिए उसे दूसरे ढंग से भी पदर्शित किया जा सकता है। 
042 समस्त संत-समुदाय इस बात को मानना है कि सर्च 
मान परमेश्वर परमात्मा इस जगत्‌ का क्ता-धर्ता-संहतों है। समस्त 

पथ उसी सें उदय होकर उसी में समा जाती है | वह सबसें व्याप्त होकर 
रहता है। जीवात्मा का उद्धार उसी की दया पर निर्भर हैं| अद्ढ ती 

ग्रींग जो जीवात्मा ओर परमात्मा सें पूर्याह्त भाव मानते हैं वे इन 
सब बातों को केवल व्यावहारिक रूप में सत्य मानते हैं, परमा्थत: नहीं 
कितु विशिष्टाह तियों ओर भेदाभेदियों के अनुसार ये वस्तुतः सत्य हैं) 
इन दोनों मतोंवाले मानते हैं कि परमात्मा का अंश-स्वरूप होने 
कारण आत्मा भी एक अकार से परमात्मा ही है । भेदाभेदियों के अनुसार _ 
तो यह अंश अंत सें अपनी भेद सत्ता को अभेदरूप से परमात्मा सें लय 
कर देता ह; किंतु विशिष्टाहन तियों के अनुसार पूर्ण ओर अंश में यद्द भेद . 
शाश्वत्‌ है । शिवदयाल ओर अन्य विशिष्टाह्न तियों सें सृष्टि रचना को 
लेकर थोड़ा सा मतभेद हे। दोनों के अनुसार इस सृष्टि का खजन 
परमात्मा की इच्छा अथवा मौज से होता है। परन्तु शिवदयाल के 


सिशशकयसञाकमम आपस 





9 विल्सन-- हिन्दू रिलीजस सेक्ट्स”, पु० ३५०। 


१४६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


अनुसार राधास्वामी की केवल मोज होती है, रचना का वास्तब्विक 
कार्य निगेण अथवा निरंजन करता है जो दया के धाम राधास्वामी से 
बहुत नीचे रहता है परन्तु इस भेद का कोई दाशंनिक महत्व नहीं ह | 
सष्टि-संबंधी इन दाशनिक सिद्धांतों और अगरेजी दाशनिक शब्दावली में 
हम अह्व तियों, भेदा-भेदियों और विशिष्टाह तियों को ऋमशः ण्कास्मिस्ट्स 
( विवर्तवादी ), पेनेनथीस्ट्स ( सर्वात्म विकासवादी ) और इक्स्टनंल 
लार्ड थ्रेअरिस्ट्स ( बाह्य विभुवादी ) कह सकते हैं । 

आत्मा परमात्मा ओर जड़ जगत्‌ के बीच का यह सम्बन्ध अद्ठ त- 


चादी कबीर की निम्नल्निखित पंक्तियों में अच्छी तरह दर्शाया गया हँ--- 
साथो सतगुरु अलख लखाया, झाप आप दर्शाया । 


बीज मध्य ज्यों बृच्छा दरसे, बेच्छा मध्ये छया। 

परमातम' में आतमा दरसे, झातम मध्ये माया ।॥ 

ज्यों नभ मध्ये सुन्न देखिये, सुनझ्न अड अवारा। 

नि: अ्रच्छर ते अच्छर तेसे, अ्च्छुर छर विस्तारा ।) 

ज्यों रवि मध्ये किरशा देखिये अर्थ सबद के माही । 

ब्रह्म ते जीव, जीव ते मन इमि नन्‍्यारा मिला सदा ही ।। 
शिवद्याल आदि विशिष्टाह तियों तथा नानक आदि भेदा-भेदियों के 
लिए ये दृर्शात वास्तविक अथ में सही हैं । परन्तु भेदा-मेदी यहीं पर 
नहीं रुक जायेगे, अह्न तियों का साथ देते हुए वे भी आगे बढ़कर कहेंगे--- 

आपुष्टि बीज बुच्छ पुर्नि झ्रापुहि, आप फूल फल छाया । 

ग्रापुहि सूर किरत परकासा, आप ब्रह्म जिव माया ।। 

ग्रंडाकार सूत्ञ नभ आपे, स्थवास सबद गअरथाया। 

निहअच्छर भ्रच्छर छर श्राप, मन जिव ब्रह्म समाया ।। 

गझातम में परमातम दरसे। परमातम में भाई । 

राई में परछाई दरसे, लखे कबीरा साई॥। 
भेद इतना ही है कि अह्ती माया को अम मात्र मानते हैं, जिसका 


तोसरा अध्याय श्डड 


' अस्तित्व नहीं, जब कि भेदाेदी उसका वास्तविक अस्तित्व 
« मानते हैं । 







/“ संच्षेप में, विशिष्टाह्न ती को सर्वत्र परमात्मा का दशन होता है । 
क्योंकि उसके अनुसार प्रत्येक वस्तु की अ्रवस्थिति परमात्मा में ओर 
| परमात्मा के कारण हे ओर सेदाभेदियों तथा श्रद्ढ तवादियों को इसलिए 
' कि परमात्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हे । 
परन्तु पिछले इन दो मतों में इतना अन्तर है कि भेदासेदी तो दृश्य जगत्‌ 
को परमात्मा का व्यक्त रूप सानते हैं ओर अटठ्ठ तवादी उसे केवल बह्म 


उलदकाया#-.8024430023.);५; 


धाम लक मम मिरक तन क 
के ऊपर आरोए बताकर उसका सर्वथा अनस्तित्व मानते हैं । 


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कबीर, दादू , ओर संदरदास आदि उनके शिष्य, मजूकदास, यारी 
ओर उनकी परंपरा, जगजीवनदास, भीखा, पलटू, गुलाल ये सब अद्ढे ती 
ओर विचतंवादी हैं; नानक ओर उनके शिव्य भेदासेदी ओर सर्वात्म- 
विकासवादी हैं तथा शिवद्याल, तुलसीसाहब, शिवनारायण, चरनदास, 
जुल्लेशाह, बाबालाल, दोनों दरिया, आणंनरथ ओर दीन द्रवेश विशिष्टा- 
हूं ती जान पढ़ते हैं | 


यहाँ पर,यह भी जान लेना आवश्यक है कि निरा सिद्धांत भी ब्रह्म 
है कराने सें समथ नहों हे। क्‍योंकि सिद्धांत का आधार भी 
चुद्धिवाद ही है, फिंतु बह्म के सम्बन्ध सें धुद्धिवाद 

७, सहज ज्ञान बेकाम हो जाता है। जहाँ कहीं दृ्शनशाखत्र ब्ह्मानुभूति 
के निकट पहुंचता है चहीं तक का खाथ छूट जाता हे । 

चस्तुत; दूसरे सिद्धांतों की तार्किक आंतियों को दूर करने के उद्देश्य से 
ही एक के बाद एंक दुर्शन का उदय होता है। परन्तु अभी तक कोई 
ऐसी दाशनिक योजना नहीं निकली हे जो सर्वाश में तकंसंगत हो | ऐसी 
कोई योजना निकल्न भो नहीं सकती । 'कबीर ने ठीक ही कहा है कि 


का 






श्ष्दू हिन्दी-काव्य में निगंण संप्रदाय 


दर्शन की वहाँ तक पहुँच हो ही नहीं सकती |& वस्तुतः जब तक दुशन- 
शास्त्र बुडिवाद ही के आसरे किसी परिणाम पर पहुँचने का प्रयत्न करते 
रहेंगे तब तक उन्हें ऐसी पहेलियों का घर बना रहना पड्नेगा जिनको 
सुलमाने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। असल में बात यह 
है कि बुद्धि का उस प्रयोजन से निर्माण हुआ ही नहीं हे जिसके लिए 
सिद्धांतवादी उसका प्रयोग करना चाहते हैं । 

बाह्य मन और बुद्धि के परे एक और शक्ति हे जिसके द्वारा निगण 
बहा का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। प्राचीन द्रष्टा ऋषि ओर 
चेदांती इस शक्ति अथवा बृत्ति के अस्तित्व की घोषणा कब से” करते आ 
रहे हैं। इसे थे साक्षात्‌ ज्ञान, अनुभव-ज्ञान अथवा अपरोज्ञाजुभूति 
कहते हैं | संभवत; “गीता? का दिव्य-चत्ष भी वही है |+ मंडक के श्रनु 
सार निष्फल ब्रह्म न आँखों से, न वचनों से, न तप से ओर न कम से 
गृहीत होता है। विशुद्ध सर्व धीर व्यक्ति उसे ज्ञान के श्रसाद से साक्षात्‌ 
देखते हैं ।५८ ऋग्वेद के अनुसार--सदा पश्यंति सूरयः ।८ के आधार पर 
“दर्शन का दर्शन! नाम पड़ा है। “दर्शन परमात्मा के दशन कराता है, 
उसे अनुभूति-पथ में ले आता है, उसे केवल बुद्धि के सहारे सममधता 
नहीं है । 

बुद्धि के क्षेत्र को नीचे छोड़ेकर निर्गेणी संत भी अनुभूति के इसी 


३५३ |्++न्‍ास काना व्यक्त के. ५... लता भा ब्रनएतवारक+ मा 


$ रवीद्र-- हड ड सौग्स', १०० 
न दिव्यम चक्ष गीता, ११, ८५। 
» न चक्षपा गह्मते, नापि वाचा नान्येदेवस्तपसा क्मंण वा । 
. ज्ञान प्रसादेन विशुद्ध सत्त्वस्ततस्तु तम्पश्यते निष्कल ध्यायमान: । 
““मृण्डक, ३, १, ८ | 
परिपश्यंति धीरा:, वही १, १, ६। 
८ सदा पद्यति सुरयः: | ऋग्वेद १, २२ । 


तोसरी अध्याय 


राध्य में प्रविष्ट होने का दावा करता हैं जहाँ उसे एक मात्र परम सत्ता 
का साज्ञात्कार होता है। अगर टेनीसन की एक पंक्ति को उद्छूत करें तो 
कह सकते हैँ--..'स्थिर सूच्म सत्‌ गंभीर तत्त्वों की उसे संवेदना हुई 
है |?) बिना इस अनुभूति-हान के दुशनशाख्र एक विवाद मात्र हैं । 
परन्तु जसा 50 ने कहा हे--“जाके अनुभव छान, बाद में न 
बह्यो है |”# दूसरों से सुनकर हसें यह विद्त हो सकता हैं कि परमात्मा 
हमारे भीतर निवास करता है | परन्तु यदि हमें इस तथ्य का वास्तविक 
अनुभव नहीं तो इस वाचनिक छान से हमारा लाभ ही क्‍या हो सकता 
हे ?+ सार वस्तु अज्ञुभव हैं जो हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब स्थूल 
बुद्धि से ऊपर उठकर अपरोजानुभूति के राज्य सें हमारा प्रवेश हो। 
तभी हमें स्वालुभव से मालूम हो सकता है कि वस्तुतः हमारे ही भीतर 
ब्रह्म की सत्ता है। इसी को निगणी संत सहज शान कहते हैं. जिसकी 
ऊंचाई तक चढ़ जाना उन्होंने आवश्यक बताया है, कबीर आह, ४ 

हस्ती चढ़िया ज्ञान का सहज दुलीचा डारि। 

आल रूप सस र है, पडया भूषे कष मारि ॥# 

दा श भी कहा ह-- 
| दादू सरवर सहज का तामे प्रेम तरंग । 
तहूँ मन भूछे आतमा, अपने साई संग ॥न+- 
दादू के शब्दों में सहज बिना आँखों के बिना अंग वाले ब्रह्म को 


3५ 


दि स्टिल सिरीन ऐब्स्ट्रकान्स, ही हँथ फेल्ट- दि मिस्टिक । 

सुन्दबिलास, १६० । 

ऊपर की मोहि बात न भाव, देखे गाव तो सुख पावे । 
“+क० ग्रॉं०, पृ० १६२, २११५। 

९ क० ग्रं० पृ० ५६ पाद १५। 

+ बानी (ज्ञान सागर ) पृ० ४२, ७० । 


+ | के [ || 


हक ने न्नि ५ ५ 
१४० हिन्दी काव्य में लिंगुण संप्रदाय 


देखना, उससे बिना जिह्नमा के बातें करमा बिना कान के उसकी बातें 
सुनना ओर प्रिना चित्र के उसका चिंतन करना है ।- 


हृष्टा अथवा ज्ञानी अपने इस अनुभव को नपी-तुली भाषा में नहीं 
अकट कर सकता ओर न शेष जगत्‌ उसे समझ ही सकता हे। इसी से 
वह रहस्यपूर्ण हो गया है। जो लोग इस अद्भूत बृत्ति अथवा श्ञान- 
शक्ति का विफास नहीं कर पाते उन्हें यह रहस्थात्मकता उसके सम्बन्ध 
में संदेह में डाल देवी है। उन्हें विश्वास नहीं होता कि कोड ऐसी भी 
शक्ति हैं जिसके द्वारा बह्मा-हान हो सकता है । इन संतों का भी ऐसे 
अविश्वासियों से पाला पडा था । ऐसे ही लोगों से घिरे होने के कारण 
कबीर को कहना बड़ा था-'दीठा है तो कस कहें, कह्या न को पतियाइ | 
ऐसे लोगों से इस अनुभव-क्लान का वर्णन करना चेसा ही है जैसा डलूकों 
से यह कहना कि दिन भर सूर्य प्रकाशमान रहता है; उन्हें कैसे विश्वास 
हो सक्रता है। यही बात बतलाने के लिए तुलसी साहब ने उल्लुओं की 
पक सभा का उल्लेख किया हे । 


ताम एक घूृथर उठि बोला | दिन को सूरज उगेै अतोला॥ 
सब सुनि बात अचंभा कीना । सुनकर कोइ न हुँकारी दीन्हा ॥।८ 


परंतु यदि उल्लू सूर्य की सत्ता को न माने तो क्या सूर्य का अस्तित्व 


१७७/ए७७। रमन नमन न» >ननतान+ ता ५८ कम >नकक + नरक भाक७५4+५३५५००-+नवस्‍++अकननतकननक+००५ 3५ १७७७७७७७७८७/४शशएशशताााआ 0 2 न . नवन्रशजकालकल नस निलककीलिजजकिली न अजजे अकत३०+ 220मारलमपाकामकानक 0... हता+ हल शामइआकथ शतक 


न्‍ नेने बिन देखिया अग, बिन पेखिबा, 
रसन बिन बोलिवा ब्रह्म सेती। 
स्वन बिन सुरिबा, चरण बिन चालिबा, 
चित्त बिन बित्यया सहज एती । 
बानी, १ मे, १० ६६ १६४। 


**% 


क० ग्र०, पृ० १७। 
घट रामायरा, पृ० ३७६ । 


2 


तीसरा अध्याय १४९ 


ही, मिट जायगा। नं,लकोप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्थ कि दूषण 
( भव हरि) । 

इसके अतिरिक्त ठेंनिक व्यवहार सें भी कई बाते ऐसी होती हैं जिन्हें 
बिना अमाण कही-सुनी बातों के आधार पर ही हम सत्य मान लेने हैं । 
तब हमें क्या अधिकार हैं कि हम उन द्रष्टाओं का 'जो स्वाजुभव से इन 
बातों का ज्ञान रखते हैं,> केवल इसलिए अविश्वास कर बेठे किवे 
जो कुछ कहते हैं वह हमारी तर्क-बुद्धि की पहुँच के बाहर हे, इससे तो 
यही सिद्ध होता हे कि हम उन पर संदेह करने के अधिकारी नहीं । 

परन्तु विज्ञान ओर बुद्धिवाद के इस युग में भी जब आधुनिक 
दाशनिकों को किसी समय सहसा प्रकाश की वह घुँघली सी मूलक 
दिखाई दे जाती हे जिसे वे फिलासफी अथवा विज्ञान को ज्ञात सन 
की किसी चृत्ति के ह्वरा सिद्ध नहीं कर सकते, तब उन्हें इस सहज ज्ञान- 
व्रत्ति के अस्तित्व को मानने के लिए बाध्य होना ही पड़ता हे। हकक्‍्सले 
का भी कुछ यही हाल था। हक्सले कहते हैं--“मुझे यह काफी 
स्पष्ट जान पड़ता है कि बुद्धि ओर चेतना के अतिरिक्त एक ओर तीसरी 
चीज़ भी है जिसे में अपने दिल या दिमाग में न तो पदाथ के रूप में 
देख सकता हूँ न बुद्धि ओर चेतना के किसी परिवर्तित रूप में--चाहे 
चेतना की अभिव्यक्ति के साथ भौतिक पदाथ का कितना ही घनिष्ट संबंध 
क्यों न हो ९१?& 


कक अतला5क 


किकनार लक, 





फल नननीन-+ लकी कली जमीन नली जल लिए खा ए0:: 0क्‍ ल्‍क्‍:/क्‍क 77 





+ विलियम जैम्स की शब्दावली में जो वहाँ पहुँच चुके हैं ओर 
जानते है' ( हु हैव बीन दियर ऐड नो )--वराइटीज आँव 
रिलिजस एक्सपीरियस, पूृ० ४२३ ॥। 

& डइट सीम्स टु मी प्रेटी प्लेन देट दिश्वर इजु ए थर्ड थिंग, इन 

दि यूनिवर्स टु विट, कॉशसनेस, छ्विंच इन दि हार्डनेस आँव 
५ ध्ध ब्न्े नम 
मभाइ हाट और हेड, भाइ केन्नोंट सी टू बी मंटर ऑर एनी 


१४२ हिन्दी काव्य में निर्गंण संप्रदाय 


इस सहज ज्ञान-वृत्ति के समथंन में अविश्वासी पश्चिम से एक 
ओर अधिक अधिकारपूर्ण स्वर सुनाई दे रहा हे | यह स्वर है फरासीसी 
तत्वश बगंसाँ का “वर्गसाँ के सिद्धांतों की आधारशिला ही सहजानुभूति 
की प्रणाली है। उनके लिए 'सहजानुभूति के द्वारा किसी तथ्य के 
अंतरतम सें प्रवेश कर जाना हो तत्वान्वेषण है ।+ सहजानुभव वह 
विवेक पूण सहालुभूति है जिसके ह्वारा तत्वान्वेषक अपने आपको ज्लेय 
विषयों के अंतरतम में ले जा रखता है, वहीं वह एकमात्र अनुपम सत्ता 
है जो विचारों द्वारा समरू में नहीं आ सकती । .संत्षेप सें वास्तविक सत्ता 
के हृदय के स्पदून का अनुभव कर लेना तत्वान्चेषण है ।/7३८ 

यह सहज ज्ञान बृत्ति अथवा अंतर्झानवृत्ति ( इंट्यूशन ) जसा 
य॑ं शब्द ही से स्पष्ट है अत्येक व्यक्ति में सहजात है । वह विचार बृत्ति 
तथा इंद्िय ज्ञान के परे तो है परन्तु डसकी आप्ति उन्हें कठित करने से 
नहीं होती । उसकी जागति के लिए उनका पूर्ण संस्कार होना आवश्यक 
है | कबीर की परिभाषा सें सहज बृत्ति पाँचों इन्द्रियों का स्पश करती हुई 
उनकी रक्षा करतो हैं जिससे इंद्वियार्थों' को व्याग कर परबत्रह्म की आपि 
सरल हो जाती है ।& बगंसाँ ही की भाँति “निगणी भी बुद्धि को हेय॑ 


रा] सका >कोहकतननारनओ #कान४* ] 





कन्सीवेबल माडिफिकेशन श्राव आइदर, हाउ एवर इट्मिट्ली 
दि मनिफेस्टेशन आाव दि फ़िनामना झाय काशसनेस मे बी 
कनेक्टेडविद दि फिनौमेनन ऐज मेदर ऐड फ'से-- हवसले 
के साइंस एण्ड मारत्स, से किसलैड द्वारा उद्धृत, रेशनल 
मिस्टिसिज्म पृ० १३१-१३२। 

न इट्यूटिव मंथड, पृ० ८६। 

» 'जे० एम० स्टेवटं--क्रिटिकल एक्सपोजीशन झाव बगंसा'ज॑ 
फिलासफी, पृ० ५। 

न्‍+ सहज सहज सब कोउ कहे, सहज न चीन्‍हें कोइ । 

. पॉँचौ राख परसती सहज कहीज सोइ ॥... 


तोसरा अध्याय १४३ 


बढ़ाने ने के उद्देश्य से सहज ज्ञान को उसके विरोध में खड़ा नहीं करता 

चस्तुतः आपेश्षिक बुद्धि से प्राप्त वाह्य ज्ञान को भी चह अपना लेता हैं 
जिससे उसे सहज ज्ञान में बार-बार सहायता मिलती हे ।” हमारे ये 
संत मध्यकाल के योरोपीय संतों के साथ इस बात में सहमत नहीं हैं 
कि विचार वृत्ति संवेदना सें विकार उत्पन्न कर देंती है जिससे सत्तत्व 
को अहण करने के लिए उसे शुद्ध विचारविद्ीन रूप में रखना आवश्यक 
हो जाता है | जिस उनन्‍्मनदशा तक पह चने का अयर्न निगणोी संत 
करता है वह एंकांत प्रेम-पुष्ट स्थिर विचार ओर ध्यान का परिणाम होती 
है । यह बात दीक है कि मनोनिश्नह के लिए योग की क्रियाओं का भी 
सहारा लिया जाता है परन्तु साथ ही ध्यान और चिंतन भी बने रहते 
हैं, त्याग नहों दिएं जाते। ज्ञान” शब्द जो सहजानुभूति के पर्याय के 
रूप में अहण किया जाता हे, उसकी विचारानुयाय्रिता की ओर संकेत 
करता है। अपनी आल्लकारिक वेकंठयात्रा के लिये कबीर हाथ में प्रेम 
का कोड़ा लिये हुए सहज की रफ़ाब पर पाँव रख कर बिचार-तुरंग पर 
सवार होता है ।& कबीर ने स्पष्ट शब्दों में भी कहा हे 'रामरतन पाया 
करत विचार।' और प्रकट विद्वनाथ जगजी वन में पाये करत विचारा ।+ 


जिन सहज विसिया तजी, सहज कहीज सोइ। 
जिन सहजे हरि जी मिले सहज क्हीज सोइ॥। .. 
“--के० ग्रं०, पृ० ४१-४२ | 


जे० एम० स्टेवर्ट-->क्रेटिकल इक्सपोजीशन आव वर्गमर्सोज 
फिलासफी प० १९ | 
९ झपने विचारि असवरि कीज, सहज के पचड़े पाँच जब दीजे । 
चलि बैक॒ठ तोहि ले तारौ थकहि त प्रेम ताजने मारो। 
न क० ग्रं०, पु०, २१५, १६१ और पु० १७६, २६७ । 


बन्द 0 ग्र्०, प्‌० रद्द ५९ श्श्‌ | 


१४४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


एक और पद में कहा गया है--आप बिचारे ज्ञानी होई पुरे 
की आपत्ति हो जाने पर. फिर विचार की आवश्यकता नहीं रहती ।& 
संभवत; शिवद्याल जी ने इसी बात को ध्यान में रखकर कहा है कि 
परम पद सें केवल सत्यनाम है, चहाँ विचार का कोई काम नहीं। ओर 
लोगों ने विचार करने से घोखा खाया और सागर को छोड़कर बुंद में 
समा गये । सहज भाव की ग्राप्ति मानसिक व्यापारों के हारा उनसे ऊपर 
उठकर ही हो सकती हे--उनका डपयोग कर उनसे ऊपर उठने से, उनका 
सवथा चहिष्कार करने से नहीं | दादू ने इसीलिए विचार को सब व्याधियों 
की एकमात्र ओषधि कहा हे। उनकी सम्मति में करोड़ों आचारी भी एक 
विचारों की बराबरी नहीं कर सकते। आचार का अनुसरण तो सारा 
जगत कर सकता है पर विचारी कोई विरला ही हो सकता है ।<- हाँ, 
पाषंडपूर्ण विचार का त्याग तो अवश्य ही होगा क्योंकि चह' श्रात्मवंचना 
का ही दूसरा रूप है जो गव॑ ओर घुणा को जन्म देता हे । 

अब तक ऊपर एक ही अंतवृत्ति का उल्लेख हुआ है जिससे ब्रह्म 
का साज्ञात्कार होता है। परन्तु वस्तुतः सहज ज्ञानवृत्ति से नीचे ओर 
भी कुछ अंतंबृत्तियाँ हो सकती हैं। मन की जितनी भूमिकाएँ होती हैं, 
उतनी ही अंतब त्तियाँ भी होंगी । किसी निचली भूमिका के लिए जो 
अंतव ति अथवा अंतर्शान है, उससे ऊपर की भूमिका के लिए वह 


» क० ग्रं०, पृ० १०२, ४२ । ग्रल्थ में यह पूरा पद सानक प्रथम 
गुरु के नाम से दिया गया है पूृ० ८१ ॥ 
-+ अभ्रव का कीजे ज्ञान बिचारा। निज निरखत गत व्यौहारा । 
“क० ग्र ०, पृू० १६४, २९२ । 
 हमरे देश एक सतनाम। वहाँ विचार का कुछ नही काम ॥ 
करि विचार इन धोखा खाया। बूंद माहि यह जाय समाया। 
“सार वचन, श्य, १० ७६ । 


तीसरा अध्याय १५५ 


साधारण बाह्य ज्ञान हो जाता है, जहाँ से फिर ऊपर की भूमिकाओं 
के रहस्यों को. अवगत करने के लिए ऋरमशः नवीन ३'तंबृत्तियों की 
आवश्यकता होगी। यह ऋम तब तक बराबर रहेगा जब तक अंतर्तंम 
चृत्ति अथवा सहजज्ञान के द्वारा परम तत्व, निगंण ब्रह्म का साक्षात्कार 
नहीं हो जाता |. कबीर के नाम से प्रचलित एक दोहे में जो कबीर का 
नहीं जान पइता, सात सुरतियों का उल्लेख हे,& जिससे सात अंत- 
लू तियों की सूचना मिलती है। सुरति का वर्णन अगले अध्याय में किया 
जायगा । 


दादू ने तीन दृष्टियों का उल्लेख किया हे जिन्हें उन्होंने 
आत्मदृष्टि ओर बह्ामदृष्टि कहा है |+ इन्हें योग की दृष्टियों ( नासाम्र दृष्टि 





, तथा भूमध्य दृष्टि ) के साथ नहीं गड़बड़ाना चाहिएँ। योगाभ्यास_की 


) 


। 
हा 
। 
| 


दृष्टिया न न सह? विज शान-भूमिका सूचक दृष्टियाँ हें । चर्म दृष्टि का संबंध 
भोतिक जगत से है ( विचारपण चत्तह्ञान से उसका अभिय्राय है, जसा 
शुओं में संभव नहीं ), आत्मदष्टि का शब्दबह्म से ओर बह्ार्दाष्ट 


का निर्गेणबह्म से । यही बह्मदृष्टि सहज श्ञान_अ्रथवा अपरोजाजुभूति 
है। किंग्सलेंड के अनुसार मन अथवा जीवन की भौतिक ( फिजिकल ) 


# सात सुरति के बाहर, सो सोरह सँख के पार। 

तहूँ समरथ को बेठका, हसन केर अधार ॥ ६५८॥ 
““क० ब०, पू ६६॥ 

दादू संबही व्याधि की औषधि एक विचार। 
समझे थे सुख पाइये, कोइ कुछ कहे गँवार ॥ 
को टे भ्रचारी एक विचारी, तउच् सरभरि होइ । 
आचारी सब जग भरथा, विचारी विरला कोइ ॥ 

+ देखिये पाद टिप्पणी सं० १ पिछला पू० ११०। 


१४६ हिन्दों काव्य में निगण संप्रदाय 


बोद्धिक ( साइकिकल ), मानसिक (८ मेंटल ) और आध्यात्मिक ( र्सिपिरि 
चुअल ), ये चार भूमिकाएँ हैं जिनका अगले अध्याय में यथास्थान 
चणन होगा । इसके अनुसार भी तीन ही दृष्टियाँ अ्रथवा अंत सियाँ 
ठहरती हैं। क्‍योंकि सबसे निचल्ली भूमिका की साधारण श्ान-दृष्टि किसी 
भी भूसिका की अतर्शानदृष्टि का स्थान नहीं अहण कर सकती |, दादू- 
दुयाल् ने जिसे “चम दृष्टि! कहा है, वह बोडिक ज्ञान ही हे जो निरे 
पशु के लिए अप्राप्य है। निर्मेणियों का सहजशञान अथवा बह्ाटष्टि 
आर संभवत; बगंसां की अंतबत्ति ( इंदयूशन ) और हकक्‍्सले की 
तीसरी चीज ( थड थिंड ) भी वह परम ज्ञान हे जिसके द्वारा परमतत्व 
की स्वानुभूति होवी है। 
_निर्गेणी संतों के तात्विक सिद्धांतों और उपनिषदों की विचारधारा 
में बहुत स्पष्ट साम्य हे | निगेणी संतों के तात्विक सिद्धांतों का चणेन 
हुए महत्वपूण स्थत्नों पर मैने उपनिपदों की 
८, उपनिपद्‌, समान भावोंवाल्ली उक्तियाँ उद्धत की हैं। जिसका 
मूल स्लोत उपनिषदों और तत्संबंधी साहित्य से कुछ भी परिचय 
हो, उसे इन संतों के सिद्धांतों ओर उपदेशों पर उप- 
निषदों का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने में देर न लगेगी | 
बीर आदिकों के सिद्धांतों का सक्षेप यों किया जा सकता है-... 
सबके हृदय सें हराम का निवास हे | उसे बाहर न हूं ढ़कर भीतर 
हू ना चाहिए ।अत्मा ही परमात्मा है, दोनों में एकत्व भाव है । दस 
प्रकार अत्येक जीव परमात्मा है.) यही नहीं एक अर्थ में जो कुछ हे सब 
परमात्मा है | अन्य संतों के भी जेसा हम पीछे देख चुके हैं । थोड़े से 
अंतर के साथ यही सिद्धांत हैं | परंतु ये वस्तुतः अ्रविकल रूप से उप- 
निषदों के सिद्धांत हैं । 
तत्ववित्‌ प्रोफेसर रामचंद्र दत्तात्रेय रानडे ने अपने अँगरेजी अंथ 
“कन्स्टूक्टिव सर्वे आब दि उपनिषद्कि फिलॉसफी” में उपनिषदों के 


तोसरा अध्याय १४७ 


शिद्धांतों का क्मविकास दिखलाने का उद्योग किया है | उससे पता चलता 
है कि उपनिषदों के द्रशओं ने भी अपना आध्यात्मिक अन्वेषण उसी 
अणाली पर चलाया जिस पर॒ शताडिदियों थेछे निगेणी संतों ने | बाहरी 
खोजसे असंतुष्ट होकर उपनिषदों के दृष्ठाओं ने बह्म को अपने अंदर हूँ ढ़ने 
का निश्चय किया। दृहदारण्यक” का प्रस्ताव है. आत्मा का दशन करना 
| चाहिए ।& जब वे इस आशभ्यतर खोज में ज्गे तो बहदारण्यक” के ही 
| शब्दों सें उन्हें पता लगा कि यह आत्मा ही ब्रह्म हैं ।+ इससे उनको 
“मे ही बह्य हुँ??)८ की ४५०. क्योंकि अहं का अधिष्ठान आत्मा 
| है, वही उसमें सार वस्तु से स्वाभाविक परिणाम निकला कि 
अहं' मैं ही नही पत्युत प्रत्येक अहं, प्रत्येक आत्माधारी जीव ब्रह्म हे। 
पूर्ण ब्रह्म हमारे ही भीतर हे--“वह तू ह? -- कहकर प्रत्येक व्यक्ति को 
छांदोग्य उपनिषद्‌ इसी तथ्य की याद दिलाता है। इस अकार सीढ़ी दर 
सीढ़ी चढ़ता हुआ द्रष्टा सब बंधनों से सुक्त होकर अनुभूति के 
उस सर्वोच्च शिखर पर जा पहुँचता हे, जहाँ से वह “छांदोग्थ” का साथ 
देता हुआ विस्मित जगत्‌ के सम्मुख घोषणा करता हं--““यह सब जो 
कुछ है, वह ब्रह्म है ।”?+ 
गेडन ने कहीं ठीक ही कहा ह कि भारत में जितने धार्मिक सुधार 
आंदोलन हुए हैं; उनका आरंभ हमेशा उपनिषदों के गहरे अध्ययन के 
साथ हुआ है। वेदों में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का अन्वेषण आएस्म 
हुआ उसकी अंतिम सीमा, परितरणता, उपनिषदों में प्राप्त हुई, इसी 





ग्रात्मा वा भरे द्रष्टव्य--४, ४, ९२। 
ग्रयमात्मा ब्रह्म ->२, ५, १६ । 

श्रह ब्रह्मास्मि-बुहद्‌, १, ४, १०। 
ल्‍5 तत्वमसि--६७८, ७ | 

स्व खल्विदं ब्रह्म -> ३, १४, १। 


२ न के 


व 


जन ९ & 
श्श्८ हिन्दी काब्य में निगुण संप्रदाय 


/डपनिषदों की अ्रध्यात्म. विद्या को वेदांत कहते हैं। अत्येक भारतीय 
चेदांती का दर्शन का अवर्तन उपनिषद्‌, चह्ासूत्र ओर भगवदूगीता को 

लेकर होता है । अत्येक नवीन सिद्धांत का प्रवतंक आचार्य इन्हीं तीनों 
ही व्यास व्याख्या करते हुए अपने सिद्धांतों का अचार करता .हे। इसीलिए 
इन्हें अस्थान-त्रय कहते हैं परन्तु इन तीनों को श्रलग-अलग बस्तु नहीं 
सममना चाहिए | वस्तुतः ये तीनों एक ही हैं, ओर दूसरे रूप में उप- 
निषद्‌ ही हैं। ब्रह्मसूत्र में उपनिषदों की उक्तियों का अनुक्रमपूर्वक सूत्र 
रुप में संग्रह मात्र है; और भगवदूगीता उपनिषदों का सार मात्र हें । 
इसीलिए भगवदूगीता उपनिषद्‌ मानी भी जाती है। अद्वत सिद्धांव के 
प्रवर्तक शंकराचार्य, विशिष्टाद त के भ्रवर्तक रामानुज, भेदाभेद के प्रवतक 
निम्बाक, श॒द्धाह त के अ्रवर्तक वल्लभाचाय न सबके, उपयेक्त प्रस्थानश्रय 
में से कुछ पर अ्रथवा तीनों पर अवश्य भाष्य मिलते हैं, इस प्रकार हम 
देखते हैं कि मध्यकाल के धार्मिक आन्दोलनों की पुष्टि में जितनी दाश निक 
पदधतियों का प्रवर्तत हुआ सबका आरम्भ उपनिषदों के गहन अध्ययन 
से हुआ । 

(इसी प्रकार निगेशी संतों के सिद्धांतों के आधार भी उपनिषद्‌ ही 
हैं। बीजक की एक रसेनी में कबीर ने स्वयं उपनिषद्‌, उनके संवादों 
ओर सिद्धांतों का तथा योगवाशिष्ट आदि का श्रद्धा के साथ उल्लेख 
४-५. 'तत्वमसि”?, “वह । बह्म ) तुम हो”---यह उपनिषदों का 
उपदेश हे, यही उनका संदेश । इसका (कि अल्येक जीत्र त््ष है। ) 
उन्हें बड़ा निश्चय हे। अधिकारी लोग इसे वरण ( अहण ) करते हैं । 
यह स्वत:-सिद्ध परमतत्व हैं जिसने सनकादिक ऋषियों और नारदमुनि 
को सुख दिया। [ छाल्दोग्य” में सबत्कुमार और नारद का संवाद ] 
याज्षवल्क्य ओर जनक के संवादों सें यही रस बह रहा है । 

दत्तात्रेय ने इसी रस का आस्वादन किया था। वशिष्ट और राम ने 
ने योगवाशिष्ट सें इसी का बखान किया है। कृष्ण ने ऊधो को श्रीमगद्‌- 


तोसरा अध्याय १४६ 


भागवत्‌ में यही परम तत्व सममाया था, इसी बात को देह धारण करते 
हुए भी विदेह कहाकर जनक ने दृढ़ किया था ।+- 
है। सत लोग इसी ब्ह्मरूप अध्यात्म का अहण करते हैं; जहाँ दुविधा 
3) सत लोग इसी अह्मरूप अध्यात्म'.का अहझ करते है; 
का भाव न रहे वही श्रध्यात्म या वेदांत सत है। जो निगण मत 
, को इसके अतिरिक्त कुछ ओर बतावें, उसे सदुगुरु का मत आता 
(ही नहीं ।??& 
संत सम्प्रदाय में आकर अगर चेदांत में कुछ अंतर पड़ गया है तो , 
वह इतना ही कि कहीं-कहीं सूफी काव्य के प्रभाव के कारण उत्तियों में , 
4 33:43 42% चेक प0 ॥ 
बाहर से भौतिक प्रेम के गहरे रंग में रँग गई हैं। प्रेम की भावना | 
से उपनिषद्‌ भी स्वधा अछते नही हैं । परन्तु उपनिषदों की उद्तियों सें | 
उसका वह घना रूप नहीं हे जिसके कारण निगंणियों को परमात्मा बिल्कुल | 
पति के रूप सें दिखाई देता है । उपनिषदों में भी एकाघ ऐसी उत्तियाँ | 
हैं जिनमें परमात्मा ओर आत्मा का सम्बंध पति-पत्नी के सम्बंध के / 








+ तत्वससी इनके उपदेसाई डपनिषद कहे संदेसा ।॥। 
ई निसचय इनके बड़ भारी । वाहिक वररणा करे अधिकारों ॥ 
परम तत्त का निज परमाता । सनकादिक नारद सुष माना ॥ 
जागबलिक श्रौर जनक संबादा । दत्तात्रेय वहे रस-स्वादा ॥। 
वह राम वसिष्ट मिल गाई। वह कृष्ण ऊधो समझकाई ॥ 
वहे बातक जो जनक दृढाई। देह धरे बीदेह कहाई ॥ 

“-“बीजक, रमेनी ८ । 


$# /निरगुन मन सोई वेद को अंता । ब्रह्म सरूप अ्रध्यातम संता । 
हर दुबिधा भाव न कोई। अध्यातम वेदात मत सोई। 
यहि सिवाय कोइ और बतादे | ताको सतगुरु मन नहि आवे। 

न मस० बा०, पृ० २५१४ । 


भें ९ है 
१६० हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय 


द्वारा अभिव्यक्त किया गया हे, परंतु इन उतक्तियों को देखने से पता चलेग् 
कि उनमें दाम्पत्य-संबंध पर उतना जोर नहीं दिया गया है, जितना 
आनंदानुभूति पर । साथ ही यह संबंध उनसें रूपक के रूप में रहता हे, 
तथ्य के रूप में नहीं । परमात्मा के साथ सूफियों का और उन्हीं के 
समान संतों का, द/म्पत्य-संबंध तथ्य के रूप में निरूषित किया जाता 
है। अपने विचारों के बाहही आवरण के संबध में सूफियों से कुछ 
प्रभावित होने पर भी उपनिषदों की आंतरिक भावना की इन सतों ने 
पूर्ण रूप से रत्ञा की है । 


(मेरा यह असभिप्नराय नहीं कि हन निरक्षर साधु-संतों ने पोथियाँ लेकर 
उपनिषदों का अध्ययन किया था। परंतु इसमें संदेह नहीं कि उपनिषदों 
के सिद्धांतों ओर उपदेशों से सर्वथा परिचित थे) जान पडता है कि मध्य- 
युग के आचार्यों के कारण सारा घार्मिक वातावरण वेदांत से श्रोत प्रोत 
हो गया था, जेसा कि आज भी है । इसी वातावरण में अबाध साँस 
लेने के कारण वह इन अपढ़ साधु-सतों के अस्तित्व का अभिन्न अंग सा 
हो गया | यह बात तो निस्‍्संदेह' स्वीकार कर ली जा सकती है कि कबीर 
को उपनिषदों के सिद्धांतों का ज्ञान स्वयं अपने गुरु रामानंद के सुख से 
प्राप्त हुआ ओर कबीर के शिष्प-प्रशिष्यों में होता हुआ! वह आएगे फैला । 
पिछले एक स्तंभ में निगेश संतों में तीन सिद्धांतिक धाराओं का उल्लेख 
किया गया है। किंतु यह बात संतों पर पड़े हुए उपनिषदी प्रभाव को 
असिद्ध करने के लिए उपस्थित नहीं की जा सकती' क्योंकि स्वयं उपनिषदों 
में मतभेद के लिए पर्याप्त स्थान हैं । इसी से वेदांत के ही क्षेत्र में कई 
मत चलन पड़े हैं, जिनमें से तीन के आधार पर मैंने संत मत की इन तीन 
धाराओं का नामकरण किया है । 


इस बात का उल्लेख पीछे हो चुका है कि यद्यपि आरम्भ में निरंजन, 
' प्रत्रद्म परमात्मा का ही पर्याय समझा जाता था फिर भी आगे चज्ञकर 


ती घरा अध्याय २६१ 


हर उससे ऊपर समझा जाने लगा और वह । 
2 , निरंजन कालपुरुष कहाने कूगा । निगण, अच्र आदि नाम भी 

लपुरुष ही के समझे जाने लगे।... कबीर-पंथ की 
पोराणिक दंतकथाओं में यह बात पूर्ण रूप से पाई जाती हैं) हाँ, इस 
बात का ध्यान रखना चाहिए कि कबीर-पंथ की ये बात कबीर की 
शिक्षाओं से विकसित होने पर भी उनके अनुकूल न थीं | इन कबीर-पंथरी 
कथानकों में निरंजन परम पुरुष के [ अलुरागसागर के अनुसार 
सोलह और झ्ानसागर के अडुसार पाँच ] पुत्रों में से एक था। इसने 
चालबाजी से अपने पिता से सातों द्वीपों की ठकराई ओर अष्टांगी भवानी 
भी ठग ली। आदि माया अथवा आद्या पर वह इतना मोहित हुआ 
कि वह डसे निगल गया। आदि साया उसका पेट फाइकर बाहर निकल 
आई | उसके बाहर आने पर निरंजन ने उससे अपना प्रेम प्रगद किया 
ओर दोनों के संयोग से ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये त्रिदेव पेदा हुए और 
संसार चला । उनके पेदा होने के पहले ही निरंजन ने अच्श्य होने की 
प्रतिज्ञा की थी। ब्रह्मा-विष्णु-महेश सी उसकी खोज न कर सके | खोज 
से लोटकर बह्मा ने कूठ ही कह दिया कि मुझे पिता के दर्शन हो गये । 
इसलिये आयद्या ने शाप दिया कि पूजा में तुम्हारा भाग न रहेगा ओर 
तुम्हारी संतति ब्राह्मण लोग पाखंडी होंगे। विष्णु जो खोज करते-करते 
पाताल ल्ञोक की अग्नि से कुलल कर काला हो गया था सबसे पूज्य 
बना दिया गया क्योंकि उसने अपनी असफलता स्पष्ट स्वीकार की और 
महादेव ने इस संबंध सें सोन धारण किया ओर महायोगी बना दिये 
गये । इन्हीं अ्रिदेव के ह्वारा निरंजन जगत्‌ के ऊपर शासन करता है और 
सबको धोखे में डाले रहता है। यहाँ तक कि परम पुरुष ने अपने पुत्र 
जिस ज्ञानी ( कबीर ) को जीवों को इसके चंगुल से बचाने के ल्विए 
नियुक्त किया था, उसने भी धोखे में आकर निरंजन से यह प्रतिशा कर 
दी कि मैं सत्य, त्रेता ओर द्वापर युग सें तुम्हारे काम सें विशेष बाधा 








१६२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


न डालूंगा। यहो कारश हे कि सत्ययुग सें सत्य सुकृत नामप्रारो 
कबीर ने केवल राजा धोंधघल और सपरिवार ग्वालिनि खेमसिरी को तथा 
त्ेता में सुनीन्द्र नाम धर कर केवल भाट विचित्र, हलुमाव लक्ष्मण ओर 
मन्दोदरी को तथा करुणामय नाम धारण कर द्वापर सें गढ़ गिरनार 
की रानी इंदुमती ओर उसकी प्रार्थना पर उसके पति को काल ( निरंजन ) 
के जाल में पड़ने से बचाया । यही नहीं कलियुग में भी उसने धोखे से 
कबीर साहब से नाम-मंत्र का रहस्य ले लिया और नाना गधों का निर्माण 
कर, नाम देने के बहाने से दुनिया को अपने जाल में बाँचने लगा | 

कुछ अन्य संत भी इसी प्रकार निरंजन को परम पुरुष से श्रलग, 
उससे नीचा पद वाला धोखेबाज पुरुष सममते हैं। शिवनारायणजी 
का कथन है कि शब्द से निरंकार ( निरंजन ) का जन्म हुआ जिसने 
ब्रह्मांड और जीवों की रचना की और उन्हें मोह की फॉस से बाँधा ।& 


रा अ कक. तत्काआमोसीक,... हलक शिशिकानो... ज/ हि कलजात आए ताकआ॥#काहशारेकेलि/। किंग 


# आपुहि आप शब्द चहुँ श्रोरा, शब्द बीज श्रनियारा हो । 
तेहिते निरकार भौ तेही, तब भौ धरति शअ्रकाशा हा । 
तब भौ जीव सकल ब्रह्मण्डा, करत अ्वर को शआ्राशा हो । 
करम काम ई भरम लगाई, अवर अवर बिसवासा हो । 
देखत निरंकाल भौ ब्याधा, लखत मोह के फासा हो । 
जेहि पावत ते सबे बावत, का मूली देखत तमाशा हो । 


सिवनारायरण श्राप देख चलू, जहाँ श्रापन घर बासा हो । 
“-संत-विलास, हस्तलेख । 


तुलसी तीन लोक का नाइक, सबका लूटे माल। 
सतगुर चरन शरण जो श्रावं, सो"जिव देत निकाल | 
“-बेंद नेत कर ताहि ब्रह्म कर कहत बखाना। 
भरे हाँ रे तुलसी, संत मता कछु श्ौर और कछ संतन जाना । 


“गावत बेद निखेद जो नेति, कहत न जाने, निरंजन नाऊँ। 
“शब्दावली, रथ, पृ० ४८-४६ ॥ 


तौसरा अध्याय ५१६३ 


तुलसी साहब के अनुसार तीन लोक का स्वामी निरंजन सारे जगत 
का माल ( झध्यात्मिक महत्व ) लूट लेता है। वेद इसी को ब्रह्म कद 
कर पुकारते हैं ओर इसी का नेति-नेति कह कर चर्णंन करते हैं । किंतु 
संत्र लोग इससे बहुत आगे पहुँचते हैं । उनका मव ही भिन्न है ।+- 


शिवदयाल के बाह्याथंवाद के अनुसार भी कात्न निरंजन परम-पुरुष- 
रूप सिंधु की एक बंद हे । वह' माया के संयोग से पाँच तत्व और तीन 
गुणों के द्वारा सृष्टि की रचना करता है, उसका स्थान सातवें कमल में हे । 
सारे जगत्‌ के लोग इसी बंद ( अंश ) को सिंधु ( परम पुरुष ) सममते 
हैं ओर ठगे जाते हैं। केवल संत ही सत्य ल्लोक में नित्य आनंद 
भनाते हैं ।% 


+ श्रोश्रें शब्द काल को जातो । सुन में शब्द पुरुष पहिचानों। 
तीन लोक निर्गुन का घाठा । उन सब रोकि जीव की बाटा ॥ 
“- रत्नसागर, पृ० १५१ ॥ 





' #& फुफरद बूद हमारी श्राई | दूसर माया आन मिलाई। 
पॉच तत्त त्तीनो गुन मिले। यह दस आपस में रले ॥! 
रल मिल कर इन रचता कीती । तीन लोक झ चारो खानी । 
वेदाती ग्रब किया विचार | नौ को छॉट लिया दस सार ॥ 
दसवो वही बूद मम श्रस | छॉट ताहि लीन्ही होय हंस । 
“सार चचन, भाग २, पृ० ७८-७६ । 
जितने मत है जग के माही । इसो बूद को सिंध बताहीं ॥। 
वही, पृ० ७७। 
कमल सातवे काल बसेरा । जोत निरंजन का वह डेरा। 
वही, पृ० ३६९६ | 


सत दिवाली बित करे, सत्त लोक के माहि । 
और मते सब काल के, यो ही काल उड़ाहि | वही पृ० ३७६१। 


३ (९ ४ 
१६७० हिन्दी काञ्य में निग॒ ण संप्रदाय 


निरंजन को काल पुरुष कहना पहले पहल गीता के अनुकूल जान 
पड़ेगा | कृष्ण अपने आपको “कालो5$स्मि” कहते हैं ।+ परन्तु उनका अपने 
ग्रापको 'काल”ः कहने का अभिपग्राय निरतिशय परव्रह्म पद से नीचे 
गिराना नहीं है | क्योंकि जहाँ उन्होंने अपने आपको “काल” कहा हें, 
बहीं चर और अक्वर दोनों से परे भी बतलाया है |५: कृष्ण काल ओर 
अछरातीत दोनों एक साथ हैं। 
कबीर आदि पहले संतों ने “निरंजन! से गोता ही का सा अर्थ लिया 
है | किंतु आगे आनेवाले संतों ने अपने आपको नेरंजन अथवा निरंजनी 
सम्प्रदाय से ऊंचा चढ़ा हुआ सिद्ध करने के अभिप्राय से निरंजन को 
उस ऊंचे पद से नीचे ढकेल दिया, यद्यपि वस्तुतः निरंजनी सम्प्रदाय 
ओर कबीर के तात्विक सिद्धांतों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाडे देता । 
ऐसे ही कारणों से कबीर-पंथ की किसी एक शाखा ने निगए-पंथ की 
द्वादश शाखाओं को कालकृत बताया ह ।>८ इस शाखा के अनुसार 
निरजन ने कबीर से नाम-मंत्र धोखे से ले लिया था। और श्रय द्वादश 
पंथ खोलकर दीक्षा देता हुआ लोगों को तारने के बहाने से अपने अड्डे 
में ले जा है । रहा इस प्रकार कबीर पथ स्वर्य कबीर की शिक्षाओं के 
विरुद्ध जा रहा था यह ओरों से आगे बढ़े जताने की प्रवृत्ति का शिव- 
दुयाल में भी अभाव नहीं है । 


इसमें संदेह नहीं कि निगंण संत सम्प्रदाय पर रामानन्द का बहुत 
बढ़ा ऋण है। फिर भी रामानन्द तथा अन्य वेदान्तियों से इन निगणी 


अनननननी लकी नानान«+क _» जकन% 








(3>>3कन>+०+रन्‍ना>.. फराभतावकमका.. ड#ममकनदाबक,.3(३4७००कलकानात. “५8 लक७२०क+०आ तर 


+ कालो$5.सम लोकक्षयक्ृत्प्रवृद्धो यम ० प्रवृत्त, । 
गीता, ११-३२। 
यस्मात्क्षरमती तो5हमक्ष रादपि चीत्तम. । 
अतो5स्मि लोके वेदेच प्रथित: पुरुषोत्तम: । 
गीता, १५-१८। 





तोसरा अध्याय १६४५ 


संतों का कुछ मतसेद भी जान पढता है। यदि 
१०, अवतार वाद आज-कल् के रामानन्दी सम्प्रदाय के सिद्धांतों को 
रामानन्द जी के साथ जोड़ सकते हैं तो निस्संदेह 
अपने अहेती सद्‌ बाद के साथ-साथ ये अवतार वाद के माननेवाले भी 
थे। उनके लिए दाशरथि राम साज्ञाव्‌ परबह्य के अचबतार हैं । परन्तु 
पैगस्बर हो या अवतार, दोनों में से कोई भी कबीर आदि संतों को झाहा 
नहीं । कबीर ने रामानन्द से 'राम? मन्त्र लिया तो सही, कितु उस रास” 
शब्द से उन्होंने दूसराअर्थ लिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा ह, 
“दुनिया दशरथ के पुत्र को 'रास! कहती हे, परन्तु राम का मर्म कुछ और 
ही हे ।?”& राम! शब्द से निर्गेणियों का अभिप्राय विष्णु के अवतार-विशेष 
से नहीं हे जिसे हिन्दू मानते हैं ओर जिसका तुलसीदास जी ने अपनी 
अमर वाणी से यशोगान किया हैं प्रत्युत परत्रह्म राम से । उनके मत में 
परबत्रह्म किसी सनुष्य-विशेष के रूप में पृथ्वी पर नहीं उत्रता। राम 
शब्द के अंतर्गत वे भी बहुत सूच्म सगुण भावना का अस्तित्व मानते हैं, 
किंतु बह निगुण ब्रह्म तक पहुँचने के लिए सीढ़ी मात्र का काम देवाईं , 
जिसका स्पष्टीकरण आगे किया जायगा । 
अवतारवाद के वे बिल्कुल विरोधी थे | सब पूजा-अचों जिसका 
सम्बंध दृश्य पदार्थों से हे, उनकी विचारधारा के प्रतिकूल पड़ती है । यदि 
रक्त-मांस के भौतिक शरीर का चिचार किया जाय तो उनके मताजुसार 
कोई भी परमात्मा नहीं--दाशर्राथ राम भी नहीं, कितु शरीर को छोड़- 
कर यदि आत्मा की ओर दृष्टि डाली जाय तो सभी परबल्य हैं कोई भी 
इसका अपवाद नहीं, राम का शन्न राहइस-राज रावण भी नहीं | अतएव 
उनकी दृष्टि में किसी भी मनुष्य को परमात्मा मानना ठीक नहीं | राम 


अल नल ओओणओभीणधणाणओ कियणाजओतीणंनषक आल 





$& दसरथ सुत तिहु लोक बखाना । 
राम नाम का मरम हैं श्राना ॥। 
““बीजक, सबद १०६ | 


१६६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


आदि दुशावतारों को भी परमात्मा के अवतार मानने के लिए उनको 
दृष्टि में कोई डचित कारण नहीं है | जन्म सरण से अस्पष्ट परबह्य की 
मलुष्य रूप में अ्वतरित होकर जन्म-मरण सें पड़ने की कहपना करना 
तक ओर ज्ञान का सर्वथा विरोध करना ह। 
कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ब्रह्म, राम और कृष्ण आदि 
अवतारों के रूप में अवतरित हुआ ही नहीं । उन्हीं के शब्दों सें--.- 
वा जसरथि धरि झ्ौतरि आवा। ना-लंका का राव सतावा ।| 
देवे कूख न श्रौतरि आवा। ना जसबे# ले गोद खिलावा ॥ 
ना ग्वालनत के सेंग फिरिया। गोबरधन ले न कर धरिया ॥ 
बावन होय नहीं बलि छलिया। धरनी वेद लै न उधरिया || 
7ए्डक, सालिगराम न कोला । मछ कछ हू जलहि न डोला ।॥। 
बदरी बेसि ><ध्यान नहि लावा | प्रसराम ह्वैं खतरी न सँतावा ॥ 
द्वारामती सरीर न छाडा। जगरनाथ ले प्यंड व्‌ गाडा ॥।< 
अन्य संतों ने भी इसी अकार स्पष्ट शब्दों मे अवतारबाद को अ- 
स्वीकार किया है | दादू के शिष्य रज्ब ने कहा-- “राम और परशुराम 
दोनों एक ही समय सें हुए | दोनों आपस में एक दूसरे के हुषी थे। 
कहिये किसको कर्त्ता कहें । दत्तात्रेय, गोरखनाथ, हनुमान ओर प्रह्मद 
ने न शास्त्र पढ़े, न शिक्षा पाई, फिर भी उन्हें सिद्ध शरीर आराप्त हैं, वे 
अमर हो गये हैं, किंतु कृष्ण [ब्याध के | एक ही बाण से मर 
गये ।”+ रज्जब के गुरुभाई वषना कहते हैं कि इस अकार के स्वामी और 


(रमआ सा काएन। ॥9५॥ ॥नजकरम७४०९५ ३५०३७... ॥4फ+ 


क# यशोदा 5 मत्स्यावतार में % वारायरश रूप में ॥ 
“» के० ग्रन्थ, पृ० २४२-३। 
+ परशुराम ओ रामचन्द भये सु एके बार । 
तो रज्जव हूँ द्वैषि करि को कहिए करतार ।॥। 
सर्बागी ४२, २६ ( साखी ) 


तीसरा अध्याय १६७ 


सेवक में किसी प्रकार का तात्विक भेद नहीं हे । दोनों के कृत्रिम शरीर 
है । दोनों योनि के सकट सें पड़ते हैं। दोनों में केचल मात्रा का भेद है । 
एक चींटी के समान निरबंल है तो दूसरा हाथी के समान शक्तिशाली ।)< 
दादू के अनुसार राम और कृष्ण दोनों माया के अंतर्गत हैं | गुलाल 
ने कहा कि अन्य जीवधारियों की ही भांति अवतारों को भी मोक्ष तभी 
ग्राप्त हो सकता है, जब थे परमात्मा की भक्ति करें ।- पलट के अलुसार 
चौबीसों अचतार काल के वश में हैं । राम, परशुराम ओर कृष्ण को भी 
मरना पड़ा।!. तुलसी साहब ने तुलसीदास जी की निम्नलिखित 

दत्त गोरख हगएवत प्रहलाद । सास्त्रौ पढिए न्ञ सुनिए वाद ।। 

( पाठ-साथ ? ) ॥। 

मारे मरे न सिद्ध सरीर | कृष्ण काल बस एकहि तीर ॥ 

--वही ४४,अश्रंतिम साखी ॥। 

» ठाकुर चाकर की क्तिंम काया। जोनी संकट दोन्यों आया ॥ 
एक कूजर एक कीड़ी कीन्हा | एकहि शक्ति घणेरी दीना ॥ 
ना सौ बूढ़ा ना सो बाला । बपना का ठाकुर राम निराला ॥ 

“वही, ४२, ८ ( पद ) 
माया बैठी राम ह्वे ताकू लखें न कोइ। 
सब जग मार्ने सत्त करि, बड़ो अ्रचम्भी मोहि ॥१४४ 
माया बैठी राम है, कहे में ही मोहन राय । 
ब्रह्मा विष्णु महेस लौ जोनी श्राव जाई ॥ १४३ 
“बानी, १ मं, पृ० १२६ 
- सुर, तर, ताग सानुष, झ्ौतार, बिनु हरि भजन न पाव पार ॥ 
“म० बा* पूृ० २२६) 
] दस चौदह श्रौतार काल के बसि में होई। 
पलट आगे मरि रहौ आखिर मरना मूल | 
राम कृष्ण परसराम ने मरना किया कबूल । बानी ,१ म,५४,११७। 


श्र | शक 


कल ७० 6 ५ ० 
श्द्प हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


चोपाई को सामिप्राय दृष्टि से उद्छ॒त किया है, जिसमें राम को भी मानना 
पड़ा है कि बिधाता के लेख को कोई नहीं मिटा सकता-- ० 

हँसि वोले रघुबश कुमारा । बिधि का लिखा का मेटन हारा ॥८ 

कम प्रधान विश्व रुचि राखा । जो जस करे सो तस फल चारा ।! 

नानक ने भो इसी अशिप्नाय का एक पद कहा है जो आदि ग्रन्प्र में 
तो नही है' पर 'सेकोलिफ? के अंथ में अनुवादित हे--“राम ने लच्मण 
ओर सीता के लिए विज्ञाप किया। उन्हें हनुमान से सहायता लेनी 
पड़ी । मूर्ख राचण नहीं जानता था कि मेरी झूत्यु का कार७ राम नहीं, 
परमात्मा है। हे नानक परमात्मा स्वतन्त्र हे पर राम भाग्य के लेख को 
नहीं मिटा सके ।7& सतथुग, त्रेता ओर द्वापर जिन्हें हिंदू कलियुग से' 
बहुत अच्छा समझते हैं, तुलसी साहब को बुरे लगते हैं, क्योंकि उनमें 
अवतारों की अधिकता हुई जिन्होंने मारकूट करना सिखाया, परमपद्‌ की 
राह नहीं दिखाई ॥+ 

पिछले संतों की पर-प्रवृत्ति भी श्रवतारों के विरुद्द पड़ती हे | तुलसी 
साहब के अनुसार दस अवतार परमात्मा के नहीं, काल के हैं। जो 





जगत्‌ को भ्रम में डालता है और पकड़ कर खाता रहता है ५८ जसा 


+  रत्नसागर, पृ० १८०, “रामचरितमानस”, 

क# मेको लिफ-- सिख रिलोीजन” १ मं पु० ३८२ । 

+ दह्वापर त्रता का यह लेखा | ये यूग मे शऔतार विशेषा ॥ 
मारि निसाचर जग के माही । यह क्वीला उनतने दरसाई ।। 
जीव जेहि घर से चलि झ्राया | वहि घर राह नहीं दरसाया ॥। 
मारकूट सयाम सुताया। झातम' हति जिव मारन गाया ॥। 

ह ““ रत्वनसागर”, पृु५ १५२। 
> दस अ्रवतार काल के जाना। जामे सारा जगत भुलाना ॥ 
-- घट रामायण, पृ० २८० । 





तीसरा अध्याय १६६ 


निरजन शीषक स्तंभ में दिखलाया जा चुका है। शिवदयालजी ओर शिव- 
नारायण जो दोनों इस सम्बन्ध में तुलसीसाहब से सहमत हैं । 

अबतारों को माया के अंतर्गत मानना सेद्धांतिक दृष्टि से अग्राह्म 
नहीं | इेश्वर, त्रिदेव, अवतार सोपाधिक हाने के कारण सब माया के 
ही अंतर्गत हैं । त्रिदेव को नानक आदि संतों ने स्पष्ट शब्दों में भी माया 
का पुत्र कहा है |८ निरुपाधिक ब्रह्म इन सब से परे हे । परन्तु इससे 
इन सबके वास्तविक महत्व सें कोई कमी नहीं आती । जिस अभशिप्राय 
से उनकी डद्भावना हुई हे, उसकी ओर भी एंकाथ संत की दृष्टि गईं 
है | गुलाब के शिष्य भीखा के शब्दों में ऐसे लोग बहुत कम हैं. जिन्हें 
राम-कृष्ण आदि अवबतारों का रहस्य ज्ञात हे । केवल ब्रह्म तो एक ही 
है किंतु उपासना की दृष्टि से भिन्न-भिन्न देवता अस्तित्व में आये हैं ।-- 
, जगजीवनदास का कहना है, “राम ने अवतार लेकर भक्तों का काम 
'सेवारा ओर उनके लिए दुःख उठाया ।”?-- परन्तु अवतारों के प्रति यह 
सामंजस्य-दृष्टि सब संतों सें नहीं मिलती । 





काल कराल कृष्ण अवतारी, सब जग को धरि खावे। 
““ शब्दावली”, पृ० १२०। 
एका साई जुगत बियाई तिन चेले परवारण ।॥ 
इक संसारी इक भंडारी इक लाये दीवाण ॥--जपजी 
अक्षय ब॒क्ष इक पेड है निरंजन ताकी डार |-- 
तविदेवा साखा भये पात भया संसार ॥--कबीर वचनावली 
पृ० १ 


|] 


० 


राम कृष्ण अभ्रवतार का बिरला पावे भेव । 
भीखा केवल एक ब्रह्म है, भेद उपासन देव ॥--म० ब० पृ० ८८ 

न देही धरि धरि नाच्यो राम । 

भवतन केर संवारयो काम ॥०--बए्ती, भाग २, पृ० ६६९, ५ । 


१३० हिन्दी काव्य में निगुंश संप्रदाय 


पलट ने सबसे बड़ा भक्त को, उसके बाद नाम को ओर उसके व्यद 
दस अवतारों को मानफर अवतार का-- चास्तविक्र महत्व स्वीकार किया 
है। क्योंकि साधना दृष्टि से कहा गया है, ( ओर इस कथन से अवतार 
का स्थान ब्रह्म के अनंतर आता है ) निगेण सगुण नाम संत । 
कुछ संतों में तो अवतार-विरोध यहाँ तक बढ़ा कि राम शब्द से 
उनको चिढ़ हो गई । और यहाँ तक देखा जाता है कि राम कबीर आदि 
पुराने संतों की चचनावल्ी में से राम॑ शब्द हटाकर नाम” शब्द उसके 
स्थान पर रखा गया। स्वयं कबीर-पंथ में यह विश्वास चला आ रहा हे कि 
कबीर ने सत्य नाम का प्रचार किया | रास नाम का नहीं | परन्तु श्रसल 
बात यह है कि जिस सत्य नाम का कबीर ने प्रचार किया वह राम नास 
ही है। गुलाल ने कबीर के मत को 'राम-मत” कहा है ।& कबीर के 
कुछ अनुयायी, जो विशेषतया अयोध्या में रहते हैं, अपने को 'राम-कबीर” 
कहते हैं । किर भी निर्गंणी संतों का अवतार-विरोध राम शब्द के 
बहिष्कार का कारण बना हे । 
अवार-विरोध का एक प्रधान कारण यह भी हो सकता है कि 
उसके द्वारा नर-पूजा का विधान हो जाने के कारण धर्म में पाखंड को 
घुसने का मार्ग मित्र जाता है। परंतु इसका कारण श्रवतार-वाद के 
मूल अभिम्राय को अच्छी तरह से न समझ सकना है। अवतार-पद्‌ 
कोड ऐसा अधिकार नहीं जो किसी व्यक्ति को इसी जीवन में प्राप्त हो 
जाय। वह तो एक अत्यंत पूूणता तथा महत्व-युक्त जीवन को बिताने 
के पीछ्ठे अयाचित रूप से मिलनेवाला पुरस्कार मात्र हे, जो उन्हीं को 
मिल सकता है जिन्होंने सदेव सत्‌ का पक्त लेकर असत्‌ के साथ घोर 
. +सब मे बड़ है सत, तब नाम है। 
तिसरे दस औतार तिनन्‍्हे परनाम है--बानी, भाग ३ पृ० ७५, ७ 


$ कबिरा राम-मत सो लही । हिंदू तुरक सबकी कही ॥। 
“म० बा०, पृ० ३९४ । 


बिता अध्याय १७९ 


युद्ध करने सें अपना संपूर्ण जीवन बिताया है, जिन्होंने किसी ईश्वरीय 
संदेश को अपने जीवन सें कार्य रूप सें परिणत किया हे। वह ऐसे 
आदर्श जीवन के प्रति समस्त जाति को हार्दिक श्रद्धा और प्रेम को अंजलि 
ह। कोन व्यक्ति इस पद्‌ के उपयुक्त है, जातीय मस्तिष्क इस बात का 
निर्णय तब तक नहीं कर सकता जब तक वह व्यक्ति स्वयं इस संसार में 
विद्यमान है। श्रद्धा की यह अंजलि किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि 
उसकी स्घुति को अर्पित की जाती ह। अतएुव अवतार-पद को वह 
'अपने स्वार्थ के लिए ग्रयुक्त नहीं कर सकता । 
यह भी बात नहीँ, कि सूचम अवतारबाद में बरह्य अथवा परमात्मा 
का सचमुच रक्त-मांस के मनुष्य के रूप में उतरना माना जाता हो । असल 
सें निबल मनुष्य परमात्मा के हाथों को अपने बीच सें काम करता हुआ 
देखना चाहता है। इससे उसको अ्रतिकार्य रक्षा की आशा होती हे । 
स्वयं मनुष्यों के बीच में परमात्मा की अनुपस्थिति की कल्पना से मनुष्य को 
सुरक्षितता की भावना और हार्दिक तृप्ति होती है । अतएव मनुष्य अपने 
हृदय की तृप्ति ओर इस आशा के आधार की रक्षा के अथ सत्‌ की रक्षा 
झें किये गये महत्व के कार्यो सें सदेव परमात्मा का हाथ देखता आता 
है । अतएवं अवतार वास्तविक स्थूल रूप सें नहीं, बल्कि सूच्म रहस्य रूप 
में अवतार हैं । परंतु पीछे जब इस रहस्यमय भावना का त्याग हो गया 
ओर अवतार वास्तिविक स्थूल अर्थ में अवतार समझे जाने लगे और यह' 
माना जाने लगा कि परमात्मा शरीर धारण कर विशेष झूप से इन्हीं अव- 
तारों के रूप सें अवतरित हुआ है 'तो अवतारवाद का चह मूल तात्विक 
अथ नष्ट हो गया जो समस्त मानवजाति के सामने महत्व का अभिनव 
मार्ग खोले हुए था ओर उसके विरोध के लिए जगह निकल आई । जो 
लोग ईसा को शारीरिक अथ सें इश्चर का पुत्र मानते हैं उनके हाथों 
डैश्वर के पुत्रत्य की भी ऐसी ही दुर्गति हुई है। किंतु मूल अर्थ में अच- 
त्तारवाद ओर ईश्वर की पुत्रता दोनों सिद्धांत निर्तात उपथोगो हैं । 


में छः + 
१७२ हिंदी काव्य में नि्गण संप्रदाय 


। «८ अवतारबाद के इस मूल सौंदर्य के सामने उसका खंडन करनेवटले 
' थे निगेणी संत भी इढ़ता के साथ खड़े नहीं रह पाये हैं । भक्तों को 
सूद्म सामीप्य-सुख के लाभ को आशा देनेवाले सुक्ृतियों ” पर दया की 
वर्षा करनेवाले और पापी अत्याचारियों पर नाश का बच्ध-निल्‍्षेप करनेवाले 
अवतार उनको अत्यंत मनोमोहक जान पढ़े। वस्तुतः स्वयं कबीर 
और अन्य कई संत इसी कारण अबतारों से बहुत आक्ष्ट हुए हैं। 
दुर्योधन के राजप्रासाद के राजसी व्यंजनों ओर विज्ञास की सामग्रियों 
को छोड़कर बिदुर की मोपड़ी में मिलनेवाले रुखे-सूखे भोजन में सुख 
मानना कबीर को विशेष रूप से आकर्षक जान पड़ा | उन्होंने नर- 
सिंहाचतार का भी खूब यशोगान किया है, जिसने बालक भक्त अहाद्‌ 
को अपने अत्याचारी पिता हिरण्यकश्यप के श्रत्याचारों से बचाया |+ 
दादू ने गोषियों के साथ नाना प्रकार से क्रीडा करनेवाले कृष्ण की 
स्तुति की है ।५ चरनदासियों के लिए कृष्ण समस्त सूष्टि का मुंल कारण 
हैं। सतनामी सम्प्रदाय के पुनरुद्वार कर्ता जगजीवनदास के अनुयायी 
वाराह और बावन अवतारों की भक्ति करते बताये गये हैं, यद्यपि उनके 


जलन न वजन 





/ लिन न “न तासलके किन जनक सात+म न के “नामक कट बक४५प४७५८५३८१०-६/० ४:५४०७/)... भमान्‍्वमकाप, 








कर ७३ नल अमल कब 


९9 राजन कौन तुमारे आवे । 
ऐसो भाव बिदुर को देंश्यो, वहु गरीब मोहि भाव... 
( दुपो घन ) हस्ती देख भरम ते भूजा हरि भगवान न जागा । 
“क० ग्र०, पृ० ३१८०, १७६। 
+ महापुरुष देवाधिदेव नरसिंह प्रगट कियो भगति भव | 
कहे कबीर कोइ लहे न पार । प्रहलाद उबारयो अनेक बार ॥ 
“वहीं, पृ० २१४ | 
> मुख बोलि स्वामी झंतरजामी, तेरा सबद सुहाव रामजी । 
घेनू चरावत बेनूु बजावन, दर्स दिखावन कामिनी । 
विरह उपावन, तपत वुझावन, अंगि लगावन भामिती ॥। 


“जीतरा अध्याय १७३ 


अजयायियों की इस अथा के ल्लिए ऊगजीबवनदारस की बानी में कोई आधार 
नहीं | जगजीवनदास का शिष्य दूलननदास तो अवबतारों का ही नहीं 
हनुमान, देवा, गंगा आदि का भी भक्त था | 
यहो नहों, निगणियों ने एक अकार से साधुओं के विशेष कर गुरुओं 
के महत्व को बढ़ाने के लिए भी अवतारबाद का उपयोग किया है। साधु 
ओर गुरू पृथ्वी पर साज्षात्‌ परमात्मा माने गये हैं। कभी-कभी तो गुरु 
परमात्मा से भी बड़ा माना जाता हे। इस प्रकार अवबवारों के सबंध में 
यह आज्ञेप कि उससे नर-पूजा के लिए जगह निकल्ल आती है, साधु- 
(जा ओर गुरु-पूजा के मंबंध सें ओर अधिक उपयुक्त ठहरता है। क्योंकि 
साधुओं ओर गुरुओं को तो यह सम्मान जो अबतारों को झत्यु के उपरोत 
मिलता हे, इसी जीवन में मिल जाता है । इस लिए उनके द्वारा उसके 
दुरुपयोग की अधिक संभावना है । यह दूसरी बात है कि सच्चे साथु- 
संत इस पद का दुरुपयोग नहीं कर सकते । परन्तु जन-समुदाय तो 
सच्चे ओर झूठे संत की पहचान सें हमेशा गलती करता ही रहेगा । 
बना हुआ साधु साज्षात्‌ परमात्मा की तरह पुजता हुआ समाज का घोर 
अकल्याण कर सकता है । जब तक तो गुरुआहई का आध्यात्मिक अनुभूति 
से संबंध रहता है, संभवत: उसका उतना दुरुपयोग न हो पर जब पीढ़ी से 
पीढ़ी अथवा शिष्य-परंपरा में वह चलने लगती हे तब निश्चय ही गुरुओं 
में उससे अनुचित लाभ उठाने की अबृत्ति जाग उठती है क्‍योंकि आध्या- 
व्मिक अनुभूति की परंपरा अपने आँचल सें बॉँध नहीं ले आ सकती । 
कुछ कबीरपंथी रचनाओं के आधार पर कुछ लोगों का यह भी 
विचार है कि वे पेगंबर अथवा अवतार होने का दावा करते थे । परन्तु 





सग खिलावन, रास वनावन, गोपी भावन, भूधरा | 
दादू तारण, दुते निवारण, सत सुधारण राम जी ॥। 
“बानी, २, १० २८१ 





० हा न 
१७४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


यह बात गलत है। चह अवतार अथवा पेगंबर के अथ में अपने आप की 
परमात्मा नहीं कहते थे बल्कि उस अर्थ में जिससें सभी परमात्मा हैं| 
उसने साफ शब्दों में कह। हे कि मैं दृश्य जगत्‌ के बहुरूपों को देखने के 
' लिए ( सामान्य लोगों की भाँति जगत्‌ में ) आया था किंतु नजर सें पड़ 
गया अनुयम परमात्सा ।& लोगों ने कबीर को सममने में गलती की | 
इसका कारए यह हं कि कबीर को तो अपनी पारमात्मिकता की अनुभूति 
हो गई थी पर अन्य लोगों को नहीं। । परन्तु इसमें भी संदेह नहीं कि कबीर 
के समय में भी गुरुआई के कार & खूब पाखंड फेल गया था । स्वयं 
कबीर के पदों से इस बात का समर्थन होता है। ऐसे ही गुरुओं के 
पाखंड को दृष्टि में रखकर उन्होंने कहा था, कि ज्ञानी मूल-शान को गंवा- 
कर स्वय कर्ता हो बठे हैं । 

हक यद्यपि कबीर आदि निगंरी संतों ने सिद्धांत रूप से अवतारवाद 
का खंडन किया है किर भी इसमें संदह नहीं कि उनके अजुयाग्रियों ने 
उन्हें अवतार बना डाला ओर सत्य की पूजा करने के बदले चे उन्हें 
अ्रवतार बनाकर उनको स्मृति की पूजा करने लगे। कबीर-पंथ में कबीर 
पृथ्वी पर साज्ञात्‌ परमात्मा का रूप सान कर पूजे जाते हैं । नि्गंणियों 
के सिद्धांतों के आधार पर चलनेवाज्े प्रत्येक संप्रदाय और संग्रदाय- 
प्रवर्तक के सम्बन्ध में यही बात कही जा सकती हैं । इस अकार जिस बात 
का इन संत-महात्माओं ने विरोध किया उसके नाम पर चलनेवाल्ले 
संग्रदायों ने उस बात को उन्हीं के व्यक्तित्व के साथ जोड़कर भ्रकारांतर 
से स्वीकार कर लिया | 


2.3० न-त+ अर कल ॥न्‍मक काला जैक तक. विकलानाकान,. जनक मममकतता का. शि।कपलतंे 2. 0. कॉल श्ल 4. न्‍लबैगाह 


९ आया था ससार में देखन को बरहुरूप । 
कहे कबी रा संत हो, पड़ि गया नजर अनूप ।। 
“-क० ग्रं०, १४, २४। 
+ ज्ञानी मूल गँवाइया, आपण भये करता | --बही, पू० ४१,२७ । 


चतुथ अध्याय 
निगुण-पंथ 

आध्यात्मिक साधना के हैश्वरोन्सुख सार्ग सें प्रगति का घुनरावतंन 
के रूप में होना अनिवाय है। जेसा कि पूर्व अ्रध्याय में कहा जा चुका 
है, मनुष्य विविध कोशों के स्तरों-ह्वारा परिच्छिन्न कर 
१, प्रत्यावतंन दिया गया है और अत्येक आवरण का पड़ता जाना 
की सात्रा क्रमश; ऊपर से नीचे की ओर उतरना सूचित करता हे। 
इस अवतरण के लिए पारिभाषिक शब्द हए/05955 
का प्रयोग किया जाता है। ऐसी कह भूमियाँ बन गई हैं जिनसें स्थूल्नता 
क्रमशः बढ़ती गई है ओर अंत में इसका स्तर इतना अधिक स्थूल हो 
गया है कि उसके द्वारा ढके हुए वा परिच्छिन्न आत्मा का आभास तक 
नहीं हो पाता ओर उसका ज्ञान तक लुप्त हो जाता है। परन्तु तो भी 
मनुष्य के भीतर इस आत्मा का अस्तित्व अवश्य है और वह अपनी 
पूण ज्योति से प्रकाशित है; यद्यपि उस स्थूल आवरण के कारण उसका 
प्रकाश हमें लक्षित नहीं होता । इस प्रकार श्रत्येक मनुष्य उच्चतम स्तर में 
रहता हुआ भी सभी डीचे के सरुतरों में भी तब तक वर्तमान रहता हे, 
जब तक उसके ऊपर उठ नहीं जाता । किर भी यह मान लेना आवश्यक 
नहीं कि भिन्न-भिन्न भूमियों में रहने के लिए आत्मा को भोतिक शरीरों 
की भाँति भिन्न-भिन्न कलेचर धारण करना चाहिए। साधक के सामने यह 
प्रश्न नहीं रहता कि हमें भोतिक शरीर को त्यागकर किसी छायात्मक वा 
तेजोमय शरीर सें प्रवेश करना है । यह वर्तमान शरीर ही सब प्रकार की 
अनुभूतियों के अनुझप आवश्यक साधनों से सम्पन्न हो जाता है। ऊंची से 
ऊंची भूमि भी जो, वास्तव सें सभी भूमियों से परे की स्थिति हे, इसकी 
अनुभूति से बाहर नहीं (निर्गंणी इश्कोण के अनुसार भौतिक शरीर की 
सहायता के बिना ऊंची भूमियों तक पहुँचना असंभव है । यदि अंतिम 
मोक्ष की प्राप्ति के पहले ही किसी का देहांत हो जाय तो, उसे छोड़े हुए 


१७६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


रथान से प्रारंभ करने के लिए एक यार फिर जन्म जेना पडता ६। 

वेदांत ने, आध्यात्मिक जीवन को लच्य में रखकर, शरीर के विविध 
व्यापारों को क्रशः कम होती जानेवाली स्थूल्ता के अनुसार भिन्न-भिन्न 
कोशों में विभाजित किया है । जिसका अन्त सभी व्यापारों के केन्द्र आत्मा 
होता में है । ऊपर से मीचे वा भीतर को ओर स्थिति के अमुसार इन्हें (१) 
अजच्नयमयकोश अर्थात्‌ अद्ज-द्वारा पोषित आवरण (२) प्राशमयकोश अर्थात्‌ 
प्राशों वा आणवायुओं का आवरण (३) मनोमयकोश अर्थात्‌ मन 
का आवरण (४) विज्ञानसथ कोश अर्थात्‌ बुद्धि का आवरण और (५) 
आननन्‍्दमय कोश अर्थात्‌ आनन्द का आवरण कहा जाता है। छोटे सुद्र- 
दास ने इस बात को एक कवित्त में बतलाया है और कहा हे कि अन्न- 
मयकोश प्रत्यक्ष भोतिफ शरीर हे, प्राशमयकोश विभिन्न आणवायुओं की 
रचना है, मनोमयकोश पंच कमन्दियों की आधार स्वरूप वासनाओों का 
बना हुआ है ओर विज्ञानमयकोश पंच जञानेरिद्रियों द्वारा निर्मित हे । ये' 
चार कोश जाग्रत एवं स्वप्न की अवस्थाओं में रहते हैं, आनन्दमथ कोश में 
गाढ़ी ओर निर्वाधित सुपुप्ति को अवस्था रहती है । और इन पाँचों कोशों 
के द्वारा आवृत रहकर ही आत्मा जीव वा जीवात्मा कहलाता है। सुद्रदास 
ने इन बातों के लिए शद्गराचार्थ के शारीरिक भाष्य का प्रमाण दिया है 

ओर वे कहते हैं कि इसका वर्णन सांख्य में भी किया गया है ।& ५ 


अनिललनननलसकल्‍र»न्‍न++ का + कला सनम फनताक का :उकलताल_+ कमा. 4त0- कमर +क्‍थ सपटक कफ... 040 कक तरफ, 


_7+3७००७७७७५०० ७०००० 





# अन्नमय कोश सोतों पिड है प्रगट यह, 

प्राशमय कोश पंच वायू बखानिए । 

मनोमय कोश पंच कर्म इन्द्री है प्रसिद्ध, 
पच ज्ञान इन्द्रिय विज्ञानमय कोश जानिए ॥ 

जाग्रत सुपन विषे कहिए चत्वार कोश, 
सुषुप्ति माहि कोश झानन्दमय भ्रानिए । 

पंचकोष भावना के जीव नाम कहियत, 

सुंदर शकर भाष्य साख्य मे बखानिए॥ 'सूदर विलास', ११६।॥ 


चतुर्थ अध्याय १७७ 


० यह मानना ठीक नहीं कि ऊपरवाली भूमियों के व्यापार नीची 
श्रणी की भूमि की सहायता के बिना सम्पन्न हो सकते हैं । यदि नीची 
श्रेणी के व्यापौर विरोध करें ओर नियमोल्लंचन करके विक्ृत रूप धारण 
कर ले तो ऊंची श्रेणीवाले कुछ कर न सकेंगे | अतएव उन्हें इस प्रकार 
सुधार लेना चाहिए कि ऊँचे व्यापारों में बाधा उपस्थित करने अथवा 
उन्हें प्रभावित करने की जगह उन्हें स्वेच्छापूवंक सहायता पहुचाने 
लगें। जब इस प्रकार सभी व्यापारों के बीच, चाहे वे सबसे नीचे वा 
सबसे ऊँचे के हों एक अकार का सामंजस्य स्थापित हो जाता हैं तो उसी 
दुशा सें आत्मा! अपनी वास्तविक स्थिति को आप्त होता है | 


विल्नियम किंग्सलेंड, जिन्होंने रहस्यचाद के विषय में वेशानिक ढंग 
से अध्ययन किया है, अपने “सायंटिफ़िक आइडिलिज़्म? ग्न्थ में बतलाते 
हैं कि हमारी प्रकृति के पूर्ण स्पष्टीकरण के लिए कम से कम चार भूमियों 
का मान लेना आवश्यक होगा ओर उनके अनुसार ये भूमियाँ नीचे से 
ऊपर अथवा बाहर से भीवर के क्रम से, भोतिक, आशणात्मक, मानसिक . 
ओर आध्यात्मिक हैं |& 

अनुभव की इन वेज्ञानिक भूमियों तथा वेदान्त-निरूपित कोशों में 
एक विचिन्न समानता देख पड़ती है । भिन्नता केवल यही है कि, हिंदुश्रों 
के आध्यात्मिक शास्त्रों सें व्यक्त प्राण सम्बन्धी महत्ता के कारण, 
बेदान्त ने किंग्सलैंड वाली भोतिक भूमि को अन्नमय एवं झ्राणमय नामक 
दो मित्न-मिन्न कोशों में विभाजित कर दिया है । इसके सिवाय, यह भी 
ध्यान सें रख. लेना आवश्यक है कि वेदान्त के अनुसार जीवएसमा के 
अंतिम अ्रभीष्ट की पु्ि आननन्‍्दमय कोश-ह्ारा भी नहीं हुआ करती। 
भूमि की भावना अपने विशुद्ध रूप में आत्मा से नितान्त भिन्न है। 
किंग्सलिंड की आध्यात्मिक भूमि के अन्तगंत आनन्दमय कोश एवं 


अल भनयवकरनानम कल 


क$ पृ० २३३. 





१्७्८ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


निरुपाघिक अवस्था इन दोनों का ही समावेश बिया जा सकता हे, 
यद्यपि इस बात का पता नहीं कि उनका अपना अभिग्राय ऐसा था 
या नहीं । 

इन विभिन्न भूमियों तथा व्यापारों-द्वारा स्वतन्त्ररूप से, आध्यात्मिक 
मार्ग की भिन्न-मिन्न अवस्थाओं का भी बोध हो सकता है ओर बहुधा 
उन्हें ऐसा ही मान भी लिया जाता है। परन्तु इन अ्रवस्थाओं की 
संख्या, साधक-विशेष के अनुसार बदलती रहती है ओर उसका निश्चय, 
केवल कर्मों के वर्गीकरण-द्वारा नहीं वरन्‌ उन्हें परिष्कृत करने की भ्रगति- 
द्वारा किया जा सकता है। क्योंकि व्यापारों के केवल चर्गीकरण-द्वारा ही 
इसका निर्णय नहीं किया जा सकता, बल्कि उन भागों सें के विस्तारा- 
नुसार ही होता है जिन्हें साथक उन व्यापारों को विकारध्टीन बनाने के 
भूतल में उठा सकता है | इसी कारण हम देखते हैं कि निगण संप्रदाय 
के भिन्न-भिन्न संत्तों ने उक्त भूमियों की भिन्न-भिन्न संख्याएं निर्धारित 
की हैं। शिवदयाल साहब ने तथा कुछ कबीर-पंथियों ने भी पंद्रह' 
भूमियाँ बतलाई हैं, उनके शिष्यों ने अठारह, तुलसी साहब ने बाईस 
शून्यों की कल्पना की हैं भर कतिपय अन्य कबीर-पंथियों ने छुब्बीस 
लोक ( जिसमें सात पाताल, सात आकाश, सात शून्य ओर पाँच निरु- 
पाधिक भूमियाँ श्राती हैं ) ठहराये हैं । 

किन्तु, स्थिति जेसी भी हो, इतना स्पष्ट है कि, यदि किसी को वह 
डपाधिरहित स्थिति पुन; आप्त करनी हे तो, उसे अपने को इन स्थूल 
भूमियों से क्रमशः अलग करते हुए, उन सीमावर्ती आचरणों को भी 
दूर कर देना होगा जिनके भीतर वह पड़ा हुआ हे । इसी कारण 
निगंणियों ने अपने ईश्वरोन्मुख मार्ग की, अ्रनलपत्ञ नामी काल्पनिक 
पत्ती के बच्चे की, अंडे से बाहर होने की क्रिया के साथ तुलना की हे 
जो एथ्वी से स्पर्श होने के पहले ही समाप्त हो जाती है और वह फिर 
आकाश की ओर वहाँ तक उड़ जाता है जहाँ उसकी माँ ने वह अंडा 


चतुर्थ अध्याय १७६ 


दिशा था। उन्होंने उसे मछुली के उस तेरने के समान कहा हैं जो नदी 
की धारा के विरुद उसके मूल खोत की ओर बढ़ते समय दीख पढ़ता 
है अथवा उसे मकड़ी के अपने उस केन्द्र की ओर फिर लोटने के सदश 
बतलाया है जहाँ से उसने जाले का तामना आरम्भ किया था| उदाहरण- 
स्वरूप कबीर ने कहा ह--गुरु ने अगस की ओर से आती हुड्डे धारा से 
परिचित करा दिया, उस धारा को उलट कर ओर उसके साथ स्वामी 
को मिलाकर उसका स्मरण करो ।& यहाँ पर धारा से तात्पय 99088(4 आं5 
की उस धारा से है जिसके द्वारा स्वामी ने मनुष्य का रूप 
धारण किया है | 

इस प्रकार प्रत्येक भूमि की स्थिति सें हमारो दशा अनेकरूपिणी 
हो सकती हे क्योंकि एक तो हमें उस भूमि का अनुभव होगा जिससें हम 
वतंमान में स्थित हैं ओर साथ ही उन भूमियों का भी जो उससे परे की 
हैं। कारण यह है कि, अपनी वर्तमान स्थिति का अनुभव करते हुए भी 
हम अपनी प्रथमावस्था से कभी अलग नहीं हो सकते । अपनी वर्तमान 
स्थिति की विशेषताएं हमें सदा प्रभावित ही करती रहेंगी । अपने भोतर 
वासनाओं को प्रश्नय देते हुए भी हम अपने हैश्वरत्व का परित्याग नहीं 
कर सकते, जेसा कि शिवदयाल, ने कहा है कि “मेरा राधास्वासों 
मानसिक भूमि की अवस्था में वासनाओं का अभिलाषी हो गया हैं ।/?< 
इस अकार हमारी .बाह्य दशा हमारी निम्नतर स्थिति, तथा आन्तरिक दुशा 
उच्च स्थिति हुआ करती हे ओर हमारी स्थिति की नीची छोर स्थूल जगत्‌ 
को तथा ऊँची छोर आध्यात्मिक भूमि को सदा स्पश किये रहती है। 





&# कबीर धारा अ्रगम की सतगुरु दईं लखाय। 
उलटि ताहि सुमिरन करो, स्वामी संग मिलाय ॥ 
हे (स॒० वा० सं०, पु० 
» मनके घाट हुए झ्रनकामी । असमेरे प्यारे राधास्वामी ॥ 
सार वचन १, प० १२ | 


१८० हिन्दों काव्य में निगुण संप्रदाय 


दादू के शब्दों में “प्रत्येक शरीर में दो दिल्लों का निवास है जिनमें से एक 
खोके का बना हे और दूसरा ज्योतिर्मय है तथा जिस प्रकार खाक चाला 
सदा अन्धा होता है उसी प्रकार प्रकाशवाले में सदा भगवान्‌ बसा 
फ़रते हैं ।9८ 

सानवोय स्थिति, कोरो भोतिक भूमि से कुछ भूमियों की ऊँचाई पर 
है | हमसें से बहुत लोग अभी तक उसी भूमि पर हैं. जिसे किंग्सलेंड ने 
सुविस्तृत भूमि कहा है ओर जिसे सर्व-साधारण मानसिक भूमि कहेंगे । 
इस भूमि पर हमारे चित्त की स्थिति हमारी सभी प्रकार की कमियों के 
समष्टि रूप में हुआ करती है जिसमें अधिक स्थूल भोतिक सीमाएँ नहीं 
पाई जातीं ओर हमारी आध्यात्मिकता भी बनी रहती है । इन सीमाओं 
के रहते हुए भी हम लोगों को अपनी उस शुद्ध प्रकृति अथवा उपाधि- 
रहित तत्व का मानों स्मरण बना रहता है, जो हमारे जीवन-काल् के 
अधिकांश भाग में उपाधियों ह्वारा दबा रहता है क्‍योंकि मन का यह 
स्वभाव ही है कि वह हमारी स्थिति के दवी मार्ग के उच्चतर वा आध्यात्मिक 
अंश को सदा स्पश करता रहे | निगेशणियों-के अनुसार_इसी स्मरण शक्ति 
के लिए पारिभाषिक शब्द “सुरति” है । 

यदि हसें अपने भ्रत्यावतेन वा आशभ्यंतरिक यात्रा में सफल होना है तो 
हे चाहिए कि मन को उन उपाधियों से नितांत रंहित कर द॑ जिनकी 
उसने सष्टि कर डाली है।.' 


मन सें, इस प्रकार, दोनों पक्षों की शक्ति गुप्त रूप से वर्तमान है। 


कबीर के शब्दों में “मन पर अधिकार न रख सकने के कारण ही हमारी 
हार होती है। ओर उस पर विजय आप्त कर लेने पर ही विजय होती 


उन नर अशमफमलमनममताका, 





* देहीमाहे दोइ दिल, एक खाकी एक न्र। 
खाकी दिल सूभे नही, न्री मंक हजूर ॥ 
स॒० बा० सं० पृ० ६२ । 


चनुर्थे अध्याय १८१ 


हि । इसलिए, कबीर कहते हैं कि अपने प्रियतम की उपलब्धि श्रद्धान्वित 
सन के द्वारा ही संभव हे ।?& 

मनुष्य यदि प्रयत्नशील रहे तो वह अपने मत्र की सहायता से 
आध्यात्मिक भूसियों तक ऊपर उठ सकता है, किंतु यदि सावधान 
न रहा तो इच्छा न रहते हुए भी डसका अधःपतन शीघ्र हो सकता है | 
भोतिक तत्वों का संसर्ग होने के कारण मन में जड़ता आ जाती है और 
वह तब तक नीचे की ओर गिरता चला जाता है जब तक इसकी गति 
को रोककर उसकी दिशा बदलने की चेष्ट न की जाय | इसल्निए डस 
“खाक:द्वारा निर्मित मन के लिए आवश्यक है कि वह' “ज्योति निर्मित 
मन को जाग्मत किये जाने के पहले ही मर कर नष्ट हो जाय ६ बृ्च बहुत 
ऊँचा है, उसके फल आकाश में लगे हुए हैं ओर उन्हें चुने हुए पत्ती ही 
खा सकते हैं; उनका रसास्वादन केवल वही कर सकता है जो जीता 
ही झूतक हो जाय ।??+ इसी प्रकार मलूकदास भी कहते हैं---बहुत से 
दिखावटी पीर जो पीरों के भेष में रहा करते हैं, किंतु सच्चा दरवेश 
चही है जो भगवान्‌ के कोपस्वरूप इस मन को मार डाले |>५ मन को 
भगवान्‌ का कोप इसलिए कहा है कि यह मन ही हमें निकृष्ट भोतिकता 





हु के हारे हार है, मनके जीते जीत ॥ ४! 
परमातम को पाइये, मत ही के परतीत ॥॥ 
क० बा०, पृू० ६६, ६८५ ॥। 
न ऊंचा तरुवर गगन फल, बिरला पंछी खाय । 
इस फल को तो सो भरते, जीवत ही मरि जाय ॥| 
“सं? बा० सं, १, पृ० ४। 
२६ बहुतक पीर कहावते, बहुत करत है भेस । 
यह मन कहर सुदास का, मारे स्रो दुरवेस ॥ 
बही पृ० ६९६ । 


श्र हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


के गत में हमारा अधोमुख पतन करा देता है। श्रात्मा ने अपने ऊपर 
उपाधियों का आवरणा[ उनसे होकर वा उनके द्वारा कार्य करते के निमित्त 
चढ़ा रक्‍्खा है। अ्रतएव इसे आत्मा की शक्ति के लिए साधना-स्वरूप 
होना चाहिए । किंतु जब इसे स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है तो यह काम 
करना छोड़कर इन्द्रियों को अपनी ओर से उन्मुक्त कर देता है जो बास- 
नाओं-द्वारा उसको भी जाकर इस स्वर्गमयी भूमि को नरक रूप सें परिणत 
कर देता है । कबीर ने कहा हे--“मन पाँच क्मन्द्रियों के वश में रहा 
करता है वे इसके वश में नहीं | जिधर देखता हूँ उधर ही दावानल जल 
रहा है और जहाँ कहीं भी भागना चाहता हूँ, वहीं आँच लगती है ।??- 

देवी मन जिसका अधिकार खाक के मन पर नहीं रह जाता अपनी 
वतंमान गति से असन्‍्तुष्ट होकर अपने स्वभाव के श्रनुकूल वस्तुओं की 
चाह में सदा रहा करता है, किंतु खाक का बना मन अपने स्वभाव के 
प्रतिकूल बनी वस्तुओं से ही अंसन्‍्तोष को दूर करने में प्रयुक्त रहता है 
इसलिए सन्‍्तोष हो भी तो केसे ? इसी बात से उद्निग्न होकर 
कबीर ने अभिशाप के रूप में कहा हे---“इस मधुरानगरी (अर्थात्‌ 
शरीर ) पर बज्भपात हो जाय जहाँ से कृष्ण ( आत्मा ) को निर्वासित 
वा असन्‍्तुष्ट होकर जाना पड़ता है |” यद्यपि इस प्यास के बुमाने के 
साधन हमारे भीतर विद्यमान हैं तो भी आश्वचय हे कि हम उसका 
उपयोग पूर्ण रूप से नहीं कर पाते; जेंसा कि तुलसी साहब ने कहद्दा 

है--“पानी में रहती हुई भी मछुज्ती मर रही है, इस बात को केवल 


+ मन पाँचो के बसि परा, मन के बस नहि पाँच । 
जित देख तित दौ लगी, जित भाग” तित आाँँच ॥ ६६२ ।। 
क० की बानी पृ० ६७ । 
बजर परो इहि मथरा नगरी, कानन्‍ह पियासा रे ।। ७६ || 
क० ग्र०, पृ० ११२। 


चतुथे अध्याय श्् 


कुछ चुने हुए ततलीन संत ही जानते हैं ।?? >प्यास वा असनन्‍्तोष तभी 
जा सकता है जब मन हमारे वश, में पूर्ण रूप से आ जाय, जब 
इल्द्रिय जन्य«जीवन की दृष्टि से सार दिया जाय और आध्यात्मिक जीवन 
की इष्टि से भल्ली भाँति जागरूक रहे तभी स्वयं भगवान आकर हृदय 
को अपना निवास-स्थान बना लेते हैं | दादू का कहना है कि, “जब सन 
भोतिक तत्व की दृष्टि से झतक बन जाता है और इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो 
जाती हैं; तभी हमारा मन शरीर के सारे गुणों से रहित होकर निरंजन 
सें लग जाता हे ।?)८ कबीर ने भी अपने स्वाभाविक ढंग से कहा है कि 
जब मन मर जाता है ओर शरीर शक्तिहीन हो जाता है तो मैं जहाँ-जहाँ 
जाता हूँ बहीं हरि 'कबीर-कबीर” पुकारते पीछे लगे फिरते हैं ।</ 

< अतपच यह बहुत आवश्यक है कि मन की भ्रवृत्तियों को वहिमेख से 
अंतमेख करा दिया जाय। सभी श्रकार की वाह्मपूजाएँ जिनके द्वारा वहि- 
मेख वृत्तियों को सहायता व उत्तेजना मिल सकती है. इसी कारण बन्द 
ही नहीं, वरन्‌ पूर्णतः तिरस्कृत की जानी चाहिएं। जब उस धर्म के 
द्वारा, जिसका मुख्य प्रयोजन मनोनिहित विषयों पर विजय प्राप्त करना 
है, मन पर ओर भी बन्धन होने लगे तो हम उसकी मुक्ति की आशा 
क्या कर सकते हैं ? मूर्ति की गणना तो उस सूचो सें की गई हे जो निकृष् 





> पानी से मीन पिकसी + जानत कोई संत. बिलासी ॥.' 
शब्दावली २, पृ० १६८ । 
२ जब मन मृतक हे रहे इन्द्री बल भागा। 
काया के सतगुरु तज, नीर॑जन लागा ।॥। १२८ ॥ 
बाती है मे, पु० ११४ | 
% कबीर मन मिरतक भया, दुरबल भया सरीर। 
पाछे लागे हरि फिरे, कहूँ कबीर कबीर ॥। 


सं० बा० सं०, भा० ३, पृ० ४८ 


श्य४ हिंदी काव्य में निग॒ण संप्रदाय 


पदार्थ है ओर उसके अनन्तर ही पेगंबरों व अबतारों के नाम आते हैं। 
जो धार्मिक संप्रदाय बाह्य विधानों कौ महत्व दिया करते हैं. उन्हें भी 
निगंण पंथ ने नहीं छोड़ा है । संन्‍्यात्तियों की इस अथा को 'लच्य कर कि 
वे बालों को मुंडा लिया करते हैं, कबीर ने कहा हैं कि “यदि बाल मुड़ने 
से ही भगवान्‌ की आप्ति हो तो सभी मुडाकर उसे पा सकते हैं, किन्तु 
भेड बार-बार मुड़ाई जाने पर भी स्वर्ग तक नहीं पहुँच पातीं | बालों ने 
अपराध ही क्या किया हैं, जो उन्हें बार-बार मुड्ठाते हैं, उस मन को ही 
क्यों नहीं, मूंढ़ते जो विकारों ने भरा हुआ है ।&' इसी अकार घरनी भो 
कंहते हें... जबतक मन वास्तविकता को भत्नी भाँति अहण नहीं कर 
लेता तब तक कुमति का द्वार टूट नहीं सकता और न तुम्हें सुक्त करने के 
लिए सगवत्कृपा का प्रयोग ही हो सकेगा । तबतक तुम व्रतपालन अथवा 
तीर्थयात्रा के अ्म सें पड़ कर अपने को क्‍यों भटकाते फिर रहे हो ? तुम 
अपने मन को पूजागृह, मूर्ति ऐवं मसजिद में लगाकर धोखे में डाल रहे 
हो । केवल दान देने, अतिदिन पुराणादि सुनने से ही तुम्हें भचसागर 
पार करने में सहायता नहीं मिल सकती | धरनी कहते हैं कि नावरूपी 
वास्तविक ज्ञान का मन सें प्रवेश करना ही केवल तुम्हें पार लगायेगा | 

यदि तुम भक्ति के साथ डसका आश्रय ग्रहण करोगे” ।+- दादू के शब्दों 


अलनशललकल्‍न»णन-थ 


। & मूड मु डाए हरि मिले, सब कोई लेइ म्‌डाय । 

बार-बार के म्‌ ड़ते भड़ न बक्ठ जाय ॥| ३६१ || 

केसन कहा बिगाडिया, जो मू ड़े सौ बार । 

मत को क्यों नहि मूड़िये, जा में' भरे बिकार ॥ ३६२ ॥। 

क्‌० की बानी, पुृ० ३६। 

+ जोलो मन तन्‌ नहिं पकरे। 

तौलौ कुमति बिकार न टूटे, दया नही उघरे॥ 

काहे को तीरथ बरत भटकि धरे भ्रम थकि थकि थहरै । 


चतुथ अध्याय १्प५ 


सें “अन्दर वा मसजिद सें जाने की कोई भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि 
चास्तविक मन्दिर ओर मसजिद अपने हृदय के ही भीतर हैं जहाँ भगवान्‌ 
की सेवा या सिंजदा किया जा सकता ह” |» इसी प्रकार मन भौतिक 
प्रश्ृत्तियों से रहित होकर अ्राध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने योग्य बनेगा । 
तात्पर्य यह कि जिस प्रकार आत्मा ने देश-काल एवं कार्य-कारण के 
नियमों की मर्यादा अपने ऊपर डालकर अपने को माया सें फेसा रक्‍्खा 
है उसी विपरीत ढंग से उसे क्रमशः मुक्त कर अपने म्ूलरूप में लोटा 
लाना होगा। दादू ने भी कहा हे कि “सुरति को परिवर्तित कर उसे 
आत्मा के साथ मित्रा दो ।!!+- 
अपने से ऊंची अवस्था में भी हसें सुरति की सहायता अ्रपेक्षित 
है। वहाँ भी हमें चाहिए कि इसे पकड़े रहें, क्योंकि वहाँ भी मर्यादाएँ, 
जो सापेज्षरूप से क्रम ही क्यों न हों, अवश्य वर्तमान हैं ओर उन्हें भी 
डसी प्रकार पार करना पड़ेगा जिस अकार यहाँ नोचे की ओर हमें स्थूल् 
परिस्थितियों को पार करना पड़ता है। प्रत्येक भूमि की श्रव॒स्था में हमें 
दुहरी स्थिति का अनुभव होता है और यदि हम सुरति को भूल जायेंगे 
जो वास्तव में इेश्वरोय स्थिति का बोधक है, तो हमारा ऊपर का उठना 
अवश्य बंद हो ज्ञायगा । और सम्भव हैं कि हम नीची भूमियों तक गिर 


मंडप महजित मुरति सुरति करि धोखहि ध्यान घर ॥॥ 
दात विधान पुरान सुने नित तो नहि काज सरे। 
घरनी भव जल तत्तु नाचरी चढ़ि चढ़ि भक्त तरे | 
बानी, पु० २३। 
>* यहु मस्रीत यहु देहरा, सतगुरु दिया दिखाइ॥ 
भीतर सेवा बदगी, बाहर काहे जाइ।॥ ५४ ॥। 
बाज़ी भा० १, पृ० १७४। 
न सुरति अपूठी फेरि करि, आतस माहे झ्ाखि ॥ 
सं० बा० सं*, भा० है, १० ८१। 


१८६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


भी जायें । इस अकार जब तक धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए हमें उस स्थिति 
की अनुभूति न होने लगे जहाँ पर सुरति केवल स्छति के रूप में ही न 
रहकर उस भगवत्तत्व की पूर्णता में विलीन हो जाती हे," तबतक सुरति 
की उपेक्षा उचित नहीं कही जा सकती। सुरति के अभ्यास श्रोर 
अनुशीलन में ही हमारा वास्तविक कल्याण है । 
इन्द्रिय परक जीवन से मुक्ति पाने की आवश्यकता आध्यात्सिक 
जीवन वा प्रत्यावत्तन की मात्रा को हमारे लिए कबीर के अनुसार इतना 
कठिनाबनाती हे जितना सूली के ऊपर नटविद्या का 
' मध्यममार्गं अभ्यास करना हे क्‍योंकि उसमें यदि खिलाड़ी प्रथ्वी पर 
गिर पड़े तो, उसे दशकों द्वारा नष्ट कर दिया जाना तक 
सम्भव हो सकता है |७& क्योंकि साधक यदि आदुश शुद्ध जीवन व्यतीत न 
कर पावे तो, उसे निश्चय ही अपनी उन संसारी काल्पनिक वासनाओं का 
शिकार होंनां पड़ेगा जो उस पर श्रचानक टूट पड़ने की ताक सें रहा 
करती हैं. श्रोर, यदि ऐसा हो जावे तो, आध्यात्मिक जीवन का नाश 
अवश्यग्भावी ह। 
» अनेक सम्प्रदायों ने उक्त स्थिति से बचने के लिए बड़े विषम साधनों 
की व्यवस्था की है'। इन्द्रिय परक जीवन से अपने मन को दूर करने 
के लिए तप के अभ्यास ओर सांसारिक प्रलोभनों से विरत 
होकर आश्रमों वा वनों में गसन का आश्रय लिया जाता हैं। 
मध्ययुगीन ईसाई संतों के लिए कहा जाता है कि वे अपने शरीर को 
बड़ी निदेयता के साथ पीड़ित करते थे। हिन्दू लोग तो ऐसी खूत्यु 
तक का आवाहन करते थे जो आरों द्वारा शरीर के दो टुकड़ों में 
चीरने के कारण होती हो और वह स्थान जहाँ पर यह काये फ़ीस 


#9 कबीर कठिनाई खरी, सुमिरता हरिनाम । 


सूली ऊपर नटकला; गिरनो नाह्ी ठाम ।। 
क० ग्रं० [० ७, २९ 


चतुर्थे अध्याय १८ 


लेकरू किया जाता था आज भी काशी में दिखक्काया जाता है। 
सनुष्य को चिष्ठा, खाने तथा उसके मूत्र का पान कर जाने की क्रिया 
एवं पात्र की जँगह सनुष्य की खोपड़ी में भोजन करने की प्रथा जो अधोर- 
पंथियों सें प्रचलित हे, वह भी इन्द्रियों का दुमन करने के लिए ही चली 
थी। हाँ, ऐसा कठोर शासन उन पर इस्तलिएँ किया जाताथा कि वे 
अपने पूर्ण अधिकार सें आ जाये ओर घणित से घृणित वस्तु भी डनके 
हारा गहंणीय न जान पडे । 
इसके विपरीत ऐसे सम्प्रदायों की भी कमी नहीं, जो इससे नितांत 

अतिकूल मार्ग का अवल्नम्बन करते हैं और इन्द्रियपरक जीवनयापन के 
लिए पूर्ण स्वतंत्रता की व्यवस्था देते हैं क्‍योंकि उनके मंतव्यानुसार कभी 
न कभी वह भी समय श्रा सकता है जब हम कह उठे कि “अब पूरा 
तृप्ति हो गई, अधिक नहीं ।” इस अकार के संप्रदायों का उद्देश्य उनके 
प्रति,अतिरेक-द्वारा ही अरुचि उत्पन्न करना होता है ॥ इन संअदायों में कुछ 
तांत्रिक मत भी हैं जो अपने अस्तित्व के लिए आज कुछ अ्रन्य बहाने भी 
निकालने लगे हैं | 

-“ परन्तु सत्य का अनुभव अति मात्राओं में कभी नहीं हुआ करता 
और उक्त दोनों में से कोई एक भी अतिरेकता हमें सत्य तक पहुचाने सें 
सहायक नहीं हो सकती | दूसरी अति मात्रा की असत्यता तो स्वयं 
सिद्ध है ओर यह हास्यास्पद भी है । इससे तो “बृद्ध/ वेश्या तपस्विनी”” 
अर्थात्‌ बूढ़ी वेश्या का तपरिवनी बन जानेवाली संस्कृत कहावत का स्मरण 
हो आता हे। ऐन्द्रिक जीवन सें कोई भी अतिपूर्ति का अनुभव नहीं कर 
सकता जब तक इन्द्रियाँ निरथंक नहीं हो जातीं ओर, इन्द्रियपरक जीवन 
के यापन करने का उस समय महत्व ही क्‍या रह' गया जब अपनी इच्छा 
के अनुसार हम उसका उपभोग नहीं कर सकते और न इस अकार अपने 
आध्यात्मिक जीवन में उसका कोई उपयोग ही सिद्ध होता! है । कोई भी 
नहीं चाहेगा कि में अपनी अध्य्यात्मिक दशा को अशक्त वा जीय॑-शीर 


श्व्प हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


रूप में परिणत कर दूँ । दोंष इन्द्रियों में ही नहीं बल्कि उस मन के सीतर 
है जो सारी वासमाओं की उत्पत्ति का भूल स्थान है ओर यो इन्द्रियों 
को दुष्कर्म करने के लिए सद! ग्रेरिंत किया करता है | 
, पहली अति मात्रा भी, जो यद्यपि बहुत अपनायी जाती है, सत्य से 
कहीं दूर है । यह मुख्य संमस्या का हल उसकी ओर से आ्राँख बचा कर 
करना चाहती है, अलोभनों से भाग कर ही उनसे अ्रछता रहना 
चाहती है ओर वासनाओं के उत्पादक मन का केवल अनुसरण 
मात्र करनेवाली इन्द्रियों को अशक्त बनाकर ही इन्द्रियपरक जीवन से 
सुक्त होना चाहती है। किन्तु ये मार्ग सर्वधा निष्फल हैं । बनों में भाग 
निकलना या आश्रमों का आश्रय अहण करना धोखा देना है । कोई भी 
बिल्ली किसी तोले को केवल इसीलिएं मारने से नहीं रुक सकती कि 
तोते ने आंगासी संकट की ओर से अपनी आँखें मं द्‌ की हैं। जब किसी 
को किसी वस्तु के सम्मुख आने का ही अवसर नहीं आया तो उसका 
उस पर विजय जाभ कर लेना केसे कहां जा सकता है, सम्भव हैं कि वह 
उनके द्वारा अधिक सुगमता के साथ अभिभूत हो जाय यदि उनके समण्ष 
आने का कभी अवसर आ! जावे । अल्तोभनों-द्वारा किसी के अस्पृष्ट रह 
जानें तथा स्थूल इन्दियों की सीमा के बाहर जाने की मुख्य पहिचान 
तभी हो सकती है जब हम इन अलोभनों के बीच रहँते हुए भी इनसे 
ञद् ते रह जाये । 
अतिमात्राश्रों की सग-भरीचिका के पीछे दोढ लगानेवाले लोगों के 
प्रति सवग्रथम महात्मा गोतसबुछ ने बतलाया था कि सत्य का पाना 
उनके द्वारा नहीं, बढ्कि मध्य मार्ग-द्वारा ही सम्भव है । उन्होंने कहा था 
कि वीणा के तारों को यदि अधिक कस दिया जाय तो वे हूट जायेंगे ओर 
यदि उन्हें ढीला रक्खा जाय तो उनसे कोई स्वर नहीं निकक्ष सकता । 
इसलिए उन्होंने दोनों अंति मौत्राओं का परित्यागं करने की संक्षाह् दी 
थी अत्यधिक खिंचाव अथवा अधिक दढीलापन ने रैंहने ५९ ही वह 


चतुर्थ अध्याय १८६ 


अद्वभ्य स्थिति आ सकती है जिससे वीणा के तारों द्वारा संगीत का सुवर 
संवादन निकल सके और यही दशा हमारे विपंची रूपी इस शरीर 
की भी है, यदि इस मंत्र द्वारा आध्यात्मिक स्वरैक्‍्य को जाग्रत करना है 
तो न तो इसे उपवासों वा क्लेशों द्वारा नष्ट कर देना आवश्यक है और 
न कुत्सित इन्द्रिय-जन्य विषय-भोगों का साधन होने देना है | इस बांत 
निगणियों का गौतमबुद्धू के साथ पूरा मतेक्य है। _दादू क कहते हैं--. 
(“हमारा उच्च विचार तो इस प्रकार का है कि हम सांसारिक बातों को 
ने ग्रहण करें और न परित्याग कर दे, हम लोग सध्यमा्ग पकड़ कर ही 
मुक्ति के द्वार तक पहुँचना चाहते हैं |” 
यह मध्य वा बीच का सांग, जिसे हम जानते हैं कि निगण संग्रदाय- 
वालों ने बोद्ध धर्म के सिद्धांतों से लिया था, स्वभावतः बच्ध के साथ 
युद्ध करने के समान है। यह मार्ग इतना मानकर चलता है कि जगत्‌ 
का सापेक्य इृष्टि से अस्तित्व अवश्य है और उसके विरुद्ध हमें कार्य 
करना हू । जगत्‌ के स्वमिल रूप के कारण किसी को धोखा न होना 
चाहिए कि इसके विरुद्ध हमें तेयार नहीं रहना है। स्व भी जब 
तक वर्तमान रहता है, किसी न किसी दृष्टि से सच्चा ही कहलायेगा। 
सापेज्ञिक संत्यता का प्रभाव हमारे ऊपर तब तक वर्तमान रहता है जब 
तक हम अंतिम सत्य को साज्ञात्‌ नहीं करते । हाँ, जब अंत तक लड़कर 
हम लोग जगत्‌ संबंधी संचाई की सापेत्षता सिद्ध कर लेते हैं ओर इस 
प्रकार शाश्वत्‌ सत्य को उपलब्ध भी कर लेते हैं तो डस समय जगत्‌ 
का कोई मुंल्ये ही नहीं रह जाता । किंतु तब तक इमारा युद्ध चलता 
ही रहेगां। पलायन बृत्तिचालों को कबीर ने नीचे लिखे शब्दों द्वारा 


नाल ल्‍िलीनलन, 4६% | ७ 









ना हम छाडे ना ग्रहे, ऐसा ज्ञान विचार । 
भद्धि भाव सेवें सदा, दादू मुकत्ति दुवार।। 
बानी भा० १, पृ० १७०। 


१६० हिन्दो काव्य में निगुण संप्रदाय 


फटकारा हें--तुम एक कण के लिए भी जगत के समझ न ओीकर 
असत्य के बंधन का ही निर्माण कर रहे हो; तुम्हारी बातें धोखे से भरी 
हैं और चासनाओं से लदी हैं, जब तक तुम उन्हें सिर पर लिये हो 
तब तक हल्के किस प्रकार हो सकते हो। अपने भीतर सत्य, अनासक्ति 
ओर प्रेम के भाव सदा जाञ्रत रक्‍्खो ।$& 


पलायन वृत्तिवाल्ों का मार्ग कायरों का मार्ग है और भगवान के 
माग का अजुसरण करनेवालों के लिए नितांत अनुचित है। इस 
मार्गवालों को जगत्‌ के आमने-सामने रहकर उसे निरपेश्ञ भाव से देखना 
श्रोर उससे लड़ते हुए सुक्ति की ओर आगे बढ़ना है। उसके भीतर का 
अंतदद्ध बाहर युद्ध करनेवाज़े शूरचीर की लड़ाई से कहीं अधिक 
भयानक होता है। इस शरीर के भीतरी युद्धक्षेत्र में काम, ओध, मद 
एवं लोभ के साथ निरंतर युद्ध चल रहा है, वह यद्ध सत्य, संतोष व 
पवित्रता के राज्य में हो रहा है और जिस. तलवार की मंकार सबसे 
अधिक सुन पड़ती हे वह भगवन्नाम की हे | सत्य की खोज करने वाली 
यह लड़ाई बहुत कड़ी ओर थका देने वाली है क्‍योंकि सत्य के खोजी का 
अण किसी शूर-बीर वा सती के प्रण से दृढ़ हुआ करता है। शूर-चीर केवल 
ऊंड ही चरणों के लिए युद्ध करता हे, और सती का युद्ध झ॒त्यु के साथ 
समाप्त होता है, किंतु सत्यान्वेधी की लडाई रात-दिन तब तक चलती 
रहती हे और बंद नहीं होती जब तक उसका जीवन वर्तमान हे ।३९ 


निर्गृणी का काम वास्तव में, एक शूर-बीर का काम है। चरनदास 
के शब्दों में उसे यहाँ संसार में उसी अकार रहना है. जिस प्रकार कमक्ष 
कीचड़ व पानी में उत्पन्न होकर भी उससे लिप्त नहीं होता बल्कि 
2 अनशन तन क जिम डीम लि अर कर तक बल 

& टंगोर. हडे,ड साग्स आव कबीर', ६१ । 


>“टेंगोर: हुडे ड सांग्स, ३७ | 





कल नशकतलममन के बन कपक-नबक, 


चतुर्थ अध्याय १६१ 


९ 


अछ ता रह जाता हैं ।& उसे वर्ड सवर्थ के उस बुद्धिमान चर्ग सें गिनना 
चाहिए जो ऊंचे डड़ते हुए भी कभी इधर-उधर नहीं भटकते ओर अपने 
धर एवं स्व इन दोनों के प्रति समान रूप से सच्चे होते हैं। एक 
प्रकार से सभी निगंणी :संतों ने गाहंस्थ्य जीवन ही व्यतीत किया। 
नानक ने स्पष्ट शब्दों सें कहा ह, “सतगुरु की इस बात में बड़ी महत्ता 


8. 


हे कि मैंने बाल बच्चों सें रहते हुए भी मोक्त पा लिया ।??+ 


जिसके विचार में संसार ओर उसके प्रलोभनों के विरुद्द चेराग्य 
वा अनासक्ति से अभिप्राय बाहरी जीवन के कतिपय विधानों जेसे, गेरुए 
वस््र का पहनना, सठों सें रहना, आदि से ही है वे इस बात पर हँस 
दंगे। परंतु वास्तव में, अनासक्ति का तात्पयें बाहरी रहन-सहन नहीं, 
बल्कि अपने मन की एक प्रवृति विशेष है । यह एक आस्यंतरिक दुशा हौ 
जिसमें इस प्रकार के विहित वराग्य से भी अनासक्ति रहा करती हैं। 
विहित बरागी को भी संसार से उतनी ही निश्चित आसक्ति हो सकती है 
जितनी एंक ग्ृहस्थ को होगो ओर एक गृहस्थ भी उतना ही अनासक्त 
रह सकता है ।-- वास्तव सें वही यथाथ रूप से अनासक्त कहला 
सकता है जो आसक्तियों के बीच रहता हुआ भी अपनी अनासक्ति कायम 
रख सके । 


$ जग माही ऐसे रहो, ज्यो अम्बुज सर माहि । 
रहे नीर के आसरे, पे जल छुव॒त नाहि ॥ 
सं० बा० सं० भा० ९, पृ० १४८ 
न सतिगुरु की असी बड़ाई, पुत्र कलत्नर बिचे गति पाई। 
-- ग्रन्थ साहब पृ० २५७ 
ल्‍+ गावराही में रोवणा, रोवणा ही में राग । 
एक वरागी ग्रह में, इक ग्रही में बेराग # 
कृ० ग्रं०, [० ५६ 


१६२ हिन्दी काठ्य में निगण संप्रदाय 


बाबालाल ने इसकी पुष्टि में मोलाना इरूमी को उद्छत किया है। 
संसार क्या है ? चद्च, घन, स्री ओर बच्चे नहीं, किंतु परमात्मा का विस्मरण 
ही संसार है ।# ये हमको बंधन में नहीं डालते बल्कि इनके प्रति हमारी 
अन्त ही ऐसा करती हैं । यदि हम अ्रपने हृदय को हैश्वर में लगाये रहें 
ओर इनके प्रति शुद्ध मनोवृत्ति रख सकें तो ये हमारे आध्यात्मिक विकास 
में बाधा नहीं पहुंचा सकेंगे । जैसा दादू ने कहा है, अपने शरीर को' 
संसार में रखते हुए भी अपने मन क्रो राम में लगा दो, कष्ट, विपत्ति 
अथवा खत्यु की ज्वाला कोई भी तुम्हें स्पर्श नहीं कर सकेंगे ।)८ 


परंतु यद्यपि निगेणो अपने परिवार का त्याग करने को बाध्य नहों 
तो भी उसे पारिवारिक जीवन का.डपभोग नहीं करना चाहिए । वह 
अपने पुत्र-कलन्न के साथ रहे । उसे अधिक संतति की वृद्धि करमा दृष्ट 
नहीं हैं। यदि चह ऐसा करता हे तो वह अनासक्त नहीं और न बह 
वीयरणछा के महत्व को ही सममता है जिसके लिए मिगेण संप्रदाय ने 
इतना जोर दिया हे । अल्ोभनों के बीच रहते हुए उनसे अ्रसिभूत न 
होना निस्संदेह एक कठिन कास है। संसारी माया के आकर्षण भिन्न- 
भिन्न ओर दुर्निवायं हुआ करते हैं । हमारे कानों में चहः सदा कहा करती 
हैं, 'जरा इधर देखो, जितना सोना चाहो ले लो, सुन्दरी स्त्री ले को, सभी 
विद्याओं में निपुण पुत्र ले जो, ओर यदि इच्छा हो तो, सारी प्रथ्वी का 
राज्य अथवा अ्रष्टसिद्धियाँ भी ले को, तुम्हारे लिए नवो निधियाँ भी 
अस्तुत हैं | मैं इन्हें तुम्हें बिना माँगे ही दे देती हूँ | ये मलुष्यों व 
देवताओं के ल्लिए भी दुल्ल॑भ हैं शोर इनके लिए प्रार्थना करने पर अेक्ोक्य 








४७७७॥७॥//शशशश/॥/७ए्ाणण एम जम प वनलई 


& विल्सन हिन्दू रिलीजस सेक्ट्स, पृ० ३५० । 
* देह रहे संसार में, जीव राम के पास ॥। 
दादू कुछ व्याप नहीं, काल भाल दुख त्रास ॥ 

सं० बा० स० भा० १, ६३ । 


चतुर्थ अध्याय १६३ 


के रघ्जा लोग भी नहीं पा सकते (/”& ऐसे प्रत्लोभनों के बीच निवास 
करते हुए भी इनसे अछ ता रह जाना अलोकिक शक्ति-द्वारा ही संभव हो 
सकता है | किंतु वह शक्ति निबंल मानव को कहाँ से उपलब्ध हो 
सकती है ९ 

निगंणी तुरंत उत्तर देगा, 'राम की भक्ति ओर उनकी शरद सें संभव 
है?। पहले यह काम इतना कठिन जान पड़ता है मानों वितांत असभव 
सा है । कितु ऐसी बात नहीं हु, जब निरंतर अभ्यास करते-करत हमारी 
स्मृति अथवा आदिस आध्यात्मिक पिपासा संयोग के लिए तीत्र अभिलाषा 
सें परिशत हो जाती हं, तब यह भीतरी युद्ध आसानी से जीत लिया जाता 
है, क्‍योंकि सारी चेतन शक्ति प्रमपात्र की ओर ही केन्द्रित हो जाती है 
ओर इन्द्रियाँ आपसे आप आज्ञापालन सें निरत होने लगती हैं ।»८ 
इसलिए निगणो अपने हृदय को अभिलाषा की अग्नि द्वारा प्रज्ज्वलित 
कर देने का प्रयत्न करता है । राधास्वामी संग्रदाय की प्राथना-मण्डलियों 
सें जिसमें प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति अभिल्लाबा की उत्कट दशा में ल्लीन रहता 
हैं, एक विचिन्न दृश्य दिखलायी पड़ता है जिससे कोई दर्शक बिना 
प्रभावित हुए नहीं रह सकता । कबीर के निराले शब्दों में यह चही तीत 


कक कप>नननननक पनालनकलनापननननननभका जिन मिगाओतएनण अननिनजननानान हनी पा वििनानिएएणा।।. चधाएणाणजलीिजतनिशणण 


६# नेक निहारि हो माय बीनती करे । 

दीन वचन बोले कर जोरे फूनि-फुनि पाई परे ॥ 

कनक लेहु जता मन भाबं, कामिनि लेहु मन हरनी । 

पुत्र छेहु विद्या अधिकारी, राज लेहु सब घरनी ॥। 

अठ सिधि लेहु तुम हरि के जना, नव निधि तुम्ह आगे । 

सुर नर सकल भूवन के भूपति तेऊ लहे न मांग ॥ 

सं० बा० सं०, पद २६९, पृ० १८० | 

> विरह जगाव॑ दरद को, दरद जगावे जीव | 


जीव जगावे सुरति को, पच पुकारे पीच ॥ 
वही, पृ० 5२, दादू। 


१६४ हिन्दी काव्य में निगुण सप्रदाय 


उत्कंठा है जो साधक को परबद्य के तेज तक पहुंचाकर उछ्ले उसमें लीन 
कर देने का आश्वासन देती है श्रोर जिसके कारण प्रत्येक रहस्यवादी 
मत, बलपूर्वक इन्द्रियों का दमन करना आवश्यक सममन वाले सप्रदायों 
से कहीं श्रेह्ठ समका जाता है | घोर नियंत्रणों से अतिक्रिया-स्वरूप 
घोर उपद्ववों का उठ खड़ा होना भी संभव है। उनके हारा कुछ समय तक 
इंद्रियों की भोगने की शक्ति भले ही कम हो जाय, उनसे उन वासनाओओरों 
का अंत नहीं हो सकता जो इन्द्रियों को सदा भोगने के लिए प्रेरित 
करती रहती हैं | किसी भी आध्यात्मिक साधना की पूर्णता के लिए 
आवश्यक है कि वह बाह्य लक्षणों के निवारण की चेष्टा करने की जगह 
उनके मूल रोगों की जड को ही दूर करने की चेष्टा करे | कबीर का 
कहना है कि “जड़ में पानी दो, सारी शाखाएं ही पियेंगी १७ ओर 
इसी परिपूर्ण भक्तिआ्रणाली के आधार पर उनका दावा उसके फल्न स्वरूप, 
हट को प्राप्त करने का है ।+- 

निगंण मत आत्मपीडन को नहीं पसंद करता। शरीर को कट 
हुचाना भक्तिमाग सें एक स्पष्ट रुकावट है ओर इसी कारण, पाप समझा 
है। शरीर को अपने उद्देश्य की पूर्ति का साधन समम उसे 
सुरक्षित रखना नितांत आवश्यक हैं ।-- एक भूखा मनुष्य पूरी सेवा नहीं 
कर सकता । जिस प्रकार कबीर कहते हैं उसी प्रकार नानक का भी कहना 


2७७७/७०.॥/०भम्मकनाककानक+५2क-. ७-५५ -१०००५/१५४६०३क++कनकपन+पनन अगर 7 ता पलन “नमन 3कभ3«क 









& भरे भगति न कीज, अपनी माला लीज । 
ग्रथ, पृ० २५३ । 











2७७॥७॥श७शघशशाा चत औ सु 


+ सीचो मूल पिवे सब डारी | 
स० वा० स०, पृ० १२५, ११५। 
न्‍ कबीर भये है केतकी, भंवर भये सब दास | 
जहँ जहूँ भाफ कबीर की, तहँ तह राम निवास |। 
-““क० ग्र०, पृ० ५३, ११। 


चतुर्थ अध्याय १६४ 


है किब्जो भोजन नहीं करता और न उसका स्वाद जानता ह, वह निब द्वि- 
भरे ढ्व तयन के कारण महान्‌ कष्ट भोगता ह। जो बस्तर नहीं पहनता 
अथवा, मौन ब्त के कारण, आंतरिक वेदुना सहकर अपने को नष्ट करता 
ह वह गुरु-चिहोत होऋर सोया हुआ है | उसका जागरण किस अकार 
होगा ९७ हमें मानव-शरीर से पूर्ण लाभ उठाना चाहिए । कदाचित्‌ हमें 
चह फिर न मिल सके इस कारण उसे जीण-शीण न कर देना चाहिए । 
तो भी हमें उसके भ्रति अत्यंतानुराग दिखलाना ओर उसकी सारी 
अमात्मक अव्ृत्तियों सें दत्तचित रहना डचित नहीं । इसे अपने वश में 
भली भाँति रखना आवश्यक ह । जसा कि मनोविश्लेषण के सिद्धांत- 
चालों का कहना है, वास्तविक निग्नह्द के निमित्त इनके मूलभूत निकृत 
मानव स्वभाव को शुद्धतर मार्गों से ले जाकर भगवान्‌ की ओझोर मोद़ 
देना अधिक श्रयस्कर होगा | जो धर्म मनुष्य के इस निकृत स्वभाव का 
विचार नहीं करता वह सावंभोम धर्म की श्रेणी तक पहुँचने योग्य नहीं 
६ । उसके सदस्यों की संख्या अधिक हो सकती है, किंतु उसके सच्चे 
अनुयायी कम ही होंगे | 

निग णपथ इस बात को नहीं भूलता । इसके मूल-ख्रोत एवं श्रेरणा 
दोनों का स्थान हृदय हं। निगणी का भगवत्पेम शुष्क सिद्धांत नहों, 
अपितु स्थ'यी अबूत्ति ह। कोई भी सिद्धांत का सत्चा अनुसरण नहीं कर 
सकता जब तक उसका पूण अनुराग उसके साथ नहीं ह। भगवान्‌ से 
यह उसी तीघता के साथ ग्रेम करता हे जिससे स्री अपने पति को, उसी 
निशछुल भाव से चाहता है जिससे एक बच्चा अपने माता-पिता को 


डी जलन 344. नील लियमानणन++>नननननननन-नम++ सनम न + नमन ननन नमन न नल नमन न न नन न नमन नि न न नी नी ननन+न मय ++न++नननननननीनननननननननन न नन न“ मनलीन 3» नानी नम न नमन न++ध नमन नम» ++ननन-म- नम पनन न न«+_+ जन ५+५+०नभभान+५3५ ५७७०७ कम थक 


$ ग्रञ्न न खाइग्रा, साद गंवाइग्रा 


बहु दुख पाइआ दूजा भाइग्रा। 
वेसत्र ने पहिर, निःस दिन कहिरे, 


मौन विगृता, वर्यँ जाने गुरु बिन सूता । 
ग्रंथ०, पृ० २५३ ॥ 


१६६ हिन्द्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


तथा उसी भक्ति के साथ सेवा करटा है जसे एक सच्चा सेवक अपने 
स्वामी की | उसके इस प्रेम में आत्मामिसान तथा आत्मप्रतिपादन को कोई 
स्थान नहीं । एक सच्ची ओर कतंव्य परायण खी की भाँति उसे अपने स्वामी 
की दया सें अटूर विश्वास हे । जिसे अकथनीय विपत्तियाँ तक दूर नहीं 
कर सकतीं । उसके अनुसार संसार के प्रपंचों में डसका फेस जाना उसी 
के कर्मो का फल है। भगवान्‌ अपनी कृपा-द्वारा सभी योग्य सेवकों को 
गले लगाने के ल्लिए उत्सुक हैं | किंतु हमें अपनी भक्ति के लिए हमें अपनी भक्ति के लिए कोई 
बदला न चाहना होगा । जब तक स्वर्ग की अमिल्ाषा बी हुई्टे हे तब 
तक किसी को भी हरि चरणों की शरण प्राप्य नहीं ।& जो कोई आशा को 
निराशा सें परिणत कर देता है उसे! नानक के अनुसार भगवान की प्राप्ति 
हो जाती है।+ वास्तव में 'योग्य बनो, इच्छुक न बनो” ही निगुशी का 
नियम है। निरगंणी इसी अविचल व एकांतिक प्रेम से अपने स्वामी को 
अपनी ओर आक्ृष्ट कर लेता हे. और उसको क्ृपा-द्वारा सत्य का प्रत्यक्षी- 
करण करा लेता है जिसके परिणाम स्वरूप भगवत्माप्ति हो जाती हैं । 
( मोचष-प्राप्त का मुख्य साधन वह ईश्वरीय स्मृति वा सुरति हे जिसके. 
साथ कोई व्यक्ति जन्म लिया करता हु) (बच्चे में वद सबसे अधिक निर्मल 
समभी जाती ओर अंग्रेज दाशंनिक कवि चड़ सवध 
३, आध्यात्मिक ने उसी की ता में इसे प्रतिबिबित पया था। 
वातावरण जब निगुणी फिर से बालक हो जाने की चर्चा करता 
है तो उसकी दृष्टि में यही तत्व निहित रहता है. | जेसे- 
जेसे मनुष्य सांसारिक स्वार्थपरक कार्यों में निरत होता जाता है वेसे-बेसे 
आयु के साथ धीरे-धीरे यह स्छति भी क्षीण होती जाती है। बालकों के 


& जब लग बेकुठ की आसा, तब लग न हरि चरण निवासा ॥ 
क० ग्र ०, पृ० ६६, २४। 
+ आसा माहि निरास बुलाये। निहचे नानक करते पाये । 
ग्रन्थ, १० ४८६ । 


चतुर्थ अध्याय १६७ 


सरल चित के लिए धास की साधारण पत्तियाँ, तुच्छ फूल जिनका ग्रोढ़ 
मनुष्यों के समत् कोई भी मूल्य नहीं ओर जो उनके परों तले कुचल 
दिये जाते हैं, ' छोटी-छोटी तितलियाँ, घने-घने कुंज व अन्य ऐसी वस्तुए 
भी सौंदय से पूर्ण रहती हैं और उनसें बरबस अतुलनीय आनन्द का 
उद्बगक उत्पन्न करती हैं । किंतु उसके बाद यह बात नहीं रहती । मसुष्य 
के हृदय के तार अत्यंत ढीले पड़ जाते हैं और तब प्रत्येक स्पर्श के 
अनंतर बेसी ही मंकार पदा नहीं करते ओर न चह मधुर संगीत ही 
निकलता है। अपने ग्रह, परमात्मा के निकट से हम लोग ऐश्वयंमय 
बादलों की भाँति क्रमशः बढ़ते चले आते हैं । हमारे बचपन में स्वर्ग 
हमारे चारों ओर घेरे रहता है और ज्यों-ज्यों बालक बढ़ता जाता है 
स्यों-स्यों कारागार की छाया उसे आच्छादित करती हुईं दीख पड़ती हे ॥ 
( वड़ सबथ ) | 
प्रोढ़ मनुष्य इस कारागार को अपना नेसर्गिक निवास-ग्रह मानने 
लगता हे, परन्तु वहाँ भी बह कभो-कभी उस इश्वरीय स्मृति की 
मलक पा लेता है ओर उसे उस रहस्यमयी शक्ति के साथ अपने संबंध 
का एक घु घला आभास मिल जाता है जो सर्वव्यापिनी शक्ति के पीछे 
अग्रत्यज्ञ रूप से काम किया करती हे ओर इस दशा सें वह श्रपने को 
संसार के भीतर आत्मामिभूत सा अनुभव करने लगता हैे। ये मलके 
कई कारणों से भ्राप्त हो सकती हैं । कभी कभी तो सांसारिक आनंदों का 
अस्थायित्व और विपत्तियों की क्र्‌रता इधर प्रेरित करती हैं, किंतु इसको 
प्रकृति के अनुकूल वातावरण के अभाव में यह फिर भी विस्म्॒ति में 
विलीन हो जाती है। ईश्वरीय स्घृति को जाअत करने के लिए सांसारिक 
कष्टठों व विपत्तियों की प्रतोक्षा करना बुद्धिमानी का काम नहों हे | संभव 
है कि इस प्रकार बिगड़े यंत्र द्वारा वह अपनी पूर्ण तीव्रता के साथ अरहण 
नकी जा सके । 
उन लोगों के ही साथ का संपर्क सुरति को निश्चित रूप से 


श्ध्प हिन्दी काव्य में निगुण संग्रदाय 


जाग्मत करने वाला होता है, जिन्होंने स्घृति की चिनगारी को अग्नि- 
शिखा के खप में प्रज्वत्नित कर रक्खा है तथा जिन्होंने अपने कारागार 
स्वरूपी संसार की दीवारों को उसके द्वारा जला डाज़ा है। ये साधु 
लोग हें (साधुओं के साथ संपक होने स एक ऐसे वातावरण की उप- 
लब्धि होती हे जो आध्यात्मिकता से श्रोतप्रोत & ओर इस कारण आध्या- 
त्मिक विकास के लिए नितांत उपयुक्त ह। साथु वस्तुतः ऐसे केन्द्र : 
हैं जहाँ से आध्यात्मिकता का स्फुरण हुआ करता हैं ओर निगणी लोग 
इसी कारण उनके विषय में ओर उनके संग के सम्बन्ध में प्रशंसा की 
बातें करते हैं । केवल निगणियों की ही बात नहीं, प्रत्येक देश व काल 
में साथुओं को लोग आध्यात्मिक प्रभाव फेलानेवाले सममते आये हैं 
शेख जियाउद्दीन अबू नजीववास के विषय में प्रसिद्ध हे कि खिफत मीना 
की मसजिद में तवाफ़ करते समय वे सब उपस्थित लोगां के ऊपर 
दृष्टिपात करते ओर उनकी दशा की जाँच करने तथा उसपर विचार करने 
में हद कर देते थे | उन जोगों के पूछुने पर कि आप क्‍या कुछ हू ढ रहे 
हैं वे उत्तर दे दिया करते कि खुदा के बंदों पर नजर डालने से खुशी 
हासिल होती ह, में उनकी निगाहों की तल्लाश में हूँ |> 


5.» साघू के साथ सत्संग करने में बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति समझी 
जाती हे। जिस प्रकार चंदन का वृत्ष अपने निकटवर्ती वृक्षों को भी 
सुर्गंधि व शीतल्ञता प्रदान करता हैं अथवा भ्टगी नाम का कीढ़ा, जिस 
प्रकार, गाकर दूसरे कोड़ों को भी अपना रूप दे देता हैं उसो प्रकार साधू 
भी अपने निकट आने वालों को अपना स्वरूप दे देते हैं । कबीर ने 
कहा हे--“साथु के दर्शन से भगवान्‌ का स्मरण हो आता हे, श्रतएव 
केवल वे ही कण अपने जीवन-काल के अन्तर्गत गिनने योग्य हैं, दूसरे 


हडज ही अल... लक ीशयककलकब सन क-न नमन न तन आता का" ककनन- आन +०५3/कक>ओ»मननक जम बम 3 -.+++-- नॉन भञअ23..3> 49५44 कान 42५५. "पक क+3+५३५-नरालममवपमननकआआक 893 क+अ कक >ा33५»3५.०>० कब ७-3 का-फ- अनेक कक नमन. आम +#8जए७ ५५० कक ५९२६७ कक का नाप - 4 तन कक+क ककैक+% किसके कर्क... "फरड+.जक पीर सकमक्‍सर "आज जा 


> दि अवारिफ्ल मआारिफ़, १० २७ । 


दा 


रख गा 


चतुर्थ अध्याय १६६ 


तोन्ब्यथ ही हैं ।?७ ओर फिर--“साथु की देह निराकार के दर्पण की 
तरह है, यदि अलख को तुम्हें लखना है तो उसे वहीं पा सकोगे। 5५ 
दादू ने भी कहा है कि “साधुओं के प्रसंग-द्वारा परमपद्‌ तक हमारे 
निकट आ जाता है और हम वहाँ सरलतायूर्चक पहुँच सकते हैं। उनका 
सत्संग कभी निष्फल नहीं जाता |”? ओर “केवल साधुओं के सत्संग 
में ही सच्चे प्रेम का स्वाद मिलता है अन्यत्र कहीं हूँढन पर भी मुझे 
वह उपलब्ध नहीं हुआ । यदि तुम राम के मिल्नन के लिए उदास हो 
तो उन्हीं के निकट खोजो, राम वहीं रहा करते हैं ।- 
निरगंणी लोग सचमुच किसी संयोग से साधु के संपक में आा जाने 
को भगवान्‌ की दया का प्रारम्भ समम्का करते हैं। दादू का कहना है 
कि--“साधु के संपक सें आने पर ही अपने हृदय में भगवान के प्रति 





१ ७ए॑ा॑ााणा आन पोममकिनकीलद 


| & कबीर दरसन साथ का साईं आवे याद | 
लेखे में सोई घडी बाकी के दिन बाद ।। २०।। 
स० बा० स०, पृ० २८। 
+ निराकार की आरती साधोही की देह। 
लखा चहेँ जो श्रलखको इनही मे लखि लेह ॥। १६ वही । 
» दादू नेड़ा परम पद, साध सगति माहि। 
दादू सहज पाइए, कब्हँ निरफल नाहि॥ १४॥ 
बानी, प० १५६ । 
> दादू पाया प्रेम रस, साधू संगति माहि। 
फिरि फिरि देखे लोक सब पाया कतहूँ नाँहि ॥॥ ३३ ॥ 
वही, पृ० १०० | 
राम मिलन के कारणो, जो तु खरा उदास। 
सम्ध्‌ सगति सोधि ले, राम उन्हीं के पास ॥ ११५ ॥ 
ह वही पृ० १६८। 


२५० हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


प्रेम का प्रादुर्भाव होता है, साधु की संगति मालिक की कृपा का ही 

परिणाम है ,”- 

/ इस अकार इहलौकिक मानव के लिए साधुओं के महत्व का बहुत 
बडा बिसतार ६ । साधु भगवान्‌ से सी अधिक महत्वपूर्ण ह। “साधु 
का दान स्व्र्थं भगवान्‌ के ही दुशन के समान ह, दोनों में कुछ भी 
अंतर नहीं । साधु एवं साहिब ये दोनों मनसा वाचा कर्मा एक ही 
हैं ।?,८ ओर कबीर फिर ओर जोरों के साथ कहते हैं कि - “हरि से 
प्रेम करने की अपेक्षा हरिजन से ही प्रेम करो । हरि तुम्हें घन दोलत 
देंगे, किंतु हरिजन तुम्हें स्वयं हरि को ही दे देगा ।??& 

./. ऐसे भी लोग हैं जो किसी आक्ृति के बिना काम नहीं चला सकते 
उन्हें बंदन व पूजन के लिए मूर्ति को आवश्यकता पडती ह। ऐसे 
छोगों के लिए कबीर का उपदेश है कि वे मूर्ति की जगह साधु को ही 
समम लेच ।|- इस प्रकार, उनके अनुसार, उन्हें उस रूप की उपलब्धि 


न्‍सलनटीना कम सनल-्रानेकन-«>-% कम भा+ न वकपवाकक 9 “वन ७०५ फाक3+ जमाने करन उक. उके टस.. लवजाअ 28७9 (७७ -०>कम«लं»नभ>मभकक ७५०- 


मै" साधु मिल तब,ऊपज, हिरदय हरि का हेत 4 
दादू सगति साथु की कृपा करें तब देत ॥ १६॥ 
वही १० १५६। 
» साथु मिले साहब मिले, श्रतर रही न रेंख । 
मनसा बाचा कमंना, साथ साहिब एक ॥ २१॥ 
सं० बा० सं०, १० २५। 
९ हरि से तू जनि हेत कर, करि हरि जन सो हेत । 
माल मूलक हरि देत है, हरिजन हरि ही देत ॥ १८ ॥। 
वही पृ० २८५ । 
+ जो चाहे झ्राकार तू साथ परतिष देव । 
निराकार निज रूप है, प्रेम भक्ति से सेव ।| ३४६ ॥। 
कबीर बानी, पृ० ३५। 





अर तरल नकलनभक ७ 


चतुर्थ अध्याय २०१ 


हो जश्यगी जिसकी आवश्यकता का वे अ्रनुभव किया करते हैं और साथ 
ही उनके समझ एक आध्यात्मिक शक्ति का संचालन करनेवाला यंत्र भी 
विद्यमान रहेगा जिससे वे अपने अभीष्ट बल का संचय कर सकेंगे । 
मूर्ति व वाह्य पदार्थों की उपासना-द्वारा मन की बहिमली दृत्ति जाग्मत 
रहा करती हु ओर इसी कारण उसका अभ्यास ठीक नहीं कहा जा सकता 

किंतु साथु सारी मानसिक अन्नति को जड़ता को हिलाकर दूर कर देता 
है ओर उसे अंतर्मेख्ी भी बना देता है। इतना ही नहीं, वे इस भतल् 
पर भगवान्‌ के अचतार भी माने जाते हैं । यदि सारे बाहरी विधान एंक 
में मिला दिये जाये तो भो वे साधु की संगति के प्रभाव की बराबरी 
नहीं कर सकते || जेसा द्याबाई ने कहा हे--साथु का सत्संग करोड़ों 
यज्ञों, त्रतों व नियमों के समान है, वह विषय-वासना को पूर्णतः दूर 
कर शांति का सुख देता हैं ।& लोग तीथ्थयात्रा के लिएं व्यर्थ ही जाया 
करते हैं ; दादू कहते हैं कि--“शरोर में अगस्त कर्मो को धोने के लिए 
तुम पवित्र स्थानों पर जाया करते हो, किन्तु जो कम तुम वहाँ करते हो 
उसे कहाँ धोओगे ९”:-- परन्तु पलटू को तीथयात्रा में एक लाभ दीख 
पड़ता है उनका कहना हे कि---“तीथं-याज्ना करना तो अपराध है किन्तु, 
यदि उससे कोई लाभ हे तो इतना ही कि उसके द्वारा तुम्हें साधुओं 
की संगति मिलन सकती है ।/?)८ 


अंक पफाप+ का ३७॥ हमर ७७... १#७:७५3५९७५७०६०४॥००८४८ा५++पकाभध न... 8. 


कोटि यज्ञ ब्रत नेम तिथि, साथ न्सग में होय । 
विषय व्याधि सब मिटत है, साति रूप सुख जोय । 
स० बा० स० १, पृ० १७८ | 
* कायाकंम लगाय करि, तीरथ धोवे जाइ | 
तीरथ माह कीजिए, सो कंसे कृहि जा३। १२७ बानी, पृ० १५६ 
*६ पलट तोरथ के गए, बड़ा होत अपराध । 


तीरथ में फल एक है, दरस देत हैं साथ ॥॥ 
स० बा० स० १, पृ २१५८। 





जन ८५ ५ 
रस्प्र हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


इस प्रकार तीथ-यात्रा की सफलता वहाँ पर साथुश्रों के साथ 

सत्संग करने पर ही अवलबित है, नह; तो उससे स्पष्ट हानि है। जिस 
जगह पर साधु रहा करते हैं वही स्थल पवित्र हे और वहीं पर लोगों को 
तीथ-यात्रा के लिए जाना चाहिए। दादू कहते हैं कि “साघुलोग उस 
बड़े दर्बार की ओर से उपहार वितरण करत हैं इसलिए जहाँ कहीं भी वे 
रहें वहीं पर तुम राम-रस का स्वाद पा सकते हो ।??»< 

परन्तु सच्चे साथू को पहचानने में एक व्यावहारिक कठिनाई आ 

पड़ती है। साथू इसलिए साथू नहीं समझा जा सकता कि वह कुछ 
विशेष ढंग के वस्त्र वा चिह्न धारण किये है, बल्कि, केवल इस कारण कि, 
उसने आध्यात्मिक अनुभव ग्राप्कर लिया हे जो ऊपर से लक्षित होने की 
बात नहीं है। किन्तु निर्गंण लोगों ने कुछ स्पष्ट चिद् भी बतला दिये हैं 
जिनके दह्वारा“हम एक सच्चे साधू को भूंठे साधू से अलग कर सकते हैं । 

'...संबसे पहली विलत्षण बात साधुओं में यह पाई जाती हे कि वे 
अपनी स्थूज्न प्रकृति पर विजय प्राप्त कर एंक मानसिक सतुलन की स्थिति 
सें पहुँच जाते हैं. जिसके सामंजस्य सें किसी प्रकार की बाधा डपस्थित 
नहीं होती | न किसी अकार भी सांसारिक प्रल्ोभनों-द्वारा प्रभावित नहीं 
होता। चह मेरा ओर तेरा के स्तर से ऊंचा होता हे ओर स्त॒ति एवं 
निन्‍दा उसके लिए एक समान हूं। न तो चह' प्रशंसा सुनकर आह्वादित 
होता है ओर न निंदा से नाराज ही होता है। उसमें घेय की अपार 
शक्ति रहा करती हैं जिस कारण केवल शारीरिंक कष्ट ही नहीं, अपितु, 
अनेक अपमानों को भी वह सहन कर लेता हैं । किसी पाखडी को जो 
बिना आवश्यक अनुभव के भी अपने को साथु होना प्रदर्शित करता हे 

ओर जिससें सहिष्णुता की शक्ति नहीं, कबीर ने संबोधित करके कहा है 


» दादू दत दरबार का, को साधू बॉट आइ। 
तहाँ राम रस पाइए, जेह साधू तहँ जाय ॥ १०१ ॥। 
बानी १, पृ० ६७ । 





चतुर्थ अध्याय २०३ 


कि-मैने सममा था कि तुम ग्रेमरस में सग्न हो ओर भगवान्‌ में लीन 
रहा करते हो, किंतु देखता हूँ कि यह सच नहीं हं ; तुम तो मेरे मु ह से 
निकली हुई हल्की साँस के स्पर्श से ही सर्प की भाँति जग उठे हो ।” 


दूसरों की धारणा को अपने प्रतिकूल कर देने की यह भवृत्ति जो 
मनुष्य में लेज्षित होती हे, कबीर के अनुसार सिद्ध कर देती ह कि, उसे 
अपनी वासना, इच्छाशक्ति एवं कल्पना पर अधिकार नहीं ह॑ जिससे स्वयं 
अपने ही बन्धन के लिए वह एक जाल सा बुन लिया करता हैं। सच्चा 
* साथू वही हे जिसने इन शक्तियों को अपने वश में कर लिया हैं। ऐसा 
साधू ही सबके साथ समान व्यवहार कर सकता हे चाहे कोई उसके निकट 
सत्भाव और सम्मान लेकर आचवे ओर चाहे ईर्ष्या वा अपमान श्दर्शित 
करने की नीयत से कीचड़ उछालता हुआ | दूसरे लोगों के लिए दोनों 
प्रकार के व्यवहारों में महान अन्तर जान पड़ता हे, किन्तु सच्चे साधू 
को दृष्टि में इनका कोई भी महत्त्व नहीं । साधू दोनों के श्रति समन 
सद्भाव प्रदर्शित करता है। यह दूसरी बात है कि जो मजुष्य विह्वेष 
की भावना के साथ आवेग( वह उससे कोई लाभ न उठा सकेगा । यह 
उसका दुर्भाग्य हैं कि यद्यपि उसके समक्ष स्वर्गीय ऐश्वर्य पढ़ा हुआ है तो 
भो वह उससें से एक साधारण अंश का भी उपभोग नहीं कर सकता । 
कबीर का कहना हैं कि-साथू को रत्नों से भरा हुआ समुद्र सममो,अभागे 
उसमें हाथ डालते हैं तो उन्हें बालू व कंकड़ ही मिला करता है ।?+ 


ल्‍+ हम जाना तुम मगन हो, रहे प्रेम रस पागि । 
१! रचक पवन के लागते, उठे नाग से जागि ॥। ३६५४ ॥| 
न क० बा०, पृ० डरै७। 
+ साधु समृदर जानिए, याही रतन भराय। 
मंद भाग मूठी भरे, कर कंकर भरि जायें ॥ ३४३॥ 
वही पृ० ३५ | 


में ५ १] 
२०४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


जो मनुष्य श्रद्धा के साथ पहुँचता है उसे आध्यात्मिक भौज् सें 
सम्मिल्नित होने का आनन्द मित्रता हे किंतु जो कोई बिना श्रद्धा के 
आता है उसे परमार्थत; भूखा ही लौट जाना पद॒ता हैं| इसमें साधू का 
कोई दोष नहीं, क्योंकि उसका जीवन तो अनवरत दान का ही जीवन 
है। कबीर कहते हैं कि--“साथू लोग बादलों की भाँति उपकारी हुआ 
करते हैं। वे दयाकी वृष्टि करके दूसरों के तापों को अपने संसर्ग-द्वारा 
शान्त कर देते हैं ।:८ बृत्ष अपने फलों को आप नहीं खाया करते ओर 
न नदी अपने उपभोग के लिए पानी ही रक्‍्खा करतो है । ऐसे ही साधू 
दूसरों के लिए ही शरीर धारण करते हैं |” 

/ साधू को स्वयं किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह 
अपने भीतर एवं चारों ओर सर्वत्र भी उसके अस्तित्व का अनुभव करता 
है जो सबका दाता है| उसे इसी कारण किसी भी आर्थिक लाभ की 
अभिलाषा नहीं । “द्वष्य की लाजसा में इधर-उधर भटकने वाला कभी 
साधू नहीं कहला सकता ।?+ साथू कभी उस यश के लिए भी नहीं 
मरता जो मिल्टन के अनुसार उदार चेताओं तक की दुबंजता का कारण 
बन जाता है। वह इस बात के लिए बहुत सचेष्ट नहीं होता कि उसके 

» साध बड़े परमारथी, घन ज्यो बरसे आय |... 
तपन ब्काव और की, अपनो पारस लाय ॥ ३२६ ॥ 
बही, पृ० ३३। 
# ब॒क्ष कबहुँ नहि फल भरे नदी न संचे नीर। 
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥ ३२७ ॥ 
“वहीं, पु० ३३ । 
(+ साधू मुखा भाव का, धन का भूखा नसाहि। 
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि।। 
वही, पू० ३४ | 


चतुर्थे अध्याय २०४ 


इंद गिद अनेक शिप्यों का जमबट पुकडित हो जाय और इस ग्रकार 
डसके बड़प्पन व प्रभाव में वृद्धि किया करें। उच्च से उच्च क्लान एवं 
श्रेडठ आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न होता हुआ भी वह जान-वमकर इस 
प्रकार रहता है जेसे कोई अज्ञानों व श्तिहीन व्यक्ति हो | उसको विनय- 
शील बनकर जीवन व्यतीत करना ही डचित है । उसके अन्दर अभिमान 
व गये को कोई स्थान नहीं । दरिया का कहना है कि--“साथू स्वभावतः 
पानी के समान होते हैं, क्योंकि वे ऊपर की जगह नीचे की ओर ही 
बहा करते हैं ।??)८ 

, साथू वाह्य रूप से हो यहाँ निवास करते हैं, ओर उनका शारीरिक 
अस्तित्व उनके वास्तविक रूप का केवल पतिबिंब रूप हे। जिस प्रकार, 
पक्ती के ऊपर आकाश सें उडते समय भी, उसकी छाया प्र॒थ्वीतल पर 
दीख पढ़ती हैं उसी श्रकार साधुओं के शारीरिक कार्यों को ही दुष्जन 
यहाँ देखा करते हैं । किस अकार कोई जान सकता है कि संत लोग कहाँ 
तक पहुँचे हुए रहते हैं ;-- स्वभावतः कुछ हो लोग इस परीक्षा में 
खरे सिद्ध हो सकते हैं| सभी उस ऊंचाई तक पहुँचकर अम्गृतपान नहीं 
कर पाते; बहुत लोग नीचे गिरकर नष्ट हो जाते हैं । इसी कारण कबीर ने 
बतलाया है कि “सिंह मड सें नहीं रह। करते ओर न हंस ही पंक्तियों में 
उड़ा करते हैं । रत्न बोरियों सें नहीं मिला करता और न साधू ही जमातों 





> साधू जल का एक अंग, बरते सहज सुभाव। 
ऊँची दिसा न संचरे, निवन जहाँ ढलकाव ।। 
स० बा» सं० १, पृ० १२९। 


- ज्यू खग छाॉँह धरा पर दीसत, सुदर पंछि उड़े अ्रसमाने । 
त्यू सठ देहिन के कृत देखत, संतनि की गति क्यू कोउ जाने ॥९॥। 
सुदरविलास' अंग २६। 


२०६ हिन्दों काव्य में निगुण संप्रदाय 


में दोख पड़ते हैं ।” -- ऐपे ही साथुजनों की संगति में आने पर सुरति- 
रूपिणी स्वर्गीय स्मरणशक्ति जाअत हुआ करती हे और उसके तीच्रता 
प्राप्त कर लेने पर आत्मा को अंतमंःखी व्ृत्ति की उपलब्धि होती है तथा 
प्रपंचों के सकुचित होने पर आत्मा फिर से उन्मुक्त हो जाता है। इस 
प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र को बडी से बढ़ी साध्य बातों का द्वार साथकों के 
लिए खुल जाया करता है । 


परन्तु इन (पुनजन्म घारी) साथुओं की संगति में आने का अथ उन 
लोगों के संसग से अपने को बचाना भी हो सकता है जो इनसे विपरीत 
स्वभाव के व्यक्ति हैं अथवा जो असाधु व पतित कहे जाते हैं । क्योंकि 
यदि ऐसा न किया जाय तो लिन प्रवृत्तियों को आध्यात्मिक सम्पक 
दबाना चाहता है वे समय पाकर उभड़ जाया करेंगी और, संभव हे, 
कि जो कुछ लाभ प्रथम दशा सें प्राप्त हुआ रहेगा वह नष्ट हो जाया 
करेगा । इसलिए तुलसी साहब ने कहा है कि “जो कोई संतों के समक्ष 
आता है और दूसरी ओर नहीं जाता उसी का संबंध स्वामी के साथ 
सुरत की डोरी-ह्वारा जोड़ा जा सकता है और वही वास्तव सें, जहाँ से 
आया था चहाँ फिर पहुँच पाता है ।?% किंतु सुरति को केवल जाग्रत 
कर उसे तोच्ण मात्र बना देने से ही काम' नहीं चल जाता इसे साथ ही 
स्थायी एवं शिक्षित बनाने की भी आवश्यकता पड़ती है। 


साधक चाहे जितने भी साधुओं का सत्संग करे उसे अपनी 





अमल मिलियन हाय आन किन्‍- नलयाए गण तन किन >सलनन«न्‍ककुज.. हब, 





कटा कक ना नकल कनिन न गपिणक* 


+ सिहों के लेहड़े नहीं, हंसो की नहिं पॉति। 

लालो की नहि बोरियाँ, साधु न चल जमाति ।। 
स॒० बा० स० १, १० २८। 

# जो सनमुख रहें संत के, अत कहूं नह जाइ। 

सूरत डारी जा लगे, जहें को तहाँ समाइ ।॥। 
् सं० ब[० सं० १, 7० २३०। 


चतुर्थ अध्याय २०७ 


आध्युत्मिक शक्ति में उत्तेजना लाने के लिए उनके साथ केवल कभी-कभी 
संसर्ग में आने से ही काम नहीं चल सकता । उन्हें 

७. पथ-प्रदर्शंक एक ऐसे डायनमो की आवश्यकता है जो उन्हें 
गुरु अनचरत रूप में अभीष्ट विद्युत्‌ शक्ति की धारा पहुचाता 

रहे । उसे चाहिए कि किसी एक साथू विशेष के साथ 

सदा के लिए संबंध स्थापित कर ले जिससे वह अपनी आध्यात्मिक 
साधना में बाधा उपस्थित होने की कभी आशंका आने पर, पथ-प्रदर्शन 
की सहायता आप्त कर सके । साधुओं की सगति को “सत्संग” का नाम 
दिया जाता है ओर वह वस्तुत:ः गुरु अथवा मार्ग-अदर्शक की खोज सें 
ही किया जाता है। बिना गुरु की सहायता के कोई पग्रत्यावतंन की यात्रा 
कर ही नहीं सकता, क्योंकि साधक को इस बात की कोन सी गारंटी 
हे कि वह ठीक राह पर चल रहा है जब तक डसे कोई व्यक्ति निश्चित 
मार्ग से विषथ होते समय बतला न दे। उसके साथ सदा एक ऐसा 
व्यक्ति रहना चाहिए जो उक्त यात्रा को स्वयं पूर्ण कर चुका हो और जो 
डसके कष्टों तथा सुखों से अभिन्न भी हो--“यदि कोई वस्तु किसी एक 
स्थान पर पड़ी हो ओर तुम उसे दूसरी ओर ढंढ़ रहे हो तो तुम्हें वह 
कसे मिल सकेगी | तुम उसे तभी पा सकते हो जब तुम्हारे साथ एक 
ऐसा मनुष्य रहे जो उसके रहस्य से परिचित हो [”#& “भअरध्यात्म का 
बीज जो धरती सें पहले से मोजूद है तभी फूल ला सकेगा ओर फल 
भी देगा जब गुरु बादल की भाँति आकर उस पर अवसर के अनुकूल 

अपने उपदेशों की वृष्टि कर दें ।??३८ 


९9 वस्तु कही ढदूढे कही, केहि बिधि आरा हाथ । 
कह कबीरतिब पाइए, भेदी लीजे साथ ॥३१४, क० बा०, पृ० ३२। 
> गरु आये, घन गरज करि, सबद किया परकास । 
बीज पड़ा था भूमि में, भई फूल फल आस । 


स० बा० सं० १, पृ० १२५। 


७०७०५००--3०० आम कपामभलक»+५++++ननन»थ ३ ननन+क न नननन-ंननन न + नमन न» «गन सक, 





ग्‌्ण्प हिन्दी-क्राव्य में निगुण संग्रदाय 


बह या पथ-अदुर्शक में इस बात को योग्यता होनी चाहिए दि; बह 
मार्ग सें आगे आने याद्वी कठित्राइयों से परिचित करा दे ताकि वह 
उनका सामना करने के लिए पहले से हो तत्पर हो जाये ॥ किंतु, यदि 
पथग्रदुशक बनावटो मात्र होगा आर डसे मार्ग का कुछ भी ज्ञान न 
होगा तो केवल अन्थेनेव नीयमाना यथानवा; ! की ही कहावत चरितार्थ 
होगी ओर उसका परिणाम दोनों के पतन के श्रतिरिक्त दूसरा क्या हो 
सकता है---अगुआ ओर अजुयायी दोनों ही कुर में गिर पड़ेंगे । 

गुह को इसी कारण, जो काय करना हे उसके लिए पर्यात रूप से 

योग्य होना चाहिए ? उसे साथुओं के सभी गुणों से संपन्न होता चाहिए 
ओर इसके साथ ही उसे ऐसा भी होना चाहिएं जो नोतिखिये के हृदय 
में श्रद्धा व विश्वास जाग्रत कर सके ताकि उसके बतजाये हुए मार्ग पर 
वह बिना किसी सदेह था श्र.वश्वास के अप्रभर होने लगे । अ(यात्मिक 
अभ्यास के पथ पर चलने वाले के लिए हिचकिचाहट और संशय ये 
दोनों सबसे बड्दी बाधाएँ मार्ग में आती हैं । इनका निराकरण तभी संसव 
हो सकता हे जब कोई सच्ची अध्ध्यात्मिक प्रगति वाला पुरुष उसका पथ- 
प्रद्शक मिल जाय ।#& 
.. जो मनुष्य केवज्ष इसीलिए गुरु बनना चाहता है कि वह गुरु कहला 
सके अथवा इसलिए कि ऐसा होने से डसकी प्रतिष्ठा और प्रभाव सें 
वृद्धि होगी अथवा जो भीतर ही भीतर अपने अनेक चेलों को देखकर गये 
का अनुभव करता है वह गुरुके रूप में स्वीकृत करने योग्य नहीं ? क्योंकि 
एक तो उसे सच्चा अनुभव ही नहीं ओर दूसरे वह उन वासनाओं-द्वारा 
प्रभावित भी रहा करता है, जो मनुष्य के निम्नतर संस्कारों में सम्मिलित 
की जाती हैं, ओर जो उसकी डच्चतर स्थिति अथवा सुरति के नितांत 


अल कल जलत + । 








'७५०+>०३++->(-3-ात++-3१३क- के + ता -प+क ०१३०० लण»-न..)वननाफतिया्ाकत लक कक नल... स्‍राता पका. ?मकअन2८ कक पिता *.धाे.क+ मम. पिसकाउआानका+१ आफ. ७७० )जलक#क ९ 
झ 


९9 सस खाया सकल जग, ससा किनहुं न खद्ध । 
ज॑ बच गुरु भ्रष्परा, तिनि ससा चुरणि चुणि खद्ध ॥ २२ ॥। 
कृ० भ्र०, पृ० ३१ 


चतुर्थ अध्याय २०६ 


विरुद्व"पड़ती है। यदि ये नीचेवाले संस्कार आध्यात्मिक स्तर तक 
ले जाये जोथ तो इनके कारण वहाँ एक भयंकर परिणाम उपस्थित 
हो सकता है और अ्रज्ञान एवं वंचदा के भाव घटने की जगह बढ़ने 
लग सकते हैं | ह 

इससे स्पष्ट हे कि गुरु को चुनते समय कितना सावधान रहने 
की आवश्यकता पड़ती ह। और इसी प्रकार गुरु को भी किसी को 
शिष्य रूप सें स्वीकार करते समय सावधानता रखनी पड़ती है । गुरु 
को भी इस बात का निश्चय हो जाना चाहिए कि ऊिस व्यक्ति के समत्ष वह 
अपना रहस्य प्रकट करने जा रहा है वह उसके याग्य है या नहीं | उसे 
उसके उस श्रभिग्राय से पूछ परिचित हो लेना चाहि० जिससे प्रेरित 
होकर वह उसकी शरण में आ उपरिथत हुआ है । क्‍या यह यृहस्थो के 
मंकटों से बचने ओर साधुओं का आरामतलब जीवन व्यतीत करने 
का केवल एक बहाना मात्र तो नहीं है अथवा वह वास्तव में, सच्ची 
आध्यात्मिक जिड्डासा द्वारा प्रेरित होकर आया है| यदि पहली बात हो 
तो गुरु का उसे शिक्षा अरदान करना सूअर के सामने मोती बिखेरने के 
समान होगा। क्योंकि उन उपदेश्यों के महत्व को वह समझ नहीं सकेगा, 
बल्कि उनका दुरुपयोग भी कर सकता हे | अतएव, गुरु को न तो चाहिए 
कि किसी को शिष्य बनाने में शीघ्रता करे ओर न शिष्य को ही चाहिए 
कि किसी को शीघ्र गुरुवत्‌ मान लेवे | 

परन्तु जब नोसिखिया एवं गुरु को यह निश्चय हो जाय कि एक दूसरे 
का शिष्य और दूसरा गुरु होने योग्य है तो दोनों के बीच पूर्ण निश्छुलता 
एवं स्पष्टता के भाव आ जाने चाहिए | शिष्य को चाहिए कि वह अपने 
गुरु के प्रति पूरी श्रद्धा रखे तथा उसके ऊपर पूर्णरूप से विश्वास करे | 
डसे अपने गुरु के सामने अपना हृदय खोलकर अपनी त्रुटियों और की 
गई उदन्नतियों की सच्ची-सच्ची सूचना देनी चाहिए, ओर इसके साथ ही 
गुरु को भी चाहिए कि उसके लिए प्रेम एवं सदभावष प्रदर्शित करे तथा 


डा 


0०७७ 4 ९ के 
२१० हिन्दी काव्य में निगुश संप्रदाय 


ऐसा कोई भी उपाय उसे बतलाने में न चूके जो उसके शिष्य के लिए 
किसी परिस्थिति में उपयोगी सिद्ध हो सकता हो। 

न केब ञ़् शिष्य को गुरु में पूरी श्रद्धा होनी चाहिए और उसके प्रति 
अपनी भक्ति अदर्शित करनी चाहिए, बल्कि उसका यह भो कर्तव्य है कि 
अपने गुरु के चरणों में वह अपना सर्वस्व अपित कर देवे ओर तन-सन- 
धन से उसकी सेवा में लग जाय | | शिवदयाल ने अपने सार बचन ९ 
में इन सेवाओं का एक विस्तृत विचरण दिया हे, जिसे बड़ा होने पर भी 
पूणत; उद्छत करना अनुचित न होगा । 

शिवदयाल का कहना है कि “शिष्य को चाहिए कि गुरु के चरणों 
को दबावे, उसे पखा करे, उसका आद पीसे, पानी भरे, नाबदान साफ 
करे, चोके के लिए मिट्टी लावे, उसे दातून करावे, हाथ धुलावे, पेशाब के 
पात्र को धोचे, नहलावे, शरीर पोछे, घोती पहनावे, धोती-अ्ंगोछा साफ 
करे, बाल भाड़ दे, कपड़े पिन्हा दे, ललाट पर टीका कर दे, रसोड 
बनाकर परस दे, पानी पिला दे, हुवका भर दे, सेज लगा दे, पीकदान 
लेकर उससे पीक करावे, उसका किया हुआ पीक स्वयं पी जाय, संक्षेप 
सें उसे चाहिएं कि अपने गुरु की सेवा सभी प्रकार से करे । अपने गुरु 
के लिए नीच से नीच काम भी बिना विल्लंब करे और उसकी शआज्ञाओं 


का पालन करे |?” यह शारीरिक सेवा. है... शारीरिक बखं... निम्न ओेगी का परिश्रम 


हुआ करता हे । 

धून्‌ की सेवा वह सेवा दे जो गुरु के लिए द्वष्य व्यय करके की जाय 
ओर उसकी शआ्रवश्यकता इस प्रकार बतलायी गई हे--..“गुरु को घन की 
भूख नहीं रहा करती क्‍योंकि उसे भफ़ि का धन प्राप्त रहा करता है. किंतु 
वह तुम्हारी भलाई चाहता है ओर द्ृब्य को, भूखे को श्रन्ञ तथा प्यासे 
को पानी देने सें व्यय करना चाहता है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर देते 


4७0७0॥॥७॥॥७॥७७७८७७७८८७शएशए्शशाााशाााा अहम वन नकली नजीब पन कवि पु उलक अललननक-ं»>भक&, 








क भा० १, पृ० २३५-७। 


चतुर्थ अध्याय २११ 


हो तो उसकी दया के पात्र बिना मोल के ही हो जाते हो । डसका 
प्रसन्न होना बड़े लाभ की बात हे क्योंकि वह सत्पुरुष हे और डसकी 
दया उसके हाथू की ही बात हे” 

/ मानसिक सेवा गुरु के दर्शन करता, उसकी बातों को श्रवण करना 

| ओर उपलब्ध बातों को सावधानी के साथ सुरक्षित रखकर उन पर बन 

'छरना है ) गुरु ने अच्छी बातों को चुन लेकर और बुरी बातों का त्याग 
कर उनका सार निकाल रव्खा है ओर उन बातों को अपने मन-द्वारा 
अहण कर लेने पर, जिनसे पुष्टि आप्त करता नितांत आवश्यक है, संसार 
के सारे भय तथा लज्जा के भाव सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं ।” 

.... इसमें संदेह नहीं कि शिष्य को वे सारी सेवाएँ जो डपयुक्त उद्धरण 
में कही गई हैं करनी होंगी और उनमें से, यदि केवल वह छोड़ दी 
जाय जो गुरु की पीक पी जाने से सम्बंध रखती है तो भी गुरु उन 
सेवाओं की कोई अपेज्ञा न करे ओर न उनके लिए किसी प्रकार की 
आज्ञा ही प्रदान करे । जब वे सेवाएँ की जाने लगे तो गुरु को चाहिएं 
कि उन्हें स्वीकार करने से भरसक इंकार करे ओर ऐस7( करते समय 
अपनी अच्छी मनोवृत्ति का ही परिचय दे। उसे अपने शिष्य को इस 
बात का भी उपदेश देना चाहिए कि वह अपने धन का किस अकार सदु- 
पयोग करे । शिष्य को गुरु के द्वारा व्यय कराने की आवश्यकता नहीं । 
जो गुरु उक्त सेवाओं को अपने शिष्य से स्वीकार कर लेता हे और 
चाहता है कि वे उसके लिए की जाय वह, वास्तव सें, सच्चा आध्यात्मिक 
गुरु न होकर एक विचित्र जीव हे जिसमें आलस्य, लालच व अभिमान 
की मात्रा भरी हुईं हे जिनके कारण वह अपने शिष्य का जीवन-लहू एक 
राज्स के रूप में चूसा करता है| 

५» अतणएव गुरु एवं शिष्य दोनों को ही त्याग-बृत्ति के साथ रहना 
चाहिए। शिष्य का कर्तव्य हैं कि वह अपना सारा ऐश्वर्य , मान एवं धनादि 
को, जो उसके पास में हो अपने गुरु के चरणों सें चढ़ा दे, किंतु उधर 


० #5 0 कं 
२१२ हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय 


गुरु के लिए भी यह आवश्यक हैं वह शिष्य से कुछ भी आप करने की 
अमभिलाधा न करे । केवल उसे निस्वा्थंभाव से उपदेश देने का ही 
प्रयत्न करता रहे । “शिष्य सर्वश्रयम अपना शिर, हर्दथ ओर मन को 
समपित करे और तब गुरु अपनी ओर से शिष्य की नामछवी भेंट प्रदान 
कर देवे ।??& 

गुरु एवं शिष्य की उत्त मनोवृत्तियाँ नितांत आवश्यक हैं। उन्हें 
अपित करके शिष्य भगवान्‌ के प्रति अपने को समर्पित कर देना सीखता 
है और उसे स्वीकार न करके शुह् यह दिखलाता है कि किस प्रकार 
गुरु अपनी मर्यादा को नष्ट होने एवं छान को भ्रष्टाचार होने से बचा 
सकता है। 

गुरु को अपने शिष्य के प्रति दयालु होना परमावश्यक हे । डसे 
अपनी कृपा प्रदर्शित करते समय, बहुत सावधान रहरा चाहिए और 
देखते रहना चाहिए कि शिष्य के अंदर किसी त्रुटि का अवेश तक न होने 
पावे । जब उसे ऐसी किसी त्रुटि का पता चल जाय तो डसे चाहिए 
कि डसे शीघ्र दूर कर देवे और ऐसा करते समय उसका कठोर बन जाना 
अनावश्यक है. परन्तु यदि वह अपने व्यवहार सें कुछ रूखा भी हो 
तो, शिष्य को उसे हव पूर्वक सहन कर लेना चाहिएं। क्योंकि गुरु 
: वास्तव में उसी के हित की भावना से चेसा किया था । “गुरु कुम्हार 
और शिष्य घड़े की भाँति होते हैं । गुरु बर्तन की बुराइयों को दोक-ठोक 
कर सुधारता रहता है, भीतर से वह अपने हाथ का सद्दारा देता है और 
'डपर चोट भो मारता जाता है ।/#॥ 

$& पहले दाता सिष भया, जिन तन मन अरपा सीस ! 

पीछे दाता गुरु भये, जिन नाम दिया बकसीस ॥। 
स० बा० स०, पृु० २५ | 
+ गुर कु भार सिष कृभ है, गढि-गढि काढ़ खोट। 
./ अतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट ॥ स० बा० सं०, पू० २। 









चतुर्थ अध्याय र्श्३ व, 


का गुरु को इस बात में सदा सावधान रहना चाहिए कि उसके उपदेश 
जिनके अनुसार वह अपने शिष्य को चलने की शिक्षा देता है स्वयं उसके 
भी अपने कार्यो के साथ मेल में रहें ताकि उसका शिष्य उसकी सचाई के 
प्रति किसी प्रकार संदेह सें न पड़ जाय । इसके साथ ही साथ शिष्य 
के लिए यह भी समझ लेना आवश्यक हे कि उसका गुरु उससे कहीं 
ऊँची श्रेणी का व्यक्ति हें ओर जो कुछु वह करता है वह उस शिष्य की 
चतंमान प्रगति की स्थिति सें, कदाचित्‌ बाध्य न होगा | अतएंव चरनदास 
ने सलाह दी हैं, “जो कुछ गुरु कहता है उसे करते जाओ, किंतु जो 
कुछ वह करता है उसकी नकल करने का पथ्त्न न करो [??- 

. परन्तु यहाँ इस बात का भय है कि धूर्त लोग इस उपदेश से नितांत 
विपरीत अभिप्राय निकाल लंगे। इसके द्वारा कभी-कभी वेसे कई कार्यों 
के करने का बहाना मिल सकता है ओर मिला भी होगा जिसे एक साधु 
के लिए करना उचित नहीं ओर इस धारणा के कारण कि गुरु परमेश्वर 
का अवतार होता है, श्रनेक अकार के अनरथों की वृद्धि हो सकती है । 
मैने अंतिम अ्रध्याय के अवतारबाले प्रकरण सें इस विषय पर कुछ 
विचार किया हैे। मानव-पूजा के परिणाम-स्वरूप होनेवाली हानि के 
अतिरिक्त, निगण पथ के अनुसार गुरु के सर्वोच्च पद अहण करने में एक 
यह भी भय बना रहता है कि उसका कहीं दुरुपयोग न हो जाय । 
बहुत से धूत, गुरुवत्‌ आचरण करने के लिए केवल इसी कारण अवृत्त 
होते हैं कि उसके *द्वारा बहुत बड़ा लाभ उठायें | इसमें संदेह नहीं कि 
ऐसी बात अनेक बार हुईं होगो । ऐसा भो इसके कारण, हुआ होगा! 
कि बहुत से लोग जिन्हें पंथ के श्रति सहालुभूति रह सकती थी इसके 
विरुद्ध हो गये होंगे ।/ पल्टू ने जान पड़ता है, ऐसी ही घटनाश्रों की 
ओर संकेत करते हुए कहा हे--झान या ध्यान के विषय सें किंचित्मात्न 


#गूरू कहे सो कीजिये, करे सो कीज नाहि॥ 
वही, पू० १४४ ॥ 


हिन्दी मेँ ५३ ] 
२१७ नदी काव्य में निगंण संप्रदाय 


अनुभव न होने पर भी, जो लोग दूसरों को बुला-बुला कर शिष्य बनाया 
करते हैं वे गुरु मेहतर और शिष्य चमार के समान होते हैं ।?& 

इस पर कहा जा सकता हे कि जब इस विषय में हानि की इतनी 
संभावना है तो फिर गुरु का एकद्म त्याग ही क्यों न करा दिया जाय १ 
क्योंकि कबीर जैसे बड़े संतों ने अपनी साखियों ओर शब्दों के अंतर्गत 
उच्च से उच्च सिद्धांतों को भर दिया हे और वे रचनाएँ हमें उपलब्ध भी 
हैं। हमलोग क्‍यों न उन्हीं को अपने पथ प्रद्शक बना ले | हम लॉग 
इस प्रकार वह सभी ज्ञान आ्रप्त कर सकेंगे जो हमें गुरुओं द्वारा उपलब्ध 
होता है और कतिपय गुरुओं की धूतंता के कारण उत्पन्न होनेचाली 
हानि से भी बच सकेंगे । इसी प्रकार की घारणा ने कदाचित्‌, सिकक्‍खों 
के गुरुगोविन्दर्सिशह को उनकी गुरु-परंपरा समाप्त कर देने के लिए 
प्रेरित किया था जिस कारण उन्होंने गुरुओं के स्थान पर “अंथ” को 
आसन प्रदान किया | इसके सिवाय जान पड़ता है कि गुरु-गोजिंदर्सिह ने 
यह भी सोचा था कि शिष्यों की संख्या बराबर बढ़ती जाने की स्थिति में 
किसी गुरु के लिए यह संभव नहीं कि वह प्रत्येक को अपने व्यक्तिगत 
संसगे द्वारा लाभान्वित करे--और वास्तव में यही कारण हे जिससे 
समय पाकर सभी संभ्रदायों की वह मोलिक आध्यात्मिकता जाती रहती 
है जो उनकी अमुख विशेषता रह चुकी थी। अ्रतएव हो सकता हे कि 
सिख धर्म ने इस परिचतन के कारण अपना धघमंत्व नहीं खोया | परन्तु 
जब प्रश्न आध्यात्मिक अभ्यास का है तो फिर पुस्तकों के अध्ययन मात्र 
पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता | 

“सिख धर्म में भी गुरु उन ज्ञानियों के रूपों में कोट आया हे जो गुरु- 
बानी के रहस्यों को सर्च साधारण पर प्रकट करने योग्य, वसी शक्ति रखने 


६9 ज्ञान ध्यान जाने नहीं, करते सिष्य बुलाय ! 


पल्टू सिष्य चमार सम, गुरुवा मेस्तर श्राय ।। 
वही, पृ० २२४। 


चतुर्थे अध्याय २१४ 


चाले समझे जाते हैँ। प्रभावशाल्रिनी आध्यात्मिक शक्ति का सदा निकट 
चत॑मान रहना, कोरे उपदेशों से कहीं अधिक लाभदायक हुआ करता है। 
फेवल उपदेश मात्र नहीं बल्कि गुरु के सुख से निकलनेवाली शिक्षा ही 
ऐसी होती हे जिससे शिष्य की हृद्यगत मूल्न प्रेरणा को या तो हानि पहुँच 
जाय, सहायता मित्र जाय अथवा उसकी अतिकूल शक्ति के समालने में 
किसी अकार का संकेत मित्र जाय । किसी माध्यस द्वारा उपलब्ध उपदेश 
अभीष्ट फल ग्राप्त कराने सें कसी समर्थ नहीं हो सकता । दादू ने इस बात 
का विरोध करते हुए कहा भी है कि “केवल कागज व स्थाही के भरोसे 
पर ही कोई इस संसार से मुक्त किस प्रकार हो सकता है १??+- तुलसी 
साहब का भी कहना है “साखी व शब्द जब तक कागज पर लिखे हुए 
हैँ तब तक उसका कुछ भी प्रभाव नहीं । बिना साधुओं के साथ सत्संग 
किये वे समर में नहीं आ सकते ।* चाहे तुम उसके रहस्यों से परिचित 
होने के लिएं आमरण प्रयत्न करते रह जाओ ।?” 
अतएव साथुओं में से अपने गुरुको खोज निकालना इस मार्ग पर 
अग्रसर होनेवाले का प्रथम कर्तव्य हे ओर यही सबसे कठिन ओर 
महत्वपूर्ण भी हे। इसके ह्वारा आध्यात्मिक जगत में आगे प्रवेश पाने 
की कुंजी हाथ लग जाती है । यदि किसी को सच्चा गुरु मिल जाय तो 
आगे की सफलता निश्चित हो जाती हे ओर यही कारण है जिससे 
निगंण संग्रदाय में उसे इतना महत्व दिया जाता है। गुरु को परमेश्वर 
स्वरूप कहा जाता है । “कबीर ने कहा हे कि गुरु एवं गोविंद सें कोई 
+ मसि कागद के आसरे, क्यो छठे ससार । 
वानी पृ० १०१। 
* गुप्त मता सतन ने भाखी, कागद में मिलिहे नहिं साखी। 
साखी सब्द ग्रंथ जो गावे, बिन सत्संग समझ नहि झावे ॥। 
ये झूठ कागद के माहों, ढूढ दूढ सब जनम सिराई ॥। 
'घट रामायन' पृ० २४६॥। 


२१६ ' हिन्दी काव्य सें निगुण संप्रदाय 


अंतर नहीं, केवल आकार मात्र से ही भिन्नता लक्षित होती है, अपने 
अहंभाव का त्याग करके जीते जी मर जाओ ओर तभी तुम्हें चह परमे- 
श्वर आ्रप्त हो सकेगा [”?& 
नवीन साथकों के लिए तो गुरु परमेश्वर से भी बड़ा हुआ 
करता है क्‍योंकि गुरु-कृपा द्वारा ही शिष्य भगवत्कृपा की ओर उन्मुख 
होना सीख पाता हे और तभी उसके मार्ग में चह अपने को एृद्रृत्त 
भी कर सकता है। कबीर कहते हैं कि “वे लोग अधे हैं जो गुरु 
के विषय में कुछ ओर कहा करते हैं। यदि परमेश्वर रुष्ट हो जाय तो 
गुरु तुम्हें बचा सकता हे, किंतु यदि रेवय॑ गुरु ही रुष्ट हो जाय तो फिर 
अपनी रज्ञा की कोई भी आशा नहीं रह जाती ।”+ ओर फिर “गुरु 
ओर गोविंद दोनों ही हमारे समक्ष खड़े हैं, में किसके चरणों पर गिरू ९ 
में तो अपने गुरु की ही बलिहारी जाऊँगा जिसने सुझे गोजिंद के दर्शन 
करा दिये थे ।??»< 
' गुरु के विद्यमान रहने मात्र से ही श्राध्यात्मिक आकर्षण का अ्रनुभव 
होने लगता है ओर संसार की ओर से एक प्रकार की विरक्ति भी आा 
जाती है जिसे चराग्य वा विरति कहा करते हैं । यदि ऐसा न हो तो 


'हलललकस+-कनत मत वन -क कली लगन कप वन. आय सोलर ज जाप हज मन 


8 गुरु गोविन्द तो एक हैं, दूजा यहु श्राकार। 
आ्रापा मेंटि जीवत मरे, तो पावे करतार ॥ २६ ॥ 
क० ग्रं०, पृ० ३ । 
कं कबीर ते नर अंध है, गुरु को कहते और | 
हरि रूठे गुरु ठौर हूँ, गुरु रूठे नहिं ठौर ॥ ४॥। 
वही, पृ० २। 
/ गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू” पायेँ। 
बलिहारी गुरु आपणोे, जिन गोबिद दिया बताय ॥। 
सं० बा० सं०, पृू० २-१२ | 


अरिकनन्‍की- 


चतुर्थे अध्याय २१७ 


निर्विबाद हे कि प्राथमिक दशा का अभी अंत नहीं हुआ ओर गुरु के 
लिए अभी खोज करना शेष रह गया हे। 


योग्य शिष्य के लिए गुरु जो भोतरी शिक्षा दिया करता है चह नाम: 
सुमिरन अथवा भगवत्‌ नाम के स्मरण से संबंध रखती हे ह और उसका 


अभ्यास कतिपय योग-साधनाओं सहायता से 
४, नांस-सुमिरन किया जाता है और दोनों को इसी कारण शब्दयोग 
प्राथेना. भी कहा करते*हैं । इस प्रकरण में हम केवल नाम 
के संबंध में ही कुछ कहेंगे ओर अन्य साधनाओं का 

प्रसंग आगेवाले अकरण के लिए छोड देंगे। 
मा को संसार के सभी धर्मों ने एक विशेष स्थान दिया 
है। योग-संबंधी सभी हिंदू संप्रदायों ने कुछ शब्दों के बार-बार दुहराने 


. में एक बहुत बड़ी शक्ति का अभ्यास पाया है ओर सबसे अधिक शक्ति- 


अब 


कि 


संपन्न उकार को बतलाया है को बतलाया है.) प्रतिदिन सहस्रों हिंदुओं द्वारा पाठ किये 


 जानेवोले “विष्णु-सहख नाम” के अंतर्गत विष्णु के सहख नामों की एक 


तालिका मात्र मिलती है। बहुत से लोग एक ही मंत्र का सहसरों बार 
जप किया करते हैं। सूफियों को भी इसके लाभप्रद होने में विश्वास 
है ओर इस साधना को “जिक्र! कहा करते हैं। परन्तु निगेश पंथ की 
भाँति कोई भी नाम-सुमिरन को सहत्व अदान नहीं करता | 
(नाम-सुमिरन संसार के सभी दुखों को दूर करने के लिए राम 
बाण! के समान प्रभावशाली ओषध है) जिस किसी ने नाम को 
अपने हृदय में स्थान दे दिया चह अपनी मुक्ति के लिए निश्चित हो गया 
ओर वह दूसरों को भी मोक्ष प्राप्त करने सें सहायक बन सकेगा | राम 
का नाम स्मरण करनेवाले पर कर्म का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, 
किंतु इसके बिना सत्कर्मों का भी कोई परिणाम नहीं मित्र सकता । ' 
बखना ने कहा हे--“सतगुरु ने जिस 'सत्यनाम' ओषध का मुझे 
पता बतला दिया है वह संसार के सारे दुखों के निवारण के लिए 


१ “अल 


२१८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


महोषध रूप है । जिसने इसे अहण कर बतलाये हुए संकेतों का अलु- 
सरन किया उसकी सारी चेदना जाती रहेगी ।?).< और नानक ने भी 
इसी प्रकार कहा है, “नाम का जप हृदय से करनेवाले के सभी परिश्रम 
सफल हो जाते हैं. ओर उसका सुख उज्ज्वल हो जाता है, नानक का 
कहना है कि उसके संसर्ग में आकर दूसरे भी मुक्त हो जाते हैं ।< 
कबीर ने भी यों कहा है कि “नाम का पक अणुमान्न भी हृदस में आ 
जाने पर, करोड़ों कर्मों का जाल एक बछ्ज में ही, नष्ट हो जाता हे । परन्तु 
बिना राम के युगों तक पुण्य करते जाने पर भी, कोई लाभ नहीं |” | 
राधास्वामी संप्रदाय के अनुयायियों के अनुसार नाम-स्मरण हमारे जीवन 
के लिए प्राणों के समान महत्ता रखता है । 
_“' यद्यपि कबीर ने अनन्त के नाम भी असंख्य बतलाये हैं, किंतु सबसे 
बढ़कर उन्होंने सुमिरन के लिए 'राम” नाम को ही माना है ओर इसे ही 
स्वीकार भी किया है। उन्होंने सबके ज्िए यही उपदेश द्विया है कि तुम 
रए का टोप और “म” का बख्तर पहना करो जो, रारीर के प्रभातबेला के 
» सत्तनाम निज झोषधी, सतगुर दई बताय। 
बोषधि खाय रु पथ रहे, तौ वषना बेदन जाय ॥। 
सर्वांगी, पूृ० १७-३७ । 
सं० बा० सं० १, पृ० ५ पर यह दोहा कुछ परिवर्तन के साथ 
कबीर के ब्राम से दिया हुआ है । 
ह ज़िनी नाम धिशभ्ााइया, गए मसकति घालि | 
नानक ते मुख्त ऊज़ले, केती छूटी नालि।॥। 
'जप़जी' ( पंतिम प्रथ ) | 
ल्‍ कोढि कसम प्रेले पलक में, जे रंचक भाव नाउ । 
अनेक जूग़ जो पुनि करे, नहीं रास बितु ठाड़। 
कु? ग्रं8, पृ० २० | 


चतुर्थे अध्याय श्१६ 


नतत्रों के समान, लुप्त हो जाने पर भी नष्ट नहीं होंगे ।& | गुलाल साहब 
ने भी भीखा साहब को उपदेश दिया था कि राम के एक होने पर भी 
नाम अनेक हैं, किंतु उन्हें राम के अतिरिक ओर कोई भी उतना पसंद 
नहीं ।+ तुलसी साहब एवं शिवदयाल के अतिरिक्त आय: सभी निर्गेण- 
पंथियों ने सुमिर्न के लिए 'रामः शब्द को ही स्वीकार किया है। उक्त 
दो महात्माओं ने इस नाम को इस कारण पसंद नहीं किया कि 
इसका संबंध हिंदुओं के रामावतार से हे। तुलसी साहब ने इसी 
कारण 'सन्त नाम” को अपनाया था और शिवदयात्र ने उसी प्रकार 'राधा 
स्वामी” को पसन्द किया था। “राघास्वासी” शब्द कबीर की रचनाओं 
में कहीं भी नहीं देख पढ़ता, किंतु 'राधास्वामी” के अजुयायियों का 
कहना है कि उन्होंने इसे कबीर के उपदेशों से ही ग्रहण किया हे । 
इसके पमाख में वे नीचे लिखी साखी उद्ध॒त करते हैं--- 

कबीर धारा अ्रगम की, सतगुरु दई लखाय। 

उलटि ताहि सुमिरन करी, स्वामी संग लगाय ॥ 


ई७ ररा करि टोप मसा करि बस्तर । 
ग्याने रंतन करि खागि रें। ३५० । 
क० ग्र०, पु० २०६ । 
परभाते तारे खिसहिं, त्यो इहि खिसे सरीरु। 
पे दुद अक्खर ना खिसहि, सो गहि रहा कबीरु ॥8०।॥। 
वही; पृ० २५६ । 
न रोम सो एक नाम बहुतेरा। 
नाम एक रमिता को फेरा। 
सतगुरु शब्द सुने जो सरना | 
रामनाम परे नाम न जाना । 
'महात्माओं की बानी, पृ० २०६ । 





कक. ४७ प क्ष 
२२० हिन्दों काव्य में नियुण संप्रदाय 


, जिसका अभिप्राय है कि सदूगुरु मे अगम से आती हुई आध्यात्मिक 
घारा को प्रत्यक्ष कर दिया, उसे उलट कर स्वामी के साथ मिला दो 
और उसी का सुमिरन करो। परन्तु “राघास्वामी? के अजनुयायियों का 
कहना है कि धारा? के दोनों अक्षर यहाँ पर बदक्ष देने चाहिए । जिससे 
'बह शब्द राधा? बन ज्ञाय ओर उससे स्वामी शब्द जोड़ कर पूर्ण राधा- 
स्वामी? का स्मरण करना चाहिए। जो हो इसमें संदेह नहीं कि स्मरण 
में इश्चर का कोई न कोई नाम चुन लेना पड़ता है। 


प्रसन्‍्तु अन्य कई सम्प्रदायों के विपरीत, निर्गंणपंथी नास-स्मरण 

'का अर्थ कोई बाह्य साधना नहीं समझते ओर न इसे किन्हीं पवित्न 
'शब्दों की भाँति मंत्रवत्‌ दुहराने को ही सब कुछ मानते हैं । ऐसे मांत्रिक 
दुह़रावे के प्रति उन्हें बड़ी घणा है। उन पंडितों के विरुद्ध, जो नाम को 

उसे वास्तविक हृद्गत भाषरों का अतीक सात्र होने के अतिरिक्त स्वयं 

विशिष्ट शक्ति सम्पन्न होना भी मानते हैं, कबीर ने कहा है--पंडित 

व्यर्थ की बकबाद करते हैं, यदि 'राम” कहने मात्र से ही संसार को मुक्ति 

मिल जाय तो 'खाॉँड” शब्द के कहने मात्र से ही हमारा मुं ह भी मीठा 

हो सकता है। यदि आग? कहने मात्र से ही पाँच जलने लगे अथवा 
'पानी? कहने मात्र से ही प्यास, जाती रहे तथा “भोजन” कहने मात्र से 

ही भूख मिंट जाय तो 'सभी मुक्ति के भागी हो सकेंगे | परन्तु केवल ऐसे 

मांत्रिक स्मरणों से वास्तव में कोई भी लाभ नहीं |?” जसे कबीर ने फिर 

भी कहा है “मनुष्य के साथ-साथ तोता भी हरि का नाम लेता हे, फितु 

वह हैश्वर के प्रताप से अनभिज्ञ रहता है ओर यदि किसी प्रकार जंगल 

में फिर उड़कर चला गया तो उसे!वह नाम विस्मृत भी हो जाता है ।”& 


'मररमन्‍रतफनलक्र५.. #प्रमफ++-. डललजक हर 


4&# पण्डित बाद बदते भूठा । 
« राम कह्ाँ दुनिया गति पावे, खाँड कह्माँ मुख मीठा । 
. ८ पावक कष्चाँ पाँव जे दाके, जल कहि त्रिषा बुभाई। 


चतुथ अध्याय २२१ 


राम का नाम जपता हुआ भी मनुष्य काल से अपने को बचा नहीं 
हर £ ऐसा उन्होंने अन्यत्र भी कहा है । 

व कलश के लिए नाम-स्मरण एक ऐसी प्रेम-साधना हे जो 
कभी बम नहीं जाधी ) जे जेसा कि अंडरहिल ने भी कहा है---“रहस्य- 
वादी निरपेत्ष के साथ किसी गोंणझ रूप से प्रेम नहीं करता और न वह 
बसी भावुकतामात्र के ही प्रभाव द्वारा करता है, बल्कि उसका प्रेस उस 
गंभीर एवं सार्मिक ढंग से उत्पन्न होता हे जो किसी भी परिस्थिति में 
विकसित होता जाता है ओर प्रत्येक साधन द्वारा जोखिम उठाते हुएं भी 
अपने अियतम से समिल्लना चाहता है। ( मिस्टीसिज़्म, ए० ८९ ) संसार 
में भो हम देखते हैं कि खच्चे प्रेमी के लिए अपने प्रियतम जा ह 
हो एक मात्र आधार हुआ करता हे, चाहे वह परिस्थिति के कारण उससे 
कितना भी अलग क्‍यों न रहता हो। निगणी लोगों ने भी सुमिरन को 


उसी भाव के साथ अपनाया हू | यह वास्तव सें | एक आसभ्यंतरिक दशा 
जिसमें हृदय अपने आराध्य की ओर अभिमुख रहता है । अतएव कबीर ने 


कषफेआाप्राभााााऔ रथ... 2४४० अपर आफज 


ऐसे जप को जिसमें माला हाथ सें फिरा करती है, जीभ सु ह में घृमती हे 
| मन चारों ओर अमझण करता रहता हे स्वीकार नहीं किया है ।-- क्योंकि/ 


सुमिरन का उद्देश्य भगवान्‌ की सुरति के साथ अपने को मिला देना है। ) को मिला देना है । । 


भोजन कह्मयां भूख जे भाज, तो सब कोइ तिरि जाई । 
नर के साथि सुआ हरि बोले, हरि परताप न जाने । 
जो कहूँ उड़ि जाय जगल मे, बहुरि न सुरते आने ४ ॥ 
क्‌० ग्र०, पृ ७ १२०१। 
- रामहि राम कहतड़ा काल घसीटा जाइ ॥ १८ ॥। 
वही, पृ० ३७ । 
ल्‍ माला तो कर में फिरे, जीम फिरे मूख माहि। 


मनुवाँ तो दुहु दिसि फिर, सो तो सुमिरन नाहि ॥ 
स० बा० स०, १० ६ । 








श्२२ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


वास्तव सें इसे प्रारस्मिक दशा सें बाह्य साधना के रूप सें रहना 
पड़ेगा परन्तु वहाँ मी हृदय का सच्चा होना परमावश्यक हे। जीभ 
मुँह के भीतर अवश्य घूमा करेगी, किंतु मन चारों ओर भ्रमण नहीं 
कर सकता । क्रमश; जीम एवं कए्ठ जसी शब्दोच्ारण की इन्द्रियों का 
व्यवहार छू टने लगता है। मुख्य उद्देश्य हृदय को बाह्य जीवन के प्रप॑चों 
से विरत कर आशभ्यन्तरिक जीवन के अत्यन्त सार्मिक प्रदेश की ओर उसके 
द्वार खोल देना हे । जेसा कबीर ने कहा हे--“'सुरति के हारा स्मरण 
'करते चलो मु ह खोलने की श्रावश्यकता नहीं, बाहरचाली खिड़कियों को 
(बन्द कर अन्दर के पट को खोलो ।” 


अमरण के संबंध में साथक के लिए आदर्श उदाहरण पनिदहारी का 
दिया जा सकता हे यद्यपि वह मार्ग पर चलती हुईं बातचीत भी करती 
जाती है, किंतु उसक्रा मन सदा अपने सिर पर रखे हुए भरे घड़े की शोर 
ही लंगा रहता है| इसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि अपने को उस 
पनिहारिन की स्थिति में रखे ओर बाह्मरूप से संसार में व्यवहार करता 
हुआ भी अपनी सुरति को सदा हेश्वर में ही लगाये रहे । उसका सारा 
जीवन ही उसी हेश्वरीय केन्द्र की अनवरत स्मति में निरतः रहना 
चाहिए । बिना उस स्मघति के एंक श्वास-प्रश्वास का! भीं समय न व्यतीत 
होना चाहिए । 
/ जब साधक उस स्थिति तक ऋमश; पहुँच जाता है जो आथनाव्मक 
मनोबृत्ति की चरस सीमा है, तो उसका होठों बाला जाप छु ट जाता है 
और उसके जीवन के 'जाप? का आरस्भ होता है, जिसे हमारे संतों ने 
'अजपाजाप” अथीत्‌ जीम या माला की आशभ्यन्तरिक साधना बिना होने 


' िननान अनित पलक लिननीनली न निनननरनि नाना" 





$# सुम्रिन सुरति लगाइ के, मुख ते कछ नबोल। 
बाहर के पद दे के, भतीर के पट खोल ॥ 
वही, पू० ६६ । 


१४४७४७७७७७७॥७॥७४॥७७॥७॥७॥/शशे/ कक, ७७७ कल बल १७७७ ७७७७४७७७७७/५॥७७७४७ ७७०७० «हक 


चजुर्थ अध्याय २२३ 


के कारण अव्यक्त जाप का नाम दिया है। इसके द्वारा स्वयं आत्मा 
उद्बुद्ध हो जाती है ओर भीतरी ईश्वरीय भावना के सम अपने 
आपको पत्यक्ष शर्वं अबाधित रूप से समपिंत कर देती है । जब मन में 
मस्ती आ गई तो फिरूसुख से शब्दोचारण की आवश्यकता ही कहाँ 
रह गई १ क्‍योंकि यदि सचमुच प्रेम ने हदय और आत्मा पर अधिकार 
कर किया तो प्रत्येक छिद्र इश्वर का शुणगान आपसे आप करने 
लगेगा ।% 

जब यह दुशा दृढ़ तथा स्वाभाविक हो जाय ओर दूसरे शब्दों में 
यही जीवन का एक मात्र उद्देश्य अथवा जीवन का भी जीवन बन जाय 
तो समय पाकर, वह अनहृद शब्द भी सुन पड़ने लगता है जो स्वयं 
इैश्वर स्वरूप है और व्यक्ति इस बात का अनुभव करने लगता है कि 
यद्यपि उसने भगवान्‌ को भुज्ञा दिया है किन्तु उसने मुझे विस्म्ृत नहीं 
किया है, क्‍योंकि चह, सदा उसके भीतर शब्दोच्चारण करके उसे अपना 
स्मरण दिला रहा है ।|जेसा मलूकदास ने कहा है--“मैं राम कहने के 
लिए न तो माला का प्रयोग करता हूँ और न जीभ ही हिलाता हूँ, मुझे 
मेरा मालिक स्वयं स्मरण करता है और मैंने ग्रब विश्राम ले लिया हे ।?”+- 

आर तब सुरति स्मरणेन्द्रिय के रूप में नहीं रह जाती( बल्कि अपने को _ 


४8 मन मस्त हुग्ना तव ब्या बोले । 
सं० बा० सं०, भा० २, पु० १७। 
अंतर्गति हरि हरि करे, मुख की हाजति नाहि। 
सहज धुन्न लागी रहे, दादू मन ही माहि ॥ 
सं० बा० सं०, भा० १, प्‌ डंडे ॥ 
न माला जपों न कर जपो, जिभ्या कहो न राम । 
सूमिरन मेरा हरि करें, में पाया बिश्वाम ॥ 
वही, पूृ० ६०० ॥ 


२२४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 
भीतरी ईश्वरीय भावना में मग्न कर देती है और अब साधक उसे श्रपनी 


वस्तु समझ लेता है जो वास्तव में सदा उसके साथ रही थी | इसी को 
'निगुझी लोग “हो? कहते हैं जो लय शब्द का विक्ृत रूप हे । 
इस अक्रिया सें उस स्वत: निदृश ( आटदो-सर्जेशन ) का भी सिद्धान्त 
निहित हैं जिसको आधुनिक स्पिरिटवादी ( जिन्हें हम अष्यात्मवादी कहने 
सें संकोच करते हैं ) बड़ी दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हैं और जो 
लययोग का भी आधार स्वखय है, किन्तु जिसकी व्याख्या बहुचा इसके 
प्रधान ग्रन्थों में नहों पायी जाती | परन्तु अप्यात्मवाद की पुस्तक 'स्पत: 
निर्देश! ( आये-सजेशन ) के महत्व को स्वोकार करती हैं | एक असिद्ध 
शाखखीय कहावत है कि 'जाकी ज॑सी भावना, ताकी तेसी सिद्धि ४ 
_/इससे भी अधिक स्पष्टछूप में योग-बाशिष्ठ के अंतर्गत कहा गया 
हे--“हे महाबाहो ! अन्य बातों को भूलकर जिस प्रक्रार कोई अपने विषय 
में अनुभव करता है, वसा ही वह हो भी जाता है | नाम-सुमिरन, 
उसी प्रकार प्रभावित करता है। आराध्य_ को स्मरण करते-करते 


लक रह 2 पल कक कर 


न उसके ढ्वारा इतना भरपूर हो जाता है कि वह उसकी जगह 
ले लेता है। बल कहते हैं कि "तुझे स्मरण करता-करता में तू बन 
गया; अब मु नहीं रह गया । अब में तुझ पर न्‍्योछ्ावर होता 


हैं, में जिधर देखता हूँ तू ही तू दीख पड़ता है ।”+ 
का यादशी भावना यस्य सिद्धिभवति तादशी । 
& भावित तीज स्वेगादात्मनायत्तदेव स । 
भवत्याशु महाबाहों विगतेतर सस्मृति. ॥। 
४ योग वाशिष्ठ । 
# तू तू” करता तू भया, म्‌ भमें रही न हें । 
बारी फेरी बलि गई, जित देख तित त ॥ ६ ॥ 
कृ० ग्र०, १० प्रो 


चतुर्थ अध्याय र्श्श 


इस मग्न हो जाने की क्रिया-द्वारा अन्तिम मोक्ष की उपलब्धि हो' 
जाती है, जिस दशा में व्यक्टि अपने को समष्टि के अन्तर्गत फिर से 
प्राप्त कर लेता हे और डूस प्रकार अपने स्वामो को परते ही उसके 
अभीष्ट की सिद्धि हो जाती है जिसके त्रिए वह आज तक सचेष्ट रहा 
है। कबीर का कहना हे-- मेरा सन जब राम का स्मरण करता है 
त्तब बह समसय हो जाता है इस प्रकार जब मन राम ही हो गया 
तो फिर में किसके सामने अपना शिर ऊुफारऊं १?”& स्मरण रहे कि 
आभोष्ट की यह सिद्धि निगेख्ियों के भत्येक सम्प्रदाय के. श्रनुसार 
भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करती हे जेसा कि हम उनके दाशनिक सिद्धान्तों 
की चर्चा करते समय पिछुल्ले अ्रध्याय में देख आये हैं | वा 
श्र है टन नम हज. प्रकार सुमिरन तीन प्रकार का होता डे, (१) जाप! जो कि 
याद्य क्रिया होती हे, (२) 'अजपा जाप” जिसके अनुसार साधक बाहरी 
जीवन का परित्याग कर आभ्यंतरिक जीवन में प्रवेश करता है श्रोर (३) 
अनाहत”' जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गृढ़तम अंश में प्रवेश 
करता है जहाँ पर अपने आप की पहचान के सहारे वह सभी स्थितियों 
। को पार कर अंत में कारणातीत हो जाता है। इन क्रमों की ओर 
कबीर ने इस प्रकार संकेत किया हे--'जाप मर जाता है अजपा- 
जाप भी नष्ट हो जाता है ओर अनाहत भी नहीं रह जाता, जब सुरति 
शब्द में लीन हो जाती हे तब उसका जन्म व मरण के चक्‍कर का भय 
-छुट जाता है । > 


#& मेरा मन सुमिरे राम को, मेरा मन रामहि आाहि । 
जब मन रामे छो रहा, सीस नवाबों काहि॥ ८ ॥। 
क्ृ० प्न०, प्‌ृ० पी 
जाप मरे अजपा मरे, अनहद हु मरि जाइ। 


सुरत समानी शब्द में, ताहि काल नहिं खाइ ॥ ३ ॥॥ 
सं० बा० सं०, प० ८७ । 


में 3. ५ प्‌ श् 
२६ हिन्दी काव्य में निग गा संप्रदीय 


थक 


दैनिक जीवन सें किसी को कभी प्राथना को आवश्यकता नहीं पटर्ती 
जवतक उसे क्रिसी कमी का अनुभव न हो' अथवा उसपर कोई आपत्ति न' 
आ पड़े । मनुष्य ईश्वर का नाम तभी स्मरण करता ह जब उसे जान पड़ता 
है कि बिना उसकी सहायता के उसे अपने ऊपर आये हुए दुख से छुट- 
कारा नहीं मिक्त सकता। कमंकांड-ओ सी धर्मोंने अपने नियमानुसार 
इस प्रकार का मकेवुत्ति को ता अऋदान कर दी हे और वे अपने अ्रनुथा- 
यियों को इंश्वर का नाम-स्मरण इसलिए कराते है कि उसके द्वारा उन्हें 
धन- सपत्ति मिल्केगी ओर शारोरिक सुच्र भी प्राप्त होगा । इससें संदेह 
नहीं कि आ्थना ने मनुष्य को वे लाभ पहुं चाये हैं जिन्हें ये स्वप्न में सी 
पाने की आशा नहों कर सकते थे | किंतु, इस प्रकार की बदलोअल, 
यास्तविक प्राथना नहीं कही जा सकती, क्योंकि इसमें प्रार्थी बहुधा इंश्चर 
कहीं अ्रधिक उस वस्तु से ही अनुराग रखता हे जिसको उसे चाह रहा 
करती है और यदि वह उसे बिना ईश्वरीय सहायता के उपलब्ध हो सके 
तो वह उसे स्मरण करने का कभी नाम भी न लेगा । परंतु प्रार्थना की 
सच्ची वत्ति में आकर कोड़े कभी इंश्वर से अधिक फ्िसी अन्य वस्तु को 
नहीं समझ सकता । 
| (हमिरल एक प्रकार को प्र म साधना है, वह कभी अपने प्रियतस से 
; ग्रस्तु की भोख मोगने के उद्द श्य से नहीं की जा सकती, क्योंकि 
सो को तो अपने प्रियतस का नाम ही प्यारा हुआ करता टच । यदि 
छु माँगना हो हो तो वह स्वयं अपने प्रियतम को ही माँगेगा | कबीर का 
कहना था कि हे स्वामी मैं तेरे सिवाय और कोई भी वस्तु नहीं चाहता | 
नानक भी कहते हैं. “हें कर्ता तू मेरा यजमान हैं और में तुमसे अपनी 
दक्षिणा मांगता हूँ त्तू मुझे अपन! नाम दे द्‌। 208 दादू का भी अनुरोध ह 
“हे स्वामी, यह शरीर तेरा है; यह आत्मा सी तेरा ह और ये सारे प्राण क 





#& करता तू मेरा जजमान + एक दक्षिना मॉँगौ, देहु श्रपणा नाम । 
ग्रथसाहब' पु० ७१६ । 


चतुर्थे अध्याय घ२७ 


८ हे ०३8 हें सी नम मिल] 
ैड भी तेरे ही हैं । खबर कुछ तेरा हे किंतु तू मेरा हे ओर थी सेरः 


जान हे।& ., 
यदि सच पूछिये तो उसे कुछ मॉगने की आवश्यकता ही नहीं शहर्ती 
क्योंकि यदि नाम-स्मरण को मोतिफ दुख वा सुख के क्षेत्र में किसी प्रकोर 
की शक्ति उपलब्ध हे तो उस मनुष्य के ल्विए जो अभी तक स्वास्थ्य व 
आनन्द से युक्त हे ईश्वर का नास और भी लामदाग्रक सिद्ध हो सकता है | 
दुख उस दशा सें हमारे ऊपर कोड अमसाव ही नहीं डाल सकता 4 कब्रीर- 
कहते हैं कि 'अत्यक मनुष्य स्रगवान्‌ को दुख में स्मरण करता हे सुख 
में कोई भी सुमिरण नहीं करता । यदि सुख में भी वह स्मरण करने 
स्वगे तो फिर दुख का अवसर ही उसे क्यों उपलब्ध हो” १३ जब नियरणरे 
को यह आदेश मिल गया कि चाह हम बडे हों, चलते हो, खर्ते हों, 
पीते हों अथवर ओर भी कोई काम करते हों, प्रत्यक दशा में हमें 
चाहिए कि भगवान्‌ को अपने हृदय में विद्यमब खसममकते हुए उसे 
स्मरण किया करें, + तो फिर डसे किसी दुख वा कमी के अनुभव करने 
की अवश्यकता ही कहाँ रह जाती हें । परन्तु इंश्वर को खदा स्मरख 
करते रहने का यह उद्देश्य निगु खियों के अनुसार कभी नहीं हें ४ 


काओ न »-नननन न न पिननन नननमीननिनन-नकिननन-म-+ ८ ++ममन3 थम नाम ५७५५ न वन पिन जनता: अल. तन लनिनन+.. नत+ जप “टन 3कनन लत ै२ककज#-+क नल +तजननिनन ल्‍ननना नाम वन नकम-न- डा णण. पशनिभानना नी ललक नकल, क-+ कल अकनकनानाननीन 


$& तन भी तेरा मन भी तेरा तेरा पिंड पराण 4 '- 
सब कुछ तेरा तू है मेरा, यह दादू का ज्ञान वा 
स० ब० स> प्‌ ऐहै 
#* दुख में सुमिरण सब करें , सुंख में करे न॑ कोर्य | 
जो सुख में सुमिरण कर, दूख काहे को होय ॥॥ 
+ बेठे लेंदे चालते, खान पान व्यवहार | 
जहाँ तहाँ सुमिरण करें, सहजो हिये निहार ॥ 
स० बा० स० है५३। 


५ 8 कु 
श्श्द हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


इनके लिए यद्यपि यह एफ साधना मात्र हे किंतु तो भी यह उनके 
लिए अपने अभीष्ट से किसी प्रकार कम नहीं | यह दूस्तरो बात है कि 
इसके द्वारा उसे इश्वर के साथ संयोग होता है ओर उसे सांसारिक 
दुखों से निवत्ति भी हो जाती है। प्रेसी अपने प्रियलम का नाम हने 
में उतना श्रनुरक्त रहा करता है कि उसे उस बात की ओर कभी ध्यान 
ही नहीं जाता कि उसका परिणाम उसके लिए कया होगा १ यही 
कारण है कि उस सांसारिक दुखो का अनुभव नहीं हुआ करता। 
उसकी इच्छाएँ और उसकी आशाएं सभी अपने प्रियतम में फेन्द्रित 
रहा करती हैं। उसके अतिरिक्त उसे कोई भी अभिलाषा वा आशा 
नहीं ओर दुख भी श्रतृप्त वासनाओं और मग्न आशाओं के अ्रतिरिक्त 
हो ही क्या सकता है ९ 

नाम सुमिरन जिसे हम “मन्त्र योग! भी कहे सकते हैं “सुरति 
शब्द योग” का ही एक बूसरा रूप हैं और इस प्रकार वह सारे योगों का 
भी योग है | भक्तियोग, राजयोग, मंत्रयोग, कर्मंग्रोग, लग्योग, 
हठयोग एवं झानयोग भी उसी के विविध रूपांतर कहें जा सकते हैं । 
सभी के शआ्राधारभूत सिद्धान्त इसके भीतर आ जाते हैं । अपनी 
प्रारंभिक दशा में यह मंत्रयोग हे जो राजयोग-द्वारा श्रजुप्राशित रहा 
करता है ओर अपनी अंतिम दशा में यही ज्ञानयोग है जिसमें 
डस निर्विकार के वास्तविक स्वरूप की श्रनुभूति प्राप्त होती है । 
इसके लिए उस निरपेतज्ष परमात्मा की सत्ता सें अपनी सत्ता को भान 
करना पड़ता हैं। 'लगयोग” वह है जिसे निर्गेणी “को? की संज्ञा देते हैं । 
अब तक कही गई बातों-ढ्वारा पूर्णतः स्पष्ट हो गया होगा कि इन सब 
की सिद्धि एक प्र्चार की प्रेम-साधना-द्वारा होती है। यहा भक्तियोग है जिसे 
दुहराने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। इसके हठयोग एंवं कर्मयोग 
चाले रूपों के विषय सें अब हम इस अ्रध्याय के अगले प्रकरणों द्वारा 
विस्तार के साथ प्रकाश डाक्षंगे । 


चनुर्थे अध्याय २२६ 


जिस प्रकार आदि व अन्त का मान शब्द के हारा हुआ करता हे 

ओर इस काल की ही सीमा की भाँति, जिस अकार दिशा एवं कार्य-कारण 
के अनुभवों की भी उत्पत्ति, उसी शब्द से ही मानी 

६, शब्द योग जाती है, उसी प्रकार इन सभी सीमाओं को अति- 
क्रमण करने के लिए फिर से उसी शब्द में उनका 

लीन हो जाना भो आवश्यक होगा | शिवदयात् ने कहा भी हे कि “शब्द 
को ही सबका आदि व अंत सी समम्दनना चाहिए”? # बह योग जिसके चह योग जिसके 
द्वारा सुरति एवं शब्द का संयोग लिड होता हे और उक्त सीमाएँ शब्द 


में फिर से लीन हो जाती हैं ; शब्द्योग अथवा सुरति शब्दयोग कह- 


लाता है और वह शब्द सर्वप्रथम भगवन्नाम के रूप में मु हु से निकलता 

ओर अंत में स्वयं शब्द रू प्‌ ब्रह्म हो जाता हैं। इसे सहजयोग भी 
फटा जाता हूं क्योंकि इसको सहायता से भी प्त्याभिह्ान का उतर जाता ह' क्‍योंकि इसको सहायता से भी प्रत्यमिष्ठान का उदय 
होता है | 

इस अवस्था सें निगशियों का लच्य शुद्ध सत्तारख्प हो जाना है 
जो वह मूलत; पहले से भी है, किंतु जिसका यह अनुभव नहीं 
कर सकता, क्योंकि उसकी श्रनुभूति एवं सत्ता के बीच प्रकृति का 
व्यवधान श्रा जाता है। यह तभी संभव है जब उस प्रकृति का 
ग्रतिक्मण कर दिया जाथ जो हमारी सता को आदत किये रहती 
है ओर इसके लिए हमें उस प्रकृति को ही भल्ती भाँति समर ल्लेना पड़ेगा 
और उसके रहस्यों को भी जान लेना होगा जेसा कि लययोगसंहिता 
तंत्र में कहा गया हे “ब्रह्म ( पुरुष ) से उत्पन्न होने के कारण प्रकृति 
अर्थात्‌ पिंड व बह्माएड एक ही समान हैं। वे समष्टि एवं व्यष्टि के संबंध 
रूपी बन्धनों द्वारा बंधे हैें। ऋषि, देव एवं पितृ ख्ोग पिंड म॑ रहा 





की जि लया।ण। एमए +े जशिणणलण । वा अिजार-एगएगए।णए। “ताल िनाशाटएण।ण।ण।।ण (धन न >भनननान 


%& सबका आझांदि शब्द को जान | पअ्रन्त सभी का दाब्द पिछान । 
'सारवचन' पृष्ठ १६१। 


२३० हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 

करते हैं और ग्रह नक्षत्र एवं राशियाँ ब्रह्माण्ड मे रहा करती हैं। 
अतएव पिंड के झान-द्वारा ब्रह्माण्ड का ज्ञान भी संभवन्‍हे। और पिंड 
का ठोक ठीक ज्ञान गुरु से ग्राप्त करने के लिए प्रकृति को पुरुष में 
ल्लीन कर देना आवश्यक होगा १६७ इस प्रकार वास्तविक्र ग्रोग की 
उपलब्धि के लिए ग्रध्येक साथना मे इस प्रश्न पर दोनों ओर से विचार 
करना पडेगा। उस सचा के साथ तद्गप हो जाने के लिए पूर्ण अभिलाषा 
होनी चाहिए और इस बात के लिए भी भूख होनी चाहिए कि किस 
प्रकार प्रकृति के झ्ञान-हारा उप्तका अतिक्रमण कर देवे । आ्राधुनिक पारि 
भाषिक शब्दावल्ली के अनुसार-पहक्े को रहस्यवाद ओर दूसरे को 
डिकल्टिज्म! ([2200[| (8॥7) कहेंगे ओर जेसा कि अंडर-हिल्ल को वस्तु- 
स्थिति से बाध्य होऊर मानना पड़ा हे, दोनों एक दूसरे के विपरीत है। परतु 
निगु णियों के विचार से, यह बात नहों हे, क्योंकि वे इनको एक दूसरे का 
प्रक समभते है । यदि कोई मत इनमें से क्रिसी एक की उपेक्षा करता 
हे तो, समझना चाहिए कि वह परमात्मा की आर निर्दिष्ट किये गये मार्ग 
की सभी आश्यकताओं को पूर्ति कर सकने सें अ्रसमथ है | ईसाई रहस्य 
वाद, जिसने अस्तित्व वा सत्ता को संस्ति को नितांत उपेक्षा कर कें, 
उपलब्ध करने का प्रयत्न किया था, उसी प्रकार भयानक भूल का दोषी 
कहा जा सकता है । जिस प्रकार आधुनिक 'डिकह्टिज़्म! (]0९008॥॥) 
जो कि संस्टति के रहरुय का सत्ता से प्रथक व भिन्न अर्थ में अयोग करना 
अपना लच्य मानता है । किंतु निगु णी संतों के शब्दयोग में, आध्यात्मिक 
साधना की पूर्ति दोनों के सहयोग से होती हुईं दीख पड़ती है। नाम 
सुमिरन जिसकी चर्चा पिछले प्रकरणों में की ज। चुकी है शब्दयोग के सभा 
वाले अंश को सूचित करता है । उसका ससतिवाला अंश जिसका सम्बन्ध 
विश्व को सष्टि से हे आगे के पृष्ठों में बतल्लाया जायेगा | 


अललअंलनाननकर पकने परम; ४. 3०4५ मकत करत न न भा नमक नाल नकनन. चलन, लेगिनकफानलमन«- “लक -॑ममनवननततमकनान न लमनअ«म+आकनननभमकञार भले सन- नमन समन» ९-33» लफवनक नीता अमल नम सन5कत तक करनक+- भंग कप 5], 4४/सताककमत-भ 3 कामकलक 


१--लययोग संहिता पृ० १-२ । 


चतुर्थ अध्याय २३१ 


ईस प्रकार के ज्ञान के विषय में, इसके सभी मानने वाले सहमत हैं । 
साधारण रूप से स्वीकार कर लिया जाता है कि ब्रह्मांड अथात्‌ शब्द शरीर 
चा निरंजन तथा पिंड सें न्‍्यूनाघिक पूर्ण साइश्य है। इसाइयों की यह 
धारणा भी कि ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप रचा था, इसी दृष्टि से 
समम सें आ सकतो है। मानव शरीर, प्रत्येक गृूढ़ विद्याओं-ह्वारा विश्व 
का सूक्म रूप अथवा सूदम जगत माना जाता हैं ओर निगुण पंथ 
वालों का यह एक साधारण कथन ह “कि जो कुछ ब्रह्मांड में है, 
चह पिंड सें भी हैं।”& तुलसी साहब ने कहा हे कि “यह शरीर 
ही मसजिद हैँ जिसमें चोदहों तबक विद्यम्तान हैं !?* परंतु इन चोदहों 
के अन्तर्गत निचले लोकों की सी गणना की गईं है| ऊपरी कछोकों के 
विषय सें भी वे इसी प्रकार कहने हैं ओर उनकी संख्या आठ उठहराते हैं। 
“वे महल भोतर हैं जहाँ पर सनन्‍त लोग विल्लास करते हैं। सन्त लोक, सत 
पुरुष का स्थान है जिसका ध्यान पूण रूप से सुरति के साथ करना चाहिये 
सद्गुरु के ल्ञोक तक पहुंचने के लिए. सप्त गगन को पारकर ऊपर जाना 
पड़ता है | नीचे के तीन लोक निगु ण के निवासस्थान हैं । ?” + 


परंतु पिंड व ब्रह्मांड के इससादश्य को भत्नी भाँति समम्भने के पहले 
हमें परमात्सा के इस मंदिर के रहस्यमय व्यवच्छेद की सी एक धारणा 


कनल जयय- 





नानननिभक- + लि िनििनननक, जे का जल 
+म न. स्‍मरमममक्‍घ७+->मैननग-3००म, नायक एप: एएणप/ 
अजजफिण अम-+--+ 55 


& जो पिडे सो ब्रह्मांड जानि; मान सरोवर करि असनान ॥ शेश८ ॥। 
क० ग्रं०, पृ० १९६ । 

»< साची मसजिद तन को जानो, जाम चौदह तबक समाना। 

घट रामायण पु० 5७ । 





+ आठ महल अंदर के माही, सत बिलास करें तेही ठाही ! 
सत्ततोंक सत पुरुष का, करे सुरति से ध्यान । 
सात गगन ऊपर चढ़े; जहँ सतगुरु का अस्थात ।। 
रत्न सागर पृ० १५। 


0 ढथ ९ 
२३२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


बना लेनी चाहिए। मानव शरीर से महत्वपूर्ण स्तायुकेन्द्रों या संध्यानों 
का अस्तित्व बतलाया जाता ह जिन्हें योगी व निगु णा लोग तक्र अथवा 
कमल कहा करते हैं आर जिनमें इेश्वरीय शक्ति के गुप्त रूप से किंतु 
ऋमश; बढ़ते हुए परिमाण सें वर्तमान रहने में, विश्वास किया जाता हैं । 
[शो की भाँति, अधिकतर निगु णी भी यही मानते हैं कि मानव शरीर 
रचना , उसके अ'तगत, इनमें से छु कमलों_के साथ हुई है, 
उसके भिन्न-भिन्न भागों सें बने हुए हैं ओर उन सबके ऊपर एक शोष 
कमल की प्रधानता हैं । 
गुदास्थान एवं जननेन्द्रिय के बीच, जिस योनि भी कठते हैं. भोर 
जो स्त्रियों की गुप्तेन्द्रिय को जगह पड़ता है, " 'मूलाघार” नाम का कमज 
है जिसे निगु णी लोग बहुधा केवल मूल नाम से अभिहित करते हैं, ओर 
जिसके चार दलों में एक सूथ निवास करता है। 'स्वाधिष्ठान चक्र! (वा 
स्वाद) छु दलों का कमल हैं जो जननन्द्रिय के भूल में अवस्थित है। 
ट वा नाभिचक्र दस दलों का है जिपका स्थान नाभि-प्रदेश है और 
| इसी प्रकार बारह दलों का आवाहन” व हृद्यचक्र हृदय में, सोलह दलों 
का “विशुद्ध/ वा क्रंठचक्र कंठस्थान में तथा आज्ञा? चा आकाश चक्र, जो 
केवल दो दल्लों का है, दो भौंहों के बीच चतमान हे। मस्तिष्क प्रदेश के 
अन्तर्गत वह शीर्षकमल है जो 'सहखार” कहलाता हे श्रोर उसमें सहख 
दल हैं जेसा कि उसके नाम से भी प्रकट होता है | 
बनारस के निकट सारताथ में जो बुद्ध. की मूर्तियाँ रखी हुईं 
हैं उनमें से कुछ में पहले ऐसा जान पडता हैं कि उनके शिर पर एक 
छोटी सी बालदोर दोपी बनी हुई है, किंतु उनमें जो उक्क टोपी के 
आकुचित अधोभाग जान पड़ते हैं ये वस्तुत; हस कमझ् के दल ही 
हैं। निगंणियों को भी इन चक्रों के श्रस्तित्व में विश्वास है किंतु 
थे सभी इनके दलों की संख्या एक ही समान नहीं ठहराते। कबीर 
व अन्य बहुत से निगंणी, उक्त साम्प्रदायिक धारणा से, संख्या के विषय 


चतुर्थे अध्याय र३३ 


में पूण सहमत हैं किंतु शिवद्याल साहब के अनुसार योगशास्त्रों द्वारा 
बतलाये गये छुट्टों चक्र उनके स्थूल रूपों को ही प्रकट करते हैं ओर उनका 
पिंड अथवा मुख्य शरीहु भाग से संबंध हे, उनके अ्रतिरिक्त श्रन्‍्य ऐसेही 
चक्रों के तीन ओर भी समूह है जिनमें से प्रत्येक में क्रमशः बढ़ती हुई 
सूक्षमता के साथ तीन-तीन चक्र वर्तमान है । इन तीनों अन्य खमूहों सें से 
सबसे नीचेवाले का संबंध ब्रह्मांड से है ( जो अंडाकर विश्व का अतिरूप 
होने के कारण, मस्तिष्क का ही एक नाम है ) ओर जिससें सहखदल 
कमल, त्रिकुटी एवं दुशम ढ्वार वतंसान हैं । ब्रह्मांड के आगे बाल सध्य- 
चर्ती समूह में अचित्य कमल, भर्वर गुफा व सत्यपद हैं। कहा जाता है 
कि योगियों को भी ब्रह्मांड के इन चक्रों का केवल एक धु धत्ना सा ही 
दर्शन होता है | संत अथवा नियु णो महात्मा ही सत्यपद तक पहुंच 
सकते हैं । अंतिम तीन पदों का ज्ञान केवल शिवद्याल साहब को अथवा 
उन लोगों को ही हे जिन्हें उन्होंने बतलाने की कृपा की होगी ।& 
शिवदयाल के अनुयायियों ने पिंड, अह्मयांड तथा डसके परेचाल 
समूह के साइश्य को पूर्ण करने के विचार से इन ऊपरवाल समूहों की 
संख्या को घटा कर दो कर दिया है ओर, इस प्रकार चक्रों की कुल संख्या 
को तीन मान लिया है । इसलिए ऊपर के जो दो चक्र-समूह मस्तिष्क 
के भूरे एवं श्वेत भाग सें पड़ते हैं उनसें से भी प्रत्येक में उनके अनुसार 
छुः चक्रही बने हुए हैं। उन लोगों ने, मानव शरीर एंवं विश्व में 
सादश्य दिखलानवाले अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते समय आधुनिक 
शरोर-विज्ञान व खगोल विद्या-संदंधी अपने ज्ञान का भी प्रयोग करने की 
चष्टा की है। विश्व-रचना-विषयक्र >नकी धारणा नितांत अपनी हे | उनके 
अनुसार इसके तीन बड़े-बड़े भाग हैं जो, हमारे सोर संप्रदाय के प्रधान 
न्तत्नों को लेकर, चक्रों के स्थूल्तलम समूह की जगह पर हैं ओर जिनमें 


5५७४४ 2:2५७७७६०७३७४०५ ल्ममकी- कट मम | न कल नलत_-टतनीकक जी रानी लग कओे 


क सारबचन भाग २ पृ० ३६८-६। 


२३५ हिंदी काव्य में निगुंश संप्रदाय 


भौतिक व आध्यात्मिक जगत्‌ दोनों हो वतमान हें किन्तु जहाँ आत्मा के 
ऊपर भौतिक तत्वों की ग्रधानता है । अभी देखना यह है-कि कोई इससे 
भी आगे बढकर, उक्त साइश्य में केप्टेन (९ 00ए7 | शैनल्ी (5 4॥9) 
' और डि सिल्टर (05 8॥[८ 7 -नामक विश्त्रों को भी स्थान दे देता हे 
या नहीं , जिनका पता उन नामोंवाले महान ज्योतिषियों ने अ्रन्वेषण 
कर के संसार को बतला दिया है। उन प्रदेशों के दो अन्य भी बड़े-बड़े 
भाग हैं। इनका साहश्य वे चक्रों के डन दो सूच्म समूहों के साथ ठह- 
राते हैं जो मस्तिष्क के क्रमश; भूरे एवं श्वेत अंशों में बतलाये जाते हैं 
और जिनमें से प्रत्येक में उन चक्रों के चिह्न-स्वरूप छु। छिंद्रों का होना 
भी कहा जाता है। कबीर के भी एक पद सें, जो स्पष्ट रूप में क्षेपक है, 
इस प्रकार के तीन विभागों की चर्चा को गई हे जिनमें से प्रत्येक में सात 
प्रदेश हैं और जिनके आगे भी श्रन्य पाँच श्रल्लोकिक लोक हैं । बड़े विभाग 
के सबसे नीचेचाले प्रदेश को पाताल कहा गया है, बीचवालों के नाम 
आकाश दिये गये हैं ओर सबसे ऊपरवाले सुन्न कहे गये हैं। मरे 
विचार से ऐसा करना रहस्यवादी-शरीर-विज्ञान के क्षेत्र में द!शनिक परात्पर 
* बाद को ला जोड़ना है। परंतु जेसा कि मैंने अन्यन्न भी कहा है, प्रदेशों 
की इस अनियमित संख्या-वृद्धि का एकमात्र आधार वा प्रमाण अनुभव 
के जषेत्र में ही हूं ढ़ा जा सकता हे। जो हो, इतना स्पष्ट हे कि कबीर के छः 
चक्रों तथा यदि सहस्रार को शीष-चक्र कहा जाय तो उसके भी अतिरिक्त 
ओर अधिक नहीं माना था ओर कुछु नाम, जो उक्त परात्परवादियों द्वारा 
डनके बतलाये गये उच्च स्थानीय चक्रों को दिये गये हैं, वे नीचेवाले 
प्रदेशों को ही देते हैं । उदाहरण के लिए भर्वेर गुफा को उन्होंने अनाहत 
चक्र में तथा ब्रिकुटी को आज्ञाचकर सें स्थान दिया हे | 

हन चक्रों से वस्तुतः सम्बन्धित होने पर भी, बहुसंख्यक पदों को 
अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए नितांत भिन्न स्थान ग्रहण करना 
पड़ेगा । उक्त घटचक्र नियामक प्रेस-बटनों वा उन कुजियों के समान 


चतुर्थ अध्याय २३५ 


होते हैं, जिन्हे यदि काम सें लाया जाय तो उस शरीर के सारे स्पंदनों 
का नियंत्रण जिन्हें अन्यन्न कोश कहा गया हैं, प्रत्येक अकार के स्थूल 
वा सूचम स्तर के क्रम से किया करते हैं। इन्ही स्तरों को क्रमान्वित 
कर लेने पर, पदों की संज्ञा दी जाठो है । इसमें संदह नहीं कि ऋमों 
की संख्या उन अयोगों पर ही आश्रित हे जो हम उक्त नियामक बटनों 
का कर सकते हैं । 

योग शास्त्रानुसार ये घट-चक्र उस सुषुम्ना नाड़ी के भोतर भिन्न-भिन्न 
अवस्थान माने जाते हैं, जिसके निम्न सिरे अर्थात्‌ मूलाधार कमल में 
प्रकृति वा आध्यात्मिक शक्ति अपनो साढ़े तीन कु डल्तियां द्वारा उससे तथा 
उसके वाम भाग में अवस्थित इड़ा, एवं दाहिनी ओर की पिंगला नाडियों 
से जो उसके साथ उसके ऊपर वाले छिद्र वा ब्रह्मांध् के पास पुरुष के 
निवास स्थान सहखार सें मिक्नती है, सर्पिणी कु'डब्निनी के रूप में लिपटी 
रहती है। 'लययोग संहिता तंत्र” में कहा गया हे कि “ कु डलिनी मूल्ला- 
धार में सुप्त रहती हे ओर सहसखार में नित्य-पुरुष का वास है । जब तक 
कु डलिनी सोतो रहती है वाह्य सष्टि चलती रहती है । जब योग साधना 
की भिन्न-भिन्न युक्तियों द्वारा वह जागृत की जाती है तो वाह्म सष्टि का 
उस पुरूष में लय हो जाता है ।?& सहखार के सहखदलों सें वतमान 
चन्द्र अस॒तखाव करता है जो इड़ा नाड़ी ह्वारा बहा करता है ओर चार 
दलों के मूलाधार सें वतमान सूयथ उसे सोख लेता है तथा, उसकी 
जगह, विषमय रस प्रवाहित करता है जो शरीर में मिन जाता है ओर 
जिसके कारण उससें समय के पहले ही हास होने लगता है। योगीलोग 
चन्द्र ह्वारा निकलने वाले उस अमत का पान कर उसे शरोर में व्याप्त 
कर देना तथा उसकी सहायता से उक्त चिषल्ले रस के ग्रभावों से मुक्त हो 
आना चाहते हैं। 


जरननकतारीनीनाजक +- 5७. 2-०. सतना पाता “नमन गन... भन+ ++-- करन बन 3 >-बम अनननग-ग-2२7-_.>नन न नग्न ली बी अर आज नि-:पापा5भप+ा 5 


की पृ०२। 


्ाँ हिंदी ५ र्‌ः का 
२३६ हिंदी काव्य में निगुंश संप्रदाय 


चन्द्रमा सत्ता अथवा हमारे मौलिक असरत्व का प्रतीक है और इसी 
प्रकार सूर्य भी विकास वा हमारे डस पक्ष का थ्लोतक हें जो परिवर्तन» 
शील व नाशंसान है | अमरत्व के रस का विपजे इस में परिवर्तित हो कर 
उस प्रकार के नाश का कारण बन जाना भो सता से विकास में परिणत 
होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। भौतिक पक्ष में उत्पादन भी परिवतेन 
के तत्व का ही व्यक्त व वाह्महप है। शरीर में ख्रावित होनेपाला उसमें 
संचित जीवन-तत्व का श्रोजस नामक परिणाम है जिसके द्वारा इश्वरोय 
गुयों की उपलब्धि होती है आर योगिपों का शरोर एक प्रकाश-मेडल्ल से 
परिवृत हो जाता है। मूलाधार-स्थित सूर्य द्वारा रस के न निकलने की 
दशा में प्रत्येक व्यक्ति उस ईश्वरीय शक्ति का अनुभव कर सकता हैं 
जिससे योगियों को अ्रमरत्व मिल्रा करता है। जीवन तत्व के रस के शरोर 
के बाहर सूर्य कहलाने वाले कतिपय मांसपिंडों द्वारा, निकल्नने को ही 
लाचरशिक ढंग से विषेले रस का शरीर सें अवाहित होना कहा जाता है । 
जोवन-तत्व वाले रस को जो सूक्म बिंदु व सत्ता का ही स्थूल रूप है 
निगु णु मत के अथुसार भी सुरक्षित रखना आवश्यक है । 

ऊपर के उन आध्यात्मिक पदों तक पहुँचने के ल्लषिण जिसमें श्रनाहत 
नाद वा परमात्मा शब्द सुन पड़ता, तथा अगम्युत रस का स्वाद मिलता है 
थरह आवश्यक है कि ये आध्यात्मिक शक्ति के केन्द्र भी सक्रिय हो जाये । 
योग साधना की शाल्लीय पद्धति का श्रप्टाज्ञ योग सो इसी बात को लक्ष्य 
करता है । इसका सुख्य साधन प्राणायाम वा श्वास का नियमन करना 
है। श्वास एक प्रकार से शब्द का ही सूचमतम रूप है | योग पति में 
श्वास-विज्ञान अपनी पूर्णता तक पहुँच गया है । जब श्वास कुछु समय 
तक बाय नथने से चलता हं तो इसका हेड़ा अथवा चन्द्रनाडी से होकर 
चलना कहा जाता है। और इसो प्रकार जब यह दाहिने नथने से जाता है 
तो इसका प॒िंगला वा सूथनाड़ी से होकर चलना बतलाया जाता है और 
जब कभी यह दाये तथा बाय नथने से बारो-बारो होकर चला करवा हैं 


चतुथ अध्याय २३७ 


तो इसका प्रवाह सुषुम्ना नाड़ी से हुआ करता हे, जहाँ पर चन्द्र एवं 
सूर्य की उक्त दोनों नाडियाँ आपस सें मिल जाती हैं| इसे अगिनि नाड़ी 
भी कहते हैं| ये नाडियाँ ऋमशः गंगा जमुना एवं सरस्वतो भी कहलाती 
है । आह्ाचक्र से होकर जाते समय ईंडा बरुण कही जाती है। और 
पिड़ला को असी को नाम दिया जाता है तथा इसी कारण उस चक्र को 
भी वाराणसी वा काशी कहा करते हैं । प्राणायाम से अभिप्राय धीरे धीरे 
भीतर की ओर दीर्घ श्वास ल्लेना और इस क्रिया को बारो-बारी दोनों नथनों 
द्वारा करना, चायु को जब तक संभव हो रोक रखना तथा अंत" में उसे 
दूसरे नथने से बाहर निकाल देना होता है | श्वास के भीतर ले जाने को 
पूरक, बाहर निकालने को रेचक तथा रोक रखने को के भक नास हु: बाहर तति को रेचक तथा रोक रखने को कभक नाम दिये 
गये हैं रोड रखने की अवधि को क्रमश: धीरे-धीरे व धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिये ! 
विश्वास किया जाता है कि प्रायायाम का लगातार अभ्यास उस यौगिक 
शक्ति को जायूत करता है जिसका अतीक खूयोकार कु डलिनी है जो मुला- 
धार के भीतर प्रसुप्त सममो जाती है और जो ऊपर को चढ़ती हुई, अन्य 
केन्द्रों को भेदन कर उनसें निहित शक्ति को उद्‌डुद्ध कर देती है । ज्यों- 
ज्यों उन केन्द्रों का सेदन होता जाता है स्यों-त्यों साधक अनुभव के 
उच्चतर सारों तक पहुँचता जाता है | अदूभुत दृश्य देखा करता है और 
अज्लौकिक शक्ति प्राप कर लेता हैं। कुछ लोग इसे ही परमात्मा का 
दर्शन मान लेते हैं, किंतु साधक को चाहिए कि कह इस प्रकार के प्रलो- 
भर्तों से अपने को बचाता चले । जब आज्ञाचक्र अथवा दोनों अवों एवं 
नाक का मध्यवर्ती केन्द्र जो त्रिकुटी सी कहा जाता हें प्राप्त हो जाता है 
तब कहीं सच्चे आध्यात्मिक जीवन का आरंभ होता और जब कुंडलिनो 
ब्ह्मरन्थध तक पहुँच जातो है तब मन पूर्णतः शांत हो जाता हैं तथा 
विषयों से विनिवृत्त होकर अंतमंख बन जाता है । इस स्थिति को उनन्‍्मन 
दशा वा अति चेतनावस्था कहते हैं। इसो दशा के प्राप्त हो जाने पर 
अनाहत नाद वा ईश्वरीय शब्द सुन पड़ता हैं जिससे अस्छत रस का स्वाद 


श्शेप हिन्दी काव्य में निगु ण संप्रदाय 


श्ड 
पम्प 


मिलने लगता ह झौर परमात्मा के प्रकाश का दृष्टि-गोचर होमा भी 
संभव बन जाता है। यह वही दशा है जिसे वेदान्ती तुरीयावस्था 
कहते हैं ओर जो बहुधा दशवे द्वार का खुलना भी कहलाता है । 

नोचे दिये गये प्रतिनिधि निगुश सन्त कवियों के डद्धरणों द्वारा 
इन योग संबंधी विश्वासों तथा अभ्यासों का स्पष्टीकरण किया जा 
सकता है । 


उलटठि पवन कहें राखियें कोई मरम बिचारे । 
साँधे तीर पताल को फिर गगनहि मारे ॥५४॥ 
क० भ्र०, पृ ० शरण । 
अर्थात्‌ लौटने पर प्राणवायु को कहाँ पर संचित किया जाय इसके रहस्य 
पर कुछ ही लोगों ने विचार किया होगा। तीर को, सर्वप्रथम पाताल 
की श्रोर लक्ष करो और तब डसे आकाश की ओर छोड़ो | तीर यहाँ 
प्रसंगानुसार प्राणवायु हो हो सकता है इसमें संदेह' नही । 


प्रकट प्रकास ज्ञानगुर गमि थ ब्रह्म अगिन परजारी । 
ससिहर सूर दूर दूरतर; लागी जोग जुग तारी ॥। 
उलदि पवन चक्र षटबंधा, मेर डड रस पूरा। 
गगन गरजि मन सुन्न समाना, बाजी श्रनहृद तूरा ॥ ६ ॥। 
क० ग्रं०: पृ० ६० । 
अर्थात्‌ गुरु के संकेतों का अनुसरण करने पर मुझे प्रकाश के दुशन हुए 
ओर उसने ब्ह्माग्नि प्रज्ज्यलित कर दो। चन्द्र व सूर्य आपस में दूर 
रहते हुए भी योग सें मिल गये। श्वास के उल्नटने से पटचक्र का भेदत 
हो गया ओर मेहुदंड व सुपुम्ना अ्र्रत रस से भर गई । मन समाधि 
में क्षीन हो गया, गगन गज रहा हे ओर अनाहत भी बज रहा है | 


प्रवधू गगन मंडल घर कीजे । 
प्रमृत भरे सदा सुख उपजे, बंकनालि रस पीजे ॥ 


चतुर्थ अध्याय २३६ 


मूल बॉधि सर गगन समाना, सुखमत पोतन लागी। 
काम्र क्रोध भया पलीता, तहँ जोगण जागी।। 
क० ग्र० पृ० ११० | 
अर्थात्‌ अपयुक्त पुरुषों, अपना निवास गगन सें कीजिये । अद्धतरस चू 
रहा है और शाश्वत आननर उत्पन्न कर रहा हे, बंकनाल वा सुघुम्ता उस 
अमृतरस से भरी जा रही है | मूल ८ मूजाधार ) के केन्द्र को संकुचित 
करके तीर सुपुम्ना से होकर गगन अथवा ब्रिकुटी तक पहुंच गया। 
काम एवं क्रोध का प्रभाव जाता रहा जब योगिनी (कु डल्लिनी) जागृत 
हो गई । 
मनतवा जाय दरीबे वेठा, मगन भया रसि लागा। 
कह कबीर जिय ससा नहीं, सबद अनाहद बागा ॥! 
क० ग्र० पृ० ११० । 
श्र्थात्‌ मन दस द्वार तक पहुँचऋर अम्दतरस द्वारा सिक्त होकर बेठ 
गया । अब मुझे कुछ भी संदेह नहों रह गया, क्‍योंकि अनाहद नाद 
बज चुका । 
उनन्‍्मनि चढया मगन रस पीवे ॥। ७२ || 
क० ग्र० पु० ११०॥। 
अर्थात उन्‍मन की दुशा तक पहुँ चकर वह सगन होकर अमृत का 
पान करने लगता है | 


गारब सो जिन गोय उठाली करती बार न लागे। 
पानी पवन बंधि राखे, चंद सुरज मृख दीये ॥ 
गरु ग्रथ साहब' 
अधथात्‌ गोरख वह हे जिसे गोप्य वस्तु के जान लने सें विल्लंंब नहीं 
लगता ओर जो चन्द्र पूर्व सूर्य के संयोग द्वारा जीवनरस ( वीय॑ ) एवं 
प्राणों को नियमित रखता हे | 


२४० हिंदी काव्य में निर्गु श॒ संप्रदाय 


ससिहर के घर सूर समावे, जोग जुगति की कीमत पांव । 

गुरु ग्रथ साहब 

अर्थात्‌ जब सूय चन्द्र में प्रवेश कर जाता है, तभी योग की युक्ति का 
महत्व जान पड़ता हे । 


। स्वास उसास बिचार कर, राखे सुरति लगाय । 
दया ध्यान त्रिकुटी धरे, परमातम दरसाय॥॥ 
प्रथणथ बेढठि पाताल सू, धमकि चढ़े आाकास। 
दया सुरति नटिनी भई, बॉधि बरत निज स्वास ।! 
स० बा० स० भाग १५,१० १६६ । 


। 

अरथात्‌ गंभीर एकाग्रता द्वारा अपने चित्त को श्वास-ग्रश्वास सें लगाओ । 
दया कहती है कि त्रिकुटी सें ध्यान लगाशो और परमात्मा के दशन हो 
जायेंगे , सुरति जायृत हुआ आत्मा नट के समान हो जाता है ओर 
श्वास-प्रश्वास की रस्सी पर चलने लगता है। यह पहले पाताल में 


प्रवेश करता है श्लीर तब गगन की ओर दोड़ता है । 


कबीर एवं गोरख के बीच शाख्राथ का चर्णन करने वाले पद जिनमें 
गोरख की पराजय दिखलाई गई है ओर जो कबीर की रचना समझे 
जाते हैं अनेतिक्य का डदाहरश समझे जाते हैं. और वे स्पष्टतः प्रसिद्ध 
हैं । किस प्रकार वे कबोर जिन्हें घटचक्र सोने के बने कमरे जान पड़ते हैं, 
जहाँ वस्तु सुरक्षित रूप में निहित है, गोरखनाथ का ऋण भूल सकते 
हैं! उन्होंने गोरखनाथ, भत॒ हरि व गोपीचन्द्‌ की प्रशंसा स्वयं की 
हैं ओर कहा है कि वे विश्वचेतन के साथ मिलकर आनंदित बने 
रहते हैं । 

गोरखनाथ के निम्नलिखित उद्धरणों के साथ निर्गेण संप्रदाय के 
अनुयायी संतों की उक्त रचनाओं की तुलना करने पर पूर्ण रूप से स्पष्ट 
हो जायगा कि ये ज्ञोग नाथ पंथ के कह तक ऋणी थे - 


चतुर्थ अध्याय २४१ 


ऊँ आसन करि पद्मासन बधि | पिछले झ्रासन पवना संधि । 
मन मुछावे लाव ताली ! गगन शिखर में होय उजाली । 
प्रथम बेसि बाबे बंधि। पवना खेले चौसठि संधि। 
नव दरवाजा देवे ताली | गगन सिखर में होय उजाली । 
ऐसा भुअंगम जोगी करें । धरती सोखि अम्बर भरे। 
गगने सुर पवने सुर तानि । धरती का पानी अ्रम्बर आनि । 
ता जोगी की जगति पिछानि । मन पवन ले उनमनति आनि | 
मन वैवन ले उनमन रहे। तो काया गरजे गोरख कहे । 
आत्म बोध पूृ० २४१ । 


चंद सूर सम्य करि राखो आपे आप जू मिलिया | 

वही पृ० २०० | 

तीभर भरे श्रमी रस॒पिवणा सटदल बेध्या जाई। 

चाँद विहुणा चाँदणा देख्या गोरख राई।॥ 
वही पूृ० १२६। 
अर्थात्‌ “ऊँ पदूमासन पर बेठ जाओ और तब श्वास की ओर ध्यान 
लगाओ । मन को नष्ट कर डस पर ताला लगा दो । गगन शिखर 
प्रकाश दीख पड़ेगा । प्रथम प्रवेश बाय नथने से होता है श्रोर तब प्राण 
कुल चोसदों संधियों में खेलने लगता है | नवो ढ्वारों पर ताला लगा 
दो दसवें पर प्रकाश दीख पड़ेगा | योगी को तब ऐसे सर्प से काम 
लेना चाहिए जो घरती को सोख लेता ( सबसे नीचे की ओर वर्तमान 
यौगिक शक्ति को खींच लेता ) ओर आकाश को भर देता हैं। आकाश 
में स्थित स्वर को बाहर निकालो श्रोर धरती के जल को आकाश तक 
पहुँचा दो। उस योगी की युक्ति को सममो, मन एवं आण को सम्बद्ध 
करके श्रति चेतन को जाग्मत कर देता है। गोरख कहता हूं यदि कोई मन 
पूर्व वायु को नियमित करके उनसमन की स्थिति उत्पन्न कर देता हे तो 


० ५ ७ 
२४२ हिंदी काब्य में निगुण संप्रदाय 


शरीर अनाहत नाद से गू ज उठता है ।” “यदि तुम आत्मा को परमात्मा 
में मग्न कर देना चाहते हो तो सूर्य एवं चन्द्र को नियमित करो ।” 
“जब षटचक्रों का भेदन हो जाता हे तब योगी “के पीने के लिए अम्ृत- 
स्वाव होने लगता हैे। गोरखनाथ ने वहीं पर चन्द्र के त्रिना रहने पर भो 
चाँदनी देखी थी ।” 

गोरखनाथ के आसनों का प्रसंग यदि छोड़ दिया जाय तो, उनमें तथा 
निगु ख संप्रदाय के संतों में एक श्राश्वयंजनक समानता दिखाई पड़ेगी । 
कोमल शुक्ल कला ही नहीं अपितु शब्दावल्ली भी दोनों की एक ही 


समान हैं । सुरति, निरति, उन्मन आदि शब्दों को गारखनाथ ८वं अन्य 


संतों ने भ्रपनी हिंदी रचनाओं के अन्तर्गत एक ही अथ में प्रयुक्त किया है | 


मारता भकरकम++५4ा8> ४ कक क्‍03443 4७३४६: 


इसमें संदेह नहीं कि निर्गंणी संतों ने, श्रजपाजाप को योग की 
एक साधनाविधि के रूप में, गोरखनाथ के ही मत से लिया ह। मन को 
एकाग्र करना व श्वास को नियश्नित करना अ्ज्रपाजाप की एक पूव विधि 
है जैसा कि अनुरागसागर के एक पद्म से प्रकट होता हैं-.- 
जाप अजपा हो सहज धुन, परखि गुर गम धारिये । 
मन पवन थिर कर शब्द निरखे, कम मनमथ मारिये ॥। 
बोधसागर भा० २ पू० १३। 
क्योंकि जेसा कि गुलाल ने भीखा को बतत्नाया था “शब्द बक्ष है, 
बिना श्वास के सन ब्रह्म हे, परंतु श्वास के साथ रहने पर माया हो 
जाता है जिसमें प्रिगुण के खेल चल रहे हैं । श्वास के नियंत्रित हो 
जाने पर मन का चक्कर लगाना बन्द हो जाता हे और सभी कार्य रुक 
जाते हैं |?” & किंतु जान पड़ता हे कि जहाँ योगियों का प्राशायाम बल 


नर ििगानिलकिनिययनीननन...रिननलनननननान« ता» कक कपल कान पपनन-न नानक पनननन व लललानन न 3नमननन- "न नमन तनमन ५+ वन मन टमन० ५ + नमक सन सम कथ्भ«नमनन-नभनन- न» पतपननमनन+- का पनन+ कक कफ. ६++ 348... तन हटा “रे अपन घट अथन कलण "कनतमापीलनकफलसन कट मे नकक..3।3 अपना वरना नाम के एक... हक जा 


& शब्द सो ब्रह्म पवन मन माया । तामें निर्गन खेल बनाया ॥ 
महात्मात्रों की बानी पु० १६० । 


चतुर्थ अध्याय २४३ 


के साथ किया गया रहता हे और “केवल कुंभ” की दशा में श्वास को 
पूण रूप से नियन्त्रित कर लेने का भी उद्देश्य रखता हैँ वहाँ निगणियों 
का आणायाम अनुभव में आता हुआ श्वास-निःश्वास है जो अनुभूत 
होने के ही कारण स्वभावत: उस साधारण साँस लेने से अधिक गहरा 
होता है जिसका बहुधा हमें कुछ पता नहीं चल्नता । इस श्वास-क्रिया 
का अनुभव हम तभी करते हैं जब हमें कभी इसके विषय सें कठिनाई 
जान पढ़ती हैं । 
इसके सिवाय निगु णियों के लिए प्राणायाम एक सहायक साधना 
है जो नामस्मरण का पूरक बनाने के लिए की जाती है और उन्हें 
प्रत्येक निश्वास व अश्वास के साथ, इसे करते समय, इश्वर का नाम 
स्मरण करना पड़ता है । इस बात को ओर भो स्पष्ट करने के ज्निए में 
दादू की कुछ साखियों को उद्छत करूँ गा--- 
दादू नीका नाव हैं, हरि हिरदे न विसारि। 
मूरति मन माँहे बसे, साँस साँस सॉँभारि॥ 
साँस साँस सभालताँ, इक दिन मिलिहू आाइ । 
सुमिरन पेडा सहज का, सतगूर दिया बताइ ॥ 
सं० बा० स० भाग १, पृ० छ८ | 
अर्थात्‌ दादू कहते हैं कि नाम अपूर्न वस्तु हे, हरि को न भूलो । 
डसकी सूर्ति तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित हो जायगो, यदि तुम उसे 
अपने प्रत्येक श्वास के साथ स्मरण करते चलोगे | प्रत्येक श्वास के 





प्राणायाम ते मन बसि होई । तन में संसे रहे न कोई ॥ 

वही, पृ० १६८ ॥ 
जबलग पोौन तब मन मानो । साँस बिना मन ब्रहों जानो ॥बही॥ 
एक पवन के थकि गये, सकल क्रिया थकि जायाँ। 
तब लग मन धावत रह, जब लग पवन समाय ॥। वही, पु० १६६। 


२४४ हिन्दी काव्य में नि्गुण संप्रदाय 


साथ सावधान रहने पर वह एक दिन आकर तुमसे भेंट करेंगे! | 
स्मरण भ्रज्ञा का साग है जिसे हमें सदगुरु ने बतला दिया हैं|” 
सहजोबाई के शब्दों सें भी--- 
सहज स्वास तीरथ बहै, सहजो जो कोइ न्हाय । 
पाप पुन्न दोनो छुटे, हरि पन पहुँचे जाय ॥ 
वहीं पृ० १६२ । 

भ्रथर्ता 'श्वास की स्वाभाविक पवित्र धारा प्रवाहित हो रही है, सहजों 
का कहना है कि, जो कोई भी कर सके उसमें स्नान कर ले । उसके द्वारा 
तुम पुए॒य॑ एवं पाप दोनों के ही बंधनों से छट जाओगे, और, इस श्रकार, 
हरि के पद्‌ तक भी पहुंच सकोगे | 

यदि निगु णियों की रचनाओं से उद्छत की गई पंक्तियों को इस 
विचार से पढ़ा जाय तो विदित होगा कि इस विषय में कुछु स्पष्ट न बत« 
लाती हुई भी, वे इनके साथ पूर्ण मतक्‍्य रखती हैं। इसके साथ यह भी 
दीख पड़ेगा कि उक्त उद्धरणों में से जो निगु णियों की रचनाश्रों से दिये 
गये हैं, एक भी तुलसी साहब श्रथवा शिवदुयाज्ञ का नही हे । 

वास्तव में वे अपने को योग के एक नितांत भिन्न संत का प्रतिपादन 
करने वाला बतलाते हैं। परतु यद्यपि वे प्राणायाम को एक निम्न श्रेशी 
का साधन-मार्गं ठहराते हुए दीख पड़ते हैं, फिर भी उनकी साधन-क्रिया 
कबीर अथवा श्रन्‍्य संतों द्वारा स्त्रीकृत प्रणाली से भिन्‍न प्रतीत नहीं होती । 
पूर्ववर्ती निगु णियों की साधना वहाँ तक जाती हे, जिसे त्रिकुटो-ध्यान 
कह सकते हैं । ब्रिकुटी जो दूसरे शब्दों में गगन कहलाती है उपनिषदों 
में काशी का प्रतीक मानी जातो हे ओर कबीर सो ऐसा हो कहते हैं' । 

सो जोगी जाके सहजि भाइ । 
मत्र मुद्रा जाके गुरु को ज्ञान, त्रिकूट कोट में धरत ध्यान । 
काया कासी खोजे बास, तहँ जोति सरुपष भयो परकास ॥। 
क० ग्र० पद ३७७, पृ० १३३ | 


चंतुर्थ अध्याय १४५ 


अर्थात्‌, वास्तविक योगी वही हे जिसने सहज भाव को उपलब्ध कर 
लिया है, जिसकी मुद्रा युरु का झ्ञान हैं, जो जिकुटी के कोट में ध्यान 
लगाता है और जो शरीरस्थ काशी में आत्मा के निवासस्थान की खोज 
करता है ।! हि 

ब्रिकुटी को इतना महत्व देने का कारण यह है कि यही सग्ुश एवं 
निगम ख दोनों का अर्थात्‌ भोतिक एवं आध्यात्मिक लोकों का मिलन स्थान 
है| जैसा कि मारवाड़ों दरिया साहब ने कहा है “दरिया त्रिकुटी के 
संगम पर दोनों पक्त देखता है | इसकी एक ओर निराकार हे ओर इसकी 
दूसरी ओर आकार वर्तमान है| सन, बुद्धि चित्त एवं श्रहंकार की दौढ़ 
ब्रिकुटी तक ही सोमित हे, उसके आगे ब्रह्म का निवास है जो सुरति को 
इष्टिगोचर होता है।!”& इस प्रकार त्रिकुटी ही वह स्थान है जहाँ साधक 
शुद्ध भीतिक प्रदेश से निकल कर आध्यात्मिक सें आगे बढ़ता हे । तुलसी 
साहब ओर शिवद्याल के अनुयायी भी जिनमें राधास्वामी सत्संगवाल्ते 
प्रधान हैं स्रिकुटी ध्यान का अभ्यास आत्माजु भूति के लिए किया करते हैं | 
राधास्वामी सत्सग की आगरा वाली शाखा के अध्यक्ष 'साहिब जो? रचित 
आध्यात्मिक नाटक 'स्वराज्य” सें सास्टर रामदास-द्वारा अपने शिव्य को 
यह परामर्श दिल्लाया गया हे कि वह आत्मा को इस रहस्यमयी काशी 
श्रर्थात्‌ प्रिकुटी सें हो उपलब्ध करे ओर इस मन के लिए * जावालोपनि- 
पत्‌? का उद्धरण दिया गया है ।/< इसमें संदेह नहीं कि शिवद्याल 


अननननन लक >> 





"जन -कनकलतनना- पर ०. कक 2क.... ++->केल्‍म+ कक वनिनान >ननथ ब्बर 


[९ दरिया देख दोइ पख, त्रिकेटी संधि मझार। 
निरसाकार एक दिल्या, एक दिसा अकार || 
मंत बुधि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़ । 
जन दरिया इनके परे, ब्रह्मसुरति की ठौर ॥ 

बानी, पृ० १६ 


कल कक ०. ५२2०० म2 


» अंक २, इेंश्य ४, पृ०४७ । 


२४७६ हिंदी काव्य में निगश संप्रदाय 


द्वारा स्वीकृत प्रणाली, जो चक्रों को उत्तेजित करने के लिए प्रयुक्त " होती 
है, आँख को ही, आ्राध्यात्मिक अभ्यास के प्रस्थान बिंदु, का महत्व देती 
हैं । आँख की कनीनिका, जिसके लिए, उनके शिष्य हुजूर साहिब के अनु- 
सार पारिभाषिक शब्द तिल? है “आत्मा का वह स्थान हैं जहाँ पर 
जाग्मत्‌ अवस्था में सांसारिक दुखों वा सुखों का अश्रनुभव हुआ करता है 
स्वप्नावस्था में आत्मा भीतर की ओर ऊपर गगन-प्रदेश में खिंच जाता 
है। तुरीयावस्था आत्मा को क्रमश; अपने स्थान से हटाकर आँख की कनी- 
निका में लाने पर उपलब्ध होती हे जो क्रिया उसो प्रकार की जाती ह 
जिस प्रकार स॒त्यु के समय वह ऊपर उठती वा खिंच जाया करतो है ।?”?% 
यह कथन उनके गुरू के निम्नलिखित बचन का भाष्य रूप है-- 
“जैन उलटि ख्ुत मोड़ कर, चढ़े पुकारे संत। 
सारवचन २, पृ० १०२ । 
तथा-- 
“ऊँची नीची घाटी उतरी, तिलकी उलटी फेरी पुतली । 
बही, भाग २, पृ० १६१ | 

अर्थात्‌ 'आँख की पुत्रल्ली को डलट कर ओर सुरति को मोद़ कर संत 
लोग ऊपर चढ़ा करते हैं |” 'श्रॉँख की पुतलो को उलट कर मैं ऊंचे शिखरों 
तथा गहरी घादियों तक पहुँच गया ।? 

उनके शिष्यों के लिए यह भी उपदेश है कि वे अपने शुरू की सेवा 
में रहते समय , उनकी आँखों पर ही अपनी दृष्टि लगाये रहें । तुलसी 
साहब ने भो कहा हैं कि “आँख की पुतल्नो से होकर ही प्रवेश करो, वहाँ 
पहुँचने का वही मार्ग है ।? केवज्न तुलसी साहब थ राघास्वासी के अनजु- 
यायी मात्र ही श्राँख को इतना आध्यात्मिक महत्व नहीं देते । सभी 


बम अबकी 


& राधास्वामी मत प्रकाश, पृ० २४। 


चतुर्थ अध्याय २४७ 


आधुनिक गूंढ़ विज्ञान आँखों से ही आरंभ करते हैं ओर प्राचीन लोग भीं 
इसकी उपेक्षा नहीं करते थे । आधुनिक रहस्य - विज्ञानी की उपासना 
त्राटक तक पहुंच जातो»ह जो लययोग-द्वारा आँख के अभ्यास के लिए 
विहित ह शोर जिसमें दृष्टि किसी केन्द्र बिन्दु पर स्थिर की जाती है । 
प्राचीन लोग दो अन्य दृदिट का सी उपदेश देत थे जिनसें पक नाखाग्र 
दृष्टि! अर्थात्‌ अव्नो दृष्टि का नाक के सिरे पर ठहराने का उपदेश 
भगवदू-गीता ने भी दिया है ।/* ओर दूसरी अर्थों आ मध्य दृष्टि! अर्थात्‌ 
आँखों की भवरों के मध्य भाग सें दृष्टि लगाना है ( जैसा कि ऊपर 
के उद्धरणों से पता चलेगा ) राघास्वामी मतानुयायी भी स्वीकार करते 
हुए जान पड़ते हैं । पूर्वकाल्लीन निगु णी संत भी आँख क्रो डपेत्ञा नहीं 
करते थे ओर उनकी भा साधना-पद्धति तुलसी व शिवदयाल जैसे अतिशय- 
बादियों की साधनाओं के समान थी जेंसा कि दादू के निम्नलिखित पद्म 
से प्रकट होगा--- 


जहाँ जगत गुरू रहत हैं, तहाँ जे सुरति समाय । 
तो दोनों नेना उलटि कर , कौतुक देखे जाय ॥ 


बानी ज्ञान सागर पृ० ७०, १७। 


अर्थात्‌ तुम यदि अपनो सुरति को जगतगशुरु में लीन कर देना 
चाहते हो तो, इस कौतुक को तुम्हें अपनी दानों आँखों को उलटकर 
दरवना चाहिए | 

बहुत से ऐसे पद्य जिन्हें कबीर की रचना कहा जाता है, किंतु 
जिनको प्रमाणिकता में संदेह हे, इस बात को बहुत स्पष्ट रूप सें प्रकट 
करते हैं | इनसें से एक में कहा गया है कि आँखों में कनीनिका चम- 
कती हैं और उनके बीच द्वार बने हुए हैं। उन्ही द्वारों से दूरबीन 


कक. स्‍म>रकेनन +. मरना काल भा ९4०७७३९-०००५०००मा नम फॉर प# नर करना जकन० 5५; झक5 यमन पन न न-मतममन न. सनम पर +अनननके कप प पा आान५क काम “जात. िवान-, --+- 





कगध्याय ६, श्लोक १३ ! 


र्भ्र८ हिंदी काव्य में निगुण संप्रदाय 


लगाकर देखो ओर भवसागर के पार उतर जाओ?”% गरीबदास ने 
कहा है ।“शून्य के विस्तार की ओर आँखें उज़टकर देखो तो तुम्हें यह 
सवन्न दीख पड़ेगा ।?>< जगजीवनदास टितोय ने-भी कहां ह “यह ऐसी 
युक्ति है कि इसमें ध्यान रढ हो जाता है, आँखों को उल्ठकर देखने से 
अपने को सत्‌ में लीन कर लोगे ओर तुम्हें शान्ति मित्र जायगी ॥??-+- 


इस प्रकार जिन-जिन संतों को हमने निगु ण॒ संग्रदाय में सम्मिलित 
किया हैं उन सब कीं प्रणाली वस्तुतः एक ही थी । जो भिन्नताएं दीख 
पढ़ती हैं वे ऊपरी हैं ओर वे केवल इस कारण हैं कि भिन्न-भिन्न डप- 
देशकों ने एक हो प्रकार की साधनाञ्रों के भिन्न-मिन्न पाश्वों पर विशेष 
बल दे दिया है। 

यद्यपि इन पंथों की गुप्त बात हमसे सावधानतापूर्यक छिपायी 
जाती हैं फिर भी जो कुछु हम उनके उपदेशों से अहण कर पाते हैं 
उनसे प्रतीत होता है कि सचेत होकर प्रत्येक अनुभूत एवं स्वभावतः 
गहरे श्वास-प्रश्वास के साथ नाम-स्मरण करने ओर साथ ही अ मध्य 
दृष्टि को भी स्थिर बनाये रखने की क्रिया सभी निगणियों की प्रधान 
साधना हे जिससें से तुलसी साहब और शिवदयाल दृष्टि वाले , अंश 


अनाज, किकलन++... नजवक. किभिलीन का चित 3... +जनन्योन कक ३५००मन्का 





विके->+«न्‍मानन काम ० अनमकक ++»न 2९++पकनन+क कमान भव लक > ५. ००... पर हक का न जद 


& अभ्रॉखी मध्ये पाँखी चमके पाँखी मध्ये द्वारा 
तेहि द्वारे दृरब्रीन लगाश्रो, उतरों भौजल पारा॥॥ 


क्र० का०पृ० १०३ । 
> उलट नेन वे सुन्त विस्तर, जहाँ तहाँ दीदार है । 
बानी, पृ० १०६ । 


न ऐसी यह युक्ति पाय ध्यान नहि मीटे 
नेनन ते उलटि निरखि सत समाय लीटै॥। 


बानी, पृ० €१। 


चतुर्थ अध्याय २४६ 


पर और शेष पवन वाले अश पर विशेष बल्न देते हैं । अपनी महत्ता 
की भावना से अभिभूत होने के कारण, ये अतिशयताबादी योग के 
डस अंश को महत्व देना नहीं चाहते जिससे पता चल जाय कि उनकी 
भी साधना-पद्धति उन्हां के सिद्धान्तों पर आश्रित्र है जो प्राचीन योगमत्त 
के आधार स्वरूप हैं। परंतु यह भी सच है कि इन अतिशयतावादियों ने 
भो श्वासवाले अंश की उपेत्ता नही को है । इस बात को उदाह्नत करने 
के लिए मैं तुलसो साहब के उन तरह शिष्यों में से एक के साधनाशि- 
नित्रेश की विज्ञप्ति यहाँ उद्घत करता हूँ, जिन सभी ने अपने गुरू का 
सेव में अपने-अपने अभ्यासक्रम की सुचना प्रस्तुत की थो जिन्हें 
उन्होंने 'घधटरामायण' लिख दिया है। फूलदास कबोर-पथी ने एक 
खूपक द्वारा जिसमें कबोरपंथ को विधियों के साथ डसकी साधना 
की समानता दिखल्ायोी गई है ओर , जिसकी लात्षणिकता का रहस्य 
उसने अ्रब॒ समझ पाया है, इस प्रकार वर्णन किया है “मैने सुरति के 
नारियक्ष को मोड दिया ओर प्रेम के कदलीपन्र को छेद डाला; 
मैंने सुरति-द्वारा त्रिकुटो का भेदन करके चोका पर चँँद्वा तान दिया। 
अध्टदल कमल ( नाभिचक्र जिसमें प्राचीन योगमतानुसार दस दल होते 
हैं.) के ब्रीच पवन खुपारी है जहाँ में सुरति के साथ उद्ति व मुदित 
( श्वास-प्रश्वास की वे दो घाराएं जो क्रमशः इड्ा व पिंगला से होकर 
प्रवाहित होती हैं ओर जिन्हें ये नाम देने का कारण, समय विशेष पर 
केवल किसी एक का हो निकलती होना ओर दूसरी का तब तक निबंद्न वा 
सुँदी हुईं रहना है )।-की सहायता से पहुँच गया । तब मैं खिड़की 
( ब्ह्मरंध वा सहस्रार ) के आगे वाले प्रदेश तक ऊपर चल्ना गया 
और १४ हाथ लम्बे तास्वूल् पत्रों ( जो तुलसी साहब के अनुसार चोदद 
तबक वा स्तर है ) से होता हुआ पहुंचकर, अगम के सामने वह पान 
मेंट कर दिया जिसे लेकर डसके पास जाने का मुझे गुरुद्वारा आदेश 
मिला था ( गुरू की शिक्षा से प्रथक्‌ू-प्थक्‌ की सत्ता मिज्नन की ओर 


२४० | हिन्दी काव्य में निगुश संप्रदाय 


प्रवृत हो गई ) और अष्ट भवर को पुरुष के रूप देख लिया । मैं उस 
अ्रगस का वर्णन किस प्रकार कर सकता हुँ जिसके विषय में कुछ भी 
उल्लेख नहीं किया जा सकता | उसे न तो कोई रूप रेख है न शरोर 
ही है वह अगम्य है, अगाघ है, अनामी है ओर वह माया से भी 
परे है ,” 

तब चह उन भिन्न-भिन्न दृश्यों का वर्णन करने लगता है जिन्हें उसने 
ज्िकुटी के मध्य देखा था--“घरती व आकाश का विस्तार द्वीप एवं नवों 
खंडों की चर-प्रचर सृष्टि ” की वह चर्चा करता हे ओर यह भी बतलाता 
है कि जिस समय सुरति “ आ्रिकुटी ( वा गुप्त काशी ) के अदेश की सर 
कर रही थी ” तो कितने प्रकार के ब्रह्मांड उसकी आँखों के सामने गुजर 
रहे थे और इस वर्णन का अंत करता हुआ कहता है “उस पार तक कोन 
जा साकता है जहाँ सुरति और पुरुष का मिलन होता है ओर वह उसमें 
ल्लीन हो जाती हैं?#% और जहाँ चस्तुत;, जेसा कि तुलसी साहब ने 
विश्वास दिलाया है यह फूलदास उनके अन्य बारह शिष्यों की ही 
भाँ।त पहुँच गया था ।>»< 

फूलदास को उक्त विज्ञप्ति में हम उस अभ्यास का पूणणरूप देखते हैं। 
यथ्पि इसमें पवन एवं दृष्टि दोनों की पद्धतियाँ कुछ घु धल्ते रूप में ही 
लक्षित होती हैं । 

यहाँ पर एक अन्य विज्ञप्ति का भी उद्घत कर देना डपयोगी होगा 
जिसमें चक्रों एवं नाढ़ियों का उल्लेख स्पष्ट शब्दों में किया गया है| 
गुनुवाँ की यह विशप्ति इस प्रकार है, “आपके संकेतानुसार मैने सुरति 
को ज्िकुटी सें लगा दिया जिससे चक्रों का भेदन करती हुई वह चन्द्र 
(इंढा ) व सूर्य ( पिंगलाँ ) को भी पार कर गई ओर सुषुम्ना तक पहुँच 


हक टभ+ पमनरन्‍न तप प-क नतीजा कक ५4००१ ५२ काधिक्ा7भकरत कल ज;न काना भजन कक 





# घट रामायरा, पृ० ३१२ । 
>६ वही पृ० ३२२ । 


चतुर्थे अध्याय ५१ 


गई जहाँ जाकर उसने मानसरोवर ( अस्त के कुड ) में स्नान किया ! 
वहाँ पर उसे गठ्ा ( हैड़ा ) यमुता( पिज्नलला ) एवं सरस्वती ( सुघुम्ता ) 
का रहस्य जान पड़ा । प्रुयाग के कमल अथवा उस संगम स्थान से जहाँ 
पर ये तीनों नाड़ियाँ मिलती हैं. सुरति, अगम के प्रेमरस में मत्त होकर 
सत्त के निवास-स्थान की ओर बढ़ी जहाँ सतगुरु का निवास है और 
फिर जहाँ अ्रगम पुरुष भी रहते हैं । अगम पुरुष के द्वार पर पहुँच कर 
सुरति रुक गई क्योंकि रस के द्वारा वह पूर्णतः सराबोर हो रही थी । 
घहाँ पर वह इस पर ऊपर चढ़ने व नीचे उतरने लगो जिस प्रकार मकड़ी 
अपने धाये पर किया करतो हे (वह दशा जो सद्यःप्राप्त आध्यात्मिक चेतना 
के जरना वा स्थायित्व के प्रथम आया करती है ) सुरति की यही दशा 
रांत-दिन रहा करती है और प्रभु से मित्नने की चेष्टा के अतिरिक्त, डसे 
अन्य कुछ भो पसंद नहीं । इस प्रकार सुरति ने नाम के लोक सें उस 
चौथे पद पर जहाँ सत्तनाम का स्थान है, श्रपना निवास कर लिया है। 
वह अपने मूल सें समा गई है। इस प्रकार मुझे श्रादि व अंत का भेद 
मिल गया है आर सेरे जन्म व मरण के दुःख छूट गये हैं तथा कम के 
सभी बम्धव भो छिन्न-मिन्न हो गये हैं | & 

इस बात का प्रमाण कि शिवदयाल ने अपनी बतलायी हुई! साधना 
में पवन का उपयोग किया है, उनके ऐसे उद्गारों में मिल जाता हैं। 
“अरे पागल, अपने प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के हुण को नाम स्मरण में 
लगाओ>< और फिर जो कोई भी शब्द के रस का पान, प्रत्येक श्वास- 
प्रश्वास में, करता है वह उस महल तक पहुँच कर वहाँ निबास कर लेता 


जलन प+नमननतनशमकन नमन कक लेन नन.चिनानन न बिलननना-43-+५444+>433.2933338५:4७७-अकन%«»जक पा» “मन ननानाकतकगकत निनिगानिदिय वियतितितिधिनिननननन पान लीरिक्क- लत 3 3अअल+ वन ५ पनभनन..?रिनननमाकमल-+ जिम अजब जननल मिलन नन,. अलसकरकम 


& वही पृ० ३७४ | 


» स्वासों स्वास होस कर बौरे, पल पल नाम सुमिरना । 
सारवबचन' पु० २७१ | 


श्श्र (हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


है। उसकी मोज के प्रति चिश्वास रखो तो तुम्हें जान पड़ेगा कि इसके 
लिए क्रिसी प्रथत्न वा युक्ति की आवश्यकता नहीं है ।'!(३ इसके सिवाय 
उन के शिष्यों का दावा हे कि वे राधास्वासी नाम ही जिसे शिवद्याल 
मे निरपे़् का एक नाम ठहराया था उस श्वास क्रिया का अतिनिधित्व 
करता है। 'राधा! श्वास को बाहर निकलने यालों घारा हैं ओर स्वामी 
भोतर आनेवाली हे ओर इस प्रकार श्वास ही नामस्सरण की साधना 
की श्रद्धात क्रिया है । 

इसी प्रकार को दावा दूसरे लोग रामशब्दके 'रा' व 'स' नामरू दो 
अक्तरों के लिए भो कर सकते हैं और रास को साधना करने वाले, वस्तुत: 
ऐसा इस समय किया भी करते हैं | राधास्वामी सत्संग वाले सानसिक 
शांति के लिए हटठयोंग प्राणायाम की भी उपयोगिता स्वीकार 
करते हैं । 

फिर भी यह निविवाद है कि निगु णो क्या अ्रतिशयताबादी तक भो 
भ्रपने शब्दयोग के लिए योगियों के ऋणी हैं । निभु श॑ साहित्य के एंक 
सरसरी तोर पर किये अध्ययन के आधार पर ऐसा विश्वास कर लेना 
( जसा कि कुछ लोग किया भी करते हैं.) कि निगु णी ल्लोग योग की 
नितांत उपेक्षा करते हैं, व्यर्थ है । प्रत्यक्ष हे' कि वे हृढयोग को पूर्ण रूप से 
स्वीकार नहीं करते थे किंतु वे उससे सहायता अवश्य ज्ञेते थे उपनिषद्‌- 
क्रालीन ऋषियों को भाँति उन्हें आसन से नहीं बल्कि उपासन (संपर्क) 
से प्रयोजन था ओर वे केवल उन्हीं योगिक साधनाओं को अपनाते थे 
जिनसे, उनके अनुसार, सन को विषयों से पूर्णतः हटा छेने में सहायता 
मिलती है | और सुख्यत: वही योग का जेन्र भी है। योग के सबसे 
बड़े प्रमाण पतंजलि भी इसी बात में सहमत हैं' क्योंकि उनका भी यही 
कहना है “कि योग से अ्रमिप्राय चित्त की वृत्तियों का निरोध कर लेना 


$ वहीं प० ६२२ ॥ 


चतुर्थ अध्याय २५३ 


है |& गोरखनाथ की हिंदी रचनाओं को हस्तलिखित प्रतियों से हमें जो 
कुछु पता चला , हे उससे भी यह धारणा पुष्ठ होती हे कि वे सी योग 
साधना मात्र को ही सूब कुछ नहों मानते थे उन्होंने इस बात का स्पष्ट 
संकेत किया है कि भीतरी भाव के बिना सनन व आसन आध्यात्सिक 
मार्ग सें बाधक सिद्ध होते हैं ओर साधक प्रॉरसिक दशा के आगे बढ़ 
नहीं पाता ।9८ परंतु उच्चतर साधनाओं के लिए और यों भो योग की 
साधनाओं, योग के महत्व को उपेत्ञा नहीं की जौ सकती । डपनिषदों ने 
भी इन साधनाओं की व्यवस्था दी है। हमने “जाबालोपनिषदू” का 
डक्लेख पहले किया हे जिसमें याज्षवदक्य को हम अन्नि के भ्रति, वास्तविक 
आत्मा को रहस्पमयी काशी में पाने का, उपदेश देते हुए देखते हैं । 
किर भी हठयोग की विस्तृत क्रिया की उसमें उपेज्ञा की गई है क्‍योंकि 
थे आंतरिक प्रवृत्ति की जगह वाह्मय बातों पर ही अधिक बल्ल देती 
हैं | यदि भीतरी अनुभव की कमी हो तो बाहरी बातें किसी काम की 
नहीं हैं | पल्रटू ने कहा है कि---यदि देखने का ढंग नहीं तो, काजल 
आँखों में लगाने से क्या लाभ होगा ।?”-- हठयोग, जेंसा कि हम आजकल 
भी देखते हैं केवल बाहरी उपापों को ही अधिक विस्तार देता है। 
ओर इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन की मूलाधार अंतमु खी वृत्ति उपेक्षित 
हो जाती थी । तदनुसार उनके लिए वह अवर्ण बिहंगम मार्ग की जगह 
पिपीज्षिका- साग बनकर ही रह जाती थी । आंतरिक अनुभूति वा आार्थना 


ही... पिनिनन अनिनाननन नी ननीन ना _न न न लिनननीननननननननि तन पननननननमनननन-ं-झ++न-त न 6नगाणाएण टी नननतन पिन ७पाणिणााधििशणलणणणाणणिओओक्‍लननीण नीयत. जि इओऑओओणण७+ज+.. #+ न टननानीकननगतानन नमन नमन नमन म न_-न न नननन मना“ पताफन- "०० 


& योगश्चित्त वृत्ति निरोधः--योगदर्शन! १-२ । 


» आँसण पवन उपद्रह करे । निसि दिन झारंस पचि-पचि मरे! 
( पोड़ी हस्तलेख ) 


+_ काजल दीये से कया भया ताकन को ढब नाहि । 
सं० बा० सं० भाग शे, १० २३२ । 


२५४ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


की मनोवृत्ति की यात्रा के ही कारण , यह भिन्नता ञ्रा जाती हे जो 
लम्बे व विक्रट मार्ग को भी सरल व सहज बना देती हे । 

अत; प्रेरणा के पूर्ण अभाव सें, योगिक साधनाओं का श्रधिक से 
श्रधिक अच्छा परिणाम नहीं हो सकता है कि साधक को केवल भोतिक 
शक्तियाँ ही आप हो जायें ओर उसे स्पष्ट हानि भी उठानी पड़े, क्‍यों 
कि उनके द्वारा भिन्न-भिन्न चक्रों से नियंत्रित स्थानों की विभिन्न इंद्वियों 
में उचित से अधिक क्रियाशीलता आ जा सकतो है ओर उसके कारण 
अंतिम कोटि को अनेतिक वासनाएँ तथा अन्य प्रकार के शारीरिक दोष 
भी उत्पन्न हो सकते हैं । इसलिए साधक एवं गुरु दोनों को ही चाहिये 
कि सभी प्रकार की उन वाष्म प्रवृतियों के निम्नह करने तथा चहिष्कृत 
करने में जागरूक रहें जो कि साधक की मनोवृत्ति को प्रभावित करने की 
शोर अग्रसर हो रही हो । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पूर्णत: 
योग्य गुरु के निरीक्षण के बिना योगिक साधनाओं मे श्रवृत्त होना कितना 
भयावह है क्योंकि बिना ऐसे गुरु के, साधक अपने को उक्त प्रकार की 
वाह्य प्रवृत्तियों की हानि से बचा नहीं सकता हे । निगुण संप्रदाय के 
पहले संत इसी कारण केवल उन्हीं साधनाश्रों को अपनाते थे जिनसे 
किसी प्रकार की वहिमुखता का भय नहीं रहता था। 

परन्तु प्राचीन पंथीय हिंदू भावनाओं का समावेश होते हो नि्गंण 
संप्रदाय के अ्ंतगत हठयोग सम्बन्धी भिन्न-भिन्न मुद्राओं, बंधों तथा 
आसनों को भी स्थान मिलने लगा । एक ऐसे पद्‌ के अनुसार 
जिसका कबीर की रचना होना संदेह रहित नहीं कहा जा सकता ओर 
जिसका उल्लेख भी इसके प्रथम कह बार हो चुका है। साधंक को 
चाहिए कि शारीरिक शुद्धि के लिए की जाने वाली उन घोती, नौली, बस्ती 
घुव॑ आसनों जसी युक्तियों का भी अभ्यास करे जिन्हें हठयोग की 
साधना में महत्व दिया जाता है ओर उनके साथ-साथ हृठयोग के 
प्रणायाम की भी क्रिया करे । साथु की योग्यता-सम्बन्धी प्रकरण में 


न तल्कलनन अनननभाओ अनन्त निगगिगणडण 


चतुर्थ अध्याय २५४ 


सहजोबाई ने सी इन सभी में सिद्धि का आप कर लेना आवश्यक बतलाया 
है। उनके गुरु ज्रणदास की रचना 'ज्ञान स्वरोदय” में तो शकुनों तथा 
शुभाशुभ लक्षणों की भी चर्चा की गड्ढे है । इस वहिमंख भ्रत्नत्ति का विरोध 
होना आवश्यक था और इस काय को तुलसी साहब एवं शिवदयात्र 
ने अपने हाथ सें लिया था जो स्वयं सब कहीं अतिमाज्रता के 
सिद्धान्त स्वीकार करते थे । 
निगेणियों को इस बात सें दिश्वास हे कि 'सबद” अथवा सूचम 
एवं सक्रिय शब्द प्रत्येक व्यक्ति के अन्तगंत ध्वनित होता रहता है| उस 
सूक्ष्म शब्द के गंजन ही सभी कुछ चतमान पदार्थों के 
७, अंतर हिट मल कारण हैं ओर उन्हीं के ह्वारा स॒ष्टि का व्यापार 
निरंतर चलता रहता हे। आधुनिक चेज्ञानिक भी अब 
इस बात को समझने लगे हैं कि यह कंपन किस प्रकार सभी सब्टिक्रम 
की जड़ में काम करते हैं। सूच्म दशा सें भी ये कपन, शब्दों के रूप 
में, ध्वनि करते हैं, रंगों के रूप में प्रकट हुआ करते हैं ओर भिन्न-भिन्न 
आकृतियाँ अहण करते हैं । इन शब्दों को सुनने, इन रंगीन अ्रकाशों को 
देखने तथा इन आक्ृतियों को प्रत्यक्ष करने के त्लिए हमें चाहिए कि वाह्म 
पदार्थों की ओर से अपनों मानसिक्र वृत्तियों को हटाकर अपने को भीतर 
के लिए भी ओर सचेतन बना ले | 
कबीर के समझे जाने वाले एक प्रत्षिप्तर पद सें जिसका मैंने पहले 
के प्ृष्ठों सें एक से अधिक बार उदलेख किया है यह कहा गया है कि 
“इस शब्द वा अनाहतनाद को सुनने के त्रिए अपनी श्राँखों, कानों तथा 
मुख के छिद्रों को बन्द कर देना पढ़ता है।”» कबीर ने ग्रथ 
साहब में संग्रहीत एक पद द्वारा इस बात का समर्थन किया हे और 








-अ-अलकसनननननान।.».3-+034440:क अपमलनकाम»»क् भा नक्मवानन+ 0» सिककाथक,. फरमान». रतन हर 4०33 ककनन्‍यर4मा५+क ताक 


६9 गाँव कान मुख बद कराओ। झनहद भिगा नाद सुनाओ ॥॥ 
कृ० बा०, पृ ० १०४ | 





२५६ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 
| 


कहा है कि “जब मैने सभी द्वारों को बंद कर दिया तो सभी बाजें बजने 
लग गये ।”” & “लय योग संहिता तंत्र” तथा 'बृहृदारण्यक! एवं “छांदाग्य' 
उपनिषदों सें भो इस घारणा का अनुमोदन किया गया है। उक्त तंत्र 
में लिखा है कि “दोनों कानों, दोनों आँख आर नाक बंद कर देनी 
चाहिए, तभी शुद्ध सुपुम्ना के मार्ग में शब्द सुन पड़ेगा ।/?)८ बृहदारण्यक 
में कहा गया हे कि “यह शब्द उस श्रंतः पुरुष को गजना है जा अ्रन्न 
को पचाता है और यह केवल कानों को बंद करने पर सुनाई देता है 
इसे मरणासन्न मनुष्य नही सुन सकता ।??+ छान्‍्दोग्य में भी लिखा 
है कि “अन्तरात्मा का प्रमाण स्वरूप जो शब्द है वह कानों के बंद करने 
पर बैलों की हंकार, बिजली की कड़क अथवा अग्नि की धध्क के रूप में 
सुन पढ़ता है [?”- परन्तु इन उपनिषद्‌ योग, व निर्गेण मत-संबंधो पमाणों 
से यह न समर लेना चाहिए कि ये अंथ इन्द्रियों का बाहर से ही रोकना 
प्रतिपादित करते हैं, क्योंकि इसके द्वारा आध्यात्मिक, साधना एक साधा- 
रण व्यापार मात्र बन जायगी और इसके लिए कोई नाम मात्र भी चिंता 
न करेंगा। यहाँ पर बंद करने का श्रश्मिप्राय बाहर से बंद करने पर 
नहीं प्रत्युत भीतर से निरोध करने से है । मन को वाह्म पदार्थों से पूर्णतः 
खींच लेना चाहिए कि ये उसे किसी प्रकार भी प्रभावित न कर सके । इस 
प्रकार की साधना उस 'चित्तब्ृत्ति निरोध' एवं 'प्रत्याहार! को भी सूचित 


फलकसमाअसभ५क ०लत-मरकर-४4क९+ +क-+ककप * कम सरलनतप-- काना कक... अशकल हे भर कसम 


रतमक, अलीकता. लकी 


क मूंदि लिये दरवाजे । बाजिले अ्रनहद बाजे ॥ 
क० ग्र०, पृ० ३२५॥ 
* लययोग संहिता तत्र' 
पृ० नं० १। 
+ थबरृहुदारण्यक उपनिषत्‌' ५-६-१ | 
'छांदोग्य उपनिषत' १३-८ 


नि || के 


चतुर्थ अध्याय २४७ 


करती हे जो किसी भी योग संबंधी मत के लिए आधार-स्वरूप माने 
जाते हैं । 

अशबदों के साथ हो उपनिषद्‌ कतिपय रंगों तथा आक्ृतियों का भी 
उल्लेख करते हैं. 'श्वेताश्वतर' सें कहा गया मित्रता हे कि “योग 
साधना सें साधक को ब्रह्म का अंतिम साज्षात्‌ करने के पहले नीहार, 
थूम, सूर्य, अग्नि एवं वायु तथा विद्युत, स्फटिक और चन्द्रमा की 
आक्रृतियों का अनुभव होता है ।?” & बृहदारण्यक सें भी पुरुष के उन 
आकारों का भो उद्लेख आता ह॑ जो इस प्रफार के अनुभवों जनों के लिए 
गोरव-स्वरूप हैं ओर उनका रगकुकुम वर्ण वाले इन्द्र गोप अग्नि शिखा, 
कमल-पुष्प तथा अचानक चमक जाने वाल्ली विद्यत के समाव बतलाया 
है।.« छान्दोग्य ने उस हिरएयगर्भ को स्वणुंमयी मुद्दों, सुनहल्ले केशों 
अथवा नख-शिख तक स्वर्ंमय दोख पड़ने वाला कहा है +- ओर 
सुण्डक ने भी उसका वर्शान शुअ्र ज्योति व सभो ज्योतियों की भी उस 
ब्योति के रूप में किया है लो किसी हिरण्यमय कोश में बंद हे ।- कबीर 
ने भी उस दिगम्बर की चर्चा की है जो स्वर्ग द्वारा आच्छादित रहा 
करता है । फिर भी उपयुक्त उपनिषद्‌ अंथों से यह स्पष्ट नही होता कि 
आध्यात्मिक अनुभव की विभिन्न ( श्रवण, दुशन अथवा आकृति संबंधों ) 
दुशाओं में कोई पारस्परिक सम्बन्ध भी है वा नहीं ओर न यहो कि इस 
प्रकार का संबंध होते हुए भी ये भिन्न-भिन्न अवस्थाएं उस आध्यात्मिक 
यात्रा की विभिन्न स्थितियों को सूचित करती हैं अथवा इनका आविर्भाव 


उस. कक. जमममाकमलन्‍भ अतमा-कवत»«क  सामथरपननरिग नकल भ-++कानलकाला टनतनननननात+०++॥७५33388 + कक ७७. "॑कतअकनमनमंनन++भरकनमनन- "कक वन. फिीकानआ+++-+मन- आतथत.ितननम«५ौन८नन+<त नमन कंधभन.. सनम लय -+- अमॉनल-मननाजतगा.. आन तर... अअनह+ 2... स्‍काओओ 3-५० 5 जगा कक अरनाओ सोते ॥« ऑन नाना "कक 


& दवेताइ्वतर उपनिषत्‌ द्वि०२। 

» बुहदारण्यक उपनिषत्‌  द्वि० ३-६। 
+ चदान्दोग्य उपनिषत्‌ पृ० ६-६। 

+ मृण्डकों पनिषत्‌, हि, २-६। 


न्श्थ £ हिन्दी काव्य में निगुण सप्रदाय 


एक ही साथ हुआ करता है। कबोर के उन पदों में भी जो उनकी 
प्रामाणिक कृति समझे जाते हैं इस विषय का कोई स्पष्ट विवेचन 
डपलब्ध नहीं है । 

समय पाकर शास्त्रीय पद्धति के प्रभाव क्रमश; काम करने त्रे 
और अनुभव के विविध रूपों के भोतर सामंजरय तथा इन भिन्न-भिन्न 
रूपों की आनुक्रमिक स्थिति विषयक धारणा भी निश्चित होने लगी | 
सुश्धरदास जो वर्णों च आकृतियों की उतनी चर्चा नहीं करते डन दस 
प्रकार के शब्दों का वन करते हैं जिनमें विभाजित होकर अनाहतनाद 
योगियों को क्रमश: अजुभूत होता है ! ये दस भ्रकार के शब्द जो अब्ट 
कुभक ( अर्थात्‌ प्राणायाम की साधना में किय्रे गये आठ प्रकार के 
प्राणावरोध ) पर विजय प्राप्त कर लेने पर प्रकट होते हैं। अमर का 
गंजार, शंख की ध्वनि, झदंग का शब्द, माँक फा ताल, घंटे की ध्वनि, 
भेरी एवं दुंदसी का निर्धोप तथा समुद्र और सेघों के गर्जन के रूप में 
हुआ करते हैं ।४8 

इधर के निर्गेणी, जिन पर योग एवं तंत्र के अनेक मतों का पूरा 
प्रभाव रहा है, इन अनुभवों की विस्त॒त व्यवस्था अस्तुत करते हैं । उनमें 
बतलाई गई स्थितियों की संख्या प्रत्येक प्रचारक के अनुसार बदलती हुई 
दीखती है ओर सबसें एक निश्चित शब्द, निश्चित आकार, निश्चित वर्ण 
तथा एक निश्चित सूचम शब्द भी प्रथक-अथक्‌ लक्षित होता हे जिसके 
कंपनों के कारण थे सभी उत्पन्न हुआ करते हैं । इन सबका संबंध 
भिन्न-भिन्न चक्रों से होता हे और सबका एक न एक देवता वा 
अपना धनी? होता हे जिसकी कभी-कभी एक शक्ति वा देवी बतलाई 
जाती है । 

इस बात को स्पष्ट करने के किए यहाँ पर कुछ निर्गेणियों के श्रज्ु- 


नाक मा अल 





समान, अर. 2 ऋभानका+ सैररमाक-७ धमाका पवन काका भव ९० नमक कारन मन चक्र जम १००१ ९० नानक. ५ 


# ज्ञान समुद्र! | सुन्दरदास )१० १६७ | 


चतुथ अध्याय ण्प्६ 


भवों की उद्छत कर देना उपयुक्त होगा। पहले गरोबदास को ल्लीजिये 
जिनका मत चक्रों की संख्या के विषय में योगियों से मित्रता है। वे 
कहते हैं मूल चकऋ में गणेश का निवासस्थान है, रक्तवर्ण है ओर शब्द 
कलिंग वा 'क्ली? है। म्वाद चक्र में बह्मा व सांविन्नी का वास है ओर 
चहाँ का शब्द जिस हंस ( अर्थात्‌ विशुद्धात्मा ) उच्चारण करता है 
ओोश्म हे । नामिकमत्त में खब्मी के साथ विष्णु रहते हैं ओर वहाँ का 
शब्द 'ह ह॑ जिसे बिरले भक्त ही जानते हैं। हृदय के चक्र में पावती के 
साथ महादेव जी रहा करते हैं । ओर वहाँ पर सुन्दर वर्ण का सो5हम्‌ 
शब्द है | कंठ के कमल में अविद्या रहती ह॑ जो ज्ञान, ध्यान एवं बुद्धि 
को नष्ट कर देती है । यह चक्र नीला ओर यहाँ पर काल प्राण को 
फेसाया करता है त्रिकुदों में पूर्ण एवं सर्व शक्तिमान सदूगुरु निवास 
करते हैं। यहाँ पर मन ओर पचन समुद्र अर्थात्‌ परमात्मा के साथ 
हिल-मिल जाते हैं ओर सुरत निरत शब्द का उच्चारण हुआ करता है । 
सहस्र कमल वा सहस्रार में स्वयं साहब इस प्रकार रहते हैं जेसे फूल में 
सुगंध रहती है । वहाँ पर सम्पूर्ण विश्व का मालिक और सभी उपाधियों 
से रहित जगदीश व्याप्त हे उसकी प्राति के लिए मीन का मांग ( श्रथांत्‌ 
मूल स्रोत की ओर धारा के विरुद्ध आगे बढ़ना ) अपना लो । ईडा, पिंगल्ा 
व सुघुम्ना को प्राप्त करो ओर इस अकार उस कठिन मार्ग पर चलो । & 

शिवदयात्न अपने अनुभवों का एक बहुत विशद विवरण देते हैं । 
यहाँ पर एक बात यह भी उल्लेखनीय है कि हमारें पहल के सत त्रिकुटो 
को जहाँ आज्ञा चक्र में रखते थे ओर सहखदल कमल को उसके आगे ले 
जाते थे, | शिवद्यात्ञ तथा अन्य बेसे अतिमात्रा दलवाले संत न्निकुटी 
और आज्ञाचक्र को प्थक-एथक मानते हैं ओर सहसख॒दल को उसके नीचे 
रखा करते हैं । इसके सिवाय शिवदयाल अपने अनुभवों का वर्णन 


सनी +++>-ममन कर. 


$& गरीब दास की बानी । 


». त ९ रु 
२६० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदीय 


सहखदल से आरंभ करने हैं और उससे नीचेवाले चक्रोंचाले अपने श्रभु 
भवों की कोई चर्चा नहों करते । यहाँ पर नीचे हम उनके एक पद से 
दिये गये वणन को संक्षिप्त रूप में देते हैं ओर उसू चित्र को पूर्ण करने के 
लिए उनके अन्य फुटकर वचनों को भी सम्मिलित कर देते हैं | वे कहते 
हैं... इस प्रकार, सर्वप्रथम, में सहखदल में एक पचरंगी फुलवारी ( पंच- 
भोतिक जगते्‌ जो हमारी पाँच छानेन्द्रियों का विषय है ) और भीतर 
एक दीपक देखता हूँ । यहाँ पर अनाहत' एक घंटी की ध्वनि के समान 
खुन पडता है ओर एक शंख के निर्षाषवत्‌ भी सुनाई देता हैं। तब 
त्रिकुटी अर्थात्‌ नीला चक्र आता है जो गुरु का निवासस्थान है जहाँ पर 
ओंकार का शब्द मेव की भाँति गर्जन करता है और मुर्देग के समान 
घ्वनित होता है । इस' चार दलवचाले चक्र में कम के बीज थ्ुन जाते हैं | 
उस बंकनातल से होकर जिसमें ऊची-ऊची पहाड़ियाँ और गददरी धार्ियाँ 
ह, बनों, पवतों, उद्यानों, नहरों एवं निमंझ्ल जल से भरी नदियों के दृश्य 
देखते हुए हम तीसरे अर्थात्‌ शून्य मंडल में पहुच गये जहाँ पर चीणए 
व सारंगी का शब्द सुन पड़ता है और जहाँ प९ मानसरोवर में स्नान 
किया जाता हैं । शून्य से परे महाशूल॒य है जो सत्तर पालंग तक विस्तृत 
है ( हमारा विश्व एक पालंग तक विस्ततः समभ जाता है ) और जहाँ 
पर घोर अन्धकार के अन्तर्गत चार गुप्त शब्द सुन पते हैं और हरा, श्वेत 
व पीत रंग दीख पड़ता हैं। उस अंधकार में पॉच पसे-ऐसे चिश्क 
अंतर्हित हैं जिनमें से किसी के भी सामने हमारा जगत कुछ नहीं ! 
वहाँ पर उच्च श्रेणी की मनमोजी आत्माएँ बद्ध रहा करती हैं। जब कोई 
शक्तिशालिनी सुरत इधर से होकर जातीं हैं तभी उनके सुक्त होने क! 
अवसर आता है | मर्चर गुफा अर्थात्‌ चौथे देश का मार्ग अध्यंत श्राक- 
षक हैं। इसके दाहिनी ओर कई “दीप” ( द्वीप ) हैं' और इसकी बाई ओर 
बहुत से खंड ( प्रदेश ) हैं, जहाँ के मकान बहुमूल्य पत्थरों के बने हुए! 
हैं ओर जिनमें हीरे व जाल जड़े हुए हैं | वहाँ का शब्द 'सोष्हम? है, 


चतुर्थ अध्याय २६१ 


स्वर वीणा का है और आकार ज्योतिमंडित श्वेत सूथ का सा है । यहाँ 
पर अ्रनेक निवास्‌-स्थान हैं जहाँ भक्तगण रहा करते हैं ओर नाम की 
शरण सें रहते हुए लीला करते तथा अमरत्व के रस का झास्वादन किया 
करते हैं । 

सत्यलोक में अनेक स्वर्गंसय सहल हैं और वहाँ पर अ्ररूत से भरे 
हुए कहे तालाब तथा खाइयाँ हैं जहाँ अनंत सू्य एवं चन्द्र का प्रकाश 
दीख पड़ता है। यहाँ पर हंस का सौंदर्य एक चिचित्र प्रकार का हो 
जाता है। सहज सुरत अर्थात्‌ लब के भीतरी अंतरात्मा के प्रश्न का 
उत्तर देने पर कि उस मार्ग का रहस्थ संतों ने बतलाया हे आगंतुक 
उस संत्य लोक में प्रवेश पाता है जहाँ पर हमने 'सत्यनाम पुरूष! का 
साजात्‌ कर आनन्द का अनुभव किया था। एक पुष्प फे भीतर से सत्य 
पुरुष के शब्द ने प्रश्न किआ्रा था * तू कोन है ओर यहाँ क्यों आया हैं १? 
मैने उत्तर दिया था फि “मैंने गुरू से भेंट की थी ओर उन्होंने मुरे 
इसका भेद बतलाया था | उसी की कृपा से मैंने ये दुशन उपलब्ध किये 
हैं?” इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर सत्य पुरुष ने सत्यलोक का भेद सुरूे 
खता दिया और अपनी शक्ति प्रदान कर मुझे उससें बढ़ने का संकेत 
किया । अलख पुरुष का सौंदर्य अतुलनीय हैं। अगमपुरुष का विस्मय- 
कारी सौंदर्य वर्शनातीत हैं । मैंने तीनो पुरुषों और उनके जोकों को 
देखा और अंत सें उस एक के साथ मिल गया जो प्र म॒ का भी खर हैं। 
राधास्वामी यह बात पुकार कर कह रहें हैं +? & 


उक्त दोनों चर्णनों अर्थात गरीबदास के निम्नस्तर वाले अनुभव 
संथा शिवदयात्र के उच्च श्रेणी वाले अनुभव का एक संशिषल्तषष्ट रूप 
उस पद में पाया जाता है जो कबीर की रचना कहकर प्रसिद्ध हैं, किंतु 
डनका नहीं हैं ओर जिसका डछलेख प्रसंगवक्त सेंने पहले के अनेक 





>कनन-न्‍नमिनान-ीनिननकन-न पाना कल + न अत. उन-++3>4#- ०+.34७-»3+म मकान आने. धमाका. 


& 'सारबबंन भाग १५ 0 १७-७० १ 


' रन ९ ४ 
२६२ हन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


पृष्ठों में किया हैं। नीचे में उक्त चिचरण को तालिका के रूप सें देना 
चाहता हूँ । 

उस तालिका को देखने से पता चलेगा कि उसके अनुसार सूचम 
शब्द की अभिव्यक्ति, सूक्ष्म शब्द के खप में, चक्र ( संख्या <--११ ) 
के मध्वर्ती खंड में ही श्रनुभूत होती है । अतिम खंड ( सं० १--५ ) 
कदाचित्‌ इतना स्थूल्न समझा जाता है कि नाद वहाँ पर मऋंक्ृत नहीं 
हो पाता और सबसे ऊपर वाला (सं० १२-१४ ) इतना सूच्म होता 
है कि वहाँ पर चक्रों, शब्दों, ध्वनियों, चर्णोंच आकारों को उनके 
अ्रधिष्ठाता देवताओं वा धनियों से प्रथक नहीं किया जा सकता | यह 
भी उल्लेखनीय है कि यद्यपि इन वर्णानों तथा गरीबदास एवं शिव- 
दयाल के वणनों में थोड़ा-बहुत अंतर है, किंतु मूल बातों में से एक दूसरे 
से मिलते-जुलते हैं ।३ 

88सभी देशों के सत्यान्वेधी इस बात में सहमत है कि आध्यात्मिक 
: सांग में बहुत सी स्थितियाँ होती हैं | बोद्ध धर्म के अनुयायियों का 
विश्वास है कि इस मार्ग की सीढ़ी में आठ भंगियाँ हे जिन्हें थे अष्ट 
विमोक्ष सोपान? कहते हैं । ये सोपान इस प्रफार क्रमश; 'रूपायतन! 
जिससें स्थूल्न भोतिक पदार्थों का अनुभव होता हे, 'अ्र्पायतन! जिसमें 
चित्त, वाह्य पदार्थों का चित्र पूर्व सस्कारों के कारण सुरक्षित रखता है 
किंतु उसे किसी क्षण अनुभव नहीं करता “नेवरूप नेवारूपायत्‌” जिसमें 
न तो बाह्य पदार्थ चित्त पर कोई संस्कार जमा पाते हैं और न इंद्वियों 
पर उनका कोई प्रतिबिंब ही पड़ता हे। आकाश वत्यायतन? जिसमें 
साधक सभी वस्तुओं को आकाशवत्‌ देखा करता है 'पिज्ञावंत्यायतनः 
जिसमें सभीवस्तुएं विज्ञान वा भावना के रूप सें देखी जाती हैं अंकिच- 
न्‍्यायतन, जिसमें सभी वस्तुएं शून्यवत्‌ सममी जाती हैं 'नेचसंज्ञा नेवा 


रा 





९ कबौर साहब की बानी, प्‌ृ० १०४-६ | 


चमुर्थ अध्याय २६३ 


संज्ायंतनः जिसमें सभी कुछु न तो नामो रहता हे ओर न अनामो 
ही होता ह और 'संशावेदयरित्री! जिसमें ज्ञाता-शान वा विषय-विषयी 
का अंतर नह: रह जाता और दोनों एकाकार हो जाते हैं | 

” इसी ग्रकार सूफी नासूत, मलकूत, जबरूत व लाहुत के नाम लेते 
हैं और इन्हें परवर्ती निगु णी भी अपने कुछु निम्नस्तरों की जगह स्थान 
देते हैं। आधुनिक खोजियों ने भी इस धारणा की पुष्टि को है। 
इगलसकासेट का यह कथन कि “ईश्वर जो हमारे विश्वक्रम के सारे 
चेतन प्राणियों का सर्वोच्च समान रूए है अपनी प्रथक स्थिति रखता 
है। इस विचार से कि वह एक विश्व विशेष का ही ईश्वर हे और वह 
चस्तुत: उन सभी सचेतनों को अपने सें सम्मित्नित नहीं करता जो उसके 
अंग हैं। फिर भी एकता के लिए वा उसका काल्पनिक सिद्धि के लिए 
जो प्रत्येक विरोध के नष्ट होने पर उपलब्ध होती हैं, आंदोलन 
प्रत्यक्ष रूप में चल्नते रहते हैं? निश्चयपूर्वक उसी ओर संकेत करता 
है । किंतु कासेट जहाँ मोक्ष को केवल सामूहिक समझते हुए जान 
पड़ते हैं वहाँ निगु णो इस्र बात को नहीं मानते कि व्यक्ति को अपनी 
मुक्ति के लिए तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब तक सारा समाज अपने 
को उसके लिए योग्य नहीं बना लेता | यह सच हैं , जेसा कि मैंने 
पहले भी कहा है कि, सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभव को प्राप्त करने के लिए 
किसी को जितनी स्थितियाँ आवश्यक होंगी उनकी संख्या उन पणों 
पर आश्रित है जिन्हें वह उस मार्ग पर बढ़ते समय रखता चल सकता है। 
और वह प्रत्येक साधक की योग्यता के अनुसार भिन्न-भिन्न होगी। हो 
सकता है कि एक साधक सम्पूर्ण मार्ग की कुछ ही सरणियों ( $(875 ) 
में तय कर ले जहाँ अन्य उसके अँत तक अनेक विश्ञामों के अ्रनंतर भी 
न पहुँच सके । अतएव, एक के अनुभव को दूसरों से नीची श्रेणी का 
बतला देना डचित नहीं कहा जा सकता | चाहे उनकी स्थितियों को 
संख्या कितनी भी बड़ी क्‍यों न हो। यह कहने के लिए हसें कोई 


२६५ ( हिन्दी काठ्य में निगुण संप्रदाय 


का, 


कारण नहीं दोखता कि गरीबदास अपनो सात सीढ़ियों के अंत में 
शिवद्याल की पन्द्रह सीढ़ियों की ग्रतिम स्थिति से कम दूरी तक हो 
पहुँचे होंगे । शिवदयाल जेसे अतिमात्रा वादियों की भाँति विभिन्न शब्दों 
का उल्लेखन करना उनके विपक्ष में नही जाता । यहाँ पर यह कह 
देना रुचिकर होगा कि गरीबदास के चक्र जिस योग-पद्चति के साथ 
समानता रखते हैं उसमें भो उन सभी शब्दों का सुना जाना ब्रह्मरंधर वा 
सहखार के दसवें द्वार के खुज्न जाने ब्रह्म के अंतिम दृशन के पूछ ही 
बतलाया गया है। 
५»... इन आम्यंतरिक अनुभवों पर इनके आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूण 
“होते हुए भी स्वभाचतः निय्मीकरण की दृष्टि से बिचार करना आवश्यक 
है| थासेट का आध्यात्मिक सार्ग को 'काल्यनिक सिद्धि! का नाम देना 
इसी अभिप्रायः से ह। साधक्र को अयने गुझ के सत्संग द्वारा यह पता 
चल जाता है कि भ्रत्येक स्थिति में वह किस प्रकार से क्‍या अनुभव 
करेगा ओर इस बात का उन आभ्यंतरिक अ्न्नुभवों के साथ प्रत्यक्ष 
सम्बन्ध है। भिन्न-भिन्न संतों के अनुभवों में पाहे जाने चाली विभिन्नताएँ 
इसी आधार पर समझी जा सकती हैं | फलतः हमारे लिए कुछ ऐसे 
दृष्टान्तों का भी पा लेना सभव है जिसमें सभी प्रकार के अनुभद रह 
सकते हैं । किंतु उतका कोई संबंध आध्यात्मिक सिद्धि से नहीं हो सकता । 
यह बात उस दशा सें अवश्य होगी जब ये "गुप्त साधनाएं बिना 
किसी उद्दे श्य विशेष के की जायँगी और उनके लिए कोई चेसी अन्त३- 
प्रेरणा सो न होगो जो सभो प्रहार के आध्यात्मिक विकास के ब्िए 
स्॑स्वरूप है । 


चतुथ अध्याय 


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चतुर्थ अध्याय २६७ 


न्ृह अतिचेतन दशा जिससें परमतत्व का*अजनुभव होता है 
आध्यात्मिक अनुभूति की सर्वोच्च स्थिति है ओर जिसका ग्राप्त करना पंथ 
का परस लय है। वह अनुभव किसी भोतिक जीवन 
८. परचा: के देखने की भाँति प्रत्यक्ष एवं वास्तविक होता 
अतिम अनुभूति हुआ भी भोतिक व्यापार नहीं है। डैश्वर देखने- 
वाले से भिन्न किसी पदाथ के रूप में दृष्टि- 
गोचर नहीं होता, यह दोनों देखने की क्रिया: में ही एक रहते हैं | ईश्वर 
का प्रकाश भौतिक अथ में प्रकाश नहीं ओर न इसी कारण वह हमारी 
चाक्षुष शिराओं द्वारा अहण किया जा सकता है। यद्यपि इसकी तुलना 
कसी-कभी अनेक सूर्यों की प्रभा से की जाती है, तो भी इसके आधार 
सूर्य वा चन्द्र नहीं हैं | यह बिना सूथ के सूर्य-प्रकाश हे ओर बिना 
चन्द्रमा के चाँदनी है। “भीतर की ज्योति पूर्ण दीघ्ति के साथ अकाशित 
होती है, किंतु इसके प्रज्ज्वल्लित रखने के लिए किसी तेल वा बत्ती की 
आवश्यकता नहीं पड़ती । उस परम प्रकाशक पुरुष के खेल का किस 
प्रकार वणन करू ९१४४ 


इस भाँति चतन अनुभव का चर्णन किसी प्रकार भी नहीं हो 
सकता और इसी कारण इसे गूँंगे का स्वाद कहा जाता है और वह 
परमानंद की स्थिति द्वारा ही प्रमाणित होता है । जब आध्यात्मिक शाँखें 
खुल जाती हैं तो जीवन अनंत व अति गंभीर हु सें परिणत हो जाता 
है | अबुदधू कबीर का कहना है--“मैं उस देश का निवासी हूँ जहाँ 


का आफ 





न जगसमग अंदर में हिया, दिया न बाती तेल । 
परम प्रकासिक पुरुष का, कहा बताऊ खेल ॥। 
सं० बा० स० पृ० २३१ । 


२६८ दिन्दी काव्य में निग॒ण संप्रदाय 


विकसित रहते हैं क्लीर अनेक प्रकाश दीप्तिमान हो उठते हैं ।* द्वष्टा 
अपने को उस अमर देश में पहुँचा हुआ पाता हे जहाँ अमरों का ही 
निवास है “रोग व शोक का वहाँ नाम नहीं रहता” । निशणी अपने उस 
प्रदेश को बेगम देश वा शोकरहित निवासस्थान बतल्ाते हैं । कितु यह. 
उल्लास ऐसा नहीं जो दुःख के विपरीत होता हे | जिसे यह ज्ञान 
प्राप्त है चह समझता है कि संसार के सुख भी आगामी दुःख की 
भूमिका हैं?। इेश्वरीय लीला का उपयोग शरीर द्वारा नहीं किया जा 
सकता । सांसारिक सुखों का आकर ण व सांसारिक दुःखों को टीस किसी 
ज्ञानी को प्रभावित नहीं कर पाते । “जब प्रेम ने मेरे त्रिए इेश्वरोय द्वार 
खोल दिये तो संसार के लगाव मेरा क्‍या कर सकते हैं ? ईश्वर के 
दर्शन हो जाने पर शूल भी मेरे लिए सुख की सेज बन गया ।” 


हेश्वरीय लीला का उल्लास इस प्रकार साधक का अपना केन्द्र बन 
जाता है और साधक उसके स्फुरण का केन्द्र होता है। यह उसके पूरे 
आापे वा सब कुछ का स्थान अहण कर लेता है। यही उसकी “शक्ति! 
है, उसकी 'साहिबो” हे ओर इस परिमित विश्व में उसकी अनन्‍्तता 
भी हे । 


कऑििनिभन-त, वजनी तीजभकनन नल ककननन ना कटनी नी न पनन न नी यकननन नि ननरियननी लेलर अब “नमन. तफिकन कम वन नननन पमनाणकानन-भानग तन न नमन 


*+ हम वासी वा देस के, बारह मास बिसास । 
प्रेम झिरे विगसे कमल, तेज पूज परगास ॥ 
वही, पृ० ४३ । 
' झूठे सुख को सुख कहे, मानत हैं मन मोद। 
. खलक चवबीणशा काल का, कुछ मुख में कुछ गोंद ॥ 
क० ग्रं०, पृ० ७१। 
7 ममिता मेरा क्‍या करें, प्रेम उघाड़ी पौलि। 
दरसन भयां' दयाल का, सूल भई सुख-सौड़ि ॥। 
वहीं, पृ० १६। 


चतुर्थ अध्याय २६६ 


इश्वरीय उछ्ज्ास में मत होकर वह अपने को भूल जाता है। 
शरीर का कोई क्षी अथ नहीं रह जाता। वह गंभीर आध्यात्मिक आरनंद्र 
में मग्न रहता है। प्रदयत् रूप में वह पागल बन जाता है ॥ बिहाए- 
चाले दरियासाहब ने कहा है कि “मालिक के मित्र जाने पर मेरी आँखों 
में आनन्द प्रतिबिबित हो रहा है, हृदय उन्मत्त हो गया है और चित्त 
पागल बन जाता है। उसका प्रेमरस इतना गाढ़ा है कि इसने सुमे 
गूगा बना डाला है।”?* सहजोबाई ने अपने एक दोहे में . साधक 
की असली उल्लास-दशा का परिचय दिया है| उनका कहना है कि 
हृदय में पागलपन व सर्वव्यापी उल्लास रहता हे।न तो मेरा कोई - 
साथी है और न में ही किसी के साथ हूँ ।| 

फिर भी यह पागलपन किसी प्रकार की रुग्ण दशा नहीं हे। इसके 
विपरीत यह इंद्वियों का सम्यक्‌ प्रकार विशुद्ध वा परिष्कृत हो जाना हे 
जिससे वे सभी प्रकार के आध्यात्मिक स्फुरणों का प्रतिपादन कर सके। 
कबीर कहते हैं, “जब मैं अपने भीतर निसग्न रहता हूँ तो लोग मुझे 
पागल कहते हैं; राम के लिए पागल होते समय, सतगुरु ने सेरे अम 
को निमज्जित कर दिया।”| 





* बेबाहा के मिलन सो, नेन भये खुशहाल । 
दिल मन मस्त मतबल हुआ, गूंगा गहिर रसाल ॥ 
सं० बा० सं०, पु० १२३ । 
मन में तो आनन्द रहे, तन बौरा सब अंग। 
ना काहू की संग हैं, ना है कोई संग ॥ 
वही, पृ० श१ै४५। 
* अभि अंतर मन रंग समाना, लोग कहे कबिरा बौराना । 
में नहिं बौरा राम कियो बौरा, सतगुरु जारि दियो भ्रम मोरा ॥ १४७॥ 
क० ग्रं०, पृ० १३५। . 


| कया से 
२७० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 
/ ६ 


अनुभवों की अभिव्यक्ति के ल्लिए किये गये निम्नलिखित श्यत्नों 
से सभी प्रकार की विरोधात्मक बाते अपने विरोधपन का त्याग करती 
हुई प्रतीत होती हैं ओर वे पागलपन को असंंगतियाँ न होकर उन 
सूच्मताओं की परिचारिकाएँ हैं जो बुद्धिवाद के परे की बातें हैं। “बह 
बिना मुँह के खाना, बिना चरणों के चलना ओर बिना जिह्ना के भी 
मात्रिक का गुणगान करना है। वह अपने स्थान का परित्याग किये 
बिना ही सभी दिशाओं की प्रदुष्षिणा कर जाता है ।??” चस्तुत: वह 
बिना समझ के भी विचार करता हे ओर बिना जीभ के पीता है, बिना 
आँखों के भी देखता है ओर बिना कानों के सुनता हे तथा बिना किसी 
आधार के बेंठता हे ओर बिना हाथों के वेशुवादन करता है ।|_( दादू ). 
“घरती बरसती है और आसमान भीगता है ओर बिना तेल-बत्ती के भी ' 
दीपक जलता है । जहाँ पर ज्योति ( नूर ) रहती हे और उसके वर्गहीन 
होते हुए भी उससें चमकीला रंग लक्षित होता है | बिना फूल के लगे 
ही उसमें मधुर स्वाद मिल जाता है। में किससे य बाते कहूँ , मुझे 
कोन समझ पायेगा ९”_ ु 
इन विरोधात्मक वर्णनों पर भी दोषरहित आनंद की छाप जगी हुई " 
है । यह उल्लास जो निगण पंथ के अ्रनुसार, एक अति-चेतन की स्थिति 
प्रदर्शित करता है, 'निरति? वा मूल कहलाता है और वह संस्कृत शब्द 
ननृत्यः का एक बिगड़ा हुआ रूप है । साधारण अनुभव की दशा सें हम 
देखते हैं कि मनुष्य जब कभी इष की चरमावस्था में आता है. तो वह' 


'>कसक-+७.२०९०» २५७७१ 





+ बिन मुख खाय चरन बिन्‌ चाले, बिन जिभ्या गुन गावे । 
आछे रहे ठोर नहिं छाँडे, दह दिसि फिरि आ्रावे ॥ १५६ ॥ 
बही, पृ० १९४०। 
$ गैरोला, साम्स आफ दादू, पु० २8 । 
| संतबानी संग्रह, भा० २, पु० १४६। 


चतुथ अध्याय २७१ 


नाचने वे गाने क्षयता है। नृत्य हमारे उक्लास को प्रकट करने के लिए 
प्रदर्शित भी किये जाते हैं । श्रतएव, यह उपयुक्त है कि श्राध्यात्मिक 
उल्लास को नृत्य की संज्ञा प्रदान की जाय, कितु इसे नृत्य कहने के कारण 
इंससें कोई शारीरिक चेष्टा अभिवांद्षित नहीं हे। इसके साथ सूफियों सें 
प्रचजित 'दोर! व 'समा के नृत्य का कोई संबन्ध नहीं क्योंकि 'दौर' 
एक चपल व चक्राचर्तित नृत्य हे जिसमें नतंकों को “या अल्लाह याहू” का 
उच्चारण करते हुए अपनी सामूहिक चेष्टाओं को तबतक कायम रखना 
पड़ता हे जब तक वे एक-एक कर विश्रांत नहीं हो जाते । “समा? में 
अपनी बायीं एंडी पर घूमना होता है, इसमें धीरे-धीरे अग्नसर होते हैं 
शोर अपनी आँखें बन्दकर तथा बाह फेला कर नृत्य करते हैं* ओर यह 
नृत्य कुछ विधियों के साथ भी आरंभ हुआ करते हैं | जेसा कि धरनी ने 
कहा है -- “वहाँ पर बिना पेरों के ही नृत्य करो और बिना हाथों के ताल 
देते जाओ, सौंदय को बिना शॉँखों के देखो ओर बिना कानों के ही 
गीत सुता करो /”४(_ +# 
इसके सिवाय, निर्मेशमत के अनुसार यह अ्रतिचेतन की अवस्था, 
उनन्‍्मनदशा, सहज समाधि, जेसा कि यह अनेक प्रकार से पुकारी जाती 
है, उस प्रकार क्षणिक नहीं जान पड़ती जेसा कि विल्ियम जेम्स ने 
पश्चिमों रहस्यवादियों के संबन्ध सें बतज्ााया है । सूफी भी इस उल्लास- 
सयी स्थिति को 'हाक्ष! का नाम देकर इसे एंक प्रकार की तन्‍्मयावस्था 
कहते हैं जो केवज कुछु ही कणों तक वर्तमान रहा करती है। बसरा 
के अबदुल्ला हारिध मुहासिमी ने कहा है “यह बिजली की भाँति 


# “भग्रवारिफूल मारिफ' पृ० १६५ व १६८। 


| बिन पद निरत करो तहाँ, बिन पद दे दे ताल । 
बिन नयनत छुबि देखणा, श्रवरा बिना कनकारि | 
सं० बा० सं०, भा० १ पृ० ११५। 


२७२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


तरिफ है।””* किंतु निगेशमत के संतों के अलुसार यह कोई चणस्थायी 
उल्लास नहीं प्रत्युत एक चिरस्थायी आँतरिक दशा हे जो स्थिर हो जाया 


+3800340५॥४४७६+३५, 


दोनों के प्रेम भाव का कभी अंत नहीं हुआ | जहाँ कहीं मैं जाता हूँ उसकी 
परिक्रमा करता हूँ और जो कुछ भी कर पाता हूँ वह उसकी सेवा के रूप 
में हे । जब में सोने जाता हूँ तो उसे दश्डवत करता हूँ; अन्य किसी का 
भी पूजन नहीं करता । जो कुछ भी बोलता हूँ वह उसका नाम है ओर 
जो कुछ भी सुनता हूँ वद्द उसका स्मरण है। मेरा खाना पीना तक 
उसकी पूजा है। मेरे लिए गृह व खंडहर दोनों एक समान हैं क्‍योंकि 
दुई का भाव दूर हो गया है। मैं न तो अपनी आँखें मु दता हूँ ओर न 
कान ही बंद करतो हूँ; में अपने शरोर को कष्ट भी नहीं देता। खुली 
आँखों से उसकी सोॉंद्यमयी मूर्ति को देखा करता हूँ । उसे पहचानता 
हूँ ओर हसा करता हूँ । मुझे ऐसी तारी लगी है जो उठते बठते वा किसी 
भी दशा में नहीं छुटती । कबीर कहते हैं कि यहो अ्रतिचेतन का जोचन 
है जिसका मैंने च्शन किया है। मैं उस पद में लीन हो गया हूँ जो सुख 
व दुख दोनों से रहित है ओर जिसे परमपद कहते हैं। ”| (टिका 

ने भी कहा हे कि, जिस समय मैंने अनाहत की ध्वनि सुनी है तबसे 


20+8३अ लत ओक्कसकन+ हत७ताइसतातातपाम५ तन ता भइककस २० ५५#कधमका, 


+ उ्वाजाखान “स्टडोज इन तसव्बुफ” पृ० १२६। 


+ साथो सहज समाधि भली । 
गुरु प्रताप जा दिन से जागी दिन दिन भ्धिक चली ॥ 
जहँ-जहूँ डोलो सो परिकरमा, जो कुछ करो सो सेवा ! 
जब सोवो तब करो दण्डवत, पूजा और न देवा ॥ 
कही सो नाम, सुनो सो सुमिरन, खा्वें पियो सो पूजा । 
गिरह उजाड़ एक सम लेखों, भाव मिटावौ दूजा॥ 





हि 
चतुथ अध्याय २७३ 


मेरो धारी इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गई हैं; मन गलित हो राया है ओर 
सभा दुराशाएं जल झुत गई हैं। आँखे उन्माद में आकर धृम रहो हैं 
और शरीर विश्रौत हो गया है क्‍योंकि सुरत, आत्मा उस चिद्‌ में जोन 
है | इस सहजावस्था ने आलस्य तोड़ दिया है और प्रत्येक श्वास में 
सुझे आनंद मिल रहा है ।* 


गुलाल भो कहते हैं कि आनन्द को सुहावनो बूंदें पढ़ रही हैं । यह 
उल्लासप्रद समय सतगुरु द्वारा प्रभावित होकर मनभावने ढंग से आननन्‍्द- 
दायक हो रहा है। शून्य संसार के चतुदिक घनघोर घटाएं उमड़ रही 
हैं। गुल्लाल का कहना है कि जिन पर श्रभु को कृपा होती है उनके लिए 
सावन भादों के बरसात वाले महीने सदा बने रहते हैं ।| 

आँख न मंदों कान न रूघो, तनिक कष्ट नहि धारों। 
खुले तन पहिचानों हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौ !। 
सबद निरंतर से मन लागा, मलिन बासना त्यागी । 
ऊठत बेठत कबहें न छूटे, ऐसी तारी लागी॥ 
कह कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई । 
दुख सुख से कोइ परे परम पद, तेहि पद रहे समाई ॥ 

स॒० बा० सं०, पू० १४-१५ | 


* जबसे अ्रनहद घोर सुनी । 
इंद्री थकित गलित मन हुवा, आसा सकल भुनी ॥! 
घूमत नेन सिथिल भइ काया, अमल जू्‌ सुरत सनी । 
रोम रोम आनंद उपज करि, आलस सहज भनी ॥! 
वही पृ० १२०॥। 


 भ्रानद बरखत बद सुहावन । 
उमगि उमगि सतगुरु बर राजित, समय सुहावन भावन || 


मन ५ ० 
२७० हिन्दों काव्य में निगंण संप्रदाय 


उपयक्त उदाइरणों-ह्वारा पूर्ण रूप से प्रमाणित हो जाता-है कि 
निगेणियों की सहज समाधि एक चिरस्थायी दशा है। जो कोई उस 
झानंद का उपभोग करता है वह सांसारिक कतव्यों कौ भी यथानियम 
पाजन करता रहता हे भर उसके कारण इसका 'रुक जाना नहीं समझा 
जा सकता । जिस समय वह दशा उपलब्ध हो गई सारा दृष्टिकोण ही 
सदा के लिए बदल जाता है । वाह्य विषयों से एथक्‌ करने के लिए मन 
पर अंकुश नहीं लगाना पड़ता। स्वयं इन्द्रियाँ उस सहजज्ञान की ही 
सहायक बन जाती हैं,“ वे अपना काम करना बंद नहीं करतीं ; उनका 
सब्र काम करना ईश्वरोन्मुख हो जाता हे । उद्छुछ कबीर अपने मन को 
जहाँ कद्दी भी वह चाहे जाने के लिए छोड़ देते हैं। वे जानते हैं कि जब 
उसने ज्ञान बूक कर राम की शरण ले ली है तो वह उसे वही स्न्न दीख 
पड़ेगा || साधक-द्वारा उपलब्ध निम्नस्तर का दृष्टिकोण च्णिक होता है 
और निगुश मत ने अपने अजुयायियों को उसके विरुद्ध सचेत भो 
किया है । 
चहूँ ओर घनघोर घटा आई, सुन्न भवन मन भावन। 
तिलक तत्त बेदी पर भलकत, जगमग जोति जगावन॥ 
गुरु के चरन मन मगन भयो जब, विमल विमल गुन गावन । 
कहूँ गुलाल प्रभु कृपा जाहि पर, हरदम भादों सावन ॥ 
वही पू० २०३ । 
* विरह जगावे दरद को, दरद जगावे जीव । 
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारे पीव ॥ 
वही भा० १ पृ० ६१। 
[ भ्रब मन जाहि जहाँ तोहि भावे, तोरे अंकुश कोइ न लावे | 
जहूँ जहें जाइ तहाँ तहूँ रामा, हरिपद चीन्हि कियो विश्वामा ॥ 
कण० ग्रं०, पृ०१३६। 


चतुथ अध्याय २३५ 


निर्गेणियों के विचार से न तो मध्ययुगीन ईसाई मिस्टिक और न 
सूफी ही उस पूण दशा को प्राप्त कर पाये थे | थे अभी तक ज्ञान के 
न्तस्तम स्नोत से लाभान्वित नहीं हो सके थे ओर न इसी कारण उन्हें 
संसी का सहज ज्ञान हो सका था | इसो कारण उनकी शअ्रन्नुभूति 
सणभंगुर वस्तुओं की भाँति क्णस्थायिनी थी। किन्तु निम्न श्रेणी की 
आध्यात्पिक अभिव्यक्ति जिससे मनुष्य की भोतिकता उसकी आध्या- 
व्मिकता ह्वारा सदा के लिए दब नहीं जाती चपल व क्णिक घटना सिद्ध 
होती है ओर उससे क्षणिक हुं प्राप्त होता है और इसीलिए उसे अतिम 
अनुभूति नहीं कह सकते । इन सीमा-मर्यादाओं के रहते अ्रन्तद् ष्टियों 
का छणिक होना अनिवाय हे। परंतु एक बार जहाँ पूर्ण जागृति हो 
गई, तो फिर सोना व स्वप्न देखना नहीं होता है। ऐसी अनुभूति द्वृष्टा 
के लिए अतीत घटना की स्मृति मात्र नहीं रहती श्रत्युत उसके व्यक्तित्व 
का अड्ञ बन जाती है। केवल यही उसमें टिकती है क्योंकि करतुत; 
उसकी परमात्मा के साथ पूर्ण एकता की सिद्धि है ओर इसी दृशा में 
बह उसके अपने आत्मा का स्वरूप है । 


अतएुव किसी को ऐसा न करना चाहिएु कि अपने आ्रापको परमात्मा 
कह उठने की शीघ्रता कर दे ।* डसे जो अनुभूतियाँ उपलब्ध हैं वे सभी 
उसकी अनुभूति नहीं भी हो सकतीं । जो कुछ भी अनुभव किसी साधक 
को प्राप्त होता है उसपर पूणरूप से चिंतन किया जाना चाहिए, उसका 
मनन होना चाहिए और उसे एक-एक करके परिणामित करते जाना 
चाहिए जब तक वह अंतिम मिलन की दशा को प्राप्त न हो जाय कि जब 
अनुभूति स्थिरता प्राप्त कर लेती है ओर साधक के लिए परमात्मा के 


* पहुँचेगे तब कहेगे, उमड़ेगे उस ठाईं। 
अजहूँ बेरा समेद में, बोलि बिगूचे काईं।। 
कृ० ग्रं०, प्‌० १८,४ 


२७६ हिन्दी काव्य में निग॒ुण संप्रदाय 


सान्निध्य को अपनाने की चेतना को स्थायित्व प्रदान करने की चेष्टा 
नहीं करनी पड़ती | इसी को जारना व पचाना, श्रथवा अनुभव को 
स्थिरता देना भी कहते हैं । 


अनुभूति की स्थिरता हो इस बात को सिद्ध कर देती है कि जिन 
आभासों को इसके लिए साधन बनाया गया था उनको अ्रब आवश्य- 
कता नहीं रह गई | शारीरिक व्यायाम के क्रम एंवं श्राध्यात्मिक साधना- 
पद्धति सें एक महान अंतर यह ह कि जहाँ पहले के क्षिए शरीर को उप- 
युक्त स्थिति के अभ्यास का सदा नियमित रूप से चलता रखना आवश्यक 
हैं वहाँ अतिम सत्य की अनुभूति उपलब्ध हो जाने पर गूढ़ अ्रभ्यासों का 
वह महत्व नहीं रह जाता हे ; क्योंकि यद्यपि श्रनुभूति वा अतहदृ ष्टि के 
लिए पहले प्रयत्न 'अ्रपेक्षित हांते हैं क्रितु आगे चल कर वे स्वतः होने 
नगते हैं । “मन को थोड़ा-थोड्टा संयमित करो तो वह माल्रिक में लग 
जञायगा ; ज़ब मन उस उनसन से लग गया तो उसका घूमना बंद हो 
जायगा।?!* --दादू । 
इस अंतद पट वा अंतिम सत्य ही अनुभूति की एक विशेषता यह हे 
कि द्रष्टा इसे किसी पर प्रक्रट नहीं कर सकता । इसको जानने के लिए 
इसका स्वयं अनुभव करना आवश्यक है।। न तो हमारी भाषा और न 
हमारी मानसिक्र योग्यतों ही इतनी पूर्ण हे कि पहली इसे पूर्णत; व्यक्त 





* थोरा थोरा हटकिये, तब रहेगा लौ लाइ। 
जब लागा उनमन्न सो, तब मन कही न जाद !| 
बानी भाग१,१० १०३ ॥ 


| ऊपर को मोहि बात न भाव, देखे गाव तो सुख्त पावे । 
कहें कबीर कछु कहत न आवे, परचे बिता मरम को पावे॥ 
क्र०७ भ्र०, है १ ६२ १। 


उअकलन-पकामनकनननम4वपाकतत कम नाप .#न्‍आा तले मेन... अराकोका मनी कया. मे कक कम्फ्लत स०।ाधकका, 


चतुर्थ अध्याय २७७ 


करे ओर, दूसरो उसे अपनाये । यह एक गू गे के स्वाद को भाँति हे जिसे न 
तो वह व्यक्त कर सकता है ओर न दूसरे उसे समर सकते हैं ।_ कबीर_ 
कहते हैं “यह गूंगे का गुड़ है जिसका स्वाद गूं गा ही जानता हैं।”* 
इसी कठिनाई के कारण अस्तित्व का यह अंश हमारे लिए एक 
सुद्रित रहस्य के रूप सें बना रहता हे ओर इसी से रहस्यचाद रहस्य- 
वाद कहलाता हे परन्तु उस द्वष्टा के ल्विए जिसे हम अपनी भांषा में मान- 
सिह योग्यता की असमर्थता के कारण मर्मी कहते हैं यह कोड़े रहस्य 
की बात नहीं । वह परमात्मा को इतना प्रत्यक्ष व स्पष्ट रूप सें देखता है 
जितना हम भोतिक पदार्थों को देखते हैं बल्कि इससे अधिक स्पष्टता 
के साथ । क्योंकि द्रष्टा उस दृश्य का पूण रूप देखता है, किंतु भोतिक 
पैंदार्थों का हम केवल वाह्य रूप ही देखते हैं, उनके आश्यंतरिक अर्थ 
को नहीं जान पाते। उनके आशभ्यंतरिक अथथ को केवल वही जान सकता 
है जिसे उस अंतद हिट की एक झलक मिल गई है । मर्मी की जीवन- 
पद्धति इसी कारण स्वयं उसके लिए गूढ़ नहीं बल्कि हमारे लिए ही 
गृढ़ हे क्योंकि हमें उसकी अनुभूति एक मुद्धित रहस्य बनी रद्दती है | 
इसी भाँति, अपनी स्वीकृतियों के अ्शुसार निगेणी उस अतिचेतन 
अनुभव को प्राप्त करता हे जिससें उसे जीते जी अंतिम सत्य की अनुभूति 
होती है शोर जिसके कारण चह भी उन्मुक्त कहलाता है | निर्गेणियों के 
अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए भोतिक शरीर को झत्यु का हो जाना आव- 
श्यक नहीं । जिन मतों के अनुसार मोक्ष झूृत्यु के अनन्तर आप होता है 
वे श्रधिकतर अधविश्वासी लोगों की श्रद्धालुता से लाभ उठाया करते हैं । 
जब यहीं अपने दुव पर विजय प्राप्त नहीं कर सके तो कोन जानता है कि 
रूत्यु के अनन्तर क्या होगा १ परन्तु निगुणियों की स्थिति स्पष्ट व बुद्धि- 





+ कहे कबीर घरही मन माना, गू गे का गुड़ गू गे जानता । 
वही पृ० १०६, ६५। 


रे७८ / हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


* सम्मत है। आध्यात्मिक साधना की किसी भी पद्धति की क्षमता की 
परोशा बुद्धि से हो सकती है जो मात्रिक के दर्शन द्वारा इसी समय 
प्राप हो सके । शरीर की झत्यु के समय होनेवाल्ा मोक्ष केवल उस- 
दशा को अंतिम रूप से प्रभावित कर देगा जो पहले से प्राप्त हो चुकी 
है, और निगणियों का अपने पंथ के लिए इसी बात का दावा हे । 
कबीर ने प्रार्थना की है कि हे इश्वर सुमे जीते जी दशन दे दो ।* जीते 
जी इसी घर ( शरीर ) में ईश्वर से मिलना आवश्यक है, मरणोपरान्त के 
मिज्नन को में चर्चा भी नहीं करना चाहता | इसी प्रकार तुलसी साहिब 
ने भो कहा हे ।| 

४/ यद्यपि निर्गेणी भक्तों को साधना का स्वरूप व्यक्तिगत हे ठो भी 
क्योंकि वे अपने आध्यात्मिक विकास के लिए जंग॒क्षों में नहीं जाते बिक 
अपनी साधना का क्षेत्र सामाजिक चेष्टाओं को ही 

सपम्राज की बनाते हैं ओर साधना की विधियों का भी ध्यान 
उन्नति रखते हैं, उनका सामाजिक महत्व केवल इसी बात 

से भी कम नहीं है कि उनकी साधना में अपरलोक 

के प्रति उत्तर कामना बनी रहती है। वे विवश रहते हैं कि वे श्र ,ने 
समझ सांसारिक दुःखों व सुखों को रखा करें श्रोर उसी में उन बुराइयों 
के दूर करनेवाले प्रयत्न भी बीज रूप से विद्यमान रहते हैं । ईश्वरीय 
प्रेम जहाँ एक ओर संसार के अति उपेक्षा सूचित करता हे वहाँ दूसरी ओर 
अपने सहजीवी प्राणियों के श्रति सस्‍्नेह' भी उत्पन्न करता है क्योंकि सभी 


अर» जपनत+काअा +अ+क03+ 3... स्मारक नकात++०नमत > जे ऐके-3सक+ कै ७७ >फलएतत. पल भ+ी५क2नन९शकथ८ ७-०4 त १०१४० १कममकेका> मकर स*ररकमकामभ, 


; * जोवत पावे घर में स्वामी । मुए गए की बात न मानी ॥। 
 घटरामायण, पूृ० २८० | 
बहुत दिनन के बिछुरे, माधो, मन नही बांघे धीर । 
देह छ॒तों तुम मिलहु कृपा करि, आरतवंत कबीर ॥ 
कुं० ग्र०, पृू० १६९११! 





कल... धरमपातोशाहपहांशम|नरक संभ्कत््कबसणऊता काश भा ४ भक्त सा हतात खत... पहितोर्स अकमकान ऋफफिभए4॥ा तरफ थक... हिकत परमशातफ/कारकातक्‍क, 





चतुथ अध्याय २७६ 


वस्तुत; एक ही खोल से उत्पन्न हुए हैं । चाहे दूसरे लोध अपनी ईश्वरी- 
यता का परिचय नहीं भी रखते हैं तो भी वे उनके प्रति घृणा के भाव 
नहीं दिखलाते । बल्कि इस बात के लिए यह एक ओर भी विशेष कारख 
हे कि ये उनके श्रति स्पनी दया च प्रेस प्रदर्शित करें। उनके प्रति 
दयासाव के ही कारण उन्हें अपने आध्यात्मिक आनन्द का स्वाथ्पूर्ण 
एकान्तवास सें उपभोग करना कठिन हो जाता है। इस बात सें इन्हें 
कोई अपमान नहीं जान पड़ता कि ये अपनी आध्यात्मिक उन्नत्रि“से 
नीचे उतरें श्रोर डन लोगों को आशा व आनन्द प्रदान कर जो सांसारिक 
दलदलों में पड़कर निराश हो रहे हैं । ईश्वरीय श्रानुभूतिक उल्लास की 
तीवता ही उनके आदेश को सारे जगत में प्रचारित करने के लिए प्रेरित 
करती है ओर वह उसी प्रकार ही समान प्रभावपूर्ण भी होती है 
“परमात्मा ने ही यह उचित सममा है कि कबीर ने जो कुछ अनुभव किया 
है उसे भी प्रकट कर दे। जीव संसार के समुद्र में मस्न हैं ओर जो 
कोड़े भी इसे पकड़ लेगा वह पार जायगा ।??* 


यह उपकारपूर्ण,“निर्देश ही प्रत्येक प्रकार के धर्म-संस्कार का आदेश 
हुआ करता हे । “जिसे लोग कबीर का अहंकार सममते हैं वह, वास्तव 
में अपने साथी जनों के प्रति प्रेम द्वारा प्रेरित थ., क्योंकि इस मार्ग के 
पथिक के लिए “अहंकार” घमंड वा अगल्मता बहुत ही दृषित बात हैं । 
अपनी यात्रा के समय उसका स्पष्ठ कर्तव्य हो जाता है कि वह विनम्रता का 
जीवन व्यतीत करे ओर जब वह सत्य की अनुभूति कर लेता है तो इस 
प्रकार की कोई संभावना ही नहीं रहती, उस दशा में तो प्रत्येक आणी 
इेश्वरवत ही दीखता हे “तू है? यद्द वाक्य 'में वही हुँ? का एक स्वाभाविक 


रा «5 चार बारात था था ८293७ ७४७७७७४७४४ ७ था ८ था ाऋ्ऋ#%्८॥ ४७ ॥ष 
* साईं यहें विचारिया, साखी कहे कबीर। 

सागर में सब जीव है, जे कोइ पकड़े तीर॥ 
क० ग्र ०, पृ० ५६ । 





२८० ' हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय 


परिणाम है ओर यह इस बात का स्मरण दिल्लाता हे कि वह अब 
जीवित है। “जब मैंने आपा एवं पर की समानता का अनुभ। कर 
लिया तो कबीर कहते हैं कि हमने निर्वाण भी पा दिया ।* उस दशा 
में वह जीवन्मुक्त कहलाता हे, क्‍योंकि उस दशा में मानव शरोर में 
रहता हुआ्आ भो वह उस दृष्टि से जीवित नहीं कहा सकता जिस प्रकार 
हम साधारण मनुष्य कहे जाते हैं। वह उस श्रहंकार को मार चुका 
रहता है जो सारी वाह्य वस्तुओं को उत्पन्न करता है ओर बंधन का 
जाल भी फेला देता हे ओर इस प्रकार पूण रूप सें आत्मा में ही 
निवास करता हे । “अपनी स्वाभाविक रूध्यु के पहले जो मर जाता है 
वही श्रमर हो जाता है। ”! यह झूत्यु के पहले मरना ओर मरण 
काय के पूत्र हो अमरत्व का उपलब्ध कर ल्लेगा एक बड़ा सामाजिक 
महत्व रखता है । 

निर्गणी का अपने सहजीवी श्राण्ियों के प्रति दया का भाव केवल 
एक सूखी, किन्तु पवित्र भावना तक हो सोमित नहीं 7हता। इसके 
विपरोत यह उन लाभप्रद प्रयत्नों में परिणत भी होता हे जो कष्ट व 
दुःख को दूर करने के लिए किये जाते हैं। यथ्यवि इन द्यतिमान व्यक्तियों 
के शरीर दुबंल व ऊपर से किसी भारी कास के लिएं भ्रनुपयुक्त होते हैं 
फिर भो यह बात, कि उसने अपने निम्न आपे को सवशक्तिमान के साथ 
किसी गभीर कार्य के लिप जोड़ लिया है श्रोर इस प्रकार शक्ति के श्रश्मात 
एवं भ्रत्यय स्रोतों का द्वार खोल दिया है वह उन्हें मानव समाज के उत्थान 
के किए असीम शक्ति के साथ काम करने की योग्यत प्रदान कर देती हे । 


५७७७७७॥७४७॥७॥७७७७३७॥७५७॥७॥॥७॥७॥७॥७७,७आ शआआ आशा 
|| 


न 





रस >नममलञपक-ज>«»«न्‍.ुक३> ७ +न३+कथ ल्‍ड 64५०. हालत हा शान अप कनकनट नर... पट कमा... तीन मल-मदाकक-क स्थ+फ-पन +क/ वा )जनराकनपाक अर्परमनकतनेीकील. पबक. हवा... स्‍तकण ४५७७७ 


ग्रापा पर सब एक समान | तब हम पाथा पद निरवान ॥ 
वही, पूृ० १४४। 

| प्रभुता कं सब चहत है, प्रभु को चाह न कोय। 

»सं० बा० स०, भा० १ पु० १६० | 


चतुर्थ अध्याय र८र 


लगभग*इन सभो निगणियों के नास जो अनेक बानियाँ प्रकाशित है 
और वह जीवन किन्‍्हें इनसें से बहुतों ने सत्य प्रचारकों के रूप में व्यतीत 
किये हैं तथा चह साहस सी जिसके साथ उनसें से कबीर जेंसे कुछ 

ज्ोंगों ने अपने ऊपर किये गये अत्याचारों को सहन किया है इस बात 

को भज्ञी-भाँत प्रमाणित करते हैं कि उन छानी पुरुषों सें बडी शक्ति 
थी जिसका उन्होंने उपयोग क्रिया ओर उसे सर्च शक्तिमान के प्राणियों 

की सचा सें लगाया । 

हो सकता है कि कुछ कोगों ने 'सो5हम” के सिद्धान्त का अपना 

मान बढ़ाने के काम में उपयोग किया हो ओर अपनी इैश्वरीयता की 

फेबल शाडिस्क अभिव्यक्ति-द्वारा अपने को सभी प्रकार के भौतिक व 

नागरिक कतव्यों से अलग कर लिया हो | कबीर के समय में भी समाज 

के कुछ धष्ट व्यक्ति जो, सहजोबाई के शब्दों में प्रभु से अधिक प्रभ्ुता, 

पर ही ध्यान देते थे! अपने को कुछु पंक्ति इधर से ओर वाक्यांश 

उधर से लेकर बनाह गई साखियों के आधार पर ज्ञानी प्रदर्शित करते 

थ्रे।। किंतु इस प्रकार का दोष उक्त मत के कारण नहीं आया था 

ओर न सच्चे निगुणी ही इसके ल्लिए उत्तरदायी थे; यह सब उस 

अज्ञान वा उस भयंकर विपरीत ज्ञान के कारण था जो हेश्वरीय ज्ञान 

का दावा किया करता है | इस बात का विरोध निगगंशियों ने अपनी 

सारी शक्ति ज़्गाकर किया था| कबीर का कहना है कि, काल ऐसे 

झूठे ज्ञानियों के यहाँ हाथ में आदेशपन्र लेकर पहरा देता रहता 


न. अत कनकीक न 8 लनकक्‍फातननीनिनी,.. विन गाफियागानर पग-3/46434%अकलप- 4-3“ >ननन-क--«तनक... फनआ अत हम “मकान -ीननवननमतनाननम"कनीन--कनभ 





* प्रभता क सब चहत है, प्रभ क चह न कोय । 
स० बा० स०, भा० १, पू० १६० | 
* लाया साखि बनाय कर , इत उत अच्छा काट । 
कह॒ कबीर कैसे जिये, जूठी फ्तल चाट ॥ 
वही, पृ० ४१॥। 


२५२ हिन्दी काव्य में निगुण सम्रदाय 


, है" और इसी कारण वे इनसे भज्ञा उन संसारियों को समझते थे जिन्हें 


; प्रशु का भय बना रहता है| ?” 


302३९ 





निगंण पंथ मल्नत; एक प्रकाश का माग हैं | जो सभी प्रकार के श्रश्ञान 
व अंधकार को दूर कर देना चाहता है । इस प्रक्राश के सामने कोई अंध- 
विश्वासी नहीं ठहर सकता | उन अंधविश्वासों के ही समान जो श्राद्ध 
के समय किये गये पिंडदान का सत पूव पुरुषों तक पहुँचना मानता है ; 
जो मक्का वा जगन्नाथ तक ( हज वा तीथयात्रा के निमित्त जाने को 
फल्षप्रद्‌ समझता हे ओर जो एकादशी, मुहरंम जेसे त्योहारों के दिन 
उपचास रखने को धार्मिक महत्व देता हे । उन अन्य अधविश्वासों से 
भी समाज को मुक्त कर देना चाहते थे जिनसे लोगों का सारा जीवन 
व्यस्त रहा करता है । कबीर ने इन अंधविश्वासों का सामना अपने मरते 
समय भी क्रिया ओर अपने शुभच्ितकों के अनेक बार प्राथंना करने पर 
भी उन्होंने उस सगहर का परित्याग नहीं किया जहाँ मरने पर नक॑ का 
मिलना निश्चित समझा जाता था और न | काशी तक ही गये जहाँ 
की म्त्यु-द्वारा मनुष्य शीघ्र मुक्त हो जाता हं॥ मलूकदास का कहना था 
कि, “इतने भरकार के अंधविश्वासों को दूर कर दो। यात्रा पर जाते समय 
किसी ज्योतिषी से दिन न पूछो, कोई दिन अशुभ नहीं । संध्या समय 
बिना संकोच भोजन कर लो, जो उसे राक्षस का समय कहते है वे अभागे 
मर्ख हैं । यदि तुम श्रच्छे हो तो सभी भला है। किसी बात को बुरी न 
कही । + यद्यपि दाशंनिक दृष्टि से भल्ते व बुरे सें कोई वास्तविक अंतर 


आन... अनजननन्‍ननकवनान गाना भा नरसकथकण: आम... न्‍मल 


# पहरया काल सकल जग ऊपर, माहि लिखे सभ ज्ञानी । 
क० ग्र० पृ ० १७० | 
ज्ञानी मूल गँवाईया, आपरण भये करता । 


ताथे संसारी भला, जो रहे डरता ॥ 
वही पू० ४१। 
| स० बा० सं०, भाग ६, पृ० १०५। 


चतुर्थ अध्याय न ८३ 


नहीं और न पाप-पुण्य में हो है । फिर भी निर्गेण मत नेंतिक नियमों को 
परिवर्तित कर देना नहीं चाहता, क्योंकि गांतक बल ही जोवन में 
सभो प्रकार की सफलता का आधार हे । कबीर कहते हैं कि 'शीज के 
अन्तगत तीनों भुवन्दं के रत्न भरे पड़े हैं ।!?* सापेक्षिक संसार में 
पाप-पुण्य केवल शब्द ही नहीं रह जाते । जब तक भनुष्य संसार सें जीवित 
है उनका महत्व बना हुआ्रा है और उनका अंतर भी सममा जाता हे, 
क्योंकि वे ही मनुष्य की भावी का निर्माण करते हैं--कबीर कहते हैं कि 
कलिकाल सें परिणाम शीघ्र ही मिला करता हे इसलिए बुराई किसी को 
नहीं करनी चाहिए। यदि तुम बाएं हाथ से अन्न बोओ ओर दाहिने 
हाथ से लोहा बोओ तो दानों का फल्न उसी के अनुसार प्राप्त होगा । 
<» पुण्य के द्वारा मनुष्य को स्वर्ग मिलता हे ओर पाप उसे नक में 
जा गिराता है | नानक ने पाँच प्रकार के स्वर्गों का वन किया है जो 
नीचे से ऊपर की ओर इस प्रकार हैं--घधरमखड, सरमसखंड, ज्ञानखंड 
करमखंड ओर सचरखंड इनसें से अंतिम में कतो? का निवास बतदब्वाया 
गया है ओर इसी को कभी-कभी निर्वाण भी कहा गया है। नानक ने 
अन्य स्वर्गों के विषय सें स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा हैं, किन्तु जान पडता 
है कि वे धरमखड को कर्मकाण्ड के समर्थक धर्मों का फल समभते हैं , 
सरम खंड को चेतन्य जेसे उन निस्‍्न श्रेणी के रहस्यवादियों का स्थान 
मानते हैं जो भोतिक उल्लास में उन्‍्मत् हो जाया करते हैं। ज्ञानखंड 


जले -सलनलप»ः मअक्‍क३ ५ कुक कननत कर अनननमकी-43++ समन >ाभ-+क अननन-मो-वकलान«पनननननन_ननत“*++ “34 ७७५६५ #कतनकेति/ *कपकनम«न-ः+बनानल्‍नन»म- 


*# सीलवन्त सबसे बड़ा, सर्व रतन की खानि । 
तीन लोक की सपदा, रही सील में आनि ॥। 
वही भाग १ पृ० ५। 
7 कलीकाल ततकाल हैँ , बुरा करो जनिकोय । 
अनबाव लोहा दाहिए बव सो लुणता होय ॥२ 
कृ० ग्र० पु० ५६। 


२८४ ' हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


कृष्ण जेसे ज्ञानियाँ के लिए उचित सभमते हैं, करम खंड को रात्म जसे 
समाज के कर्मवीरों का स्थान मानते हैं जो पाप के सन्‍्यबत्ल का विराध 
किया करते हैं।* आत्मा को अपने कर्मा का भोग भोगने के लिए जन्म 
एवं भरण के चक्रों में भ्रमण करना पड़ता है | कहा जाता है कि विश्व में 
चौरासी लाख योनियाँ हैं और प्रत्येक व्यक्ति को इसमें से एंक वा सभी 
में भ्रमण करना पड़ता है । उसका आगामी जीवन उन प्रवृत्तियों की योग्य- 
ताशरों-ह्वारा निर्धारित होता है, जिन्हें वह अपने वतंमान जीवन सें प्राप्त 
किया करता है । दाढू ने कहा है कि “जीते जी जो अपना मन जहाँ पर 
रखता है, वही पर अपने मरने पर प्रवेश कर जाता है ।” | वह बात 
मानी जाती है कि अपना उद्धार प्राप्त करने के लिए, मनुष्य अ्रन्‍्य प्राणियों 
से ग्रधिक योग्य अधिकारी है । मानव शरीर को इसी कारण बहुत प्रशस्त 
कर्मों का पारितोषिक स्वरूप माना जाता है ओर उससे पूरा लाभ उठाना 
डचित है | जेंसा बाबा लाल ने बतलाया है कि यद्यपि निगणों का मत 
औरों से भिन्न हैं तो भी यह भिन्नता सामाजिक ज्षेत्र के व्यापारों से 
सम्बन्ध नहीं रखती । जेसा उन्होंने स्वय कहा! है, “ परमात्मा इन 
व्यक्तियों की श्रद्धा व विश्वास है जो उससे प्रेम करते हैं, किन्तु भलाई 
करना सभी मतों के अ्नुयायियों के लिए सर्वोत्तम है ।?”[ 

कैं? एवं तू? की चुद्रता से ऊपर उठकर, निगेणी, सारें विश्व को एक 
आध्यात्मिक आतभाव में बंधा हुआ्रा देखता है । क्षोगों की जीबिका के 
चरित्र में कितना ही अंतर क्‍यों न हो थे सभी तत्वत; एक हैं। एकही श्रात्मा 
सभी में व्याप्त है । सभी कृत्रिम विभिन्नताएं श्रपने स्वभाव से ही ग्ित 


* “जपुजी” ( गुरु नानक ) ३५-३७ | 
7 जहाँ मन राखे जीवता, मरता तिस घरि जाइ । 
दादू बासा प्राण का, जहँ पहली रह्मया समाइ ॥। 
| “दि रिलीजस सेक्ट्स आफ हिन्दूज” पृ० ३४९, विल्सन । 


चतुर्थ अध्याय ' श्८५ 


हैं। ऊनका संबन्ध आत्मा से न होकर शरीर मात्र से है। निगेणियों ने 
इस विषय सें पूरे बल के साथ चर्चा की हे | जेसा कि हम प्रथम अध्याय 
में ही देख चुकेहें। नि्गंणी लोग सामाजिक एकता एवं वर्ण तथा 
-जातिगत समानता के पैज्ञपातों थे, वे शूद्वों को ब्राह्मण वा अन्य वर्णा के 
पूर्णतः ससान सानते थे | कबीर उन्नत वर्णों व विशेष कर बाह्मणों के 
प्रति, अति निष्ठुर थे ' यदि ब्राह्मण शूदों से स्वभावतः उन्नत हे तो वह 
भी इस संसार में उसी अपविन्न मार्गदारा ( थांत्‌ वह गर्भ जिससे 
शूद्र जन्म लेता है ) क्‍यों आया करता है ? सच है, “बाह्मयणों की घम- 
नियों में दूध नहीं बहता जहाँ शूद्धों में रकप्रवाह होता है ।” इस प्रकार 
का गौरव अपने आप आरोपित होने दे! कारण झूठा हे । हुश्वर यदि 
ब्राह्मण का उच्चचर्ण के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता तो उसके ललाट 
पर जन्म से ही तीन तिलक बना कर उसे भेजता, जिन्हें वह अपना 
विशेषाधिकार माना करता है ।?* उनके सम्पर्क सें आकर उनके कई 
समकालीन शूद्रों नेश्पनीि जाति को महत्व देना सीख लिया था। 
हैंदास ने गये के साथ कहा था कि मैं जाति का चमार हूँ और मेरे कुटुंब- 
घाल आ्राज भो बनारस के आस पास मृत पशुश्रों को ढोते हुए देखे 
जाते हैं ।। निगेण मन ने शूद्धों के भह्दे आचरणो सें सुधार किये. 
उन्हें घसं के प्रति' आदर का भाव अदाशित करना सिखलाया, उनके 
लिये भक्ति का द्वारा उन्प्रुक्त कर दिया ओर और उनके भीतर आत्म 
सम्मान की भावना सी भर दी । 


उफननननान+ - 





# जो तू बाभन बभनो जाया, झानबाट छू क्यो नहि आया। 
जो पे करता वरण विचारे, तौ जनमत ही डॉड़ि किन सारे ॥ 
कृ्‌० ग्रं० १०४ | 
| नागर जनमेरि जाति चमारं' “मेरी जाति कुट वंढला ढोर ढोवत । 
बनारसी झास पासा ।--- ग्रथ साहब पू० ६६७-८ । 


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जाआा सच 


२८५ 'हिन्दी काव्य में निग॒ण संप्रदाय 


इसी भाँति हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच सेल कराने को 
चेष्टा द्वारा भी निरगंणियों ने अविरोध व सहनशोलता का ज्षेत्र 
तैयार किया । इसमें संदेह नहीं कि आरंभ में इस आन्दोत्नन का 
विरोध हुआ।। कबीर, सिकन्द्रलोदी-ढ्वारा, धक्ष चिरोधी विचारों के ही 
लिए दश्डित किये गये थे, किंतु इस प्रकार के विरोध से उस आन्दोलन 
को शक्ति हो मिज्रती गई ओर, समय पाकर इन विचारों के कारण, उन 
उपदिशकों के शुद्ध होने की जगह बादशाहों ने उन्हें सम्मानित करना 
झारस्सम किया। अकबर ने दादू को मन्त्र का उपदेश देने के लिए 
आदरपू्वक आमनित्रित किया था। अकबर के शासनकाल का अविरोधी 
भाव नवीन विचारों से प्रभावित वायुमण्डल का ही परिणाम था | इसी 
नचीन विचार ने ही अकबर को सबका खोजी समाज-सुधारक एवं 
सहनशील सम्राट बना दिया और इसी में उसकी महत्ता भी निहित 
थी। चास्तव में इसी विचार के ग्राधार पर भारतीय एकता का वह 
चिरस्थायी सूत्र ( जिसमें न केवल हिन्दू-मुसल्रिम ही ग्रत्युत ईसाइयों 
को लेकर सभी प्रकार के भिन्न धमवाले भी बाँघे जायंगे ) बटा जा 
सकता है। यदि इस प्रकार की एंकता जिसका अकबर के समय में 
उज्ज्वल भविष्य दीख पड़ता था प्राप्त नहीं हो सक्री, तो उसका कारण 
यह है कि निगंण सत के जिस संदेश से अकबर ने लाभ उठाया था 
वह विस्मृत हो गया है फिर अकबर भी उसके लिए उत्तना योग्य न 
था | उसकी खोजवाली प्रवृत्ति से उसकी राजसी वृत्ति दढ़तर सिद्ध हो 
गई और धार्मिक वातावरण को उसने राजनीतिक उद्देश्य का साधन 
बना डाला । इसर विषय सें उसे मंत्रणा देनेवाले अ्रबुल्फजल एवं 
फेजी नामक सूफी बन्धुओं ने सत्य की अपेज्ञा अपने स्वामी की स्वच्छुंद 
क्त्ति की ओर ही श्रधिक ध्यान दिया । इसका परिणाम दीनेइलाही के 
रूप में लक्षित हुआ ओर उस राजकीय घर्मोपदेशक ने हिंदू धर्म व 
इस्लाम को एक साथ निचोडद कर उसके द्वारा अपने साम्राज्य को 


चतुथ अध्याय हि २८७ 


स्थायित्व प्रदान करना वज्वाहा। उसकी अ्सिद्धि का बीज उस विचार में 
ही निहित रहा । ईश्वरीय साम्राज्य के स्थान पर अकबर ने अपना 
" साम्राज्य स्थापित करना चाहा विभिन्नताओं को भी लेकर चलनेवाली 
सच्ची भीतरी एकता के बिना केवज्न विनिमय के सिद्धान्त पर ही आश्रित 
कोई चलता क्रम ठहर नहीं सकता | यहाँ यह भी डल्लेखनीय है कि 
निर्गेणी कभी जाति वा राष्टू की दृष्टि से विचार नहीं करते थे बल्कि 
मानवता के ही शब्दों सें सोचते थे । केवल इस बात से कि डनके 
सिद्धानतों का सी सम्बन्ध कभ्ी-कर्ी स्थानीय वा जातोय कम्मों में 
दीख पडता हैं, यह प्रमाणित नहीं होता क्िि उनकी धारणाएँ 
संकीण थीं । 

केवल ख्री जाति को ही इन संतों द्वारा हानि पहुंचतो हे । सभी युगों 
व देशों के निवृत्तिमागियों का यह नियम रहा है कि वे ख्रो व धन की 
निंदा करते आये हैं ओर इस प्रकार वेंराग्य की उस भावना को जाग्रत 
करते रहे हैं जो निगेण्ियों को भी स्वीकार है । कबीर ने ख्लियों को नरक 
का कुण्ड बतलाया है । पल्नटू को अस्खी वर्ष की भी ख्री का विश्वास नहीं 
ओर यह बात खटकती हैं। दु:ख की बात है कि स्त्रियों में इन लोगों ने 
केवल भोले भाव ही को देखा हे, उनके आध्यात्मिक आदर्श की ओर से 
आँखें मू द ली हैं जिसे उन्होंने उस शाश्वत प्रेमी की भायाएँं बनकर स्वयं 
अपनाने का विचार किया हैं। इसमें संदेह नहीं कि स्त्रियों के केवल 
यौन भाष वाले अंश को हो उन्होंने ही गहित माना हे. किंतु स्त्रियों सें 
यही भाव सब कुछ नहीं हे ओर न पुरुष ही इस भाव से रहित हैं । 
जेसा निगेणियों ने स्वयं माना है कि पुरुष भी ख्री के लिए डसी 
प्रकार बन्धन स्वरूप हैं जिस ग्रकार खी पुरुष के लिए हो सकती हे । 
फिर 'भी यह उल्लेखनीय हैं कि उन्हें स्त्रियों के व्यक्तित्व से कोई द्ेष 
न था क्योंकि उनके अनुसार वह भो पुरुष की ही साँति इेश्वर की 


2 प्लीज शक 


सह+रमाना अन्तर सकल... नल 3. अनेक 


बस्य्य . / हिन्दी काव्य में निर्गंश संप्रदाय 
सृष्टि ह।॥ इसके विपरीत ख्रियों को इस बात के लिए उनका ऋणो. 
होना चाहिए कि उन्होंने उनके लिए भी भक्ति का द्वार खोल दिया हे 
निर्गणियों ने ख्ियों को अपने शिष्य खूप में भी स्वीकार किया था। दाडू' 
की कुछ स्त्री शिष्याएं थीं जो उच्च परिवारों की थी (चरणदास की शिष्याएं 
सहजोबाई व दयाबाई निगंश पंथ के परमोच्च रत्नों में स हैं । कबोर 
की स्री जिसका जो भी नाम रह। हो. एक पूण शिष्य का उदहरण 
स्वरूप थी। 

फिर, अपने विश्व प्रेम के नाते से भी निगणी दूसरों को मिर्ब्ता 
का विशेष ध्यान रखते हैं। जहाँ कहीं उन्हें दोष दीख पड़ेगा डसे वे दूर 
करने की चेष्टा करेंगे | किन्तु किसी के दोष का विरोध करते हु' भी चे 
उसे हानि पहचाना नहीं चाहते | वे बुराई के श्र हैं, बुराई करनेवाले 
के नही | वे अपने प्रति किये गये किसी भी श्रप्मोन को मुस्कराहट के 
साथ सहन कर लेते हैं । 'शठे शाक््यम! की नीति बुराई को बढ़ा दिया 
करती है । भल्षाई के बदले भज्ञाई करने में कोई विशेषता नहीं हं किन्तु 
बुराई के बदले बुराई करना बुराह दूर करने का कभी साधन नहीं बन 
सकता । कबीर कहते हैं कि “जब कभी तुम्हें कोई गाली देता हैं तो वह 
दुर्वेचन अकेला रहता है किन्तु जब तुम उसका बदला दे देते हो, वह 
कई गुना बन जाता है |! 

बुराई को जड़ से दूर करने का असली उपाय उसे करनेवाले के 
प्रति भज्ञाई करना है । असत्य का बिरोध यदि सत्य से किया जाथ तो 
असत्य निर्मल हो जायगा।। छुराई के लिए भी यदि भलाई करो तो 


कि कब कक 


| जेती औरति मरदाँ कहिये सबमे रूप तुम्हारा । 
क० ग्र० पू० १७६, २५६ | 
| गारी आवत एक हैँ पलटत होय' अनेक । 
सं० बा० सं० पृ० ४५ । 


चतुर्थे अध्याय ह श्प६ 


चुराई हर नहीं सकेगी । दुष्टों के प्रति दया दिखला जाय तो दुष्टता 
उसके अंतःकरण को ठेस पहुँ चायेगी ओर वह पश्चात्ताप करने लगेगा । 
कबीर कहते हैं “के ' काँटा बोनेचाले के लिए भी तुम फूल ही लगाया 
करो ; तुम्हें उसके बदल में फूल मिलेगा और उसके लिए त्रिशूल बन 
जायेगा ।??+ फिर, “दया में धर्म ओर लोभ सें पाप रहा करता है तथा 
इसी प्रकार ऋषध सें मत्यु एवं क्षमा सें वह स्वयं विद्यमान रहता है ।7 
निगंसी केवल मानव जीवन से ही प्रेम नहीं करता बल्कि प्राखि- 
मात्र का प्रेमी हे ओर उसके लिए वनस्पति जीवन भी अपवाद स्वरूप 
नहीं | कबीर ने कहा ह कि “जनियों को जोवन का सहत्व ज्ञात नही 
क्योंकि वे पत्तियाँ तोड़ कर उन्हें मंदिरों में चढ़ाया करते हैं ”| यह 
विश्वास कि सब कोई किसी भी योनि सें जन्म धारण कर सकते हैं. 
सब किसी को एक वृहत आतू समाज सें बाँधने का प्रेमसूत्र बन जाता 
है। निगणी केवल अ्रहिंसा का ही सिद्धान्त स्वीकार नहीं करता वह 
अविरोध का भाव भी अपनाये रहता है। किसी को भी मनसा, वाचा 
व क्मंणा हानि न पहु चनो चाहिए | माँस-भक्षण का उन्होंने स्पष्ट शब्दों 
सें निषेध किया है। मेकालिक का यह कथन कि नानक ने माँस भच्तण 
की श्रनुमति दी थी उस गुरु के उपदिशों द्वारा सिद्ध नहीं होता । यद्यपि 


जलता जज अन्न पा अमन 


न ध् जन्‍म, 


+ जो तोको कॉटा ब॒व, ताहि बोइ तू फूल । 
तोको फूल के फूल हूँ, वाको हैं तिरसूल ॥। 
वही, पु० ४४ । 
जहाँ दया तहेँ धर्म है, जहाँ लोभ तहूँ पाप । 
जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ छिमा तहें झाप ॥। 
वही, पू० ५० । 
$ जेन जीव की सुधि नहि जाने पाती तोड़ि देहुरे आने । 
क० ग्र०, पृू० २४६ । 


२६०... 'हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


इसे उन्होंने अपना विशेष लच्य नहीं बनाया था फिर भी इसका' उन्होंने 
स्पष्ट रूप सें विरोध किया था | उन्‍होंने कहा है “बकरी गाय अथवा 
अपनो संतान सें अंतर ही क्या है १ हैश्वर के नियम से सबके भीतर एक 
ही रक्त प्रवाहित हो रहा है । पीर, धर्मोपदेशक अँधवा औलिया सभी कोई 
मरने के लिए आये हुए हैं। अपने शरीर के पोषण के लिए व्यर्थ किसी 
के प्राण न लिया करो । ?* यह तुम्हारी आत्मा को भूखों सार देगा 
जो कोई हेश्वर की सृष्टि को प्राणियों की हत्या ह्वारा नष्ट करना चाहते 
हैं वे कबीर के अनुसार राज्स कहे जाते हैं | गोबध को वे इेश्वराज्ञा 
के विरुद्ध मानते हैं । गाय को दुहकर बछुड़े को उसके दूध से चंचित 
करना भी उनके लिए असझह्य था । मलुष्य के लिए उसका दूध पोना तथा 
मांस भी खाना मूर्खता एवं दुष्टता की पराकाष्ठा है। ऐसी कठोरतर 
आज्ञाश्रों पर ्राश्रित श्रधोमुखी बुद्धि ने ही वेद व कुरान को झूठा बना 
डाला। मुज्ला से उनका कहना था “यदि तुम कहते हो कि एक ही डेश्वर 
सबसें विद्यमान हैं तो फिर मुर्गों की जान क्‍यों लेते हो १” और इसो 
प्रकार वे पंडित से भी कहते थे “वेदों सें दिये हुए उपदेशों का परिणाम 
यह होना चाहिएु था कि तुम रास को सभी जीचों में देखा करा किन्तु 
अपने को सुनि कहते हुए भी तुम कसाह का काम करते हो जीचों की 
हत्या करना तुम धर्म समझते हो तो फिर अधम किसे कहना चाहिए””[ 
किसी के विरुद्ध अन्यायपूवंक कथन करना भी शारीरिक रूत्यु के समान 
ही समझा जाता है| गाली देनेवालों को बड़े कड़े शब्दों में निन्दित 
किया गया है । 

परन्तु इस माग के यात्री का उद्देश्य निमंल जीवन व्यतीत करना 








मत ३०३०३०ककतलकवकानाकान मन 





प मासु मासु कह मूरख झगड़े, ज्ञान ध्यान नहिं जाने । 

ग्रंथ साहब, पूृ० ६६ | 
* संत बानी संग्रह, भाग २ पृ० ४६। 
+ सं० बा० सं०, भाग १ पृ० ४६। 


चतुर्थे अध्याय ै २६ १ 


होने के कारण उसे किसी निंदुक से डरने की अववश्यकता नहीं | अपनी 
निंदाओं हारा वह हमारी उन कमियों की सूचना देता रहता हे जिनसे 
हमारे परास्त होते की संभावना रहती है ओर इस प्रकार वह हमें सदा 
उनसे बचाये रहा करता हैं। ओर यह सब वह बिना किसी पारितोषिक 
के ही किया करता है ।7 


परन्तु जो कोई श्राध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसे 
किसी दूसरे की निंदा करना कदापि उचित नहीं, क्‍योंकि इसके द्वारा 
हमारी आँखें घ॒राई के उपयुक्त हो जाती हैं और उन भसज्नाइयों की ओर 
से मू द जाती हैं जो किन्हीं दूसरों में पाई जा सकती हैं ओर जिनका 
प्रभाव हमारे ऊपर दूसरे प्रकार से अच्छा भी हो सकता था। अतणएव 
साधक को चाहिए कि दूसरों का छिद्घान्वेषण करने की जगह केवल 
अपने ही दोषों को देखा करे ओर उन्हें दूर भी करे । उसे अपनी अंत- 
दृष्टि इसलिए नहीं फंकनी चाहिए कि वह अपने दोषाभावों को छिपाये, 
बल्कि उन्हें इेश्वर के ग्रति स्पष्ट शब्दों में प्रकट करें। जब तक कोई 
मलुष्य अपने पापों को अपनी आत्मा के अंधकार में छिपाने का प्रयत्न 
नहीं करता तब तक वे वृद्धि पर रहते हैं किन्तु अपना हृदय हैश्वर के 
सम्मुख खोलते ही उसके भीतर हैश्वर प्रकाश व्याप्त हो जाता है और 
उसके पाप, पश्चात्ताप की भावना के साथ अज्ञान सहित नष्ट हो जाते हैं 
सुधार का चिह्न सबसे प्रथम व निश्चित वह ग्रेरणा ही है जो हमें, हमारे 
हृदय के भीतर हू ढ़ने की ओर प्रव्गत करती हे ओर अपने दोषों को प्रकट 
करने की इच्छा भो प्रदान करती है। आध्यात्मिक जीवन के बीज के 
अंकुरित होने के लिए यह आवश्यक है कि उसके लिए चषेत्र भल्ी भाँति 








४ निदक तियरे राखिये, श्रॉगन कूटी छुघाय । 
बिन पाली साबुन बिना) निर्मेल करें सुभाय ॥ 


बम 


वही १०, ६०! 


२६२ हिन्दी काव्य में निगशा संप्रदाय 


तेयार कर दिया जाय | हृदय से अहंकार को हटा कर उसे निरा दिय॥ 
जाय तथा अपनी अयोग्यता एवं पापीपन को प्रख्यापित कर दिया जाय | 

जब तक कोई आत्मनिरीक्षण का अभ्यास न करले तब तक वह 
ग्राध्यात्मिक मंडली में प्रवेश पने की आशा नहीं कर सकता । आत्स- 
निरीक्षण के विषय में कबीर कहते हैं “में बुरे मनुष्य की खोज सें निकला 
तो कोई भी सुझे छुरा न दीख पड़ा किन्तु जब मैं अपने हृदय को ही 
टटोलने लगा तो सुमसे अधिक बुरा कोई न मित्ञा |।”+ इसी भाव के 
साथ दुदू ने भी कहा है कि “सारे विश्व में केवल भे ही एक सबसे 
बड़ा पापी हूँ, सेरे पाप इतने हैं कि उनकी गिनती करना असंभव है |” न 

पश्चात्ताप करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि पाप किया गया 
हो । इतना ही पर्याप्त है कि ऐसी कुछ संभावना है जो कार्य में परिणत 
हो सकती है और इससें संदेह नहीं कि मानवी हृदय में ऐसी संभावनाएँ 
सदा विद्यमान रहा करती हैं। जब तक, उस पश्चात्ताप के साथ जो कबीर 
एवं दादू की उपयक्त साखियों से व्यक्त होता हैं, उसकी संभावना का 
बीज नष्ट नहीं होता ओर मनुष्य उस विशुद्ध दशा को प्राप्त नहीं कर लेता 
जिसमें पहुँच कर कबीर यहाँ तक कहने योग्य हो गये थे कि 'मैने अपनी 
चादर ( शरीर ) उसी स्वच्छ दशा में उतार डाली ह॑ जिस दशा सें बह 
मुझे ओढने के लिए मिली थी, यद्यपि देवता व मुनिगण तक उसे बिना 
किसो धब्बे के नहीं रख सके थे । ” : 


उस्ततन्‍>क»+सन+कं+- नी लक नल कआा-अ 0 शजनभ47३१७:३५७७। 


] 


+ ब्रा जो देखन में चला बुरा न मिलिया कोय । 
/ जो दिल खोजो आपना, मभझसा ब्रा न कोय ॥। 
क०, बा० पृ० ६० । 
+ महा अपराधी एक मै, सारे इहही ससार। 
प्रवगूणा मेरे भ्रति घने, श्रंत न आवे पार | 
बानी, भाग १, पृ० २४६९ । 





_ क० बा० २२३ पू० १८६७। 


कल 


चतुथ अध्याय २६३ 


परैन्तु जब तक अहंकार हैं तब तक किसी की आँखें अपने पापों की 
ओर नहीं उठा करतीं । निरगेणियों तथा सभी भक्तों को यह धारणा रहती 
आह है कि पूर्णता की ऊँचाई तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक हैं कि 
हम अपने को नीचातिनीच समझा करें । इनकी दशा का सार ब्राउनिंग 
की निम्नलिखित दो पंक्तियों द्वारा बड़े उपयुक्त शब्दों में दिया गया है -- 
“ऊपर की ओर देखने से पहले नीचे की ओर देखने से ही रहस्य के भीतर 
दृष्टि डाज्ली जा सकती हे। ? 

इस कारण सभा पअफकार के गये का त्याग करना आवश्यक हैं “मं? 
को पूर्णतः नष्ट करना ही पड़ेगा, इस प्रकार का असिमान ही कि जो कुछ 
अपने आप करने की कल्पना कोई करता है उसका कर्ता “मै? हूँ सभी 
प्रकार के आध्यात्मिक जीवन के लिए स्ृत्युस्वरूप हें। यदि ईश्वर की 
इच्छा न हो तो मनुष्य जो वस्तुत३ एक मिट्टी का खिल्नौना मात्र हे, कर ही 
क्या सकता है १ इस विस्तृत डेश्वरीय सृष्टि का एक सूच्मातिसूच्म कण भी 
होने के कारण उसे कुछ करने की शक्ति ही कहाँ हे १ अथवा इंश्वरेच्छा से 
बाहर उसकी इच्छा ही क्‍या हो सकती है १ मनुष्य परमात्मा का एक 
साधन मात्र है, चह एक यत्र है जिसके प्रयोग-हढ्ारा वह अपनी इच्छा की 
पूर्ति किया करता हैं। कबोर के नीचे लिखे शब्दों द्वारा यह स्थिति स्पष्ट 
हो ज्ञाती है--' में राम का कुत्ता हूँ ओर उसकी रसुपी मेरे गलत सें पडी 
हुई है; वह जिधर खींचता हे उसी ओर में जाता हूँ ।”] और फिर “मैने 
कुछ भी नहीं किया है ओर न मैं कुछ कर ही सकता था । जो कुछ भी 
किया जाता है उसे ईश्वर ही करता हैं ओर उसी के अनुसार कबीर 


ते करा. किला हाम«कथ कब» नकल ननानशिनमनननननिनाननीनिनगगगभननगर नन-+9-अमलन+«+«>>«»«म «ने» कक. सकल अिडअजऔ मीन नल 5+ -निननननननल,. पननरचडनननननगरनन«+-न--कन«+ तन... न बज नमन नि लकननननीननननन- मनन “नल -+ कक -क-4.+५०-+० 


+ कबीर कती राम की मृतियाँ मेरा नाउ । 
गले राम की जेवड़ी जित खेचे तित जाउ ।। 


क० श्र ०, १० २० | 


२६४ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


अस्तित्व सें भी आया ।”?+ दादू भी कहते हैं--“जिस प्रकार वह आज्ञा 
देगा, उसी प्रकार मैं नमस्कार करूँ गा, मेरा कुछु भी चासा नहीं, में उसका 
एक बेचारा नोकर मात्र हूँ ओर उसकी दी हुई झाशा का पालन किया 
करता हूँ ।?”' पल्नटू ने सच कहा है--“मुझ्े पता नहीं, चह कोन व्यक्ति 
है जो आता है और काम कर जाता है| वह इतना शक्तिशाल्वी हे कि 
वह सब के कामों सें छेड छाड़ करता हे । इश्वर मेरे रूप में सभी कुछ 
करता है। हाँ सचमुच, मैं व्यर्थ ही बदनाम हो रहा हूँ ।” | 

अपनी शून्यता का अनुभव कर लेने पर ही किसी के लिए श्रसीम 
जीवन का हार खुला करता हैं। जब कोई अपनी इच्छा को हेश्वर के 
प्रति समर्पित कर देता है तभी उसकी अपनी इच्छा इश्वरेच्छा बन पाती 
हैं ओर जब कोई अपने अस्तित्व को खोकर उसके स्थान पर हईैश्वर को 
ला देता है तभी उसका अस्तित्व ईश्वर का अस्तित्व हो जाता है, इसी 
प्रकार उसके प्रभु के जीव उसके लिए काम करना सीखते हैं ओर अपने 
को प्रधानतां भी नहीं देते ओर न उसके निमित्त अपने लिए कुछ श्रेय 
की आशा ही करते हैं । प्रभु के माग सें अपने आपको मिटा देने का 
तात्पय व्यवहार सें यही होता हे कि मनुष्य किसी त्याग के अवसर पर 
अपने को दूसरों के लिएं उपयोगी सिद्ध कर दे। जो वास्तविक ब्लवानी 
होता है वह अपने लिए तो मरता हे परंतु दूसरों के लिए जीवित रहा 





_असवलन्लभंकाा- कम कर ०५३१३%-+- पी शत पीकककान+++पत्त भक्त ग००५>क 4०3ल्‍७०७३:३५५॥४०१७/३०१४१४५५१ कि 


+ ना कूछ किया ने करि सका, ना करने जोग शरीर । 
जो कुछ किया साई किया, ताथे भया कबीर || 
वही पू० ६१ । 
ज्यों राखे त्यों रहेंगे, मेरा क्या सारा । 
हुक्‍्मी सेवक राम का, बंदा बेचारा ॥। 
बानी पृ० १५६।॥ 
| संतबानी संग्रह, भाग २ पृ० २३५। 


चतुर्थ अध्याय । २६४५ 


करता है। दादू सम्पूर्ण अविच्छिन्त जीवन की सेवा में ही अपने जीचन 
की पूर्ति समझते हैं ओर उस स्थान पर मरना चाहते हैं जहाँ उनका 
शरीर पशुओं व पत्तियों के ल्रिए भोजन का काम दें दे ओर मलूकदास 
इस बात की आथना करते हैं कि सभी प्राणी सुखी कर दिये जाय 
ओर उनके दुःख मेरे सिर डाल दिये जाये |+ निगंणी का जीवन 
स्वभावतः उपयोगी होना चाहिए। कबोर मनुष्य को इस बात का 
परामश देते हैं” कि उसे सड़क के उस कंक्ड़ के समान नम्न व चिनीत 
बन जाना चाहिए जिसे प्रत्येक बटोही अपने एऐरों शेंद्र दिया करता हे । 
किंतु वह ककड़ भी कभी किसी राही को कष्ट पहुँचा सकता हैं, इस- 
लिए उसे धरती पर की घूल बन जाना चाहिए । परंतु धूल किसी के 
शरीर व वस्त्र को धूमिल कर उसे कष्ट पहुँचा सकती है, इसलिए डसे 
पानी के समान होना चाहिए जो धूल को घोकर साफ़ करता है । परंतु 
पानी भी अपने समय समय पर गर्म व ठंढा होते रहने के कारण 
नापसंद किया जा सकता हैं। अतएवं, हरिजन को स्वयं हेश्वर का ही 
रूप होना चाहिए ।+ प्रम के मार्ग में जो सत्य का अकेला शांतिपूर्ण मार्ग 
हैं कितना भी कष्ट क्रे्नना पड़े वह अधिक नहीं होता | इसके लिए ऐसे 
घेये की आवश्यकता है जो पृथ्वी में पाया जाता हे जिसके कारण वह 
कुचला जाना सहती है अथवा जो जंगल में रहा करता है और चह 
काटा तथा चीरा जाना तक सहन कर लेता है ।[ 


फिर भी आध्यात्मिक नम्नता का अर्थ अपमान नहीं होता | ईश्वर 
पर भरोसा करो ओर अपनो अयोग्यता एवं पापीपन को उसके समक्ष 
स्वीकार करने के साथ-साथ यदि भीतर स्वाभाविक भलाई व 


जन कण आन 


+ सं० बा० सं०, भाग १, पु० छण व १०४। 
कबीर ग्रन्थावली, पृ० ६५ | 
$ वही, पृ० ६२। 


२६६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


हैश्वरत्व का भा भी न रहा करें तो कोई भी आर्थिक सम्गज़ उन 
अयोग्य भिखमंगों का एक समूह बन जाता है जो सार्वजनिक दान पर 
आश्षित रह कर अनुपयोगो जीवन-यापन करते हैं ओर उनके द्वारा 
उच्छिन्न हो जाने का ही भय बना रहता है। “जिस किसी का अपने 
ईश्वर में विश्वास रहता है वह जानता है कि जब चह ईश्वर पर आश्रित 
रहता हैं तो वह वस्तुतः अपने ऊपर ही भरोसा करता है । निगेण मत 
का भाग्यवाद किसी आ्लस्यमय जीवन का द्योतक नही । भिन्न बाहरो 
कर्ता की इच्छा पर किसी का पुरुष की भाँति निर्भर रहने की जगह चह 
वस्तुत: अपने कामों के लिए, वीरतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व सेमालता 
है, जो निदंयी काल के हाथों से भी हटाया नहीं जा सकता। “कर्म 
जिसका शब्दाथ कार्य होता है भाग्य का एक दूसरा नाम है, जो कुछ 
भी अपने ऊपर आ पडे उसे साहस के साथ यह मानकर उठा लेना 
चाहिएं कि वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है। नाज्क ने कहा 
है कि जो जेंसा बोता है वह वसा काटता भी है।_ मनुष्य कर्म करने में 
स्वतंत्र है किंतु अपने किये कर्म का परिणास भी उसको भोगना पड़ता 
हैं। उसके कर्म सम्बन्धी नियम की श्रवहेलना स्वर्य ईश्वर तक नहीं कर 
सकता, यद्यपि वह उसी की इच्छा है | इसलिए जो कुछ बदला नहीं जा 
सकता उसके लिए रोने की जगह किसी को इस बात का परम संतोष 
भी हो सकता है कि वह अन्ततः हैश्वर की ही इच्छापूर्ति कर रहा हैं 
ओर अपने उस भविष्य के लिएं वह आशा के साथ कार्य भी कर सकता 
है जो सदा अपने हाथों की बात है यद्यपि ऐसा करते समय चह उन 
कुछ परिस्थितियों द्वारा बाधित भी होता रहेगा जो उसके पहले कर्मों का 
परिणाम स्वरूप हैं । 


अनननन जिलननननकननननमनननानननानन पी शनानगिनििजर वन वयगिनालिन 7 न बता क्ल्+ 230७42#-नतेककाकैन पाक... कान जमाप्क 


उ जो जसा करे सु तैसा पावे । झापि बीजि आापे खाबे ।। 
ग्रंथ साहुब, पृ० ३५७ । 


ए 
चतुर्थ अध्याय २६७ 


इस प्रकार ईश्वर की इच्छा को पूति के करने काँ तात्पय आत्म- 
विश्वास है ओर उसके कारण श्रपनो जीविका के लिए काम करने की 
आवश्यकता नष्ट नहीं होती । दूसरों पर भरोसा करना डेश्वर को तथा 
अपने को अपमानित कर॑ता हैं। एक संन्यासी योगी के प्रति गुरु अग॒द 
ने कहा था---“क्या तू परमेश्वर के सिवाय दूसरे से माँगने सें लज्जित 
नहीं होता १?+ भीख मॉँगने से आध्यात्मिक पतन हो जाता है । 
कबीर के अनुसार, “जब कभी कोड अपने हाथ माँगने के लिए फेलाता 
है उस समय उसके मान, महत्व प्रेम, गौरव एवं स्नेह सभी उसका 
साथ छोड देते हैं ।* कबोर ने एक बार यह भी कहा था कि 
“माँगना सरण के समान है ।” शिवदयाल आधुनिक साधुओं को 
उनके अपने परिवार, उद्योग-धंधादि त्याग करने तथा व्यर्थ का घुमक्कड 
जीवन व्यतीत करने के कारण भत्सना किया करते थे। श्रम के साथ 
नीचता का कोई संबंध नहीं । “उद्योग सें कोई दोष नहीं यदि उसे 
कोई करना जान जाय, उस श्रम में उल्लास भरा रहता है जो इश्वर के 
लिए किया जाता हैं|” [ 

कर्म यद्यपि हमारे लिए जन्म व मरण के बंधन सें पड़ने का कारण 
बन जाते हैं क्‍योंकि अपने कर्म का फल भोगने के लिए ही हमको 
बार-बार जन्म लेना पड़ता है) फिर भी, हिंदू घर्मानुसार, पुनर्जन्म 
का सिद्धान्तत३ न्‍्यायसंगत होना अकमंण्यता-द्वारा असिद्ध नहीं किया 
जा सकता । कोई भो सभी प्रकार से अकमंण्य नहीं रह सकता | स्वयं 


+ नाथ छोड़ि जाँचे, लाज नआवे । वही पृ० ४७८ । 
+ मान महातम प्रेम रस, गवतिरण गुण नह । 
ये सबही अलहा गये जबहि कहा कुछ देहु ॥ क० ग्र०पृ० ५६ ॥ 
 मॉगत मरन समान है । वही पृ० ५६ | 
$ सारवचन भा० १, पृ० २६५ | 


क्न्न 


श्ध्द - हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


अकर्मण्य रहना ही कर्म करना है। भविष्य की कामना रच: कर्मों सें 
नहीं रहा करती, वह उस प्रवृत्ति में रहती है जो उसे प्रेरित किया करती 
है। स्वार्थ नहीं प्रत्युत स्वार्थपरता ही सब किसी को भवजाल में डाला 
करती है। बिना स्वार्थ के किये जानेवाले कार्य यदि “ईश्वर के निमित्त 
संपादित किये जाते हों तो उनमें भविष्य के ल्लिए कोई अंकुर नहीं 
रहता ।?” जब कबीर कहते हैं कि, “मैने अपनी करणी से ही कर्म 
का नाश कर डाला |? तो वे उन कर्मो की ही चर्चा करते हैं जो 
डैश्वर के लिए किये जाते हैं और जिनमें, इसी कारण, प्रेम व त्याग का 
सयोग बना रहता है। अनासक्तिपूवक किये गये कर्म मनुष्य को इस 
संसार से मुक्त कर देते हैं | कबीर ने कहा था कि, “मैं सभी कर्मों को 
करता हुआ भी उनसे प्रथक हूँ ।” निगंणियों का श्रम के संबंध में 
निर्धारित किया हुआ सिद्धान्त नामदेव तथा बत्रिलोचन की डस बातचीत 
से स्पष्ट हो जाता है जिसका उल्लेख कबीर ने किया है ओर जिसमें 
त्रिज्ञोचन के इस दोषारोपण पर कि सांसारिक प्रेम ने उन्हें मोहित कर 
लिया है ओर वे अभी तक छीपी का काम करते हैं, नामदेव ने कहा 
हैं कि “हे त्रिलोचन तुम होठों से राम का नाम स्मरण करो और अपने 
सभी कतंव्य हाथ-पेर से करते चलो | अ्रपना हृदय इेश्वर से ही संबद्ध 
रक्‍्खो ।??+ 


"अपककस०>स 3 कप बम पक नकनल- लगी अनवओ कर सजन्‍कन, हक की 


 उहिम गुणा को नही जो करि जाने कोय | 
उद्दिम में आनद हे जे साई सेती होय ॥ “बानी” 
| करणी किया करम का नास ॥ ३२६। क० ग्र॑ं० घू० २००। 
+ नामा माया मोहिया कहे तिलोंचन मीत ॥ 
काहे छापे छाइ ले राम न लाबे चीत॥। 
नामा कहूँ तिलोचना मुखाँ राम सँभालि | 
हाथ पाँव कर काम सब, चित्त निरंजन नालि॥॥। 
ग्रंथ साहब” पू० 9७४०-४१ । 


चतु' अध्याय २६६ 


परिश्रम के बिना प्राप्त की हुईं कोई भो सिद्धि एक राजसी व्यापार 
होता है ओर उससे लोभ की वृद्धि होती है। आलस्य से लोभ की 
ओर बढ़ना केवल एक ही पग हे । निर्गंणी भी ठीक टाह्सटाय के ही 
समान सभी प्रकार के पैनसंग्रह से घृणा करते हैं जिसमें केवल लोभ 
ही लक्षित नहीं होता बल्कि जिससे आलस्य को भी प्ररणा सिज्तती है । 
कल की आवश्यकताओं के लिए आज ही ग्रबध कर लेना पआगामी 
आलस्य सें मरत हो जाना है| धन-संग्रह की भावना इेश्वरानुभूति के 
मार्ग का रोडा बन जाती हैं, जमा करने के लिए जुटाने सें आखिर 
श्रच्छा ही क्या है । मनुष्य अपने जीवन भर कमाने और अपने घन 
की वृद्धि करने के प्रयत्न करता हे--घन एकत्रित करता हे, घर बनाता 
है भूमि ऋय करता हे किंतु अपने साथ क्‍या ले जाता है १ हाथ बाँधे 
हुए आता ह ओर खुले हाथ चलना जाता हैं ।” बल्कि विक्रम, भोज 
एवं बिसालदेव तक राजा भो इस बात के साक्षी हैं ।?+ स्वा्थंपरक 
पूरक घन की कामना के अपने हृदय सें जागृत होने पर स्वयं कबीर 
अपने आप प्रश्न करते हैं --“मैं ऊचा घर क्‍यों बनाऊँ ९ मेरा घर तो 
( यह शरीर ) साढ़े तीन हाथ का लंबा है। हे मनुष्य अपनी संपत्ति 
का गवे न करो | अंत सें तुम्हें (अपनी कब्र के लिए) उतनी ही भूमि 
की आवश्यकता पड़ेगी जिसका विस्तार तुम्हारा शरीर ढकने के काम के 
लिए पर्याप्त होगा ।??)८ 

इसी भावना को टाल्सूटाय ने अपनी “मनुष्य को कितनी धरती 
चाहिए” नाम की कहानी में बड़ी सुन्दरता के साथ विकसित किया हे । 
सत्य, वस्तुतः सर्वत्र सत्य ही हैे। निगणी इस प्रकार उससे अधिक की 
इच्छा नहीं करते जिसका उनके परिवार के तथा उनके श्रतिथियों के 


>ननानी-शननकक-लईकन-कक.-+०9-०००००--००-न्‍नननन 3 विन अनननानन्‍नतायाण-कितानिणा-रिक-िनियीननन 3 अमनननीनननननन- “न--वकनननमग अमल 


+ कबीर ग्रथावली २६६ पृ० १२८ । 
>६ वही ३६१ पुृ० २०८। 


३०० ' हिन्दी काव्य में निशुण सप्रदाय 


लिए पर्याप्र हो । वास्तव में वे किसी कमी का श्रनुभव क्‍यों करें ? जब 
सब कुछ का देनेवाला उनके साथ सदा बना रहता है ।'”+ कबीर ने 
कहा था कि “उस धन का ही संग्रह करो जो जीवन के अनतर भी 
उपयोग सें आये श्रोर उसके द्वारा उन्होंने आध्यात्मिक साधना की ही 
आवश्यकता दिखलाई थी |»< बाबाल्नाल ने दाराशिकोह को इश्वरीय 
ज्ञान का उपदेश देते हुए कहाँ था कि “बिना कामना, बिना संयम और 
बिना भाव के ही फकीर का जीवन व्यतीत होना चाहिए ।” निगंणी 
अभाव का स्वागत नहीं करते । निधन को केवल इंश्वर-प्राप्ति की एक 
अनुकूल स्थिति मात्र मानते हैं। निर्धनता का तत्पय साधना भाव से 
नहीं प्रत्युत त्याग की डस भावना से है जो एंक ओर जहाँ दारिद्व की 
कद्ठता को दूर करती हैं वहाँ दूसरी ओर वेभव के कारण उत्पन्न होनेवाले 
उत्तरदायित्व के समान ही है। निर्धनता के दो प्रधान श्रग हें संतोष एवं 
उदारता “सतोष के सामने सभी प्रकार के धन धूत्र के समान हैं ।??<- 
फिर भो अपने संतोष का प्रयत्न या उपक्रम के साथ कोई विरोध नहीं हे 
ओर उदारता ही सच्चा धन है। घनी होने का अर्थ वेभव का अपने 
अधिकार सें लाना नहीं हे वह एक मानसिक जृत्ति मात्र हे। अपनी 
संपत्ति से सतुष्ट न रहनेवाल्ला व्यक्ति विपुल वभव का स्वामी होता हुआ 
भी दरिद्र कह्दा जा सकता है। उदारता के साथ साथ उसका अपना 


'+ आगे पीछे हरि खड़ा जब मॉँग तब देय । 
। सं० बा० सं०, पूृ० ५७ । 
>< वहुधन संग्रह कीजिये जो आगे क्‌ होय । 
॥ १३ ।। क० ग्रँं०, पृ० ३३ । 
: गोधन गजन्नन वाजिधन, और रतन धन खान । 
जब आवबे सतोष धन, सब धूरि समान ।। 
सं० वा० सं०, भाग १ पृ० ५३१। 


चतुर्थे अध्याय ३७१ 


संतोष रृहा करता है | वास्तव में चभव के विचार से संतोष एवं उदारता 
दोनों एकष्ही संतुलित मनोवृति के दो पथ हैं। आर्थिक सकट के साथ 
संतोष और सड॒द्धि के साथ उदारता का भाव इस स्थिति के विरुद्ध 
प्ऱता है, क्‍योंकि इससे ही पूंजीवाद की दुष्टटता ओर साम्यवाद की 
बबरता के भाव उत्पन्न हुए हैं | इस विषय सें अधिक कहने की आवश्य- 
कता नहीं कि हमारी आधुनिक सभ्यता को जिस अनिष्ट की आशंका हो 
रही हें उसका निवारण आध्यात्मिकता हो कर सकती है। जो कुछ पहले 
कहा जा चुका है उससे भत्ती भांति सिद्ध हे कि निगेण मत का भी 
लच्य यही हे | 

निगेणियों के उपदेशों का अच्रशः पालन सर्वे साधारण द्वारा नहीं 
हो सकता परन्तु विचित्र वेंषस्थ की साधारण देनिक जोवन-यापन करने- 
वालो विचित्र स्थिति में रह कर निर्गंणी का आदर्श उसकी उस सहज 
बुद्धि पर अवश्य कल्याणकर प्रभाव डालेगा जो समाज के लिए भयावह 
है और उसके उस उग्र स्वभाव को निसर्गत; जाग्त करेगा जिसके कारण 
उसके नागरिक एवं नेतिक महत्व की वृद्धि सें प्रोत्साहन मिलते । 


पंचम अध्याय 


शथ का स्वरूप 


हम देख खुके हैं कि, निगेश-पंथ का निर्माण होते समय, उन आदशों 

व भावनाओं का उसमें किस प्रकार प्रवेश होता गया जिनके मूलख्रोत 
का पता बौद्ध धर्म, वेष्णव संप्रदाय, चेदांत दर्शन, 
१ क्‍या निगुण तथा गोरखनाथ की योग परंपरा जैसे धर्मों, . 
पंथ कोई मिश्रित दर्शनों वा रहस्यपंथों सें लगाया जा सकता हे । 
संप्रदाय है? अतएव, ऐसी दशा सें यह प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के 
सन सें स्वभावत;, उठ सकता है कि क्‍या निगण 
पंथ कोई मिश्रित संप्रदाय तो नहीं है? यदि सच पूछिए तो यह प्रश्न 
इस प्रकार भो किया जा सकता हे--- क्या कबीर केवल एक संग्रही मात्र 

थे?! क्‍योंकि पंथ के आरंभ करने का ध्येय कबीर को ह्वदी देना होगा | 


फिर भो उक्त प्रश्न का उत्तर किसी “हाँ! श्रथवा नहीं” जेसे स्पष्ट 
शब्दों-द्वारा नहीं दिया जा सकता। निगणी, सारतत््व को निकालनेवाज्ा 
वा सारग्राही हुआ करता है। डसे सत्य के उस दाने को खोज निकालना 
पढ़ता है जो छिलके के भीतर छिपा रहता है और सूप की भाँति 
उसे दाने को बचा लेना एंवं भूसी को फेक देना पड़ता हे ।# दादू के 
* सार संग्रह सूप ज्यू, त्याग फटकि असार ॥ 
टि० २॥ “कबीर ग्रथावली, पूृ० ५४ 
साधू ऐसा चाहिये, जेसा सूप सुभाय ॥ ७८ ॥ 
क्रबीर साहब की बानी, १० €। 


लक निगननीभननण.. 


पंचस अध्याय ३७३ 


शब्दों में उसे बचुडे की भाँति, पूछ ओर सींगों की उपेक्षा कर, दूध 
पीने के लिए, तत्तख गाय के स्तन की ओर ही, दौड़ जाना पड़ता हे ।* 
जब निगेणी की' ऐसी मानसिक स्थिति है तो यह स्वाभाविक है कि 
उसकी अपनी विचारधारा सें भिन्न-भिन्न प्रकार के खोतों से प्राप्त भावनाएँ 
आकर मिल जरए । 

परन्तु इसका अथ यह नहीं कि कबीर वा श्रन्य किसी बेसे निगेणी 
डउपदेशक ने, “'दीनेइलाही” के प्रचलित करनेवाले अकबर की भाँति किसी 
नवोन धर्म की स्थापना करने के उद्देश्य से इन विविध प्रकार के मतों 
से जानबूमकर अच्छी अच्छी बात चुन की हों। कारण यह कि धर्म 
प्रयोगसाध्य न होकर विश्वासमूलक है । धर्म के लिए तक चा बुद्धि 
को प्रेरणा प्रयोप्त नहीं हुआ करती । उसमें सब से अधिक आवश्यकता 
विश्वास की ही पड़ती है, बुद्धि उसमें गोणरूप से सहायक हो सकती 
हैं । अकबर के 'दीने इल्ाही” के बदनाम होकर बंद हो जाने का कारण 
यही था कि डख शाही पेगंबर को उन बातों में स्वयं भी पूर्ण विश्वास 
न था जो उसके मिश्रित संप्रदाय के अंतर्गत आती थी। तब ऐसी दशा 
में दूसरों के हृदयों सें किस प्रकार विश्वास जमा सकता था अथवा 
प्रतीति उत्पन्न करा सकता था १ जान-बूमकर प्रचल्नित किया जानेवाला 
मिश्रित संप्रदाय, यदि कोई हो सकता है तो उससें एक ओर बुद्धिवाद 
रहेगा ओर दूसरी ओर व्यक्तिगत भावशवणता ओर इस विचार से 
किसी सावेभोम अनुभूति को चोतक चह नहीं बन सकता । 

परन्तु मिश्रित संप्रदाय एक अन्य अ्रकार का भी होता है जो किसी 
च्यक्ति-विशेष की कृति न होकर, विकास केहलानेवाले सामाजिक नियम- 


-ननिक- मननननानीननील कल... जाना थ० 2 आधििनतीडजिलना--+34औन्‍नानानतनलनन+ भर 








अल -4_4ब० ० कमल .०3 नानी सनतकता निकलना मन 


मे गऊ बच्छ का जान गहि, दूध रहे ल्‍यो लाइ। 
सीग पूछ पग परिहरे, अस्तन लागे घाइ ॥१५॥। 
दाहू दयाल की बानी भा० १, पृ० १४७) 


|; 
। 
| 


३०४ 'हिन्दी काव्य में निर्गण संप्रदाय 


द्वारा, कालक्रमानुसार धोरे-घीरे, स्वय निर्मित हुआ करता है ।' निगण 
मत ऐसे ही मिश्रित संग्रदाय का परिणाम स्वरूप हे ओर इसी दृष्टि से 
यह एक मिश्रित सप्रदाय कहा भी जा सकता हैं| निगंण पंथ के निर्माण 
में परिणत होनेवाल्ी क्रिया केवज्ञ कुछ वर्षो ही तक नहीं चल्ली थी और 
न इसका अत कुछ लोगों के जीवन-काल की अवधि में ही हुआ था, 
इसका स्वरूप अनेक युगों से निरंतर चले आनेवाली किसी एक विशेष 
भ्रक्रिया-ह्वारा निर्मित हुआ था। इस प्रक्रिया का प्रारंभ एक ओर जहाँ 
ढाई सहस्त्र वर्षों से पहले, अर्थात्‌ इंसा के पूथ चोथी शताब्दी के पहले 
एकाँतिक धर्म वा एकनिष्ठ भक्ति सें हुआ था, वहाँ दूसरी ओर उस बोद्ध 


धर्म के अंतर्गत भी कहा जा सकता है जो उससे किसी प्रकार कम 
प्राचीन नहीं था । 


इस पुष्तक के प्रथम अध्याय में मैंने स्वामी रामानन्द के समय तक 
एकॉतिक धर्म के विकास की चर्चा की है। परन्तु इसी बीच में इस शुद्ध 
व सरल मत में भी अनेक प्रकार के परिवर्तन होने लगे थे | उपनिषदों 
के उपदेश इसमें सम्मिलित हीते जा रहे थे ओर श्रीमद्धागवत के समय 
तक आते-आते जो प्राय; गुप्त काल सें रखा जाता हैं, यह एक ऐसे श्रत्यंत' 
जटिल अद्वेतवाद का दाशंनिक रूप अहण कर लेता है जिसमें ईश्वरचाद 
की भावना का भी परित्याग नहीं होता | परन्तु जब ओपनिषदिक 
सिद्धान्तों का अथ शह्ूराचाय-द्वारा एंक नवीन ढंग से लगाया गया और 
जिसे हृेश्वरवाद के प्रति उपेक्षा का भाव सा प्रकट होने के कारण ग्रच्छुन्न 
बौद्ध धर्म तक कहा गया तो शहर के केवलाह्वेत के विरुद्ध वेष्णव-सप्रदाय 
अपने विशिष्टाह्नेत, भेदा-सेद एवं दाशंनिकवादों को लेकर उठ खड़ा हुआ। 
फिर भी शब्ूडराचाय के मत का प्रभाव स्वसाधारण के विचारों पर पड़े 
बिना नहीं रह सका और, अन्त में, इसका प्रवेश वेष्णव-संम्प्रदाय में भी 
हो गया । महाराष्टू प्रांत के अन्तर्गत मुकंद्राज ने अपनी पुस्तक “विवेक 
सागर”? की रचना, बारहवीं शताब्दी हेस्‍वी में मराठी भाषा में की और 


पंचम अध्याय द्र्०४ 


उस ग्रन्क में उन्होंने वेदांत के अह्वेववाद का ग्रतिपौदन किया । सन्‌ 
9२६० में्ज्ञानदेव ने भगवद्गीता पर अपना पूर्णतः: अह्वतवादी 
भाष्य रचा । उत्तरी सारत में अह्वेंत एवं विशिष्टाह्न त ने अपनी कहुता का 
परित्याग किया और स्कामी रामानन्द के अठ्वेतचादी गुरु ने अपने योग्य 
शिष्य को उस विशिष्टाह्वेती राघवानन्द के सिपुर्द कर दिया जिन्होंने 
उक्त बालक की रक्षा अपने योगबल की सहायता से की थी । गुरु के इस 
परिवर्तन का प्रभाव ऐसा नहीं पडा कि जिसस अपने युवाकाल्न में 
अध्ययन किये हुए दाशनिक सिद्धान्तों से किसी प्रकार का संवर्ष उपस्थित 
हो जाता । जान पछता है कि वेष्णव-भक्ति को उन्होंने इस प्रकार अप- 
नाया कि वह शड्डराचार्य के अ्रद्वेतमत सें भी खप सकी । अपने घमगुरू 
के संप्रदाय के साथ जो उनका विरोध चला उसका कुछ न कुछ सम्बन्ध 
उन दाशनिक प्रवृत्तियों के साथ भी रहा होगा जो उन्हें अपने सिद्धान्तों 
के कारण प्राप्त हुई थीं । इस प्रकार स्वामी रामानन्द में आकर अद्गवती 
सर्वास्मवाद का मेल शरीरधारो भगवान्‌ के प्रति उस प्रेम से भी हो गया 
जो चेष्णव सम्प्रदाय की विशेषता हे । 

उधर बोर धर्म सें भी अनेक परिवतन हुए। प्राचीन योग ने जिसका 
रूप पातअञ्ल् योगसूर्त्रां में लक्षित होता हे, बोद्ध धर्म को प्रभावित किया 
आर उसके कारण तिब्बत आदि देशों में बोद्ध योगाचार नाम की तन्त्र- 
पद्धति का अविर्भाव हुआ | यह तन्त्रपद्धति भी आगे चहकूकर निरी कामु- 
कता से प्रभावित हो, वच्चयान गे परिणत हुई और सिद्धों की परंपरा चल 
निकल्ली । उनके दुराचारों के विरोध में कुछ सिद्धों ने अपनी मूल परंपर। 
का परित्याग कर दिया और अपनी नवीन विचारधारा के अनुसार 
वीयरज्षा का प्रचार करने लगे। वच्धयानियों व सिद्धों ने इसके विपरीत 
प्रचार कर रखा था। गोरखनाथ इन प्रथक होनेवयालों सें एक श्रमुख 
व्यक्ति थे और उन्होंने उन प्रदेशों में अपने मत का प्रचार किया जिन्हें 
महाराष्ट्‌ व उत्तर प्रदेश कहते हैं । वंष्णचों ने आध्यात्मिक अनुभूति की 


३०६ हिन्दी काव्य में निगश संप्रदाय 


साधना सें योगश्यास को भी महत्व दिया था इस कारण इस नवीन 
विचारधारा से वे बहुत शीघ्र प्रभावित हुएं। राघवानन्द बहुत बडे योगी 
थे जिनके लिप कहा गया ह कि उन्होंने अपने योगबर््न से रामानन्द की 
प्राणरक्ञा की थी। श्रतएवं इसमें संदेह नहीं कि शामाननद ने उनसे योर- 
साधना की भी शिक्षा ग्रहण की होगी | रामाननद भी स्वयं अपने संग्रदाय 
में एक महान्‌ योगी के रूप में विख्यात हैं ।| रामानन्द सें आकर इस 
प्रकार उक्त दोनों अ्रकार की विचारधाराओं का संगम हुआ ओर वे दोनों 
मिलकर वहाँ से कबीर सें पहुंची जहाँ की अन्य मिश्रित घाराओं ने 
सम्मिलित होकर निग शमत को उसका अंतिम स्वरूप दे डाला । 


५... 2 नामक मरीक मन के. तमनननपजानन-08०-०१७७५०नज अल ५ कजप--+५+ स्‍काकानककमाक 2 





उलकेक ताक 3क०+०-33+9७ 4. कपल नन्‍जकी वन काआ 333 जनमना+क+-कककपतके जतन.. फल अं “ला फेक सनक अतंअकतकी कप कलत. तनवकतानानक 03०३-५८ कक नन- “+-++ड ५+३५००#०%०५५५५७५७०५ ,ाा+ अल /3७३५०७५४०७०३७५५०५०३०॥, 


$ ज्ञानदेव के परिवार के साथ का उनका सम्बन्ध भी ( यदि वह्द 
ऐतिहासिक घटना हैँ तो ) उनका योगी होना सिद्ध करता हैं। 
ज्ञानदेव का जन्म एक नाथपंथी परिवार में हुआ था। उनके 
प्रपितामह व्यम्बक पंत के लिए प्रसिद्ध है कि वे स्वयं गोरखनाथ 

के शिष्य थे और उनके पितामह गोविदपत के गुरु गहनीनाथ के 
तथा उनके पिता विद्वुलपंत को स्वयं रामानन्द ने ही दीक्षा दी थी । 

यह भी संभव है कि रामानन्द एक समाज सुधारक होने के नाते 
ज्ञानदेव के परिवार के साथ संबंध रखनेवाले मान लिये गये हो । बात 
यह हैं कि विद्वुल पत संन्यास धर्म से च्युत समझे गये थे और हो सकता 
हैं कि, इस घामिक पतन की व्याख्या के प्रयास मे रामानद के नाम का 
भी उपयोग किया गया | विद्वुल पंत जब रामानंद-द्वारा वैराग्य के मार्ग 
में दीक्षित हुए थे तो रामानद से किसी समय उनकी पत्नी रुक्‍्माबाई 
से भेट हो गई थी । स्वामी रामानंद ने उन्हें कृपापृवंक अच्छी सतति 
उत्पन्न होने का आशीर्वाद दिया था और अपने वचन को पूरा करने 
के लिए उन्हें अपने शिष्यो को पुन. गाहँस्थ्य धर्म स्वीकार करने का 
आदेश भी देना पड़ा था। बिट्ठुल पत को रामानद का शिष्य मान लेने मे 


पंचम अध्याय ३०३७ 


पहला विचारधारा अर्थात्‌ पुकांतिक धरम के शअद्ठेतो सर्वात्मबाद 
तथा साकाएै भगवान्‌ के प्रति प्रदशित प्रेम ने दसरी चारा अर्थात्‌ बोद्ध 
धर्म के शब्दयोग गैरु के प्रति आत्मसमर्पण* तथा मध्यम मार्गों के 
साथ सम्मिलित हो, रामानंद के द्वारा निगंशसत में अवेश किया । 





एक ही कठिनाई कालनिणुय सम्बन्धी पड़ती है और वह अनतिक्रमणीय 
वा दुर्लघ्य हैं । विद्रलपंत का समय रामानद से बहुत पहले पड़ता हैं । 
रामानद का जन्म-सवत्‌ रामानदी लोगो के भी अनुसार ( जिनसे उस 
काल का अधिक से अधिक प्राचीन सिद्ध करने की ग्रागा की जा 
सकती हैं ) सन्‌ १२६६ ३० है | जहाँ विट्ठलपत की धर्मच्युति के अनंतर 
उनके प्रथम पूत्र का जन्म हाना लगभग सन्‌ १९६८ ई० वा उससे पाँच 
वर्ष पीछे सिद्ध होता है ( दे० 'जञानदेव वचनामृत' की 'प्रस्तावना' प० ५ 
प्रो० आर० डी० रानड लिखित ) 

+ बौद्ध तत्रपद्धत के अनुसार गुरु इस भूततल पर परमेब्वर का प्रति- 
निधि माना जाता है । तिब्बतीय लामाधरं जो बौद्ध धर्म का ही 
एक परिवतित रूप है 'गुरुधर्म' है और लामा शब्द का ग्रथ भी 
गुरु ही होता हें। गृरु के लिए यही महत्व हम गोरखनाथियों में 
भी पाते है और वही से रामानंद के द्वारा गोरखनाथियो के प्रभाव 
में कुछ और भी अधिक आ जाने के कारण इसका प्रवेज् निर्भण- 
मत में भी हो जाता हैं । हिन्दू भी गृरु के विषय में लगभग उसी 
भाव के साथ कथन करते है किन्तु थे इसे केवल भ्रथवाद समभते 
हैँ और योगियो वा निर्गणियों को भांति उसे शब्दश. नही मानते । 

| महायान, योगाचार तथा गोरखनाथपंथ सभी मध्यम मार्ग स्वीकार 
करते है । गोरखनाथी इसके लिए उस बौद्धमत के ही ऋरणी हैं 
जिससे वे पृथक्‌ हुए थे। गोरखनाथ ने स्पष्ट शब्दों में कहा हैं 
“खाए भी मरिए अ्रनखाए भी मरिए । गोरख कहे पूता संजमिही 


१८८ ' हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


खेद की बात है कि निगेणमत पर पड़े हुए रासानंद के शरैभाव को 
पूणुत; स्वीकार नहीं क्रिया जाता | बहुत सी घारणाए जिन्हें हम आज 
कबीर के नाम से प्रचलित पाते हैं उनका पूर्वाभास्र रामानंद के प्रायः 
सभी शिष्यों में मिलता है। पीपा, रेदास, सेन और धन्ना के जो पद हमें 
भिन्न-भिन्न केंद्रों से उपलब्ध होते हैं उनमें कबोर ले भिन्न भावों की 
अभिव्यक्ति नहीं दीख पड़ती । यदि वे रचनाएं कबीर की ही कही गई 
होतीं ओर उनकी नहीं समझी जातीं जिन्होंने उन्हें वास्तव में लिखी 
हैं तो हमें उनके कबीर की ही कृति होने सें किसी सदेह को प्रश्नय देने 
की आवश्यकता न होती । शिष्यों सें ऐसी विचित्र समानता का कारण 
हूँ दने के क्षिए हमें उनके मूल स्रोत गुरु की ओर ही दृष्टिपात करना 
होता है । 
निगेशमत के अंतिम स्वरूप की केवल वे हो विशेषताएँ रामानंद 
की ओर से नहीं मिल्लीं जो या तो अवतारों तथा मूर्तियों के विरुद्द थीं 
अथवा जिनका सम्बन्ध दाम्पत्य भाव के रूपक से था। इनसे से 
प्रथम का मूल कारण इस्ज्ामघर्म था जसा कि पहले ही देग्व चुके हैं 
और दूसरा सूफ़ीवाद की ओर से आया था जेंसा कि हम आगे के 
झाध्याय सें पायंगे । 
(( इस अकरार हम देखते हैं कि निगशमत के मूल खोत का पता चाहे 
हम जिस किसी प्रकार भी लगाना चाहें, सबसे अधिक उस चष्णव सप्र- 
तरिए ॥ मधि निरतर कीजे वास | दृढ हू मन॒वा थिर हछ्व॑ सास 
( सबदी १४४ पौड़ी हस्तलेख » भ्र्थात्‌ भोजन करने पर भी मृत्यु 
होती है और न करने पर भी होती है। गोरख कहते हैं कि सयम 
द्वारा ही मक्ति निदिचत हूं । मध्य का आश्रय ग्रहण करो तभी 
तुम्हारा मन दुढ होगा और तुम्हारा इवास भी नियमित रूप से 
चलेगा । 


पंचस अध्याय ३०६ 


दाय से सिज्षता है जो इससे अत्यंत निकट था और इसको केवल कुछ 
ही बातों के लिए हमें इस्लामी तथा सूफी स्रोतों की ओर ध्यान देना 
पड़ता हैं 

निर्गेश मत सें वैष्णव संप्रदाय की ही भाँति उन वाममार्गी शाक्त- 
तांत्रिकों के भाव भी लत्तित होते हैं जो मद्य, मांस एवं ख्रीआदि का 
उपभोग करने को अंतिम सिद्धि का साधन माना करते है । कबीर ने 
शाक्त को एक सोया हुआ कुत्ता कहा हैं, उनका कहना है कि “कुत्तों के 
सामने स्मघूतियों का पाठ करने से क्या जाभ ओर एक शाक्त के सामने 
हरि का गुणगान करने से क्‍या लाभ १ शाक्त ओर कुत्ता दोनों भाई 
भाई है, एक सोया रहता है और दूसरा भूं का करता है | शाक्त को 
मर जाने दो और उस संत को ही जीवित रहने दो जो प्याले भर भर 
कर रामरसायन का पान किया करता है ह” 

कबीर के अनुसार शाक्त से एक सुअर भी अच्छा होता है, ' शाक्त 
से सुश्रर भत्ता है, क्योंकि वह कम से कम गाँव को स्वच्छु तो रखा 
करता है, क्रितु शाक्त अपने दुष्कर्मों से क्दी हुईं नाव पर बेठकर स्वर 
डूब सरता हे ।” 

वंष्णवों के प्रति प्रदर्शित उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा शाक्तों के प्रति 


*--साषित सुनहा दूनो भाई। वो नीदे वो भौकत जाई ॥३२१॥ 
क्‌० ग्र०, पृ० श६३ | 
का सुनहा को सुमृत सुनाये । का साकत आगे हरिगुण गाये। 
साकत मरे संत जन जीजे । भरि भरि राम रसायन पीवे ॥४३॥ 
ह वही, पूृ० १०२ क 
साकत ते सूकर भला, सुचा राख गाँव । 
बड़ा साषत बापुड़ा वेसि समरणी नाव ॥१५।॥ 
बही, पृ० ३६ ! 


3३१० हिन्दी काव्य में निगुग संप्रदाय 


प्रयुक्त उक्त कठोर शब्दों के नितांत विपरीत है । थे कहते हैं कि, 'त्ाह्मण 
होने पर भी कोई शाक्त किसी की दृष्टि मेंन पडे ओर एक चांडाल 
वैष्णव के दशशनों का सौभाग्य सब किसी को मिल्ञा करे । चांडाल 
वेष्णव को इस प्रकार गल्ले लगाना चाहिए जिस प्रकार स्वयं भगवान्‌- 
ही मिल गये हों |“ “ऊटीले बबूल के समूचे बाग के बराबर चन्दन 
का एक छोटा सा टुकड़ा हुआ करता हे और डसी पकार शाक्तों के समूचे 
नगर के बराबर वेष्णव की एक कुटिया हुआ करती है |” 

कबीर ने अपने लिए केवल दो साथियों की इच्छा प्रकट की है 
जिनसें एक वेष्णव हे ओर दूसरा स्वयं राम हे । उनके अलुसार राम 
जहाँ हमें सुक्ति प्रदान करते हे वहाँ पर वेष्णव हमें नाम का स्मरण 
करा देता है।”| 

प्रश्न होता है कि क्‍या कबीर वष्णव थे) साधारण प्रकार से 
हम कह सकते हैं कि वे वेष्णब थे, किंतु वे विष्णु वा उनके किसी 
अवतार वा मूर्ति की पूजा नहीं करते थे, उन्हें वेष्णब नाम देने के 
मूल कारण का इस प्रकार अभाव था और इसीलिए चेष्णवों के प्रति 
इतनी श्रद्धा प्रदर्शित करने पर भी उन्हें यह उपाधि नहीं दी गई। 
कबीर ने निम्नलिखित एंक दोहे के द्वारा अपने तथा एक चंष्णव के 
बीच का मुख्य अन्तर प्रकट कर दिया हे । 


और. वन 


*._>सापत बाभण जिनि मिले, वेष्णौ मिले चंडाल । 
ग्रकमाल दे भेटिए, मानो मिले गोपाल ॥१६।। 
[--चुदन की कुटकी भली, ना बबूर अँबराउँ । 
वेष्णो की छुपरी भली, ना साषत को बड़गाँउ ॥१।। 
[--मेरे संगी 6 जणा एक वेष्णौं इक राम । 
वो हैँ दाता मुक्ति का, वो सुमिराव नाम ॥२४।॥ 
प्‌ृ० ४६ । 


न. व०33. री 3. नपकनकैजलकननन कक. "४ ++ ऑसकनलामंपकककम कलम जा पक का हु] ब्कक का वक्‍्ल 


पंचस अध्याय ३२११ 


चत्रभुजा के ध्यान में; त्रजवासी सब सभ्त १ 
कबीर मगन चा रूप में, जाके भूजा अनंत ॥३६॥! 
क० ग्र०, पृ ० ६० । 

अर्थात्‌ वजमण्डछ् के भक्त चतुमजी भगवान के ही ध्यान सें मग्न 
रहते हैं, जहाँ कबीर उस रूप के ध्यान में लगा रहता है जिसकी भ्रुजाएं 
अनन्त हैं। दार्शनिक दृष्टिकोण सें इस मोलिक अन्तर के रहते हुए भी 
कबीर का वष्यवों के प्रति प्रेम व्‌ श्रद्धा प्रदर्शित करना इस बात को 
पूर्णत; स्पष्ट कर देता है कि थे उनके कितने ऋणो थे | 

परन्तु कतिपय चविह्वानों की यह धारणा ह कि वेष्णव संप्रदाय 
वा भक्तिवाद का उदय, इसकी धारा के उत्तरों भारत सें प्रवर्तित होने 
के बहुत पहले दक्षिण सें इसाई धम के प्रभाव सें हुआ था। जब 
निर्गंशमत का ही मूल खोत हसाई विचारधारा का परिणाम हो तब 
तो उसके कुछ चिह्न इसमें अचश्य मिल सकते हैं | डा० ग्रियसन को 
उत्तरी भारत के धार्मिक आन्दोलन के साथ ईसाई प्रभाव के इस दूरस्थ 
सम्बन्ध से संतोष नहीं | इसलिए डनके अनुसार “स्वयं रामानन्द ने ही 
इसाई प्रभाव के कूप से उस अभिनव जल का भरपूर पान किया था ।? 
किंतु डा० प्रियसन की भाँति,* रासानन्द के बारह शिष्यों सें अथवा 
संतों के जोतग्रसाद! एवं 'शब्द! सें क्रशः ईसा के बारह शिष्य, उसके 
सरकार भोज (५3807987]278/| 76०७०) तथा 'जोहनियन! शब्द का 
अनुकरण हू ढ निकालना भ्रमात्मक होगा | डा० कीथ ने इन धारणाओं 
का प्रतिवाद योग्यता से किया है। केवल संख्याश्रों की ही समानता 
के आधार पर किसी परिणाम तक पहुंच जाना सदा निरापद नहीं होता । 
फ्रेजर ने बतलाया हे कि, “उक्त संस्कारभोज” सर्वत्र प्रचलित धार्मिक 





क-जनल आफ दि सायल एशियाटिक सोसायटी ( १६०७ ) 
पृ० ३११-२२८ १ 


३१२ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


विधियों में से एक हे ओर इसका पता कदाचित्‌, प्राचीन वदिक कह्मकाएड 
में सी मिल सकता है ।” और शब्द! का भो “अग्मवर्ती 'वाक्‍्य' के 
सिद्धांत एवं चचन, विचार तथा सत की एकरूपतां में पाया जा 
सकता है” * वास्तव में जंसा बार्थ साहब तथा डा० कीथ ने स्वीकार 
किया है, “भक्ति का विकास भारतीय जषेत्र में स्वतंत्र रूप से हुआ था? 


/ फिर भी इस प्रश्न पर विचार करते समय पता चल्लेगा कि भक्ति 
वाद पर ईसाई प्रभाव पइने के विषय सें दो मत प्रचलित हैं । एक के 
अनुसार दक्षिण भारत सें बस गये हुए इंसाइयों के साथ “उत्साही” 
ब्राह्मणों का संघर्ष चक्ा ओर इस प्रकार उन वष्णव संप्रदायों की सृष्टि 
हो गई जिनसे उनके क्कोकप्रिय देवता कृष्ण को कुछ अधिक भव्य रूप 
प्रदान करने के लिए महान उत्सगं के सिद्धांत! का उपयोग करना 
पड़ा । दूसरे मत के अनुसार ईसाई प्रभाव को आत्मसात्‌ करने के 
लिए “उत्साही” नारद मुनि का पाश्चात्य देशों में यात्रा करना बतलाया 
जाता है। इस दूसरी कल्पना का आधार नारद मुनि की उस यात्रा में 
मिल सकता है. जो डन्‍्होंने, महाभारत के बारहव पर में दिये गये 
प्रसंगानुसार ज्ञीरसागर के श्वेतद्वीप में की थी ।/: इस दूसरे मत के 
अनुसार कृष्ण को क्राइस्ट वा ईसामसीह का प्रतिर्प मानना चाहिए । 
इसके अनुसार भक्ति मत के अंतर्गत जो कुछ भी श्रच्छी बातें हैं उनका 


अनजान भा ली अर का. अपत++. काबत.. सकता... काम पलाडस.. कट कक... हक... मा वेकभमम पासास्‍ासंत्री4/क,. करवबंधीन ७० 


* वही, प्‌० ४६४३॥। 
वही, पृ० ४६२ । 


+रे० के? एम० बनर्जी डायलाग्स श्रान हिंदू फ़िलासफी' पृ० 
प्रछतपफ । 


>(--१२ वा पर्व (इलो० १२७७६-१२७८२ ) | 


पंचम अध्याय हे ३१४ 


आधार  इंसाईमत के खोत हैं, किंतु जो कुछ बुराइयरँ हैं “डनके लि 
भारत के डी ज्ोग दोषी हैं [??* 

४ उपयुक्त दोबों ही मत आंतिमुलक धारणाओं पर आश्रित हैं । 
पहले हम प्रथम मत पर विचार करें। इस मत के अतिपादित करने- 
चालों का यह कहना निरा असत्य हे कि चेष्णव संग्रदायों का आविर्भाच 
सर्वश्रथम स्वामी रामानुज के समय में हुआ था। रामाशुज के कहे 
शताब्दी पहले से ही आडवार भक्त सारे उत्स्गों के मूलस्वरूप प्रेम- 
धर्म को अपनी अनुराग भरी भाषा द्वारा भश्रचल्षित करते आ रहे थे | 
चेष्णव लोग इनसें से कुछ आडवारों के लिए बहुत प्राचीन समय देना 
चाहते हैं । कहते हैं कि इनमें से सर्वप्रथम आडवार प्वायगइ का जन्म 
ईसा के पूर्व ४२०२ रे वर्ष सें हुआ था ।[ यद्यपि इतनी दूर तक जाने 
की आवश्यकता नहीं, किर भी वे इतने प्राचीन तो अवश्य थे कि उन पर 
इंसाई सिद्धांतों का कोड़े प्रभाव न पड सकता था | 

इंसा की प्रथम शताब्दों में की गद्टे संट टामस की भारत यात्रा, 
ऐक्टाटामा ( ७०७ (07796 ) के संदिग्ध प्रमाण पर, आश्रित है 
ओर उसका कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं । डा० बर्गेज् का सत हे 
कि, यदि कोड भी टदामस भारत सें आया होगा तो, वह उस भेन्स 

( १/७॥025 ) का शिष्य अवश्य रहा होगा जिसकी झूृत्यु लगभग सन्‌ 
२७२ में हुईं थी | शिष्यों को भारत में भेजना उक्त सेन्स की एंक बहुत 
बड़ी आकांज्ा की बात थी । उसकी एक रचना का नाम 0 शाध्ध्वांटा 
९05(॥8 ॥0 70ा4॥5' अर्थात्‌ भारतीयों के नाम एक महत्त्वपूर्ण 
पत्र! है। डा० बगल का कहना है कि भारत में आनेवाले इंसाई 


+_--वेवर “कृष्ण जन्माष्टमी ( इंडियन ऐटिक्वेरी, १८७४ ) पृ० २२५ 
व ४४-५२ । 
[--ए० गोविन्दाचाय दि झआडवास ( भूमिका, १.० ६० )॥ 





३१४ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


मिशन का अधान ऐतिहासिक परिचय हमें उन ईरानियों द्वारा मिलता है 
जो मनीची ( (६7708275 ) कहे जाते थे ।?* परतु८५ मनीची 
भी भारत में उत्साही मिशनरियों के रूप सें आ्राये हुए लहीं जान पड़ते । 
ये कठोर अ्रत्याचार के कारण अपना देश छोड़कर , भागनेवाल शरणार्थियों 
के रूप में हो आये थरे। यह तो स्वाभाविक है कि इन मनीचियों ने 
अपने मत का प्रचार इस नवीन मातृभूमि में करने का प्रयत्न अवश्य 
किया होगा। परंतु इस बात का पता नहीं चलता कि इन “ईसाई? 
विधर्मियों ने, जिन पर ईसाई देशों में भी अत्याचार किये गये थे, भारत 
की ओर कभी बढ़े भो थे। जो हो, मयलापुर की ईसाई बस्तियों के 
विषय सें जहाँ तक पता है, (और वही स्थान उपयेक्त प्रथम मत की 
प्रधान आधारशिला है तथा उसी के साथ मनीचियों का मूलत;३, संबंध 
भी रहा होगा ) “उनसें किसी ऐसी बस्ती का होना सिद्ध नहीं होता 
जिसमें किसी बड़े धार्मिक आंदोलन को' उत्तेजित करने का सामथ्य 
रहा हो ।” | 

४ ऐेकांतिक धर्म, जिसे मैने, इस पुस्तक के अथम अश्रध्याय सें, वेष्णव- 
भक्तिवाद का मूलखोत बतलाया है, इन ईसाई बस्तियों के उन अवशेष 
चिह्दों से निःसंदेह कहीं पुराना हे जिनका समय प्राचीन इतिहास के 
जानकारों ने सा की सातवीं शताब्दी में निश्चित किया है । आगे चलकर 
ऐकांतिक धस के केंद्रबिदु बन जानेवाले कृष्ण का भो समय निश्चित रूप 
से इसा को शताब्दी से प्राचीन हैं। इंडियन पेटिक्चेरी! ३८७४ ) में 
प्रकाशित एंक निबंध द्वारा डा० भांडारकर ने बतलाया हे कि ईसा के 
पूर्व दूसरी शताब्दी की रचना पतंजलि के 'महाभाष्य” में क्ष्ण की कथा 


|सलनलक ननकलतकना परत 





+....'इंडियन ऐटिक्वेरी? ( १८७४ ) पृ० ३०८-३१६ ( डा० बर्नेल 
का लेख ) । 
[--ऊकार्पेन्टर 'थीज्म इन मिडीवल इंडिया, पूृ० ५२४। 


पंचस अध्याय ३१४ 


के असंग सिलते हैं ओर उनसे पता चल्रता है कि उस समय के बहुत 
पहले कृष्ण ने कंस को मारा था तथा पतंजलि के समय सें चे एक 
देवता की भांति पूजे भी जाते थे। में यहाँ पर वहाँ से केवल दो ही 
उंदाहरण दूँगा। पतंजलि इस बात को उदाहत करते हैं कि किस प्रकार 
जब कोई घटना बहुत पहले घटी रहती है तो भी, उसका उल्लेख सभी 
कालों ( भूत, सविष्यत्‌ व वतमान ) में किया जा सकता है। जसे 
'कंस चध” को कथा का रंगमंच पर अभिनय करते समय, उपयुक्त अवसरों 
पर यह कहा जा सकता है “चलो, कंस का वध हो रहा हे?” “चलो 

कंस मारा जानेवाला है” “ज्ञान से क्‍या लाभ, कंस का चध तो हो 
चुका है??* इसके सिवाय, पाणिनि को रचना में दो सूत्र आये हैं जिनमें 
से एक के अनुसार यौगिक शब्द बनाते समय जत्रियों के नामों के 
साथ “वन! वा अक्‌? प्रत्यय लगना चाहिए और दूसरे के अनुसार 
'वासुदेव” तथा “अजन” नामों के आगे उन्हें उन व्यक्तियों के भक्त 

अनुयायी या पूजक का अथ व्यक्त करनेवाली संज्ञा बनाते समय जोड़ना 
चाहिए || वासुदेव नाम यहाँ पर एक च्त्रिय का हे ओर इसके लिए 
किसी बसे नये नियम की आवश्यकता नहीं थी । किंतु यहाँ पर पतंजलि 
का तक यह है कि यह नाम केवल एक जत्रिय का ही नहीं श्रत्युत एक 
हेश्वरीय महापुरुष का भी है ।+ हमें इस बात के लिए मेगास्थिनिज 
का भी अमाण मिलता है कि कृष्ण की पूजा हसा के पू्च चौथी शताब्दी 
में भी हो रही थी। ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में भागवत धर्म सें 
इतना सजीव आकषण था कि विदेशी तक उसे स्वीकार कर लेते थे । 


के महाभाष्य' ३-१-१२६ | 

--वही, ४-३-६६ । 

[--वही, ४-३े-९८ | 

+-+ इंडियन ऐटिक्वेरी! (१८७४) पृ० १६। 


३१६ हिन्दी काव्य में निगुण सप्रदाय 


हमें यह बात हेलियोडोरस के संबंध में दीख पड़ती है जो .र्अपने को 


भागवत कहता हैं और जिसने ईसा के पू सन्‌ १७४० में गरुदध्वज नाम 
हक कर 
का एक स्तंभ भी निर्मित क्रिया था ।* ऐकांतिक घम्ं जन धम एंवं 


बौद्ध धर्म दोनों से ही पुराना था और ये दोनों ईसाई धर्म से निःसंदेह 
प्राचीनतर थे । 

दूसरा मत हमें इस बात को स्वीकोर करने के लिए प्रेरित करता हे 
कि भारत को स्वर ऐकांतिक धर्म ही ईसाई धरम से मिला है | ऐकांतिक 
धर्म एवं कृष्ण का भो ईसा से प्राचीनतर होना ऊपर दिखलाया जा 
चुका है, किंतु यह भी तक किया जाता है कि फिर श्वेतद्वीप ( जहाँ पर 
नारद मुनि ने महाभारत के अनुसार ऐकांतिक धर्म सीखने के लिए यात्रा 
की थी ) श्वेतांग मनुष्यों का ही कोई देश रहा होगा । फिर भी महाभारत 
में दिया गया श्वेतद्वीप का वर्णन ही इस कह्पना की असत्यता सिद्ध 
कर देता है । ग्रथ के अनुसार श्वेतद्वीप कोहे काह्पनिक प्रदेश हे जहाँ 
के निवासी किसी ऐसी जाति के लोग हैं जो “साधारण पचेद्रियों से 
रहित हैं,” “जो बिना भोजन के ही जीते हैं,” जिन्हें पलक मारने को 
आवश्यकता नहीं पड़ती ओर जिनके सिर छाते के समान है तथा जिनके 
चंद्रवत्‌ प्रकाशमान शरीर कर्कशा व कठोर हैं,” में नहीं सममता कि 
पश्चिम सें कोई भी ऐस। देश है, कम से कम ईसा के जन्म के परवर्ती 
पृथ्वी पर रहा है, जहाँ के लोग ऐसे होंगे । मुझे जान पड़ता है कि उक्त 
प्रदेश आध्यात्मिक अनुभूति के उस स्थान का एक रूपक द्वारा निर्देश 
करता है जहाँ पर मुक्त आत्माओं का निवास है जो किसी साधक के सेरु 
( अर्थात्‌ सुषुम्नानाड़ी ) तक पहुँचने पर इदष्टिगोचर होने लगता है और 
जिसके साथ श्वेतवण का भी संबंध स्थापित किया जा सकता है। यदि 


पलअ सनक तक. कली 





>किस न उस कल कलअक न काना कल न+तकनन कक ७ अजब हे सके. ल्‍न्‍न्‍म हनन भमकन्‍्त, लक. अन्‍क कलभम लक पल जल कक लीक 


ऊल्यूडर्स 'इस्क्रिप्सनस्स ६६९ ( एपी० इंडिका० भा० १० अन० ) 
[--महाभारत' बारहवाँ पर्त (इलो० १२७७६-१२७८२ )। 


पंचम अध्याय ३१७ 


प्रदेश ही माना जाय तो, नारायणीयधम के प्राचीनतस 
'पीड कक का नाम, इसका पता लगाते समय, खिया जां 
उपकता है, क्‍योंकि वही हिस का श्वेतदेश वा श्वेतद्वीप भी कहा जॉ 
सकता हे | 
इस प्रकार जो बातें कबीर को वष्णव सप्रदाय द्वारा मित्री थीं 
उनमें इसाईं धर्म के प्रभाव का कोई भी चिह्े नहीं हे। यह भी नहीं 
जान पडता कि स्वयं कबीर भी कभी इसाई विचारों के संपक में आये 
थे। यदि कबीर कभी इसाई धर्म के संसर्ग में आये होते तो निश्चय ही 
वे इसे डसी प्रकार खुले हृदय से स्वीकार करते जसा एक श्रेन्य निभण 
आशणनाथ ने, इसके संपर्क में आकर आगे चलकर किया । श्राजनाथ की 
रचनाओं सें बाइबिल के साथ किसी न किसी प्रकार को ऐसा परिचय 
सूचित होता है जिसने उन्हें इस परिणाम तक पहुँचा दिया कि, यह 
सत्य केवल इसाईं धर्म के लिए ही अपवांद नहीं कि सभी धर्म मूलतः 
सत्य हैं ओर सभी का लक्ष्य भी एक ही है। इसलिए यह बात निर्विरोध 
रूप से मानी जा सकती है कि निगंण पंथ एक विभाजक धारा थी जो 
चणव संप्रदाय के खोतों से फूट निकज्नी थी ओर जिसके साथ कुछु न 
कुछ अन्य खोतों का भी जल मिश्रित होता गया था । प्रत्यक्ष हे कि ये 
दूसरे स्रोत इस्लाम घम् त सूफ़ो संप्रदाय के थे । 
अब हम उस उपयक्त अश्न को एक बार फिर भी उठा सकते हैं जिसे 
लेकर हमने आरंभ किया था--क्या निगुण पंथ कोई निश्चित संप्रदाय 
है ? वस्तुतः क्‍या कबीर फेवल एक सारग्राही धर्मोपदेशक थे १ हँमने 
देखा हे कि पंथ किस प्रकार उस विकास-परक नियम का परिशाम था 
जो बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा था । परंतु यंह विकासपरक 
नियम भी कतिपय व्यक्तियों की ही खहायता से आगे बढ़े सकता था। 
यदि प्राचीनतम ख्लोतों एवं निगलपंथ के माध्यम बननेवाले व्यक्तियों को 
हृदय सभी प्रकार के कल्याणकर प्रभावों के लिए खुला न रहा होता तो 


हे 


कक हु 3 
5६९० “हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


हंस निगुणरंथ जेसी उत्कृष्ट परपरा के अस्तित्व की आशा किरू प्रकार 
कर सकते थे ओर उस विकासपरक निथ्रम के सर्वाश्रमुख मध्यम होने 
के कारण कबीर का इसमें भाग लेना भत्नी भाँति समर्मा जा सकता है ! 
यदथात्रि कबीर को अपने सिद्धातों की अ्रनेक बारे अपने रूप में उनके. 
गुरु से मिल्नी थीं; फिर सी, क्या अपनाया जाय क्या न अपनाया जाय ९ 
का निर्णय करते समय, उन्हें अपने ही विवेक का प्रयोग करना पड़ा था। 
उन्होंने अपने गुरुद्वारा प्यप्त सभी बाते नहीं स्वीकार कीं ओर न उसी 
भाँति, उन्होंने अन्य प्रकार के प्रभावों का तिरस्कार ही किया । उन्होंने 
वे सभी बाते नहीं अपनायीं जो उन्हें विशिष्ट जान पड़ीं। सत्य एवं 
तक की उनकी एक अपनी कठोर कसोटी थी । डस परीक्षा में खरी उतर 
जाने पर कोई भी बात उन्हें मान्य थी चाहे वह किसी भी स्रोत से 
आई हो । उसमें खरी न सिद्ध होने पर कोई भी बात उन्हें त्याज्य थी 
ओर उसका थे पूर्ण विरोध करते थे । इस निष्पक्षता के ही कारण इस 
पंथ ने सब किसी को संतुष्ट किया श्र इस नियम के अपचाद केवल चे 
ह्वी व्यक्ति रहे जो किसी दूसरे के अक्लान अथवा उसके प्रति किये गये 
अन्याय से लाभ उठाते थे और जो इस प्रकार अज्ञान के ग॒त॑ में पड़े 
हुए थे । 

अतण्व, परिणाम यह निकल्नता हे--सारग्राहििता का अथथ यदि 
पधभी हितकर प्रभावों के प्रति हृदय का खुला रखना है भ्रोर उसके द्वारा 
भीतर के दोषों का निराकरण तथा बाहर के गुणों का अद्ण ही 
उसका ल्दय है, तो कबीर पूर्ण सारग्राही थे। परंतु उक्त शब्द से 
अ्रभ्मिप्राय विचित्र काल्पनिक बातों के लिए उच्चाकांज्ञापूर्वक प्रयत्न करना 
और उसके आधार पर एक नितांत नवीन कंथा सीकर तथ्यार करना हे 
( ओर मुझे भय है कि सर्वसाधारण की बोली सें सारप्राहिता का तात्पय॑ 
यही सममा भी जाता है तथा इसी अ्रथ को दृष्टि में रखकर उक्त प्रश्न 
को भी उठाया गया था ) तो, न तो कबीर ऐसे सारआही थे ओर न 


मे 


पँचम अध्याय | ३१६ 


एनिगे णपंथ ही ऐसे किन्हीं अयत्नों का परिखास था [* 'कबोर * वेदांती त्र 
चेष्णव, सर्वेत्मिवादी व परात्परवादी अथवा ब्राह्मण व सूक़ी पृथक प्रथक 
नहीं थे; वे सभी कुछ एक ही साथ थे। अंडरहिल जेसे जोगों को यदि 
जे यह व वह! प्रथक्‌ प्रैथक दीख पड़ते हैं तो उसका कारण यही हे कि 
कबीर का सत उक्त सभो प्रकार के सिद्धांतों के सार का प्रलिनिधित्व 
करत था | 
निगेणपंथ का प्रवर्तन संग्रदाय के रूप सें नहीं हुआ था , इसका 
उदय ही उस सांमदाय्रिकता के विरुद्ध हुआ था जो हिंदुओं के विरुद्ध 
मुसलमानों तथा डन दोनों धर्मों के अंतर्गत आनेवाले 
२, क्या भिन्न-भिन्न संप्रदायों को एक को दूसरे के विरुद्ध 
निगुणपंथ. लड़ते समय जाग्रत हुआ करती थी । कबीर की यह 
सांप्रदायिक है ? कभी महत्वाकांज्षा नहीं थी कि वे आचीन धर्मों को 
दबाकर उनके स्थान पर चलाये गये किसी नवीन धर्म 
के श्रवत्तक बन जायें । उनको यह मान्य था क्रि प्रत्येक धर्म, चाहे वह 
, सत्य के किसी भी अश का भ्रचारक हो, उसके पूर्ण रूप पर अधिटित 
रहता है और यदि यथार्थ रूप से अनु भरण किया जाय तो, वह इंश्वर 
की प्राप्ति में सहायक होता है । जैसा जायसी ने कहा है कि, “परमात्मा 
तक पहुँचने के लिए उतने ही मार्ग हैं जितने आकाश सें तारे तथा 
शरोर में रोए हैं??। अथवा जेसा देनिसन का कहना हैं कि “परमेश्वर 
झपनी इच्छा को पूर्ति अनेक प्रकार से किया करता हे” कबीर प्रश्न 


हिल कर कल: ० “ब गम कजतल+ ही ननत. नल ग् कड: (ली शक अीकिल 





+..अंडरहिल वन हडड पोयम्स झ्राफ़ कबीर” ( डा० रवीन्द्रनाथ 
ठाकुर ) भूमिका पृ० २ । 
[--बिधना के मारमग है तेते । सरग नखत तन रोबोँ जेते ॥ 
“-“जायसी ग्रथावली पृ० ३५३ । 


र८ हिन्दी काव्य में निमण संप्रदाय 


करते हैं. कि “यदि पश्चिक विचारपूर्वक न चला करे ओर विपथ होकर 
अंगल में जा पड़े तो, मार्ग को भत्रा क्या दोष दिया जा सकढा है ? ”* 

धर्मों क भीतर सांप्रदायिकता के कट भावों के प्रविष्ट होने के दो 
कारण हैं। प्रथम यह है कि धार्मिक संस्थाएं साधारणत" सत्य के 
पक्ष विशेष को हों अपनाथा करती हैं. और उतने भर को ही पूर्ण सत्य. 
सोन लेती! हैं । इसी कारण वे एक दूसरे के मतों का विशेध करने 
जगती हैं। इसके लिए वह इशांत उद्धत किया जा सकता हे जो 
निगरणिंयों ने बोद्ध ग्रंथों से लिया है। उसके अनुसार उक्त संस्थाएँ उन 
अंधों के समान हैं जो अपने हाथों से किसो हाथी के केवल भिन्न भिन्न 
अंगों को ही स्पश कर उसके पूरे शरीर के विपय में कल्पना कर ले। 
जिस अंधे को उसके कान' स्पश करने को मिले उसने उसका रूप किसी 
सूप के समान समझा, जिसे उसके पेर मिल्ले उसने उसे खंभे के समान 
माना, जिसने उसके शरोर को स्पशे किया उसने उसे दीवार जाना और 
जिसके हाथ उसकी सू ड पर पड़ गये उसने उसे सर्पचत्‌ अनुमान किया 
तंथा उनमें से प्र्येक अपने कथन की खत्यता को. सिद्ध करने के लिए 
लड़ने पर उतारू हों गया। दूसरा कारण यह है कि, उक्त आंशिक 
सत्य के भी ऐसी लाक्षणिक भाषा में व्यक्त किये जाने के कारण, 
जिसे उन धर्मों के अनुयायी शब्दशः मान लिया करते हैं, उसका चास्त- 
विक रहस्य उनकी आँखों से पूंत: ओमल रहा करता है ओर वे केवल 
उस कममकांड के हीं पीछे लड़ने लगते हैं जो चस्तुतः उस खूपकता का 
शव स्वरूप रहता है ओर जिससें उसका कोई सकेतमात्र सी नहीं रह जाता ॥ 


रस कक कक जनक पानी णरीपक “*पनस भकानात उ-- कक, कक कनपन औरत ऋकेलमलने >अन्कार पमाे.. ल्‍फाइाकन पलक अरमजकजक++.... फर्क निलफोबकेकन.. तकनीक, सतत... डमन्‍+ के कनफनर १०५ आफकके फल जनरल हे >रसमनिनाक सह रेननीनन- पकाक पमनका छत. कल. (मम 7-,स+ालअार कल कलंक अंक नमक जातक 


*.राह बिचारी क्या कर, पंथिन चले विचारि 
मापन मारगं छाँड़िक फिरे उजारि उजारि।॥ बीजक' 
+--आँधरों ने द्वाथि वेखि गरो मचायों हैं। 
“- सु दर बिलास पृ० १६०। 


पचत्र अध्याय ३२१* 


परतु निगेणपंथ न तो सत्य की किसी पाश्वंगत भावना पर आश्रित 
है ओर न झह पूजन पद्धतियों वा कर्मकांड की विधियों को ही कोई 
महत्त्व देना चाहा हैे। सत्य के उसी पूणेख्ष को यह अपने लक्ष्य सें 
रखता हे जिसके विचाह से कोई भी धर्म एक दूसरे का विरोध नहीं 
करता, चरन्‌ एक दूसरे का पूरक अथवा कभी-कभी उसके साथ अभिन्न 
तक रहा करता है। इस विशेषता के कारण यह पंथ सभो धर्ता का 
सारस्वरूप कहा जाता है ।* इसी दृढ़ आधारशिला पर कबीर ने एकता 
के मद्रि की उस अचल्ल भित्ति का निर्माण किया था जो निगणपथ का 
अंतिम ध्येय हे । इस दृष्टि से थियासाफिकल आंदोलन भी निगणपंथ 
का ही एक नवीन रूप है । निगणपंथ का अनुयायी होने के लिए यह 
आवश्यक नहीं जान पड़ता ऊ#ि कोई अपने जन्मगत धर्म का परित्याग 
करे, क्‍योंकि कोई भी घमं स्वत: बुरा नहीं कहा जा सकता; उसक 
ऐसा होने के लिएं वह दृष्टिकोण उत्तरदायी ह जिससे उस पर विचार 
किया जाता है। कबीर ने कहा हे कि, “वेद था कुरान झूठे नहीं, झूठे 
तो वे हैं जो उनकी बातों पर विचार नहीं करते ४। उनके संबंध सें 
पंडितों च मुल्लाओं की धारणाएं ही उन्हें कूठा बना देंती हैं, और 
इसी विपरीत दृष्टिकोण की उपेक्षा निग्णी किया करता है। उसका कास 
धार्मिक विरोधों का साथ देना नहीं, जो सांप्रदायिक भाव रखनेवालों 
की विशेषता है । दादू कहते हैं, 'हे भाई, मेरा पथ इस अकार का है-- 
इसके भीतर कोई पक्तपात का भाव नहों, क्यांकि ६घसका आधार पूण 
एक प्‌व्वं अवर्ण हे। हम लोग किसी बाद-विवाद में नहीं पड़ते और 
संसार में सबसे न्‍्यारे भी बने रहते हैं ।?; 


अलनर>33 तनमन» «+मनतननन_तम 





*_बीजक', पृ० ४८१ व कबीर ग्रथावली , सा० ६, पृ० ३६। 
(--बेद कतेव कहेहु मत भूठा झूठा जो न विचारे। 

गुरु ग्रंथसाहब , पृ० ७२७। 
7--दादुदयाल की वानी भा० २, पद ६७ पृ० २४ । 


३२२ हिन्दो काव्य में निगुण संप्रदाय 


ग्रतएव, निगणशपंथ का सांप्रदायिकता के साथ कोइ भो साम्य्र नहीं । 
तुलना करने पर निगंणियों का मार्ग जो ज्ञान का मार्ग है, खरप्रदायिकों 
के; अंधकार व अज्ञान के माग से निर्तांत भिन्न जान पड़ेगा । मारवाद 
के दरिया साहब के शब्दों में, “मतवादी, तत्वनादी की बात नहीं समम 
पाता, सूर्य के उगने पर उल्लू के लिए अंधेरी रात आए जाती है ।??* 


परतु निगेशमत के, सांप्रदायिकता के साथ, शब्द एवं भाव दोनों के 
अनुसार विरोध होने पर भी, इससें सन्देह नहों कि बहुत से पंथ जिनका 
उदय निगणमत के बड़े-बड़े संतों के उपदेशों के आधार पर हुआ हे 
और जो उनकी स्मति को चिरस्थायी रूप देना चाद्वते हैं, वे निरे 
विधिनिर्वाइक सप्रदायों से भिन्न नहीं। यद्यपि उन सत्य के पुजारियों 
ने कमंकाड के विरुद आजीवन युद्ध किया था, फिर भी ये उनके नाम- 
धारो संप्रदाय उम्र विधिनिषेधों के प्रबल समथक हो गये हें । 


उदाहरण के लिए कबोर-पंथ को ही लीजिये | इससें प्रवेश करते 
समय सब किसी को उस पान के सुगंधित बीडे का 'परवाना! लगना 
पड़ता हे जिसपर ओस की बुंदों से 'सत्यनाम” लिखा रहता हे ओर 
परचाने के साथ हो वह मुत्यु के द्वार स होकर परलोक भो जाया 
करता हे। चोका के नाम से इसमें वंष्ण्वों की 'षोडशोपचार” साश्विक 
पूजा को स्वीकार किया जाने जगा द्वे। नानक के सिख धरम में भी 
स्वर्णमन्दिर एवं अम्गत के ताल्लाब को ( जिस कारण नगर का भी नाम 
अम्रतसर पढ़ गया है ) दिव्यता प्रदान कर दा गई है और 'अन्थ? को 
पूज्य मानकर मूर्तिपूजा का स्थान पुस्तक-पूजा को द दिया गया ह । 
माज्ञा का प्रवेश, इनसें स प्रायः सभा में है गया शोर 'नामसुमिर्त! 


फियाक, कक जब अनन्‍मनन, व ज् इल्मननत हु] का व्ममपरनारकरनललमकेशाधाकातापसककर्मड,. 


“मतवादी जान नहीं, ततवादी की बात | 
सूरज ऊगा उललुभझा गिने अंधारी रात ॥ 
'संतबानी संग्रह, भाग १, पु० १२६॥ 


पंचम अध्याय और३ 


भी केवल्न मनकों की गिनती मात्र हो गया। कई ऐसे पंथों में चर्ण- 
व्यवस्था मे स्वोकृत कर ली गई है। गरोबदास-द्वारा प्रचद्धित किये 
गये पंथ सें केवल ट्विज ही दोज्षित किये जाते हैं।। अन्‍य पंथों में 
भी सामाजिक साम्य के आदर्श के प्रति केवल मोखिक भक्ति का ही 
प्रदर्शन हुआ करता है । 

परिस्थतियों का विपरोत प्रभाव तो यहाँ तक पढ़ा है कि जिन 
विधियों के अ्वत्तकों का कभी ध्यान तक न गया होगा उन्‍हें उनके 
नामों पर प्रचलित कर दिया गया है । उदाहरण के लिए ऐसी एक विधि 
गायत्री क्रियाः कहलाती हे जिसका कोटवा के सत्तनामियों में प्रचार 
है और जिसमें मानव शरीर के मत्लों से तेयार किये गये एक सिश्रण 
के पीने का विधान हे ।[ इस प्रकार को विधियाँ उन प्रभावों का परिणाम 
हैं जो पक्षमाग-ह्वारा बाहर से घुस आईं हैं ओर जिनके विषय में हम 
आगे भो कुछ चर्चा करेंगे । जान पड़ता हे कि उक्त विधि उस अधोर- 
पंथ की देन है जिसमें ऐसी विधियाँ इस कौरण बरती जा रही हैं कि 
उनके द्वारा हम अपनो इंद्वियों को उनसे घृणित कर्म भी कराकर बिना 
उद्विग्न हुए वश में जल्ञा सके । इसमें संदेह नहीं कि इंद्वियों को शक्ति- 
हीन बनाने अथवा उन्हें बलपूवक दबाने जसे कठोर नियमों के तुल्य 
होने के कारश, यद्ट भो निर्मेशपंथ के आद्शों के प्रतिकूल है और 
इसी कारण सत्तनासमी सम्रदाय की कोटवा शाखा के प्रव्तक जगजीवन- 
दास को बानियों सें हमें इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । परन्तु 
यह बात हम राधास्वामी संप्रदाय के उस आदेश के विषय में नहीं 
कह सकते जिसमें ग्रुरुकी पीक पी जाने की व्यवस्था दी गई है ।+ 


स्पा, 





[--फर्कूहर आउट लाइन्स आफ दि रिलीजस लिटरेचर आफ इडिया' । 
पूृ० ३४४१ 
वही, प्‌ृ० डेड३ | 
+-फिर सब पीक आप पी जावे-- 
खारबरचत साग है ब० २२५॥ 





३२७ हिन्दो काव्य में निगुण संभ्रदाय 


और न उनकी उद्म विधि के सम्बन्ध सें ही कहा जा सकता है. जिसमें 
गुरु की जूडन वा उच्छिष्ट पदार्थों से बने हुए 'जोत प्रसाद””को असाद- 
बत्‌ अहण किया जाता है। इसी अरकार की एक विधि वह भी है जो 
कबीर-पथियों में प्रचलित हे जिसमें गुरु के करण घोये हुए जलन वा 
“्च्रणाम्त”ः ५ का पान किया जाता है अथवा जिसमें कहीं-कहीं वह 
जलन ही रहा करता है जिससे जीवित गुरु के स्थान पर कबीर की 
घुल्ली काल्पनिक काप्ठ पादुकाओं का ही जल रहता हे अथवा चे गोलियाँ 
रहती हैं जो इस प्रकार के चरणोदक-ह्वारा गूं थी हुई मिट्टी की बनी 
होती हैं। इन विधियों का आरम्भ गुरु को प्रदान किये गये महत्व के 
ही कारण हुआ था! गुरु का चरणोदुक, उसकी जूडन और उसका 
थूक तक पवित्र समझे जाते हैं। हाँ गुरु के व्यक्तित्व को इतना पविन्न 
माननेवाले अकेले निगण-पंथी ह नहीं हैं | 


इसी प्रकार हिमालय की पहाड़ियों के डोमों सें यह विधि प्रचत्नित 
चली आती है कि वे निरंकार के नाम पर सुश्ररों का बलिदान किया 
करते हैं ओर कहते हैं कि इस प्रथा का आरम्भ कबीर के जीवन की 
किसी पौराणिक घटना से हुआ था। इस विषय के डपाख्यान का 
सारांश यह है कि एक बार कबीर ने निरंकार के लिए एक टोकरी अन्न 
ओर दो नारियल उपहार के स्वरूप सें देना चाहा ओर निरंकार उसे 
लेने के लिए स्वयं कबोर के घर पर ल्गड़े भिखारी के भेब सें उस समय 
पहुँचे जब ये किसो संदेश के प्रचाराथ कहीं बाहर गये हुए थे | भिखारों 
ने कबीर की ख्री से भीख माँगी । किंतु उसने कहा कि मेरे घर में लिकाय 
उस एक टोकरो अन्न तथा दो नारियल के और कुछ नहीं हे, जो निरंकार 





)अकककल.. स्‍न्‍.कतन पड... करन थ कक तलानएक.. सनातन अनलानककानन शक रिकनत कल... डरमनकाका रा] रा दम कक... कक कह... फफकापोगतण,. संदरपर 


»--हिल्डुश्नों के यहाँ उस चरणोदक वा महत्व है जिसमे मूर्ति, पुरो- 
हित वा भ्रतिथि के चरण धोये जाते हे परन्तु जो श्रधिकतर' किसी 
$ 9 ० 
देवमूति” का ही चरणामृत होता है । 





पंचम अध्याय ३२५ 


के लिए पहिले से ही समर्पित कर दिया गया है। भिखारी ने उसमें से 
केवल एक» लोटे भर अन्न साँगा, किंतु उसका पात्र पूरी टोकरी के खाली 
हो जाने पर भी थहीं भर सका ओर बेचारी ख्री को दोनों नारियत्न तक 
द्वे देने पड़े। उसे इस बात का भय हुआ कि कबीर लोटने पर इस बात 
के लिए उसे मिड़केंगे । परन्तु उसे यह देखकर आश्चय हुआ कि उसका 
घर फिर अन्न से भरपूर हो गया ओर उसे निश्चय हो गया कि भिखारी 
स्वयं निरंकार के अतिरिक्त दूसरा कोई न था। वह अपनी कृतश्ञता 
प्रकट करने के लिए बाहर आयी, किंतु भिखारी तब तक लेगडाता हुआ 
चलना गया था | संयोग वश डसे दिये गये दोनों नारियल किसी अपविन्न 
स्थान पर गिर पड़े थे और वे एक सुअर तथा एक सुअरो के रूपों सें परि- 
ण॒त भी हो गये थे । उसो समय से निरंकार के लिएु सुअरों का बलिदान 
आरम्भ हो गया। 


इस उपाख्यान में हमें स्पष्ट दीख पड़ता है कि यहाँ पर जितनी 
चिंता एक अनुयायी की अपने मतप्रवर्तक के उपदेशों का अनुसरण करने 
की नहीं है उतनी हिंदू धर्मावलंबियों में से आये हुए किन्‍्हीं ऐसे कबीर- 
पंथियों की उत्कंठा है जो जन्म से ही सुसलमान कहलानेवाले व्यक्ति के 
शिष्य होने के नाते अन्य हिंदुओं-द्वारा सुसलमाव सममकर तिरस्क्ृत 
किये जाने लगे थे ओर जो अपने को हिंदू मानने के ल्षिए कोई ऐसा काय 
करना चाहते थे जो मुसलमानों की ओचित्य भावना के अतिकूल पड़ता 
हो और यह बात भी केवल इसी कारण थी कि ऐसे लोगों में डस अनु- 
भूति की कमी थी जिसके द्वारा कबीर ने हिंदुओं व मुसलमानों की 
वास्तविक एकता को समम्ताया था | 


इन संप्रदायों ने केवल हिंदुओं तथा मुसलमानों की वास्तविक 
एकता को ही नहीं मभुलाया अत्युत उन सिद्धान्तों को भी चिस्स्ट॒त कर 
दिया जिनके आधार पर स्वयं वे सब भी निर्मित हुए थे ओर इसी 
कारण वे अनेक भिन्न-भिन्न वर्गों के रूप में गिने जाने लगे | एक ही 


३२६ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


नि्गंशमत पर आश्रित होने पर भी इनसें से प्रत्येक संप्रदाय को इस 
बात के लिए कोइ न कोई चिह्न धारण करना पड़ता हे “जिससे वे 
एक दूसरे से भिन्न समझे जा सके । उदाहरण के “लिए कबीरपंथी 
अपने ललाटों पर सीधी रेखाएं धारण करते हैं, सत्तनामी अपनी कलाइय्रों 
पर धागे बाँधते हैं और सिख अपने पाँच ककारों का पालन करते हैं । 
जिनमें से 'केश” का अथे लम्बे बालों का रखना 'कंधा! से अशिप्राय 
उसपर कंघे का धारण करना, 'कटार” का अर्थ कटारी को लटकाये 
रहना, कड़ा? से कोहे का एक कड़ा पहनना तथा “'कछ? से एक जाँथिये' 
का धारण करना है, इन निगंणपंथियों में से कुछ का इस बात के लिएं' 
प्रयत्न करना कि अन्य ऐसे पंथों को पराजित करें और उनके अनु-' 
याथियों को अपनी औ्रोर आक्ृष्ट करें, उनकी इसी सांप्रदाथिक भावना 
का द्योतक है जिसे अ्रधिक्रांशत: निगुणमत पर आश्रित रहते हुए भी उन्होंने 
उस आध्यात्मिक दृष्टि को खोकर अपनाया था जिसके बलपर उनके 
पंथों के मूलप्रवर्तक इतने बड़े उदार महापुरुष हो सके थे | 

इन मूलतः आध्यात्मिक पंथों के इस अकार गिर जाने का कारण 
यह था कि इनकी आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्रों में व्यक्तिगत विशेषताओं 
का प्रवेश हो गया ओर उक्त अनुभूति को स्पष्ट करने के लिए रुपकों 
से भरी भाषा का प्रयोग करना भी आवश्यक समझा जाने ज्ञगा | यदि 
कोई मनुष्य सत्य का ज्ञान उपलब्ध करना चाहे तो अन्तिम सत्ता 
का अनुभव करमा ही पड़ेगा। बिना ऐसे अनभव के कोई भी 
आाध्यात्खिक रुपकों का रहस्य नहीं समझ; सकता। जब तक वह 
मद्दापुरुष, जिसके श्रनुसरण सें संप्रदाय उदय होता हैं, जीचित रहकर 
अलनुयायियों का नेतृत्व करता तथा उन्हें डपदेश देता है तब तक वह 
संस्था अपने आध्यात्मिक रूप में उन्नति करती जाती हे, कितु उसका 
देहांत होते ही वह उमग्रता धारण करने लगती हे | रूपकता का महत्व 
जाता रहता है और उसका स्थान शुष्क कर्मकांड लेने लगता है। 

डदाहरण के लिए कबोर के समझे जानेवाले इस वर्णन को ही 


पंचम अध्याय ३२५७ 


लीजिये--' पूर्णिमा के दिन आदि मंगल” का ग्राज़ कीजिये और 
गुरुतरणों को स्पश करके परमपद की प्राप्ति कीजिये । सबसे पहले अ्रपने 
( हृदय ) को स्कछ करके उसे चदन के लेप द्वारा ( आत्मानुभूति की 
सनोद्ृत्ति धारण कर ) पूविन्न कर ज्ञीजिये | फिर उस पर नवीन बच्ों से 
बना चंदोवा ( परमात्मा की शरण की छाया ) खड़ा कीजिये | सतयुरु 
के लिए आसन ल्गाइये | उनके चरणों को धोकर उस पर बिठा दीजिये 
( उन्हें सम्मानित कीजिये ) गजमुक्ता ( विचेक ज्ञान ) द्वारा चोंका 
दिलवाइये । उस पर घोती, नारियल व मिठाइयाँ रखिये । केले व कपूए 
भी ला रखिये। आठों प्रकार की सुर्गंधियाँ, पान व सुपारी ( प्रेम निवेदन 
का भाव ) मंगा लीजिये । कल्नशा ( शरीर ) को ईश्वरभक्ति से विभूषित 
कर वहाँ पर दीपक (ज्ञान का प्रकाश ) जलाइये | झदंग पर ताल 
दीजिये | अनाहत नाद को जाग्रत कीजिये। अन्य साधुओं के साथ कीत॑न 
कीजिये । प्राथना के अनंतर नारियल ( प्रेमोत्वत आत्मा, प्रेम स्छति 
वा सुरति ) को सुसज्जित कीजिये। उसे पुरुष के प्रति समर्पित कीजिये । 
सभी उपस्थित व्यक्ति मिलकर उसका आस्वादन कीजिये ८ उसे प्रमस्म्॒ति 
ह्वारा अनुप्राशित हो जाइये ) तभी आप की वह ( मिलन की ) भूल 
मिट सकेगी जो युगों से जगी हुईं थी, उसका स्वाद पूणरूप से क्रीजिये। 
आनंदित हृदय के साथ गुरु को प्रसन्न करने के प्रयत्न कीजिये ओर तब 
निश्चय है कि, आप को वह लोक ( ईश्वरीयपद, परमपद्‌ ) मिलेगा ।*7१? 
स्पष्ट है कि यह वेष्णव की घोडशोपचार सात्विक पूजए! के सिवाय 


हनिनिनिया एा। 


*_प्रनमासी ग्रादि जो मगल गाइए, 
सतगूरु के पद परसि परम पद पाइए । 
प्रथम मंदिर फराइ के चंदत लिपाइए, 
नूतन वस्त्र अ्रनेक चंदोव तनाइए ॥। 
तब प्रत गरु हेत असन्न बिछाइए, 
गुरु चरन पखालि तहाँ बेठाइए। 


श्स्प हन्दों ऋातय में निगंगा नप्रताय 


ओर कुछ नहीं है॥ यदि यह पद कबीर की ही रचना हे तो जिस व्यक्ति 
ने वाह्ययूजन की निंदा की थी उसने इसका अभिप्राय शब्दश३/नहीं लिया 
होगा । परन्तु उनके कबीरपंथी अलुयायियों ने इसकी «रूपकता के उस 
वास्तविक रहस्य को चिस्म्ृत कर दिया है ( ज़िसे मैने डपयक्त कोष्ठकों 
में दिये गये संकेतों के सहारे, पद के अन्तगंत स्पष्ट करने का प्रयत्न 
किया है ) ओर इसे एक निरे कर्मकांड का रूप देकर उसका शब्दश; 
पालन करना चाहा है । 

जब इस प्रकार के श्राध्यात्मिक प्रतीक, विधियों का रूप ग्रहण कर 
नीचे स्तर पर आ जाते हैं ओर परमात्मा का सार्ग एंक पंथ बन जाता हे 
तो उस समय आध्यात्मिक लितिजि पर एंक नया नक्षत्र उदय होता है 
शोर वही उन लोगों का माग-प्रदशन करने लगता हे “जिन्हें उसके 
मिलने! वी भूख रहा करतो है। फिर उसके भी चारों ओर संप्रदाय संग- 
ठित होता है जिसका पतन होने पर इस प्रकार का चक्र पूववत चलने 


ना सनक. फनननलननन. कम ला अत बन चलन मत... कमर, 


गजमोतिन की चौक सुतहाँ पुराइए, 
तापर नरियर धोति मिठाई धराइए ॥ 
केरा और कपूर बहुत विध लाइए, 
अष्ट सुगन्ध सुपारी मान मंगाइए। 
पल्‍लव कलस संँवारि सुज्योति बराइए, 
ताल मृदग बजाइ के मंगल गाइए॥ 
साधू संग ले आरति तबहि उतारिए, 
आरति करि पुति नरियर तबहि भराइए |। 
पुरुख को भोग लगाइ सखा मिलि खाइए, 
युग युग छुघधा बकाइ तो पाइ अघाइए। 
परम श्रंनदित होइत गरह मवनाइए, 
कह कबीर सतभाय सो लोक सिधाइए ॥ 
कबीर साहब की बानी, पद २२८ पृ० १८८०६ । 


पंचम अध्याय 3२६ 


लगता हे। इस प्रकार ऐसे महापुरुष के प्रयत्न जो ईश्वर के पुत्रों के दोष 
पूण तक को चस्तुत; सममता है ओर जो अपने प्रति अदशित उनकी 
भक्ति के बधन को ( जिसका असली उच्श्य उन्हें पृथक एथक न करके 
आतृभाव के एक सूत्र सें ग्रथित कर देने का है ) उनके भेदुमावों को दूर 
करने सें ही लगाता हैं, अंत में एक बेसे ही अन्य यंत्र को जन्म दे देता ' 
ह जेसे पहले से चले आ रहे थे । 

लनके साथ-साथ उनके अंधविश्वास मो चले आय जिन्हें ये धर्म 
नाम देकर अपनाते रहे। वे उन बाहरी प्रभावों से भी अपने को बचा 
सके जो निर्गंण मत के विरुद्ध पते थे ओर मानव शरीर के मलों-द्वारा 
तंयार किये गये प्रम पदाथ के पान करने की विधि का कारण सी इसी 
बात सें ढुंढार जा सकता है | 

इसके सिवाय हमें एक ओर बात स्मरण रखनी चाहिएँ । प्रत्येक 
बात का सम्बन्ध जिघस हम किसी मानव समाज के हृदय की तह को 
प्रभावित करना चाहते हैं उन भावनाओं के साथ भी रहा करता हे 
जिन्हें जनता युगों से अपनाये चल्ली आठी रहती है । वत्तमान प्रचलित 
बातों के विपरीत जाने के लिए यह आवश्यक होता है कि हम इस बात 
को भी स्पष्ट करते चल कि जो कुछु विरोध किया जा रहा है चह वस्तुत॥$ 
विरोध नहीं, चरन्‌ वस्तुस्थिति को सच्च ढंग से समझने का प्रयत्न मात्र 
है | इस प्रकार पुराने प्रतीकों को नया महत्व प्रदान करना पडता है ओर 
पुरानी बोतलों सें नवीन सुरा भरनी पड़ती है । हिंदुओं के शब्दप्रमाण 
वा श्रति की आरमाशिकता का यही रहस्य हैं। इसीलिए प्रत्येक हिंदू 
दाशंनिक नवीन सिद्धातों चा पद्धतियों का निरूपण करते समय भी, एक 
भाष्यकार के ही विनीत भाव को घारण कर लेता है और उनके लिए 
श्वति के प्राम्नाण्य का दावा करना ही उसके मत को स्थायित्व भी प्रदान 
करता है । 

इसी प्रकार यद्यपि सूफ़ीमत इस्लाम से नितांत भिन्न है, फिर भी 
डसके सिद्धांतों का स्थायी प्रभाव इस्लामी विचारधारा पर पड़ा है और 


०] प के 
३१० ड्िन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


सूफी इस समय सच सम्मति से मुसलमान फकीरों की परंपरा के अंतर्गत 
गिने जाने लगे हैं | मुस्लिम मनोवृत्ति के ऊपर इस प्रभाव के, पड़ने का 
क्रारण यह है कि अह्वे ती सर्वात्मवाद को, वे लोग इम्लाम के विरुद्ध 
होने पर सी कुरान की पंक्तियों सें दर्शा दिया करते हैं । कबीर भी इसी 
घुछिसस्मत मार्ग को ग्रहण करने हुए प्रतीत होते हैं जब वे कहते हैं कि, 
पब्रेद व कुरान झूठे नहीं हैं, झूठे वे हैं जो उन पर विचार नहीं क्रिया 
करते । *?” क्या ही अच्छा हुआ होता कि कबीर की यह मनोवृत्ति स्थायी 
रही होती ओर निर्गंण मत के लिए यह' उसी प्रकार एक विशेषता बन गड़े 
होती जिस प्रकार यह थियोसोफिस्ट की हो रही है ओर जिसके कारण 
धियोसोफिकल आन्दोलन, संसार के भिन्न भिन्न धर्मों को आतृत्व के 
एक सूत्र में बाँधने के लिए एक स्थायी शक्ति बनता जा रहा है | 

परन्तु कब्रीर ने प्रधानतः दूसरे ढंग से ही काम किया और निगेण- 
पंथ ने भी उन्हीं का अनुक्रण किया। उन्हें इन दोनों अर्थात्‌ हिन्दुरों 
व मुसलमानों तथा दूसरे धमवालों से भी काम था, इसलिए उन्होंने 
सोचा था कि अपना द्वार सब के निमित्त मुक्त रखने के लिए, उन्हें 
चाहिए कि वे सभी परस्पर विरोधी धर्मों की परंपरागत मान्यताओं का 
परित्याग कर दें। इसी आधार पर निर्गंणी सभी धर्मों से अपने लिए 
अनुयायी आक्ृष्ट कर सके थे, किंतु पंथवाले उन पर अपना अधिकार 
अधिक दिनों तक नहीं कायम रख सके ओर शीघ्र ही उन विधियों व 


आचारों के स्तर तक आ गये जिन्हें ये पहले भी अपनाया करते थे । 
इसी भाँति शीघ्र उन नये धर्मापदेशकों का भी आविर्भाव होता हैं 

जो पंथ की ही बातों का उपदेश नये नाम देकर दिया करते हैं और 

इस प्रकार वह चक्र भी चलने लगता है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी 

ओ प न श्र + 

हैं। निगंण पंथ के अन्तगत, इसी निमय के अनुसार, संप्रदायों का 


*--वंद कतेव कहहु मत भूठे, झूठा जो न विचारे । 
गुरु ग्रंथ साहब, पृ० ७२७ । 


पंचम अध्याय ३३१ 


एक जमघट सा लग गया। इन्हीं सें से कुछ के नाम कबीरपंथ, दादूपंथ, 
नानकपंथ,, कबीर शिष्य जग्गूदास द्वारा प्रवर्तित जग्गापंथ, जगजीवन- 
दास का सत्तनाश्थीएंथ, मारवाड़ी दरिया का दरिय्रापंथ, तुलसी साहब के 
अनुयायियों सें प्रचलित हाथरस का साहिदर्पंध तथा शिवदयाल का 

राधा-स्वासीपंथ हैं। अंतिम दो निगंणपंथ की बहुत आधुनिक 
शाखाएं है । 


उप्यक्त विविधपंथ, प्रथक्‌ धार्मिक संप्रदायों के रूप सें, निगेणपंथ 
के सिद्धांतों के उतने ही विरुद्ध हैं जितने वे साधारण घर्म जिनकी 
निगणियों ने भरपूर निंदा की है। इन डपदेशकां ने पहले के अवनत 
संप्रदायों का परित्याग कर नवीन पंथों की स्थापना की थी किन्तु जब 
इनमें भी अज्ञान का प्रचार बढने लगा तो इनके भी भीतर विरोध की 
अभिव्यक्ति दीख पड़ने लगी | सबसे पहली विरोध की ध्वनि तुल्लसी 
साहब की सुन पडी । यह देखकर कि नये नाम से किसी पंथ का प्रचार 
करने से भ्रम एवं अज्ञान की वृद्धि हो रहो दे उन्होंने निश्चय कर 
लिया कि में कोई भी पंथ अपने नाम न चलाऊंगा।* ओर उन्होंने 
निरगंण पंथ के अन्य अनुयायियों से भी सांप्रदायिक मनोचवृत्ति का त्याग 
करने को कहा, किन्तु देवदुविपाक से इनके अनुयायियों ने भी एक 
प्रथक्‌ संप्रराय चला दिया जिसका नास साहिबपंथ पड़ा । 


उन्होंने विविध संप्रदायों के अलुयायियों को व्यथितहृदय होकर 
समझाया कि भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी निगुणपंथ वस्तुतः 
एक ही है। “परन्तु तुम उसे समझ केसे सकोगे १ तुम तो नाम के 
आधार पर चला करते हो । पंथ का अथ वर्ग वा संप्रदाय नहीं । इसका 
सीधा सादा अर्थ “मार्ग” हे और कबीरपंथ वह मार्ग हे जिससे होकर 


कु नननिननननानत.... सन निकाला कशीण पक, 


+...- तासे तुलसी पंथ न कीना । जगत नेख भया काल अधीना ।। 
'घटरामायरण पृ० २३२ | 





ही ०82 ४.७ 
३३२ हिन्दी काव्य में नए सश्रदाय 


कबीर ने इेश्वरत्व्‌ की उपलब्धि की थी । चेल्नों की किसी परुंपरा का 
स्थापन मात्र कर देना ही पथ नहीं । यह तो वशुव्यवम्था का ही 
अन्य रूप है! 6 

कबीरपंथी महंत फूलदास से उन्होंने कल्ल था कि, “कबीर हारा 
प्रदर्शित मार्ग को तुमने सिटाकर अपने निजी मतानुसार नवीन पंथ 
चला दिया | जो कुछ कबीर ने कहा था वह आप्मा की मुक्ति के लिए 
था, किन्तु उसके स्थान पर तुमने एंक नवीन जाल बिछा दिया |”_ 
उन्होंने इस बात का स्पष्टोकरण किया कि किस प्रकार कबीर की सममी 
जानेवाली रचनाओं में बतलाये गये विधिपरक आदेशों का अभिद्राय 
सच्चे माग के प्रतिपादन का लाजणिक वशन मात्र हे। “नारियल का 
फोडना वा मौडना भौतिक मन का मारना ओर आत्मा का अपने 
ईश्वरीय सात की ओर जाग्रत होकर मुद्द जाना है। चोका का श्रथ 
पदों को केवल मुख से गाने के लिए एकत्रित होना ही नहीं है, यह 
वास्तव सें, वह प्थिति है जिसमें श्रंतःस्थित इैश्वरीय स्वरेक्‍्य की प्रति- 
ध्वनि निकलती हे । पान का बीडा वह हृदय हे जो भक्ति के रंग में 
(--सतमता बिधि एकहि जाना। नाम कही विधि झ्रानहि झाना ॥ 

तासे तुमको बक न आवे। अनि अ्रति नाम धरे विधि गावे !। 





पंथ नाम मार्ग का होई। मारग मिले पंथ है सोई।॥। 
पंथ कबीर सोई हैं भाईं। कहे कबीर जहि मारण जाई॥ 


ये नहि पंथ कहावे भाई। चेला करि सिख राह चलाई।। 
ये सब जाति पाँति कर छेखा। यासे गुरु सिख तरत न देखा ॥। 


“जही, पु० श्य व १६७। 


--येहि कबीर जो राह बताई। मन मत अपनी राहु चलाई ॥। 
वही, हम श्८ढ | 


पंचस अध्याय 3१३ 


रगा हुआ है | इसके अतिरिक्त कोड भी दूसरो बात परमात्मा को पअसन्न 
नहों कर खुकतो ।??)८ 

पतल्रकराम बानकुपंश्री. स्ले उन्होंने कहा था। “तुम नानक के 
मार्ग का अनुसरण नहीं,कर रहे हो | नानक ने तुम्हें कहा है कि तुम 
उस गुरु कः अनुसरण करो जो तुम्हें उस दूसरे वा सत्ता के एकमात्र 
पद्‌ की ओर ले जाय किन्तु इस ससय तुम ऐसे युरु के पीछे चल्न रहे 
हो जो तुम्हें ऐहिक बातों की ओर ही ्ररित करता है| चे तुम्हें आदेश 
देते हैं कि आत्मा को 'काढ़कर!ः वा निकालकर उसे 'पर साथ! वा 
परमात्मा में ल्लीन करो किन्तु तुम 'कढ़ाव” भर हलवा  असाद ) 
तयार करते हो । वे तुम्हें अम्गरत के उस तालाब में स्नान करने का 
आदेश देते हैं जिसे योगी ज्ञोग मानसरोवर कहा कहते हैं । उनका 
अभिप्राय पंजाब आंत स्थित अ्रमतसर के उस तालाब से नहीं था 
जिसकी तुम प्रशंसा किया करते हो । उन्होंने मूर्तिपूजा की निन्‍्दा की 
थी, किन्तु तुम एक बॉस के डंडे की पूजा किया करते हो ।?+ तुलसी 
साहब यहाँ पर उस मण्डे के उत्सव का उल्लेख करते हैं जिसे सिख 
लोग देहरादून में प्रतिवर्ष श्रपल के मास सें मनाते हैं । 'तुम मांस खाते 
हो, तु नानक के उपदेशों से ऐसा करना सिद्ध नहीं होता। उन्होंने 
सिखों की एक शाखा के साहेबजादा लोगों सें प्रचल्नित इस प्रणाली का 
सी घोर विरोध किया ह जिसके अनुसार वे लोग अपनी पुत्रियों को, 
उनके जन्म समय पर ही मार डालते हैं । 

तुलसी साहब के इन विरोधसूचक शब्डों से निगंशपंथ का स्वरूप 


निज णणा हट 5 । 


>-सुरति नारियर मोड़--न रियर एं से कबीर बतावे । 
मोड़त छिन पद पुरुष दिखावे-- 
चौका सोइ साजा, जहाँ शब्द अखडित गाजा । 
वही, प० २७० व १६० । 
न-जावे वाह सूरु बतलावा। तुमने याह गुरु मनन लावा" | 





कत्ल 


३३४ हिन्दी काठग में निगंण संप्रदाय 


स्पष्ट हो जाता ह और यह विदित हो जाता हैं कि उसका तात्पर्य कोई 
सकोणो सांप्रदायिक रूप कभी नहों था। किसी सीमित समाज- के सदस्य 
होने की जगह निगुणी अपना सम्बन्ध सभो के साथ “ मानते थे और 
उन्हें अपना समझते थे । दूसरों का उनके दावे,का खंडन करना उनकी 
उक्त स्थिति सें कोई अंतर नहीं लाता | वे सारे विश्व में अपने को विज्ञीन 
कर देने का दम भरते हैं ओर इस जगत में आप्मविस्तार की भावना 
लेकर चलते हैं | जब एक निगंणी कहता कि मैं न तो हिंदू हूँ और न 
सुस्जिम हो हू' तो उसका अभिप्राय यह' रहता हे कि उन दोनों में से 
एक न होने के ही कारण, वह एक अकार से दोनों हे क्‍योंकि वह दोनों 
के हो धमसबन्धी दुराग्रह से मुक्त है । कालांतर में, जब भारत में हैसाई 
धर्म का प्रवेश हुआ तो, निगणपंथ ने दोनों के ही अनुयायियां का 
'सबागत किया । पन्ना के प्राणनाथ ने जो धामी संप्रदाय के प्रवत्तक थे, 
मुसलमानों, हिंदुओं व इसाइयों की एकता की स्पष्ट शर्दा में घोषणा 
की । निर्गंणियों के मवानुपार मानव समाज को धर्म के नाम पर भिन्न 
भिन्न गो सें विभाजित करना असत्य पर आश्रित है| उसका अपना धर्म 
सभी प्रकार को वर्ग-भावना से रहित है, उसमें सच्चे धर्म के सभी मुख्य 
अंश निहित रहते हैं ओर, धार्मिक दुराग्रह को किसी रूप में न अ्रपनाने 
क्रिसी भी प्रकार के पार्थक्य की भावना को प्रश्नय न देने तथा जीवन के 
चुद्रातितद्ध अश को भी अछू ता न छोइनेवालो अपनी विशेषता के 
कारण, उसका प्रभाव सदा व्यापक व सार्वभौम हुआ करता है । 








सुरति काढ़ि पर साधे कोई, तम कढ़ाव विधि हलवे जोई । 
जागो मानसरावर राखा, बावे अम्मर सर तेहि भाखा। 
जो पंजाब अमरसर गाया, सो बावे नहीं बताया। 
इक बड़ डंड बॉस को पूजा, देखो जड़ सग लगे अबूभा। 
घट रामायण, पृ० ३५२,३५३,३६१ व ३६३ ॥ 





पृष्ठ अध्याय 
अनुभूति को अभिव्यक्ति 


आध्यात्मिक अनुभूति को अभिव्यक्ति के लिए भाषा का साधन 
यद्यपि अपर्याप्त हे और उसके अभिव्यक्त खप के अभिप्राय को पुणत; 
अवगत कर लेना भी दूसर के लिए अत्यन्त कठिन 

१. सत्य का है फिर भी उस एकमात्र सत्य के अनुभव के आनंद 
साधन को अपने भीतर छिपा न सकने के कारण उसका 
अनुभवी उसे प्रक्रट करने के प्रय॒त्नों में लग जाता है 

ओर इस प्रकार को चेष्टा में ही डसके भीतर से एक ऐसी कव्यस्रिता 
फूट निकलती है जो सत्य के रहस्य से परिचित होने की अभिलाषा सें 
डसके भीतर पठनेवालों के लिए एक डद्धारक का काम दे देती है। 
वास्तव सें सत्य की अभिव्यक्ति के लिए काव्य एक स्वाभाविक साधन 
है। आत्मद्रष्टा की अनुभूति यदि व्यक्त होना चाहे तो वह संगीत 
की ध्वनि से गुज्ित हो उठनेवाज़ काव्य के रूप में ही प्रकट होती है । 
कहते हैं कि सेटपाल किसी के साथ पदत्व्यचहार करते समय भी सत्य 
के कथन के इस एकमात्र साधन अर्थात्‌ कविता का हो अयोग करने 
लगते थे | * संस्कृत साहइत्य-शास्त्र के म्जशों ने काव्य के आनंद को 


+-.अंडरहिल दि लाइफ झाफ दि स्पिरिट ऐड दि लाइफ आफ़ टुडे ।? 
पु०४९॥ 





३३६ हिन्दों काव्य में निगुंण संप्रदाय 


बह्मानंद तुस्य, उसे 'ब्रह्मानंद सहोदर”ः कहकर स्वीकार किया है।, सम्मट 
ने जो रस की परिभाषा दी हे ओर जिसे लगभग सभी प्रधान ,साहित्यज्ञों 
ने भी अपनी दी हुई परिभाषाओ्रों का मूल आधार माना है वह भी 
जबतक हम यह न जान ले कि वह उक्त आनंद की दशा के साथ केवल 
तुलना मात्र के लिए दी गई है, एक आध्यात्मिक पुरुष के ही अ्रनुभव 
सी समझ पड़ती हैं। “४ गारादिक रसों का आस्वादन, ऐसा जान 
पड़ता है मानों वह सामने ही स्फुरित हो रहा है, हृदय में पेठता जा रहा 
है ओर शरीर के प्रत्येक अग में सम्मिलित सा होता जा रहा है। वह 
अन्य सभी विषयों को विस्मत सा करता हुआ ब्रह्मानंद सदश अनुपम 
सुख का अनुभव उपलब्ध करा देता हे और इस प्रकार एक अलौकिक 
चमत्कार का जनक बन जाता है । 


हिन्द साहित्यशास्त्र के ममज्ञों के अनुसार उच्च कोटि का काव्य 
निर्माण करने सें 'ध्यनि! एक आवश्यक उपकरण का काम देती हे । हिंदू 
साहित्यशास्त्र के भिन्न भिन्न मतों के एक सर्वांगीण पद्धति सें संश्लिष्ट 
हो जाने के पहले ध्वत्रि-सस्बन्धी मत का एक एथक्‌ संप्रदाय हो था । 
फिर सभी मतों का उक्त प्रकार से संयोग हो जाने पर भी ध्वनि किसी 
न किसी भाव अथवा रस को जाशूत करने की क्रिया-द्वारा विद्वानों को 
अधिकाधिक प्रभावित करती गई और यद्यपि एक मतविशेष के उस 
अंधविश्वास का आजकल आग्रह नहीं है कि कोई भो सत्यकाव्य बिना 
ध्वनि! के सभव नहीं फिर सी यह माना ही जाता है कि ध्वनि अच्छे 
काव्य का एक अंग है | ध्वगि को यह महत्व प्रदान करने का कारण 


रा '++>स जन 3. मनन न उरनदमन-सन पन्करनाक 3 स्‍नननरननन. फैन मन मा ९५ जम त्कमधमम 


--प्र इव परिस्फुरन हृदयमिव प्रविशन सर्वागीशमिवालिगन्‌ 
श्रन्यत्सवंसिव तिरादवबत्‌ ब्रह्मास्वादमिवानुभावयन अभ्रलौकिक 
चमत्कारकारी श्ज्भारादिकों रसः। काव्यप्रकाश, उल्लास ४, 
कारिका २७ | 


पच्च अध्याय ३३७- 


डसकी व्यूंजना शक्ति है क्‍योंकि शब्द का अर्थ इस प्रकार अपने से भिन्न 
किसी अन्य अ्यपिप्राय का द्योतक बन जाता है। शब्दों का वास्तविक मर्म 
उनके परे रहा करता हू, किन्तु फिर भी वह स्पष्ट रूप में लक्षित होता 
रहता है । “रस” के सम्कन्ध सें भी सबसे बड़ी बात यही है कि यह 
स्पष्ट श्समर सें न आकर केवल व्यंजितमान्र हुआ करत है। इसी 
प्रकार उस अनिवंचनीय आध्यात्मिक अनुभव को भी, जिसे कबीर आदि 
संतों ने बेंदांतियों की भाँति गू गे का-स्वाद बतलाया हं, केवल व्यजित 
ही किया जा सकता है। गूंगा मलुपष्य केवल संकेतसात्र कर सकता 
हैं । आध्यात्मिक अनुभूति को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति कबोर के शब्दों 
सें “उस अगस्य, असीम एवं अनुपम तत्व को देखता हे, किन्तु प्रयत्न 
करने पर भी अपने उस अनुभव को प्रकट नहीं कर सकता | मिठाई 
खा चुके हुए गृ गे व्यक्ति की भाँति चह मन ही मन असन्न द्वोता है 
ओर संकेतमात्र किया करता है ।”* दाद ने भी कहा है “कितने ही 
पारखी प्रयत्न करके थक गये, किन्तु उसका मूल्य निर्धारित नहीं कर 
सके, गूगे के गुड का स्वाद पाकर उसे प्रकट करने में सभी हरान हैं ।”” 
निगंण संभदाय के संत कवि इसी सांकेतिक भाषा में कथन किया 
करते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में पदापण करनेवाले सभी कवियों को 
सांकेतिक भाषा की ही शरण लेनी पड़ती ह | हमारे युग के दो अधान 
कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा 'यीट्स” भी इसी भाषा का प्रयोग करते 
हर (किसी मरणासन्न महिला का वर्णन करते हुए 'यीट्स” कहते हैं कि 





*-अ्विगत अकल अनूपम देख्या कहता कह्या न जाई । 
सेन करें मनही मन रहसे गृगे जानि मिठाई ।॥। 
कबीर ग्रंथावली , पृ० ६० पद ६१ 
[--केते पारिख पचि मृए कीमति कही न जाइ । 
दादू सब हेंरान है गूगे का गुड़ खाइ ॥। 
बानी, दाह 


छू] 


श्श्८ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


धजब उस रसणी-की आत्मा अपने निर्दिष्ट नृत्य अदेश को उद्ध चत्नती 
हे मेरे वाणी नहीं, किन्तु युवाकाल के स्वप्तों के बीच बनीः असंस्कृत 
भाषा था एक संकेत है जिसके द्वारा में प्रकट कर सफता हूँ कि उसे 
प्रत्यज्ध होने दो ।[” यह सांकेतिक भाषा ( प्रथवा पाश्चात्य चिहट्दानों 
के शब्दों में वा प्रतीकमयी भाषा जिससे भी ध्वनि का समानाथंक 
भाव लक्तित होता है ) ही सत्य की अभिव्यक्ति को काव्य का रूप 
प्रद[न किया करती है । 

मानव जाति के श्रस्तित्व के ल्लिए प्रतीकवाद की आवश्यकता 
पड़ती हे। मानवजीवन का सारा यंत्र ही अपनी गति के लिए उस पर 
आश्रित रहता है। धर्म का कमकॉड सम्बन्धी अंश भी चिशुद्ध प्रतीकाश्रित 
विधियों के सिवाय ओर कुछ भी नहीं । भाषा भी वस्तुत: एक ह5ती- 
कात्मक उपायमात्र है। “जीवन में प्रतीकों का काम निश्चित, सयत 
व पुनरभिव्यंजनीय बनकर उसे अपनी भाव-भरी शक्ति से भरपूर कंर 
देना होता है। पतीकों के प्रयोग-द्वारा चण्य विषय का अ्रभिप्नाय उनको 
कुछ न कुछ वा सभी विशेषताओं से ओत-प्रोत हो जता है और इस 
प्रकार उसे शान्त भाव एवं क्रिया का अंग बनकर इृष्ट परिणास के 
स्तर तक पहुँचने में सहायता मिलती है।+” परन्तु जसा हमने देख 
लिया है प्रतीकवाद की आचश्यकता सबसे अधिक आध्यात्मिक अभि- 
व्यक्ति के क्षेत्र में ही प्रतीत होती है जहाँ उसे ऐसे अत्यंत सूचम सत्य 
को भी स्पष्ट व भावपूर्ण बनाकर प्रकट करना पड़ता है, जो सर्वसाधारण 
के लिए किसी भी अन्य प्रकार से, बोधगम्य नहीं हो पाता । जीवन के 
अतस्तल तक श्रवेश पाये हुए, तथा सूक्ष्म दृष्टिवाले आत्मक्नष्टाओं 
को प्रतिभा द्वारा अनुभूत सत्य मानव जाति के डप्योग में तभी आते 
हैं जब उन्हें गहरे रंगो में रंजित एवं पूर्ण सौंदय्युक्त प्रतीकों के बने 


[--यीट्स अभ्रपान्‌ ए डाइंग लेडी सेक्‍्सन ६! 
न--ए० एन० ह्वाइटहेड 'सिम्बालिज़्म, इट्स मीनिग ऐंड इफ़ कट । 








(3३० डक 








षष्ठ अध्याय रे३&., 


रूपकों का आश्रय मिल्न जाता है। परन्तु इस सांकेतिक्‌ भाषा को सम- 
भने के पहल्न कुछ न कुछ सीखने की भी आवश्यकता पड़ती है। ऐसा 
न होने पर अतीकों का सच्चा मर्म समझने में भूल हो जाया करती है । 
ज़िस कारण अतोकवाद ग्रथाथवाद सें परिणत हो जाता है ओर उसके 
फिर चसे अनेक दोष आने लगते हैं जसे हमें कुछ सद्भावपूर्ण वेष्णव 
संप्रदायों में भी दीख रहे हैं | कबीर ने इसोलिए डपदेश किया है कि 
सांकेतिक भाषा को जो समझझ न सके उससे बातचीत सी न करो । ३८ 
साधारण काव्य के लिए भी पेसी शिक्षा को आवश्यकता पड़ती है । 
परन्तु नियणी कि को योग्यता का मूल्यांकन करने के पहल हमें 

एक अन्य बात पर भी विचार कर लेना चाहिए । वह यह ह कि ये ल्लोग 
प्रधानत; कवि नहीं थे | काव्य का कल्लात्मक खजन डनका निश्चित उद्देश्य 
न था। ऐसे कवियों से उन्हें शरुण( थी जो काव्यरचना को ही अपना 
कत्तेब्य माना करते हैं। कबीर ऐसे लोगों को अबचसरवादी कहते हैं। * 
इन्हें किसी सत्य की उपल्नव्धि नहीं हौती । कवि त्लोग कविता करते हैं 
ओर मर जाते हैं । | निगणियों के यहाँ 'काव्य काव्य के लिए! का कोई 
भी मूल्य नहीं । उनके लिए कविता एंक उद्देश्य का साधनमात्र है। चे 
सत्य के अचारक थे ओर कविता को उन्होंने सत्य के प्रचार का 
एक प्रभावपूर्ण साधन मान रखाथा | वे केवल थोडे स शिक्षितों के 
लिए ही नहीं कहते थ; उनका लक्ष्य उन सर्वलाधारण के हृदयों पर 
झधिकार करना था जो जनता के प्रधान अंग थे। थे उन तक स्थानीय 
बोलियों के ही सहारे पहुंच सकते थे । संस्कृत ओर ग्राकृत जो चरमंमंथों 

तथा काव्य के लिए भी परिष्कृत भाषाएं समझी जाती थीं उनके सामने 


५ 





>-- संतबानी संग्रह भा० १, पुृ० ४५। 
*-कविजन जोगि जटाधर चले अभ्रपती औसर सारि। 
[--कवि कवीने कविता मूये । 
“कबीर ग्रथावती , पद ३१७ पृ० १६९४५। 


३४० हिन्दो काव्य में निगुण संभ्रदाय 


उपेक्षित बन गईं, ओर भाकृत भो तो बहुत पहले से हो बोली नहीं जा 
रही थी । इनसे न तो उनके उद्देश्य की पूति होती थी ओरःन ये उनके 
लिए सुगम ही थी । न तो संत लोग इन भाषाओं क्नो जानते थे ओर 
न जनता ही इन्हें समझ पाती थी । कद्दते हैं क्रि | कबीर ने संस्कृत को 
न बहनेवाला “कूप जल! तथा देशी भाषा को प्रवाहपूण नदो का जल 
बतलाया था । जब कभी कोई संत संस्कृत की कविता करने बेठता तो 
उसके फलस्वरूप एंक विचित्र बोली को सृष्टि हो जाती जो हास्यास्पद 
बन जातो ओर जिसे नकली संस्कृत कह सकते हैं ।+ जिन स्थानीय 
भाषाओं का उन्हें दुहरी विचशता के कारण, प्रयोग करना पड़ता था वे 
भी काव्य रचना के ज्लषिएं चेसी अनुपयुक्त न थीं । 

सर्वप्रथम संत कवि के लगभग पुक शताब्दी पहले श्रमीर खुसरो ने 
मनोहर पद्मों की रचना की थी । जो हिंदी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण 
बोलियों श्रर्थात्‌ अजभाषा, श्रवधी ऐव खड़ी बोली में थे | परन्तु उन्होंने 
संभवत; गोरखनाथ का अनुसरण किया था, क्य्रोंकि उक्त पदों सें पद्मों 
में व्याकरण तथा पिंगल के नियमों की पूरी उपेक्षा के अतिरिक्त एक 
ऐसी अपनी वर्णनशेली भी दीख पड़ती है जिसके कारण वे महे से जान 
पड़ते हैं। सुन्दरदास जो कदाचित्‌ सभी निगणियों में एकमात्र शिक्षित 
व्यक्ति थे, उनकी इस साहित्यशास्त्र के ग्रति प्रदर्शित उपेक्षा के कारण 
इतने चुब्च थे कि उन्होंने विधश हो कर कह दिया था, “केवल तभी 
बोलो जब बोलने की आवश्यकता पड़े, अन्यथा मोन धारण कर बेढे 
रहो । पद्म-रचना तभी करो जब तुम्हें उन विषयों का ज्ञान हो और 


अरन्‍त« फाफः 4मल्‍कड ना नकफकत- कसम के कललमजन्‍ल+ ताक लक कब अल... वकनना कला तक... जी पा 


[-सस्कोरत हे कपजल भाषा बहता नीर । 
'मतबानी सग्रह भा० १, पृ० ६३। 
+-+करम फल फूल भोगियं, पुनि जन्म मरण । 
माला मृत पाय धाम॑ जनउ मुख खायक ॥। 
शब्दावली, भा० १,पृ० २४५॥। 


उररमकाभक «०... ववरजमीमिनामाक, 


घछ अध्याय ३२४४९ 


तुम्हारी प्रंक्तियों में तुक, छुन्द एवं अर्थ की अनुपमता झ्रा सके । गाना 
तभी गाओ*»जब तुम्हारा स्वर मधुर हो ओर कानों के सुनते ही उसे मन 
भी ग्रहण कर ले१ ऐसी बानी की रचना कभी न करनी चाहिए जिससे 
तुकमंग एवं छन्दो भंग ब्का दोष हो ओर जिसमें किसी अर्थ की भी 
अभिव्यक्ति न होती हो |%८ 

क्या ही अ्रच्छा हुआ होता यदि ये निग॒ण्गी कवि साहित्यशास्त्र को 
अधिक चिंता न करते हुए सो, केवल साधारण व्याकरण एवं पिंगल- 
संबंधी नियमों को दी जानते होते तो थोड़ी सी कलात्मकता से भी इनके 
कथनों में चमत्कार की बहुत बड़ी बृद्धि हो गई होती | अपनी चतंसान 
दशा सें उनकी भाषा कभी-कभी इतनी भद्टो दीख पड़ती हे कि जिन त्लोगों 
को काव्य एवं भाषा की चमक-दमक को एक साथ देखने का अभ्यास 
है उनके ल्लिए ये सुन्द्र नहीं जँचा करतीं । परन्तु इन आत्मद्गृष्टाओं 
के निकट हमें उनको अप्िव्यक्ति के सोंदय के लिए नहीं कितु भावना- 
सौंदय के लिए जाना उचित है। जंसा कि वित्नियम किंग्सलेंड ने कहा 
है “आत्मद्ृष्टा का अधिकार सदा भाषा परन भी रहे. फिर भी 
हमें चाहिए कि उस सत्य को ही हम अहण कर जिसे व्यक्त * करने 
का वह प्रयत्न करता रहता है ओर डसकी गूढ़तम सत्ता की अभिव्यक्ति 


>--बो लिये तो तब जब, बोलिबे की सुधि होइ , 
न तो मुख मौन गहि चुप होइ रहिये ।॥ 
जोरिये तो तब जब, जोरिबे की जाति परे , 
तुक छंद अरथ श्रनूप जामे लहिये॥ 
गाइये तो तब जब, गाइबे को कंठ होइ , 
स्रवण के सुनत ही, मन जाइ गहिये ॥। 
तुकमंग छंंदभंग, अरथ मिले न कछ , 
सुन्दर कहत ऐसी वाणी नहिं कहिये ।॥। 


संतबानी संग्रह भा० २, पृ० ११४ | 
* 


'४२ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


ऑकेंडससंपेचरकवबल पक केक." 


के लिए असमथ* भाषा पर चेसा विचर न करं । सबसे बड़े कल्लाकार के 
समान इस बात को कोई नहीं। जानता कि जिन साथनों के हारा अपनी 
कृति प्रस्तुत करनी पड़तो है वे कितने अपर्याप हें"झोर न भाषा के ' 
सवभ्र पड जानकार के अतिरिक्त इस बात को! हो कोई समम्त सकता 
है कि जिस जीवित सत्य से उसकी अन्तरात्मा अनुप्राणित है उसे भाषा 
कहाँ तक प्रकट कर सकती है !”? * 


जि गणियों में हमें न केवल भाषा की असमथथंता प्रत्युत उसके 
न्दर रूप के अति पूरी उपेज्ञा भी देखने को मिलती है । परन्तु 
उनकी बातनियों में चाशह्य सेंद्र्य का अभाव रहता है। फिर भी इसमें 
संदेह नहीं कि उनमें विषय का सोंदय बहुत कुछ रहता ही हे । वास्तव 
में उत्तम काव्य को विशेषता उसके रूप सें न होकर उसके थिषय से 
ही सम्बन्ध रखतो है। हाँ उसकी पहचान के लिएु अभ्यस्त आँखें 
होनो चाहिए | किसी सरिता के स्वाभाविक सौंदय का अनुभव 
ऊबड-खाबड पचत में अवस्थित भूलख्रोत में रहने के कारण बिना 
कष्ट उठाये नहीं हुआ करता । स्वभावत; पर्याप्त काव्यमय होने पर 
किसी भाव का ठीक-ठीक अनुवाद अ्रन्य भाषा सें नहीं किया जा 
सकता, किंतु यह मानी हुईं बात हे कि निगणी कबियों की बहुत 
सी रचनाएँ अपने मूल रूपों से अधिक सुन्दर अनुवादों में ही जान 
पड़तो हैं; कारण यह कि अनुवाद करने पर काव्य का केवल सौरभ ही 
प्राप्त नहीं होता बल्कि उसकी कथनशेक्षी का भद्दापन भी जाता रहता 
है। रचीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना “वन हंड्रे ड पोयम्स आफ कबीर” एवं 
तारादत गरोला के 'साँग्स आफ दादू” के उदाहरण इस सम्बन्ध में 
दिये जा सकते है | बात यद्द हे कि उन ल्लोगों ने परंपरागत अंधानुसरण 


| की उपेक्षा सब्त्र की ह। फिर भी उनके प्रचार-कार्य को चेसा ही महत्व 





मिलता है जितना किसी अच्छे काव्य को मिल सकता था । जो जीवन 





७७७॥७॥७॥॥७॥॥७७७७७७७७७७॥७॥॥७७॥॥७ आशा शश अल अब अत 


*....रेशनल मिस्टिसिज्म', पृ० ६५। 


पष्ठ अध्याय ने ४३ 


वे स्वयं व्यतीत करते थे उसी से उन्हें अपने प्रचारकाय की प्रेरणा मिला 
करती थो ओर उनकी कविता का चाहे जो कुछ भी मूल्य हो, वह उनके 
अन्तर्जीवन के इ्यक्तीकरण पर ही आश्रित रहा करता हैं । 
संत कवियों की बानियाँ दो शींषकों के अन्तर्गत रखी जा 
सकती हैं जिन्हें 'साखी”? व 'सबद”, कहते हैं ओर ये दोनों शब्द मूलतः 
पर्यायवाची बनकर ही व्यवह्गत होते आ्राये जान पड़ते हैं । मालिक वा 
गुरु का कथन ( शब्द ) ही परमात्मा के शब्द का साही ( साखी ) बन 
जाता है | परन्तु अब 'साखी” एवं 'सबद” काव्य-रचना के एंक निश्चित 
रूप को प्रकट करनेवाले समझते जाने लगे हैं। 'सबद! का अथ आज+ 
कल गीत वा राग समझा जाने क्रगा है ओर साखी” का अभिप्नाया 
किसी अन्य प्रकार की छुन्द्रोसयी रचना वा दोहे से है। विषय की इष्टि 
से इन» दोनों में बहुधा कुछ अन्तर भी लक्षित होता हैं। जसे सबद 
का उपयोग भीतरी तथा अनुभव आह्वाद के व्यक्तीकरण के ल्लिएं किया 
जाता है वेसे ही 'साखी” का प्रयोग देनिक जीवन में लक्षित होनेवाले 
व्यावहारिक अनुभव को स्पष्ट करने सें हुआ करता है । सूफियों की 
शब्दाचल्ञी के अनुसार 'सबद” का सम्बन्ध जहाँ कुदरत के छेंन्र से 
है वहाँ 'साखी” “हिकमत” सें काम आती हैं। 'कुदरत” की अभिव्यक्ति क्‍ 
“हक़ीक़त” ( सत्य ) के उस प्रकाश द्वारा होती ह जो मानव के भीतर , 
उसके 'वहुद' ( आनंद ) एवं 'जोक! ( उल्लास ) को दशा सें अव्यक्त रहा 
करता ह। ओर 'हिकमत” का उदय अक़्ल (बुद्धि) व हदीस (प्रमाण) को 
प्रेरणा से हुआ करता है ।* साखियों का क्षेत्र इस प्रकार जहाँ व्यचह्दार 
तक रहता हैं वहाँ सबद का लगाव आध्यात्मिक अनुभूति तक से रहा 
करता है | किंतु फिर भी ये साधारण प्रवृत्तियाँ ही हैं, इनके द्वारा उनका 
किन्हीं नपे-तुले वर्गों में विभाजित होना नहीं समझ जा सकता और कभी- 
कभी इनसे से एक दूसरे की जगह व्यवहृत हुआ देखा भी जाता है । 






हा अं मा मी 





+....गवारिफूल मारिफ' पृ० १७ । 


मेँ ए के 
३१४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रद्यय 


साखियों का सग्रह अंगों! वा अ्रध्यायों के अनुसार किया गया 
रहता हू और इनके विषय--गुरु, सुमिरन; दीनता, परचा ( अनुभूति ) 
जर्णा ( स्थिरीकरण ), लो ( जय ), पतिव्रता, चितावनी, साच, सबद, 
सूरातन ( शूरता ), दया, निंदा, हरान ( अर्थात्‌ अपने आध्यात्मिक 
अनुभव का वर्णन न कर सकने की विचशवा ) इत्यादि हुआ करते हैं। 
( इन अ्रध्यायों के विषय प्रस्तुत ग्रंथ के अन्तगत, श्रपने-अपने डचित 
स्थानों पर आ गये हैं )। किंतु सबदों का संग्रह विषयों के अनुसार, न 
हो कर उन रागों के आधार पर किया गया रहता है ( जसे रामकल्ली, 
गोदी, धनासरी, बसंत आदि ) जिनसें उनकी रचना हुई रहती है। 

हिंदी, उस चोपाई लिखने की लोकप्रिय्र शेल्ली के ल्लिए कबीर की 
ऋणी है जिसमें दोहे गंफित रहते हैं। ओर जो तुलसीदास की रचना 
शामचरित मानस, तथा मलिफमुहम्मद जायसी की “पद्माषतः में 
झपनायी गई है । उनकी 'रसेनी” नास की रचनाएँ हसी शेली में लिखी 
गई हैं | अअञश भाषा को रचनाओं सें हमें यह शेल्ली घद्टा ( चोपाई ) 
तथा दोहरा के प्रयोगों सें अवश्य दीख पड़ती है, किन्तु ह्विन्दा में यह 
सर्वप्रथम, नियमित रूप से, कबीर की रचनाओं में ही मिलती है । रमेनी 
में कई पद होते हैं । प्रत्येक पद का आरम्भ एवं अंत एक-एक दोहे से होता 
हे ओर बीच में कहे एक चौपाइयाँ रहा करती हैं । पदों की संख्या के ही 
अनुसार रमेनी कई पकार की होती है जसे द्विपदी, षट्पदी , सप्तपदी, 
झष्ठपदी, इत्यादि। विषय की दृष्टि से रमेनी सें कोई न कोई दाशनिक 
विवेचन रहा करता हैं जो बहुत कुछ दूर तक चलता है । फिर भा ऐसी 
बात नहीं कि, कबीर ने अनेक प्रकार के छुन्दों का ग्रोविषार किया था। 
उन्होंने परंपरागत छुन्दों का ही प्रयोग किया। बहुत लोग इससें विश्वास 
करते हैं, किंतु इसके लिए कोई आधार नेहीं हे । 

इन दिनों दयालबाग स्थित राधास्वामी सत्संग के श्रधान 'साहिबजी' 
ने, निगणियों की साखी, सबद व रमेनो लिखने की साधारण परिपाटी 
का परित्याग कर तथा मतप्रचार के लिए. नाटक को अधिक उपयुक्त 


पष्ठ अध्याय ३४४ 


साधन स्वीकार कर, अपनी 'स्वराज्य” नामक रचना अस्तुत की है, जिससें 
उन्होंने यह दिखलाने की चेष्टा की हैं कि राजनीतिक स्वराज की प्राप्ति 
आध्यात्मिक स्वर्भाज अथात्‌ शरीर के ऊपर आत्मा के अधिकार द्वारा ही 
संभव हो सकतों है। हाँ, संतों से, उनके संत रहते हुए ही, यह आशा 
नहीं की जा सकती कि वे नाट्यशास्त्र को दृष्टि से कोई उत्तम नाटक 
लिखने में सफल हो सफगे | 
प्रत्येक कविता में दो बातें आवश्यक हैं ,एक हृदय की खतच्ताडे ओर 
दूसरी कर्पना । आध्यात्मिक कविता पर इस दृष्टि से विचार करने पर 
५ जान पड़ेगा कि वास्तविक सौंदय वही हैँ जिसे कवि 
२, निगुणु ने अपने जीवन में स्वतंत्र अनुभव किया हैं ओर जिसे 
बानियों का वह सर्वसाधारण-ह्वारा अनुभूत क्षणस्थायी सोंदर्य के 
काव्यव्व आधार पर व्यक्त किया करता है । केवल इसी रूप में 
वह उन्हें प्रेरित कर सकता है कि थे अपने स्तर से 
ऊपर उठ । आध्यात्मिक कविता क्या वस्तुतः सभी कविताएं दुधारी 
तलवारें हुआ करती हैं । ओर उनकी बनावट ऐसी होती है कि चे दूसरों 
को तमी काट पाती हैं जब पहले अपने हथियानेयाले को ही टुकड़े टुकड़े 
किये हों, ओर इसी कारण, जिन पर अहार किया जाता हे वे उनसे 
अपने को बचा नहीं पाते । काव्य का कावध्यत्व इसी में हे कि वह अत- 
जीवन को व्यक्त करें । जिसका भाव जीवन में अनुभूत नहीं वह कविता 
कविता नहीं हो सकती | परिश्रमपू्वंक अस्तुत की गईं रचना कविता का 
बनावटी ग्रतिरूप हो सकती हैं, किंतु उसे काव्य नहीं कह सकते जीवन 
सें जितनी अधिक गंभीरता होगी उतना ही सरल व स्वच्छु उसका 
ब्यक्षोकरण भी होगा। और उसी के अशुसार उसे सच्चा काव्य भी 
कहेंगे | 
निगणी संतों का वह अनुभव जो उनकी सत्ता के अंतर्गत ओत- 
प्रोत है ओर जो उनके भावों के निम्न स्तर तक को भी शलुप्राणित 
करता रहता है ऐसी धार है जो उक्त हथियानेवाले पर वार करती हे 


३४६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


ओर दूसरी घार उनकी वे प्रतीकात्मक कल्पना८ हैं जो या तो साधारण 
जीवन से ली गई होने के कारण किसी प्राचीन युग की भावपूर्ण मधुर 
स्मृतियों को जाग्रत करती हैं अथवा ऐसी होती हैं जो काव्य के 
परम्परागत श्रयोगों में से आये होने के कारण कई पीढ़ियों से दुहराह 
गईे रहती हैं जिसके कारण उनका सनोमोहक प्रभाव सबके हृदय- 
क्षेत्र पर अनायास पड़ जाता है और उनके न जानने पर भी वे डनके 
मानसिक व्यापपरारों का अंग बनकर उन्हें चोट पहुँचाये बिना नहीं 
रहतीं। पहली धार जहाँ ऐसी कविता को प्रवाह प्रदान करती है 
वहाँ दूसरी उसे ५रभाव से युक्त कर देती है। 

पहले के उदाहरण में दादू का चह भावपूर्ण कथन दिया जा 
सकता है जिसे उन्‍होंने अपने उक्त प्रेम-भरे गीतों के सम्बन्ध में 
किया है श्रोर जो निरंण काव्य के विषय में भी ज्ञागू हो सकता है। 
उनका कहना है कि “अपने प्रेमपात्र से मिलने की तीधव्र अभिलाषा 
जागत होने पर मेरे भीतर से रात-दिन गीत अपने आप निकल 
पड़ते हैं और में अपनी पीर को गानेवाले पत्ती की भाँति व्यक्त 
करने लगता हूँ ।?&& 

यह आप से आप हो जाने की प्रवृत्ति ही---यह' दुख;रहित हो जाने 
की स्थिति, जो बिना इच्छा के वा वस्तुतः बिना दुःखरहित हुए भी प्राप्त 
हो जाती हे--सभी प्रकार की सत्कविता के ज्िए प्र रक शक्ति बना करती 
हैं। निगण काव्य में वह सावधानी नहीं दीखती जो किसी भी लिखित 
रचना के लिए आवश्यक है, इसमें असावधानी से की जानेवाली बात- 
चीतू का निर्वाध प्रवाह रहता हे ओर उसी अकार उसकी सभी त्रटियाँ 
भी रहा करती हैं । ऐसी कविता सचमुच बातचीत के ही रूप में होती 
$#--ऐसी प्रीति प्रेम की लागे, ज्यू पषी पीव सुणावे रे । 
त्यूं मन मेरा रहे निस वासुरि, कोइ पीवक आरि मिलावे रे॥। 

बानी, पृ० ४१७ 


घष्ठ अध्याय रह 9 


भी थी। संत लोग ऐसे प्रश्नों के उत्तर सें गा-गा कर कहा करते थे 
जो उत्सूही शिष्यों वा खोजियों की आर से किये जाते थे इसी कारण 
उनकी रचनाश्नों को बानी” वा बचन का नाम दिया जाता है। इसमें 
संदेह नहीं कि उनसूंँ भरे हुए भाव गंभीर मनन का परिणाम हुआ 
करते थे किन्तु उनके माध्यम के सम्बन्ध में हम ऐसा नहीं कह सकते। 
सनसें व्यक्त कत्ना 'कलाहीनः होती थी। साधारणत्त: उन्होंने अपनी 
रचना को कोई कृत्रिम श्रल्नंकार प्रदान करना नहीं चःहा। साहित्यिक 
कोशल्न उन्हें पसन्द नहीं था। यमक एवं छष के प्रयोग उन्होंने जान 
बूक कर अवश्य किये हैं ओर उनके द्वारा उन्‍होंने अपने डपदेशों में 
कुछ चमत्कार भी ग्रहण किया है, फिर भी उन्होंने अपनी रचनाओं को 
किन्हों अन्य अलंकारों से सुसज्जित करने की चेष्टा नहीं की चाहे उन 
सब के प्रयोग कहीं न कहीं ऐसी रचनाओं में भले ही आ गये हों ।| 
उन्हें इनकी कोई आवश्यकता न थी, क्योंकि वे उस अलोकिक प्रभाव 


(--उदाहर ण के लिए कबीर कहते है कि “वही सुरतान ( सुलतान ) 
है जो दो श्वासों ( दोनों सुरो ) को तानता ( गब्रभ्यास करता) है 
(सो सुरतान जो दोइ सुरतानें-क० ग्र० पृ० २०० ) अथवा 
“फ्रंठ ( कलमा ) को पढ़कर सच्चे ( जीव ) को मारनेवाला काजी 
( सत्कार्य करनेवाला ) भ्रकाज (बुरा कम 2 कर बेठता है 
( साँचे मारे झूठ पढ़ि काजी करे अ्रकाज-वही पृ० ४२ 2) अथवा 
“जब यह मन उस मन को ( उन्‍्मन का ) जान लेता है तब मनृष्य 
रूप के परे पहुंच जाता है” ( जब थे इनमन उनमन जाना तब 
रूप न रेष तहाँ ले जाना-वहीं पृ० १५८ ' ब्रथवा जेसा 
मलकदास ने कहा है वही पीर ( गुरु ) है जो दूसरों की पीर 
( दुःख ) को समझता हैं ( मलूक सोई पीर है जो जाने पर पीर 
संत बानी संग्रह भा० १ १० €£६ ) तुलसी साहब को इस प्रकार 
का प्रयोग करना बहुत पसंद है । 


३४८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 
अथवा अपने हृदय के स्फुरण से अ्भिभूत रहते थे जिससे सभो प्रकार 
की कल्ना को प्ररणा मिला करती है । कबीर का कहना है क्रि, “मेरा 
हंदय सकड़ों कल्नाओं के आनन्द से मग्न हो थिरकता रहता हैं ।” उन 
क्रवियों की रचनाओं में जो कुछु भो ग्रलंकार प्राया जाता हैं वह 
बलपूर्वक लाया गया नहीं रहता, वह स्वभावतः आ जाता रहता हैं । 
यदि ड्राइडन के उन शरों में कहा जाय जिनका प्रयोग उसने शेक्सपियर 
के सम्बन्ध में किया था तो कहेंगे कि, वे अपने प्रतोकों को बलपूर्चक 
नहीं लाते थे सोभाग्यवश जाते थे ।? सच्चे रहस्यद्गष्टा के लिए तो 
प्रत्येक वस्तु अपने लिए स्थित न होकर किसी परे की बस्तु के प्रतीक 
रूप सें ही विद्यमान हैं । इन रहस्यद्रष्टा सन्‍तों के सभी रूपक त॒ 
डपमाए दूनिक जीवन से सम्बन्ध श्खती हैं | अपने प्रतीकात्मक मूत्त 
वों के ७ए उन्हें कहीं दूर नहीं जाना पडता | सथना, हल चलाना, 
धु चुआना, बुन्ना व्यापार करना यात्रा करना, ऋतुओं के चक्रादि 
भी दनिक्र जीवन के व्यापार उनके काम आा जाते हैं । 
2) निगणियों को काव्यरचना-सम्बन्धी सफलता उनके रूपकात्मक 
प्रेमसंगीत, विनय तथा आनन्दोद्रेक सें देखी जाती है, वयोंकि उन्हीं 
में उनको आंतरिक अलुभूति का पता च्नता हे तथा सौंद्य, प्रेम एवं 
सत्य की न्ञयी की अभिव्यक्ति भी उन्ही में होती हे। उनमें स्वरेक्य 
है, रंग है. व गति भी है। वे प्रधानतः गीत होते हैं, उनमें गहरी 
भावुकता होती हे ओर उनकी गति सें भी एक प्रकार की दृढ़तों लकित 
होती है। सोंदर्य की ओर अपने ध्यान के सदा बने रहने पर आत्मा 
भी सुन्दर हो जाती है ओर उसकी अभिव्यक्ति उन मधुर रचरों द्वारा 
होने लगती है जिसे संगीत कहते हैं । भक्त की भावुकता तथा प्रेम के ज्षेत्र 
सें गतिशील होना! गतिमयी अभिव्यक्ति को आकर्षक बना देता है। 
सत्य की अनुभूति से एक भ्रकार की गति स्वभावत; उत्पन्न होती हे 
जो चहिमंखी न होकर अंतमखी रहा करती है जो सभी गतियों के 
मूलस्ोत प्रन्तिम शांति में विज्ञीन हो जाती हैं। फिर इसी से इस 


पष्ठ अध्य(य 5४६, 


प्रकार की कविता आध्यात्मिक विस्तार के लिए एक शक्तिशाली साधन 
भी बन ज़ाती है। संगीत के कारण श्रोता के भीतर एक प्रकार के 
तत्वगत एवं निगम्रसित स्फुरण उत्पन्न होते हैं जो उसके साथुक स्वभाव 
को केन्द्र की ओर पूजुंत: गतिशील बना देते हैं ओर हेश्वरोन्सुख 
संगीत की भावप्रवणता के कारण उसके लिए आध्यात्मिक अनुभव 
का उपलब्ध कर लेना सरत्न हो जाता है | 

परन्तु ज्योंही निगणी अध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्र से बाहर 
आता दे त्योंही वह एक निरा डपदेशक बन जाता हे। निगणकाब्य 
का एक बहुत बड्दा अंश उपदेशात्मक ही हे। कबीर के सिवाय निर्गण- 
पंथ के किसी भी अन्य संत ने नतिक प्रवचन नहीं दिये हैं जो एक 
सच्चे काव्य के अग होते हैं। केवल कबीर ने ही अपने उपदेशों कों 
सुन्दर प्रतीकों का पहनावा देकर कभी-कभी सुसज्जित किया है । अन्य 
सत, काव्य के डच्चस्तर तक पहुचकर भी कबीर में पायी जानेवाल्नीं 
प्रतीकों को विविधता प्रदर्शित नहीं कर पाते । वे लोग ्रेमात्मक शवीकों 
के अतिरिक्त केवल उन परंपरागत चेदांती रूपकों का हो अधिकतर 
प्रयोग करते हैं, जो अच्छे दृष्टांत होने पर भी स्पष्ट चित्रों की श्र थी 
में नहीं आ सकते | जेसा कहा गया है, कबीर भी सदा काव्य के 
ऊंचे स्तर तक नहीं पहुंच पाये हैं । उनके पद्यों में केचल कुछ 
ही ऐसे हैं जो अच्छी कविता के अन्तर्गत आ सकते हैं ओर 
जिनसें प्रदर्शित चित्र भी सुन्दर हैं । शेष या तो उपदेशात्मक उद्गार हैं 
आथवा योग एवं चेदांत के विविध सिद्धान्तों के रूपडों-द्वारा व्यक्त 
किये गये अंश हैं। इस प्रकार के काव्यों को हम काव्य की इष्टि से 
रूपकात्मक नहीं कह सकते | कबीर की असिद्ध उल्नट-बासियाँ भी 
अधिकतर नियमों के ही रुप में हैं । परन्त जहाँ कहीं पर वे ऐसी भावनाओं 
से ऊपर उठ गये हैं वहाँ उनका अवेश सच्चे काव्य के ज्षेच्र में हो गया 
है और ऐसी स्थिति सें वे कहपना के एक विशेष झ्लालोक से विभूषित 
जान पड़ते हे | ऐसे समय उनको कहपना के अंतर्गत एक ऐसी 


३५० हिन्दो काव्य में निगुण संप्रदाय 


विचित्र स्फृति दीख पढ़ती हे जो साधारण प्रकार की बातों 
एवं देनिक जीवन' की घटनाओं को आशत कर लेती है. जिसके 
कारण उनसें विशेष महत्व की एक चमक सी लक्षित होने लगती है। 
कबीर की अंतद ध्टि ऐसी थी कि उसको सहायता से वे प्रत्येक वस्तु 
के अंतस्तल तक पहुँचने में समर्थ हो जाते थे ओर चुद्ग से चुद्ग बातों 
व घटनाओं में सी वे महान सत्य के ऐसे प्रतिबिब देखने लगते थे जो 
साधारण व्यक्तियों के अनुभव की बात नहीं है । यहाँ पर एक रूपकात्मक 
चित्र का उदाहरण दिया जाता हे जो बहुत साधारण होने पर भी एंक 
ऊंचे सत्य का प्रतिपादन करता है “एक चींटी अपने मुंह सें चावल 
लेकर चलती थी कि उसे मार्ग सें दाल मिल्न गई । वह दोनों को नहीं 
लेजा सकती। एक को ले जाने के लिए उसे दूसरे को छोड़ना ही 
पड़ेगा ?& इस महान सत्य को हृदर्यंभम कराने का एक आकर्षक 
ढंग है, इसमें कुछ भी सदेह नहीं ओर चह' सत्य इस प्रकार है, “भोतिक 
तत्व पर आश्रित आपे के साथ. आत्मतत्व का संयोग कभी संभव नहीं 
है। उनसें से किसी एक को तिरोहित होना ही पड़ेगा; दोनों के लिए. 
कोई एक स्थान नहीं है ।|? 
उनके प्रकृति-निरीक्षण ने भी उनके कवि होने में सहायता की है! 
जिन चित्रों का निर्माण वे इनके आधार पर करते हैं. उनमें कला एवं 
उपदेश दोनों ही दृष्टियों से एक विशेष प्रकार का क्षोंद्य जल्ित होता 
है। ऊँची से ऊची शाखाओं के भी पत्तों से किसी वृक्ष को विरहित 
करनेवाले पतमड को थे उस झूप्यु का प्रतोक मानते थे जिसके लिए उच्च 
व नीच का कोई प्रश्न ही नहीं उठा करता। वे कहते हैं कि “फागुन 





$9--च्यूटी चावल ले चली बिच में मिल गई दार । 
कह कबीर दोउ ना मिले एकले दूजी डार ॥। 
सं० बा० सं०, पू० २२ | 
'-- व्लैवेदूसकी: वायस्‌ आफ साइलेस-पु० १२। 


पष्ठ अध्याय ३४१ 


मास को निकट आता हुआ देखकर जंगल मन ही मन रोने कगा। 
ऊंची शाखाओं पर लगे हुएं जो नये-नये पत्ते हैं वे भी अब क्रमश: 
पीले ही पड़ते जायेंगे! ४ इसी प्रकार उन्होंने माल्रिन द्वारा तोड़े 
जानेवाल नये-नये फूलों, का सांसारिक सुखों की क्षणिकता दिखलाने के 
लिए रूपक बाँधा हें जसे मालिन को आती हुई देखकर फूलों की कलियां 
चिल्ला उठी ओर कहने लगीं कि आज उसने फूलों को तोड़ जिया, कल्न 
हमारी भी बारो आ जायगी | + फिर 'दावानल द्वारा अधजल्ली लकड़ी 
खड़ी-खड़ी पुकार कर कह रही हैं कि कहीं लोहार के हाथों न पड़ जाऊं 
नहीं तो वह दुबारा जला देगा <? का उदाहरण देकर वे डस मलुष्य 
का चर्णन करते हैं जो सांसारिक प्र॒पंचों की आँच से दग्ध होने के कारण 
घबराकर सोचने त्रगता हैं कि कहीं झरत्यु का भो भय उपस्थित 
न हो जाय । 


यहाँ पर हम उनके कुछ ओर ऐसे उदाहरण देते हैं जिनमें उन्होंने 
जोवन की वास्तविकता की ओर निर्देश करते हुए निर्वेदुभरे भावों से 
पूर्ण चित्र सफलतापूर्वक प्रदर्शित किये हैं। वे कहते हैं कि “बढ़ई को 
आता देख कर 'वृच्च काँपने लगा? ओर कहने क्षगा कि हे पी सुस्े 





[--फागूत आवत देखकर बन रूना मन माँहि । 

ऊँची डाली पात हैँ दिन-दिन पीले थाँहि ॥। 

कृ० ग्रू०, पृ० छर 

++>मा लिन आवत देखि करि कलियाँ करी पुकार । ढ 

फूले-फूले चुनि लिए काल्हि हमारी वार ॥ 

वही, पू० ७२ । 

“--दो की दाधी लाकड़ी ठाढ़ी करे पुकार । 

मति बस पड़ौ लुहार के जाले दूजी वार ।। 


। 


वही पृ० ७३ । 


३४२ हिन्दो काव्य में निगण संप्रदाय 


अपने कटने का डर नहीं पर अब तू अपने घोंसले की ओर उड़ जा। »८” 
यहाँ पर शरीर ( बूंत़् ) अधिक अवस्था आ जाने पर आत्मा ( पक्की ) 
को सचेत कर देता है कि आती हुई रूध्यु ( काटे जाने") के जिए खेद 
न कर ब्रह्म में क्लीन हो जाने का प्रयत्न करो | पत्नी के लिए उड़कर 
अपने घोंसल में चले जाने का यही तात्पय है । 

नीचे दी हुई चेतावनी में सूर्य के प्रकाश बिना मुरम्काती हुई डस 
कमलिनी का वर्णन है जिसके चारों ओर उसे जीवन प्रदान करने- 
वाला जल भर! हुआ है, कमत्तिनी मनुष्य है, जल बल्यतस्व है क्‍योंकि 
वहो आत्मा के लिए आध्यात्मिक पोषण प्रदान करता हे ओर सूर्य 
का प्रकाश सांसारिक वेभव के लिए आया है । “हे कमलिंनी तू क्‍यों 
मुरमाई जा रही है? तेरे निकट तो तालाब का पानी भरा हुआ है ? 
जल से ही तू उत्पन्न हुई थी और उसी में रहती भी हैं; चही तरा 
घर हे । न तो तेरे नीचे किसी प्रकार की गर्मी है और न ऊपर से आग 
ही जल रहो है; तेरी लगन किससे लगी हुई है ? कबीर का कहना 
है कि जो जक्ष में मग्त हे वह मेरी समझ में मर नहीं सकता ।??& जो 
कोई एक मात्र नित्यवस्तु ब्रह्म में लीन हो गया है वह वास्तव सें 
अमर है । ओर फिर “सन्ध्या के निकट आते ही घने बादल घिर आये 
अगुश्रा जंगल में राह भूल गये शोर दुलद्विन दुलहे से दूर पढ़ गई । 


>(>-जाढी श्रावत देख करि तरवर डोलन लाग । 
हमे कटे की कुछ नहीं पंखेरू घर भाग ।। 
वही पृ० ७२ । 
$&--काहे री नलिनी तू कम्हिलानी, तेरेहि नालि सरोवर पानी ।।टेक॥ 
जल में उतपति जल में वास, जल मे नलिनी तोर निवास ॥ 
ना तलितपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु का सनि लागि॥ 
कहे कबीर जे उदिक समान, ते नहिं मुए हमारे जान ॥६४॥ 
क्र० भ्र०, पू्‌० ५ 0८ | 


इन. >०न्‍नकनहलआ परतोकान “ताकत अन्तर अजकाकभ.. थम अलिफकनलकनननरक, 


डा 


५... प्ठ आअध्चांच हर 


उसके सिर पर चोपर्ता कम्बंत पढ़ा हैं ओर चह जो कृसी एक फूल का 
भो भार सहन नहीं कर सकती थी अपनी सखियों से रो-रो कर बातें 
कर रही है। कमर्पत्न ज्यों-ज्यों भीगता जा रहा हे त्यों-त्यों वह भारी 
पड़ता जा रहा है ।”|,परमात्मा यहाँ पर दुलहा हे ओर जीवात्मा 
दुलहिन हैं, अन्चकार का आवरण माया है, अगुए पुरोहित हैं, वर्षा 
सांसारिक दुःख है और चोपरत्ता कम्बल वे कर्म हैं जिन्हें सांसारिक दुइखों 
से बचने की आशा सें जीवात्मा किया करती है, किंतु जो नष्ट होने 
की जगह निरंतर बढ़ते ही जाते हैं ओर उस जीवात्मा के द्विए भार- 
स्वरूप बन जाते हैं जो कभी अपनी मोलिक शुद्ध दशा में उनसे 
मुक्त थी । 
दाम्पत्यप्रेम जो ईश्वरीय प्रेम का स्थान ग्रहण करता है हमारे 
द्न हं कवियों को बहुत पसन्द है । वास्तव में इन प्रेमात्मक रूपकों 
। के गीतों सें ही इनके हृदय अपने को पूर्ण रूप से 
३, प्रेम का रूपक व्यक्त करते हुए जान पढ़ते हैं। ईश्वरीय प्रम का 
प्रतीक बनकर दाम्पत्यप्नस आत्मद्र॒ष्टा कवियों में 
सब कहीं अपनाया जाता आया है। अंग्रेज_कवि 'पंटमोर” ने इंसाई 
धर्म के सम्बन्ध में लिखते हुएं कहा था, “ईसा मसीह के साथ जीवात्मा 
का उनकी विवाहिता स्त्रो का सम्बन्ध द्वी उस भक्तिभाव की कुंजी है 
जिससे युक्त होकर उनके श्रति आथना, असम एवं श्रद्धा प्रदर्शित होनी 
चाहिए? मध्यकाल्ीन इसाई योगी परमात्मा के साथ प्राप्त किये गये 


५५०४४ 
जा ा७॥र॥॥७॥७॥७७७७॥७७७७॥७॥७७एशशशशआआआ४७॥७शशश्७७७७॥/श७७/७//शशशशआआ०शशााााााआा शक लक कल अल लला बल अल अल ल अलल अल  अल अमन न भला 


[--उनईइ बदरिया परिगो संझा, अगुवा भूले बच खेंड मंका ॥ 
पिय अंते धनि अंते रहई, चौपरि कामरि माथे गहई ॥ 
फुलवा भार न सहि सके, कहे सखिन सो रोय । 
ज्यों-ज्यों भीजे कामरी, त्यो-त्यों भारी होय ॥॥ 
बीजक' रमेनी १५। 
(--कवेद्री पैठमोर 'ेम्वायर्स' १, १४६ ( मिस स्पर्जन द्वारा अपनी 
फूएतक मिस्टिसिज्म इन इंग्लिश लिटरेचर', मे उद्घुत । पु० ४६ ॥) 


३४५४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


इस संयोग को ही आध्यात्मिक विवाह कहा करते थे । और साएरा का 
सारा सूफी काव्य भी इसी रूपकात्मक भावना पर आश्रित है.। 

हिंदुश्रों के लिए भी यह भावना नितांत नयी न थी / पुरुष एवं प्रकृति, 
सांख्य दर्शन के अनुसार विश्व की प्रेमभरी लीज़ा में पुरुष एंवं ख्री के ही 
प्रतीक बहुत काल से समझे जाते आये। उपनिषदे भी, जिन्हें शुष्क 
तस्वज्ञान का ग्रन्थ समझा जाता हैं, परमात्सा के साथ जीवात्मा के 
मिज्नन की तुलना दो प्र॑मियों के आलिंगन के साथ करती हैं। 
बृहदारण्यक उपनिषद्‌ सें कहा गया हे कि “जिस प्रकार कोई पुरुष अपनी 
प्रियवमा-द्वारा आर्लिगित होने पर, सभी बाहरी वा भीतरी बातों को 
एकद्स भूल जाता है, इसी प्रकार जीवात्मा भी परमात्मा के स्राथ 
संयुक्त हो जाने पर सभी बाहरी वा भीतरी बातों का ज्ञान खो देता 
हैं |*” कृष्ण की प्रेमिका गोपिकाएं वेदिक ऋचाओं की प्रतीक 
मानी जाती थीं और उनका प्रेम इतना उम्र था कि भगवान्‌ के साथ 
झ्ति निकट का संपक रखे बिना उन्हें संतोष ही न था। संत 
आंदाल ने जो एक बहुत प्राचीन आज्ञवार संत कवयित्री थी, अपने 
गीतों सें विष्णु के साथ सम्पन्न हुए अपने विवाह का स्वप्न देखा 
था। | राबिया जो एक पुरानी सूफी थी रात के समय अपने घर.की 
छूत पर च्नी जाती थी ओर कहां करती थी कि “हे भगवन्‌ अब दिन 
का कोजलाइल बद हो गया ओर प्रेमी अपनी प्रिया के साथ हैं किंतु 


अििनरनानमकननन (सन नल न एलकनकमीन तीन पल फनन सवमनना न. 





| ककल मनन उन ना जननी भरकम मानक कमर कमु३००++++नन 


+_तद्यथा प्रियया स्त्रियां से परिष्वक्तों न बाह्य किचन वेदनांतर- 
' म्ेव मेवा ये पुरुष: प्रज्ञानेनात्मना संपरिष्वक्तो न बाह्य किचन 
वेदनातरम्‌ तद्दा अस्थ एतदाप्तकामं झ्रात्मकामं अ्रकामं रूपम्‌ । 
बृह॒दारण्यक ४-३ २६ । 
[--तामील स्टडीज, पृ० ३२४, तथा कारपेटर: थीज्म । 


पृ० ३८९१ । 





षष्ठ अध्याय ३३४६ 


मैरे लिए तूही एकमात्र प्रेमी हैं ।| और यह उसकी एक प्रतिरूप 
ही थी। 'फ़ारसी भाषा के सूफ़ोी कवियों ने प्रेमगाथा को दही इंश्वरीय 
प्रेम का रूपक “बनाया ओर उसके पीछे इस परंपरा का पात्नन हिंदी 
के सूफ़ो कवियों ने भो"किया । परन्तु हिंदू कवियों ने इसे कदाचित्‌ 
तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक सूफ़रियों के संपक में आकर कबीर 
ने तथा उनके अनुयायियों ने इसे महत्व नहीं दिया । इस देखते हैं कि 
उपनिषदों का उद्देश्य जितना रूपकों के आधार पर उक्त सम्बन्ध का 
चणेंन करना नहीं था उतना अनुभूति के बल पर उसे व्यक्त करना था। 
कृष्णभक्त चष्णव कवियों के यहाँ भी मधुर भाव अथवा श्र मरस 
का महत्व देखा जाता है। संत आंदाल की हो भाँति मीराबाई 
ने भी कहा है 'सेरे लिएं तो गिरिधर गोपाक्ष के सिवाय और कोई 
मी नहीं है। मेरा पति वही है जिसके शिर पर मोरमुकुट है। +” 
परन्तु कृष्णंभक्त हिन्दीकवि कृष्ण के प्रति प्रदर्शित गोपियों के उत्कट 
प्रेम को अपने धार्मिक जीवन सें सखी भाव” के रूप में अपनाते हुए 
उसे स्वानुभूत रूप में नहीं वरन पराजुभूत ( 00]९०४ए०८ ) रूप सें ही 
वर्णन करते हुए जान पढ़ते हैं | वल्तभ संग्रदाय का सिद्धान्त हैं कि 
पुरुषोत्तम ही एकमात्र पुरुष हे और जो कोई उससे प्रेम करते हैं 
उन्हें सत्रो समझना चाहिएं।» राधावललम संग्रदाय में प्रतीकात्मक 
आवब ओर भी रूपट हो गया हैं | स्वामी हरिदास की उग्र भावुकता 
ने रूपक को नाटक एवं कमकांड का आधार बना डाला ह। इसके 
फलस्वरूप उनके द्वारा प्रचलित किये गये सख़ी वा टट्टी संप्रदाय सें 


[--एच० डबल्यू० क्लाक दि अवारिफूल मारिफ (भूमिकापु०२)॥ 
+--मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई । 
जाके सिर मोरमृकूट मेरो पति सोई। 
दब्दाक्ली, पृ० २४। 
<--दो सो बावन वेष्णवों की वार्ता, पृ० ११७ । 


है 


३५६ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


' पुरुष भक्तों को पुरुष नामों के श्रतिरिक्त कोई न कोई ख्री-नाम भी 
रखने पढ़ते हैं। फिर भी हिन्दी कविता की कृष्णमयों शाखा में भो 
मीराबाई के सिवाय अन्य किसी भी कवि सें म क्य रूपक उतना 
स्पष्ट नहीं ह । 
यद्यपि निगेण काव्य को प्रेम-सम्बन्धी रूपक सूफियों से ही मिलते 
हैं तथापि सूफी व भारतीय परंपराओं सें विशिष्ट अंतर त्क्षित होते 
हैं। फ़ारसी साहित्य में कोव्यात्मक वर्णन के तज्षिएण. साधारणत; र्री को 
रिम्माने के लिए पुरुष की ओर से किये गये प्रयत्न ही आधार बनाये 
जाते हैं, किन्तु भोरतीय साहित्य के अंतर्गत स्त्री का पुरुष के लिए 
प्रदर्शित प्रेम-चिरह अधिक विस्तार के साथ निरूपित किया जाता हैं। 
फ़ारसो में मजन्‌ लला के त्षिप आकाश-पाताक्ष एक कर देता है किन्तु 
लैला उससे उतनी प्रभावित नहीं जान पड़तो; उधर भारतोय नायिका 
सभी प्रेमकाव्य की पुस्तकों में अधिक कष्ट झेलती हुईं देखी जाती है। 
अतणएव यह उपयुक्त है कि फ़ारसी की परंपराओं का अनुसरण करने- 
वाला सुफ़ो कवि परमात्मा को पत्नी के रूप सें प्रदर्शित करे। भारतीय 
परंपरा का अनुसरण करनेवाले कबीर इसके विपरीत परमात्मा को 
पति के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि इस प्रकार प्रकट किया हुभरा 
एक व्यक्ति का प्रेम भेंट के रूप सें होता दे जहाँ परमात्मा-द्वारा अपने 
के ल्लिए प्रदर्शित प्रेम स्वभावत: दया का रूप ग्रहण कर लेता हैं। 
नेगणी के लिए चहो पकमान्र पुरुष हो ओर अन्य सभी उसी एक 
की पत्नियाँ हैं श्रोर उनका कतंव्य है कि उसे प्रसन्न करने के लिए सब 
कुछु छर | ऋद्वीर-ने कहा है, “मेंने उस एकमात्र अविनाशी स्वामी के 
साथ विवाह कर लिया है ।?”* दादू का कहना ह कि; “हम सभी कोई 
उस ऐक पति की पत्िनियाँ हैं ओर उसी के ज्िए. अ्रपना ४ गार किया 


+_-कहे कबीर हम ब्याहि चले है, पुरिष एक अविनासी । 
कबीर ग्र ०, पृ० 5५६ । 








इलल्‍लनमलपलल॥-७, 


पष्ठ अध्याय ३४५७ 


करते दें ।” नानक कहते हैं कि “सब लोग उस दकत की पत्नियां हर 
शोर उसके लिए & गार करते हैं?+ और शिवदयाल ने भी कहा हे कि 
“अब दुललहिनप्रियतम का साथ करो, तुम अपने मेके में हो और 
, वह आकाश सें है ।??+ 

प्रेम की दो दशाएँ हैं जिनसें से एक संयोग की है ओर दूसरी 
वियोग को | भारतीय साहित्यिक भाषा सें ये क्रमश; 'संयोग? व “विप्र- 
लंभः की कही जाती हैं। सूफी फकीर इन शब्दों के स्थान पर क्रमश; 
“विसाल” व 'फिराक? के प्रयोग करते हैं आओर निगंणियों ने इन्हीं को 
'मिलन” वे (विरह” नाम दिया है । निग श्यों का मिलन? पूथकत्व की 
दशा का संयोग नहीं जैसा अनेक सूफ़ियों में देखा जाता है ओर इसी 
कारण उसका विस्तृत वर्णन यहाँ नहों मिलता | चह पूणतः ल्लीन ही 
जाने का भाव है। संयोग के होते ही प्रेमी एवं प्रमपात्र की सारी 
विभिन्नताएं नष्ट हो जाती हैं और खेल समाप्त हो जाता है। यह बात 
केवल विशिष्टाह्वेती निग॒ण्थियों में नहीं पाई जाती, जो एथकृत्व की दशा 
के संयोग में विश्वास करते हैं; किंतु इन लोगों ने भी उस संयोग का 
विस्तृत विवरण नहीं दिया है। परात्पर के साथ सिलन की चाह' को 
सूचित करनेवाले “विरह” का विवरण उनके यहाँ विशद रूप सें पाया 
जाता है। इस विषय से संबंध रखनेवाली कुछ कविताएँ असाधारण 
रूप से कखित हैं. ओर उनका सौंद्य मनोहर अभिव्यक्तियों में परिस्फुट 


[--हम सब नारी एक भरतार, सब कोई तन करे सिगार । 
बानी, ( ज्ञानसागर ) पृ० २२२ । 
न--सबे कंत सहेलिया, सगलीभ्रा करहि सिगार । 
गुरु ग्रंथ साहब, पृ० २८ । 
'--दुलहिन करे पिया का संग, 
दुलहा तेरा गगन बसेरा तू बसे नेहर अंग । 
सारबचन, पूृ० ३७७ । 


३५८ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


होता है। यह सच है कि निरगेणियों की कुछ ऐसी भी बानियाँ हैं. जिनके 
ऊपर कुछ दोषदर्शी समाक्नोचक आ्षेप किया करते हैं ३८ “कितु ऐसी 
गा] ओं के भी काव्यगत सौंदर्य की कोई उपेज्षा नहीं कर सकता । 
“प्रेमिका अपनी वि्रिह-दशा में, दुख भरे शब्हों के साथ, अपने हृदय 
के संदेश भेजती है । दादू कहते हैं कि “प्रियतम के वियोग सें मरी जा 
रही हैँ भर प्राण श्रभिज्ञाघा की अतृप्ति में ही निकले जा रहे हैं। ८” 
“हाय, कभी-कभी तो मैं विरह की पीर का ऐसा अनुभव करती हूँ कि 
यदि मैं प्रियतम को देख न लू तो मर जाऊँ। हे सखी, मेरे दद॑ की कद्दानी 
सुनो । प्रियतम के बिया मेँ तड़पा करती हूँ जिस प्रकार मछली बिना 
जल के छुटपटाया करती है उसी प्रकार मैं भी बिना प्रियतम के बेचेन 
रहती हुँ । प्रियतम से मिज्नने की उत्कट अभिल्ााषा सें में रात दिन पर्की 
की भाँति गाकर अपनी पीर प्रकट किया करती हूँ । हाय, कोम ऐसा है 
जो मुझे उससे मित्रा देगा ! कोन मुझे उसका मार्ग दिखला कर मुझे 
घेय बंधायेगा ? दादू कहते हैं कि हे स्वामी सुझे एक क्षण के लिए ही 
अपना मुख दिखला दो जिससे मुझे संतोष हो |?” | [तुलसी साहब का 
कहना है कि “विरह के कारण पागल बनकर मैं व्याकुल, हो रही हूँ ओर 
मेरे नेत्नों में शँसुओं की रूड़ी क्रगी है। प्रत्येक कण दद॑ की टीस जान 
पढ़ती हे भर मेरी सुधि-बुधि जाती रहती है, नाड़ी का परीक्षक वेश 
मेरे रोग को निदान नहीं कर सकता फिर उसकी दवा से क्या ज्ञाभ है ? 
चिनगारी हृदय के अंतस्तल में लगी है उसे कोई शब्द केसे व्यक्त कर 
सकता है ? तुलसी कहते हैं. कि जिसे यह पीर॑ क्षणती हे वही इसे जान 
पाता है ।/” साधारण प्रकार से आनंद प्रदान करनेवाली वस्तुएं भी 





>(--कबी र वचनावली, भूमिका, पृ० २७१ । 
++“तारादत्त गेरोला:--साम्स आफ  दादू, पृ० १०० । 
4.-बवही पृ० ५-६ | 

१/“-संतबानी संग्रह, भाग २ पृ० २४५। 


घष्ठ अध्याय इ्५६ 


विरह की दशा में विपरीत प्रभाव डालने लगतो हे। बुल्ला साहब ने 
कहा है, *हे प्रियतम, मेरे ऊपर काली घटाएं घिर रही हैं, सूनी सेज 
अयंकर जान पढ़तो हे और मैं विरह की आग से जल रहा हूँ | प्रेम का 
मार्ग यहाँ है । तुम्हारे न्वस्णों से बेंधा हुआ होने के कारण तुम्हें में चरण 
भर के लिए भी भूल नहीं पाता । बुल्ला तुम्हे बलि जा रहा हे ओर उसका 
तुम्हारी प्रतीक्षा सें उत्सुक रहना बद नेहीं होता ।&?” प्रेम उस दिन की 
आशा करता है, “जब में उन्हें जिनके लिए मैंने शरीर घारण किया हे 
भरपूर आल्तिगन करू गा। |? वह अपने प्रियतम के लिए प्रत्येक प्रकार 
की, आग्रह वा अन्य बातों से भरो युक्तियों का प्रयोग करती है वह 
उससे अनुरोध करती है, ओर उल्लाइना देती है, उसके वचन पालन की 
योग्यता सें संदेह करती है ओर अपने दुःखों का चर्णन करती हुईं उसके 
हृदय को पिघल्माना चाहती है । उसका कहना हे कि, “हे दीनदयाल 
जबसे मैंने तुम्हारे विषय में सुना है तब से मेरी दशा ही बदल गई 
हैं । तुम्हारा कहला कर मैं ओर किसकी शरण जाऊँ। मैंने तुम्हारे प्रेम 
का बाना पहन जिया है ओर अब तुम्हीं मेरो एकमात्र श्राशा बने हुए 
हो। हे मुरारी, तुम जसा अन्य कोई भी यशस्वी नहीं हे और मैं पुकार कर 


$--देखो .पिया काली घटा मोपँ भारी। 
सुन्चि सेज भयावन लागी मरो विरह की जारी॥। 


प्रेम प्रीति यहि रीति चरन लगू, पल छिन नाहि बिसारी ॥॥ 
चितवत पंथ अ्रत नहि पायो, जन बुल्ला बलिहारी ॥॥ 
संतबानी संग्रह, पूृ० १ ७२ ॥ 
[--वे दिन कब आवेंगे माइ । 
जा कारणि हम देह धरी है मिलिबो अंग लगाइ । 
कृ० ग्रं०, पृ० १६१। 


३१३० हिन्दी काव्य में लिगुण संप्रदाय 


कहता हूँ कि यदि सेरी हँसी हुईं तो इससें तुम्हीं हास्थास्पद बनोगे ।+” 
फिर, “हे स्वामी मेरे घर आ जाओ । मेरा शरीर तुम्हारे लिए कष्ट 
पा रहा है। सभी कहते हैं कि में तुम्हारी पत्नी हूँ, किंतु सुझे इस बोत 
में आश्चय दो रहा है । किस गकार का प्रेमभूव तुम सेरे भ्रति रखते 
हो ९ जब मैं श्रभो तक तम्हारी गोद में कभी नहीं सो पाई । क्‍या कोई 
ऐसा ध्यक्ति है जो मेरे संदेश को हरि तक पहुँचा देगा शोर उससे कह 
देगा कि कबीर की दशा अ्रब ऐसी हो गई है कि वह अब तुम्हें बिना 
देखे जी न सकेगा । <” “यदि मैं तेरे साथ, मन एंवं श्राणों में हिलमिल्ल 
कर खेलत।, यदि तू मेरी इस कामना को पूरी कर देता तो मैं कह देता कि त्तू 
सवशक्तिमान हे (--” 'हे सेरे प्रियतम, तू मेरी सेज पर आ जा, मै तेरो युवती 
दासी हूँ । में तेरी प्रतीक्षा में हूँ ओर तेरे लिए मैंने सेज सजा रखी है। 
मेरा हृदय तेरे लिए निद्यावर है । जब में तेरे आँगन में पहुंच कर तेरे 
दशन कर ज़ेती हूँ तभी मेरे जीचन का उद्देश्य पूरा होता है। म्लुझे 
अपने मिज्ञन का आनंद दो और अपने दर्शनननित यश के भागी बनो। 

तेरे भ्रम ने मुझे पागल बना डाला हे, मैं तेरे रंग में २गा जा चुका हूँ। 


।0७७७७७७७७ए७ 





'ललन्‍ट लेकर, 





(३१००० + लेबर हक. "फरफक्‍ता कल असल कोजकअ»+लेप०#4४ +५०4५ शक ++ 





जश्न पढआ....+्प/०कसामभ+ ४ कओ+ फर्क फमेकेसंकेक्कक 


+--दीनदयाल सुनते जबतें तबतें मन में कछ ऐसी बसी है। 
तेरो कहाय के जाऊ कहाँ, तुम्हरे हित की पट खैचि,कसी है । 
तेरो ही आसरो एक मलूक, नहीं प्रभु सों कोउ दूजों जसी है। 
एहो मृरारि पुकारि कहौ, श्रब मेरी हँसी नही तेरी हँसी है । 
सं० बा० सं०, पृ० १०४ । 
दत- कबीर ग्रं०, पृ० १६२ ( पद ३०७ )। 
८“-हों जानू जे हिल मिल खेल, तन मन प्राण समाइ ॥ 
या कामना करो परिप्रण समरथ हो राम राइ॥ 
वही, पृ० १६९१, पद ३०६ । 


घष्ठ अध्याय 35१ 


ओर मैं तेरे ऊपर बलिहारी जाता हूँ। ३८” »हे मेरे प्राणों से जी 
प्यारे अबू भी सुकसे मिल जाओ । हे दीनदयाल, क्रैप्ानिधि मेरे अपे- 
राधों को क्रमाब्करों | मुझे चेन नहीं, ओर मेरा सारा शरीर व्याकुल 
है। आँखों से पनारे बहे जाते हैं, मांस जल्ल गया और रक्त सूख गया । 
_ इड्डियाँ प्रतिदिन उभरती जा रही हैं । सारी इंद्वियाँ अपने स्वाद को 
जेसे जुए में हार गईं हों । मैं अपने दिन, तेरे सार्ग की ओर दृष्टि लगाये 
हुएं तथा रात, तारों को गिनते हुएं, काटा करता हूँ । जिन दुखों को मैं 
सह रहा हूँ वे चर्णनातीत हैं, किंतु तुझे विदित है कि मेरे भीतर क्या 
हो रहा हे । धरनी कहते हैं कि सेरा जीवन छुमनते हुए दीपक की भाँति 
अस्थिर हो रहा है, अंधकार घिरने जा रहा है, मेरे ऊपर प्रकाश डालो |*?? 
../ अपने व्यापक प्र म-द्वारा अभिभूत होकर विरहिनी सारी सृष्टि को 


न्भ्ब्ध्ध्ध्धब्ब््न्ब्ध्य्ण्ण्पधपिननममक्पपमरध्प्प्पप्ल्लननननषधिमिधषषपषषभिबवसपधमभधणम्नमग्ि विष मम मचिषििधधषनिधभमगमण चल ध्धमणलिषणाणष का 


>(-+बाला सेज हमारी रे, तूं आव, हों वारी रे, दासी तुम्हारी दे, 
तेरा पंथ निहारू रं, सुन्दर सेज संवारू रे, जियरा तुम पर वारू र॥ 
तेरा अंगना पेखो रे, तेरो मुखडा देखों रे, तब जीवन लेखो रे.। 
मिलि सूखड़ा दीजे रे, यह लाहा लीजे र, तुम देखे जीजे रे ॥ 
तेरे प्रेम की माती रे, तेरे रंगड़े राती रे, दादू वारणे जाती रे ॥ 
सतबानी संग्रह, भाग २, पृ० ६४। 
*--प्रवहँ मिलो मेरे प्राणपियारे, 
दीनदयाल कृपाल कृपानिधि, करहु छिमा अपराध हमारे | १॥ 
कल न परत अति विकल सकल तन, न न सकल जन्‌ बहुत पनारे । 
माँस पचो अरु रक्त रहित में, हाड़ दिनहु दिन होत उधारे।। २ | 
तासा नेंन स्वत रसना रस, इंद्री स्वाद जुवा जनू हारे। 
दिवस दसो दिसि पंथ निहारत रा।ते विहात गनत जस तारे ॥ ३ ॥॥ 
जो दुख सहत कहृत न बनत मुख, अंतरगत के हौ जाननिहारे। 
धरनी जिव भिलमिलत दीप ज्यो होत अंधार करो उजियारे ॥ ४॥। 
वही, पू० १२६॥ 


३६२ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


अपने रग सें ही रगी हुई पाती हे। परमात्मा से मिल्लने की उत्कंटा 
में ही नकत्र अपने-अपने चक्रों पर घूम रहे हैं ओर अ्रपने प्रियतम के 
प्रेम की ही थे प्रदक्षिणा कर रहे हैं। सारा विश्व उस्छेअसन्न करने के 
लिए बेचेन है ओर इसी के निमित्त उसके चरसूएों में अपने को श्रपिंत 
कर देना चाहता है । नानक कहते हैं. “श्राकाश के थालत सें सूय एवं 
चंद्रमा दीपक बने जल रहे हैं ओर नन्नत्नगण मोतियों के समान बिखरे 
हुए हैं। मल्यपवत की श्रोर से आता हुआ अनिल धूप का काम देता 
है, हवा चमर डुला रही है ओर बृत्त अपने सुन्दर-सुन्दर फूलों कौ 
उपहार में लेकर खड़े हैं । अनहद्‌ नाद की भेरी बज रही है। विश्व 
तेरे समत्ष क्या ही भज्ली आरती कर रहा है !”| दादू ने भी कहा 
है कि, “सूर्य और चन्द्रमा तेरी आरती कर रहे हैं; प्रथ्वी, चायु व 
आकाश तेरा पूजन कर रहे हैं, सभी तेरी सेवा में लगे हुए हैं, हे मेरे 
निरंजन देव ।]”” 

“विरह की आग एकबार प्रज्ज्वलित हो जाने पर फिर बुमना नहीं 
जानती । ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहाँ पर यह वतंमान न हो । 
प्रत्येक वस्तु, जिसे आग का बुमननेवाज्ञा समझ कर कोई व्यक्ति अपनाना 
चाहता है वह स्वयं _जल उठता है, इसे बुमा नहीं पाता। कबीर का 
कहता है कि 'विरह की आग से जज्नती हुईं जब मैं ताज्लाब के निकट 
जाती हूँ तो मुझे देखते ही चह स्वयं जज्नने लगता है। है संतगण, मैं 





' हक कललना टन नल कक. हनन हनन पिगनिनिनियियन तप न नननननजननिननन कभिनिनिभ न बहा वननलत न अलननननन आननतनललाता* 


।--गगन में थाल रविचंद दीपक बने तारका मंडल जनक मोती । 
घप मलयानिलो पौन चौरो करें बनराइ फलंत जोती। 
कंसी आरति होइ भवखंडना तेरी झरारती भ्नहता बाजत भेरी। 
।क्‍ ग० ग्र० पू० ३०८॥ 

[--चंद सर आरति करें, नमो निरंजन देव । 
।,. धरती पवन अ्रकास श्राघें, सब तुम्हारी सेव ॥ दादू ॥ 
पौड़ी हस्तलेख, पृ० १०६ । 





घष्ठ अध्याय ३६३ 


इसे अब कहाँ जाकर बुमाऊं ९+?” फिर “'ह्म की ज्वाला से जलती 
हुई मैं दुःखित हो रही हूँ। में पेड़ों की छाया में ईसल्रिए नहीं जाती 
कि कहीं वे भी ज्ञञज्ञ उठेगे ।३८? 

» रििमात्मा के प्रेमी का विरह-संदेश इतना करुण हे कि चह दूसरों 
के हृदयों को दुखित किये बिना नहीं रहता | प्रेमिकाओं के संदेश 
साधारण संदेश नहीं | प्र मिका अपने प्रेमपात्र सें अपनी सारी आत्सा 
ड डेल देती है ओर वह शरीरधारी आत्सत्याग सा दीखने लगता हे । 
कबीर कहते हैं कि, “मैं अपना शरोर जलाकर उसको स्याही से राम! 
को पत्र लिखें गा। मेरी हड्डियाँ सेरी लेखनी का काम देंगी ओर इस 
प्रकार में उसे प्रमपन्न भेजू गा |?” 


“- यद्यपि अपने प्रियतम का हृदय द्ववित करने के लिए प्र मिका उसके 
निकट अपने दु)खों को प्रकट करती हे । फिर भी उसे तब तक शांति 
नहीं जब तक वह उसे स्वयं उपलब्ध न हो जाय । प्रियक्म की अनु- 
पस्थिति में उसकी विरह्वपीर ही उसे सांत्वना प्रदान करती है ओर उसे 
यह अपने हृदय में सुरक्षित रखा करती है । इस कारण जितना ही वह 
कष्ट केजनती हे उतना ही चह डसे अपनाया करती हैं। कबीर कहते 
हैं कि, “में विरह की आग में जल्नेवात्ली लकड़ी हूँ ओर बहुत धीरे- 


७--नननलीत+नननीननननननननननननन- नी न पक घिनितत पतन नमननननन-+++ “५-५4 + न कलम कम ननन नए“ कप गपगपतिपगयपततय नी नमन न “न + नियत न का फल +३$ 34५५... ५अमममननन-नकलनतनानन-न- नम धन ५+-ननन++-नभनननननन मनन नननननम नमन मन नमन ननन_+ना न न ५ नमन नम गन मनन नन+ +33..५५५५न+वननननननननमनननननन-नन-_-न»+ मनन कलर कक पक कमान ५५५ >५+टन५१ नर, 


+--“विरह जलाई में जलौं, जलती जलहरि जाउ । 
मो देख्या जलहरि जले, संतौ कहाँ बुझाउ ॥ (३६) 
क० ग्रं०,प० १०। 
>(--विरह जलाई मे जलौं मो विरहनि के दूख । 
छाँह न वेसों डरपती, मति जलि ऊठे रूख ॥ ४६ ॥ 
वही, पृ० ११ ( टि० ) 
'-यहु तन्‌ जालों मसि करों, लिखों राम का नाउँ । 
लेखरणि करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ ॥ ११ ॥ 
वही, पूृ० ८ । 


में ५ 8. 
३६७ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


धीरे घूमिज होती रहती हूँ | यदि मैं इस प्रकार जल जाऊँ तो विरह 
भी जाता रहेगा ]8” फिर “इस शरीर को जलाकर मैं कोयला कर 
दूँ गी, जिससे इसका धुआ आकाश तक पहुँच जा, किंतु कहीं ऐसा 
न हो कि राम मेरे ऊपर कृपा करके इस पर क्र्षा करने लगे और यह 
बुक जाय ।7? 
प्रत्येक वस्तु, जिसके द्वारा प्रेमिका अपने प्रियतम के प्रति प्र म को 
दूरस्थ सम्बन्ध दृढ़ करती हे, उसके लिए प्रिय बन जाती है। यदि 
उसका शरीर जलानेवाली आग का धुआँ उसके प्रियतम तक पहुँच 
जाय तो इस बात से भी उसे शांति मित्र जाती है | अधिक से अधिक 
कष्ट सेलती हुई भी चह कभी निराश नहीं होती । उसका हृदय खदा 
प्रेम की आशावादिता के कारण उद्दीप रहा कर प है । उसे अपने 
स्वामी सें पूर्ण विश्वास हे और वह जानती है कि सेसी सरल व निर्दोष 
'प्राथनाओं-द्वारा चह कसी न कभी मिल ही जायगा || प्रलटू का कहना 
है कि, “में अपने प्रियवतम को यह समझा बुम्माकर शीघ्र मना लूंगी 
'कि सेवकों से सकड़ों अपराध हो जाया करते हैं ।+-! 
५/आनंद एवं भय के मारे धड़कते हुए हंदय के साथ चह अपने 
प्रियतम से मिक्षने की अतीक्षा करती रहती हे। उसके जीवन की इस 
महती अभिज्ञाषा के साथ-साथ एक न्ञास भी बना रहता है ओर वह 


ररन्‍कासअस३+>+सभ३-कक कमा ५७५ परत कप. कवर पक किलकपकक०न्‍क २५3००. सनल०कड वासना कप--कल नकल ना ---८ 6. ">> <-पक७०»७०न+न+वकनममाऊ न ५१७७० नाउप मकर भाज+ल «+फम++ साय कक. 2अनि॑ब ९8 ७४००#तकप०कन,..ममानमराजनान»++-जप +मयक+लतफणण 2 अल अतननक लशिभी भला 


$--“हो र विरह की लाकड़ी, समक्ति समफ्रि घृधुआउँ । 

छूंटि पड़ो या विरह ते, सारीही जलि जाउँ ॥ ३७॥। 

क्‍ क० ग्रं०, पृ० १०।' 

[--उह तन जालो मस्ति करों, ज्यों धूर्वाँ जाइ सरग्गि । 

म॒ति वे राम दया करें, बरसि ब॒ुझावे अग्गि ॥ ११॥। 

वही, पृ० ८ | 
न“ अप्रने पिया को में बेगि मनेहों सो तकसीर होत प्रभु जन से ॥ 
सं० बा० सं०, पु० २२१॥ 





पष्ठ आध्याय: ३६४ 


कक 


उसे सदा उद्लिग्न बनाये रहता है । भक्त का हृदय इस भावना के कारख 
कॉपता रहता है कि भगवान्‌ के प्रति प्रदर्शित किया विया उसका प्रेस 
कदाचित्‌, वसा महीं है जेंसा उसके लिएं उपयुक्त होता अथवा स्वर्य॑ 
उसके हो भीतर वे गुण, नहीं जिनसे वह अपना लिया जाता। कबीर 
कहते हैं कि, “मुमसे न तो चह प्रतीति हे, न प्नेम-साधन की योग्यतः३ 
है.और न मेरे शरीर में वह सौंद्य ही है। मुझे पता नहीं कि उस प्रिय- 
तम के साथ संयोग उपलब्ध करने की रहस्यमयी दशा सें सेरी क्‍या 
स्थिति होगी। »८” नानक ने भी इसी ढंग से अपने भाव प्रकट किये हैं । 
वे कहते हैं कि “झुरू में सब अवगुण ही अवगुण हैं। प्रियत्तम मेरे 
साथ मिलना केंसे स्वीकार करेगा । न तो मुममें रूप का सौंदय है, न 
मेरी आँखों में आकर्षण हे और न मेरी वाणो में वह माधुय ही हे। 
पत्नी के लिए यह स्वाभाविक है कि वह अपने पति के लिए <“ईंगार करे, 
किंतु सोमाग्यवती वही कहलाती हे जिसे वह पसंद करता हे । <”? 

इस प्रकार प्रेमिका विरहिणी के मित्र जो वहाँ तक पहुंच चुके हैं 
ओर जो इन रहस्यों से परिचित हैं डसे परामश देते हैं कि तुम अपने 
चेहरे पर से पर्दा डठा लो । प्रियतम के समच कुछ भी संकोच करना 





>--मन परतीत न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग। 

क्या जानू उस पीवस', कंसे रहसी रंग । १६॥। 

क० ग्रं०, पू० २०। 

+-समि अवगण गुरा नह कोई, क्यो करि कंत मिलावा होई । 

ना मे रूप न बंके नैणा, ना कुल ढंग न मीठे वेणा। 

सहज सिगार कामिनि करि आ्राव । 

ता सुहागिनि जा कते भावं॥| 

गृ० ग्र० सा०, पृ० हु०४ ४ - 


३६६ हिन्दी काव्य में नि संप्रदाय 


उचित नहीं । [?” यह भीतर ही भीतर बेचन रहती है, किंतु. अपनी 
कृंम्रिस लज्जा का परित्याग नहीं कर पाती । पदें का हटना त्तभी संभव 
हैं जब परमात्मा स्वयं दयापूर्वक उसके निकट, श्रनजानि में, आ जाये 
ओर नदी तट पर उसके एकांत, शीतल ओरू सुगंधिमय स्थान कै 
कारण, "मिलन के लिए उत्साहित बनी हुईं, उस प्रेमिका का घूंघद 
स्वयं अपने हाथों से उठा दे । ५ ग्रही भक्ति भाव से भरी मनोंवृत्ति के | 
लिए उपयुक्त भी है। यद्यपि भक्त को उस माया ( अपने परदे ) को 
हंटाने के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं जो उसके एवं भगवान के बीच 
खड़ी रहती हे, फिर भी भगवान्‌ की कृपा के द्वारा ही वह दूर की 
जा सकुतो हे । । 
5 अदच्यपि निगेणी संतों के प्र म-रूपक कभो-कभो श“ंगार भाव तक 
पहुँचते हुए जान पड़ते हैं फिर भी उससे उनके चित्त का विपयंय नहीं' 
सूचित होता । वे अपनी कल्पना के लिए वह स्वेच्छाचारिता नहीं चाहतें' 
जिसे कई एक बनावटी संतों ने अपनी संभोगपरक अ्भिक्ञाषा को 
छिपाने के लिए, आवरण बना रखा था। उमरखय्याम की. रुबाइयों में 
ऐसी कोई भी बात लक्षित नहीं होती, जिससे उसके मदश्र एवं कामिन्री ' 
को हम उनके उसी रूप सें सिद्धू न कर सके । किंतु यही बात निगंणों 
कवियों के संबन्ध में भी नहीं कही जा सकती। इनके #ंगारात्मक' 
प्रतीकों से-यदि उन्हें अय्गारात्मक कहा जा सकता है-केवल यही सूचित 
होता है कि ये परमात्मा को एकाँत भाव के साथ चाहते हैं ओर यही 
एकमात्र आधार उस विशिष्ट चेतना के क्षिए भी हैं जो आत्मद्रश लोगों 
की विशेषता है। अपने प्रेम संगीत के स्वरूप पर हो टिप्पणी करते 


[--घूंघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे ॥-( कबीर ) 
स० बा० सं०, भा० २, पृ० १२। 
"२--तदिया किनारे बालम मोर रसिया दीन घूघठ पट टारि ॥ 
द वही, पृ० ६ । 


घष्ठ अध्याय है 


हुए कबीर ने कह्दा हे “कि मैंने अपने शब्दों में आत्मोपल्ब्धि के साधनों 
का सार देकर उसकी व्याख्या की है ।*” एक सौंदय के रहस्यचादी का 
जो स्लियों की मनोमोहकता में भी इंश्वरत्व के दशन करता हैं हम केवल्ल 
यही क॒ह सकते हैं कि “वह एक तेजस्वी देव दे जिसके हृदय एंव 
मस्तिष्क विशाल्न हैं ओर जो केवज सौंदर्य का ही प्रेमी हे ( वह सौंदय 
जो अत्येक अकार के रूप व चित्र सें पाया जा सकता है )।[7 निम्रख्ी 
कृषि, कोट्स कवि के साथ-साथ कृह सकते हैं कि 'सॉंद्य की वस्तु सदा 
आनंदप्रदायक होती है,” परन्तु सोंद्य उनके लिए बाह्य आकृति ,के. 
अनुपातों में न होकर उस वस्तु की सुसंगति में पाया जाता है जिसे 
टेनिसन ने 'चित्त” अर्थात्‌ आत्मा कहा हे । हृदय के सोंदय से विहीन 
रूप-सोंदर्य की वे निंदा करते हैं । ' सोने के बतन में भी भरी हुई मदिरा, 
की साधु ज्ञोग निंदा ही किया करते हैं ।+? उनका ज्चय सदा नियमित 
च संयत जीवन का रहा है । जब आगे चलकर, काव्य में सुगल्ल द्रबारों 
की विजञासिता की प्रतिध्वनि सुन पड़ने लगी और हिंदू करद सामन्तों के: 
यहाँ भी उनके अनुकरण की होड़ लग गई तथा स्त्रियों के नखशिशख् की 
चर्चा प्रतिदिन का काय बन गई तो उन्होंने इसके विरुद्ध सर ऊंचा किया। 
इस प्रकार की कविता केवल निम्नस्तर के मनोविचार जाग्रत करने का 
साधन मात्र थी। सुन्दरदास ने उसे अस्वास्थ्यकर असंयम उहराया 


+.तुम्ह जिन जानो गीत है, यहु निज ब्रह्म विचार रे । 
केवल कहि समझाइया, झात्मसावन सार रे ॥। 
क० ग्र॒ ० पु० ८६ पद ५१ 
--.0 207008 726ए/, [26 ॥] 89/6 धा।त 99॥. 
पुश वात 40%6 #69्पांप्र जाए (छ62प्राप 5९छ॥ 
व था प्रथा।6768 णए गराठग्रांत वात 7770)-.70079507. 
+--सोवन कलस सुरे मरचा, साधू निशा सोइ | 
कृ० ग्र०; पू० ४८ || 


श्द्द्प हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


ओर केशवदास की 'रसिकप्रिया? तथा स्वयं अपने नामधारों च सम- 
सामय्रिक कवि सुर्दरराय की 'रसमंजरो” एवं सुन्दर शंगार” जसी, रचनाओं 
का प्रतिषेष किया 9८” निगेणी ज्ञोग उन अनर्थकारी बातों में नहीं पढ़ते 
जिन्हें 'फासेट” के श्रनुसार, “पश्चिमी देशों के #ईंगारोन्मत्त संत एवं 
धार्मिक झद्धालु” जन, भक्तिमान, आत्मद्रष्टा के रूप में, अपनाया करते 
हैं ।<” भारत में भी #ंगारोन्माद की प्रतिध्वनि तंत्रानुयायी शाक्त 
रहस्यवादियों तथा अन्य कतिपय संप्रदाय के लोगों में सुनी जाती 
रही है । 

तांत्रिक शाक्त सम्प्रदायों ने तो ओचित्य को सोमा का उल्लंघन कर 
दिया। उन्होंने केवल स्त्रियों से यह सीखने का उपदेश द्वी नहीं दिया कि 
हंसें प्रेम, प्रतिष्ठा एवं अपने आप को भी किस प्रकार अपित कर देना 
चाहिए, प्रव्युत साधकों को अनुचित प्रेम करने की भी शिक्षा दे दी | कारण 
यह कि उनकी स्थूल् दृष्टि के अचुसार अपनी पत्नी की ओर से किसी 
प्रकार के पातिब्रत भंग करने का तो, इस सम्बन्ध में कोड प्रश्न ही 
नहीं उठ सकता |] बगाल में आज भी सहजिया संग्रदाय इस बात का 
जीता-जागता उदाहरण हैं। सहजिया ज्ञोगों का विश्वास है कि उक्त 
सम्प्रदाय के अनुयायियों का परमात्मा के प्रति जेसा उत्कृष्ट प्रेम होना 
>“-रसिकप्रिया रसमजरी और सिगारहि जानि। 

चतुराई करि बहुत विधि विष बनाई झानि॥। 

विष बनाई आति लगत विषयिनत कौ प्यारी । 

जागे मदन प्रचंड सराह नख शिख नारी ॥ 

ज्यों रोगी मिष्ठान खाइ, रोगहि विस्तार । 

सुदर यह गति होइ, जो रसिक प्रिया धारे ॥ ५ ॥ 

'सुदर विलास, पृ० ५२ । 

८“ डिवाइतन इमेजिनिंग), पृ० ६३। 


कर _शजन+..... पाठ ख्तमर फर्म, 


पष्ठ अध्याय ३६६. 


थी हुए वह केवल उन गुप्त प्रेमियों सें ही सम्भव हे जिनके सम्बन्ध सें 
अने/चित्य एक आवश्यक अंग रहा करता है । * 


कहा जाता है कि इस प्रकार का प्रेम कमी-कभो लाभदायक सिद्ध 
हो जाता है । 'डिवाइम कमेडिय[ नामक प्रसिद्ध काव्यग्रंथ, उस प्रम- 
द्वारा ही अनुप्राखणित रहा जिसे, उसके रचयिता इटात्वियन कवि दास्ते 
ने अपनी प्रियतमा विटाइस के पति, उसे दूसरे की पत्नी हो जाने पर 
भी अपने हृदय सें संचित कर रखा था। जन कवि गेटे को भी बहुत 
सी कविताएं उसकी कामुकता का ही फलस्वरूप थीं। वे ग्रोपियाँ भी 
जिनसें राधा सबसे प्रमुख थी ओर जो बंष्णवों के अनुसार भक्तों की 
इृष्टि में रखी जाने के लिए, आदश रूप थीं, परकीया ही थीं । 


परन्तु निगणियों को, कबीर के अनुसार, इस बात सें स्वभावतः 
विश्वास था कि, “परमात्मा, यदि चाहे तो, अन्य पापों को क्षमा भी 
कर सकता हे, किंतु कामुक का समूल नष्ट हो जाना निश्चित है [7 
इसी कारण वे उक्त प्रकार के दुराचार का कभी समर्थन नहीं कर 
सकते थे और न उन्होंने किया ही है । अपने प्रतीकों का आधार, उन्होंने 
उस पूवराग के आदु्श को स्वीकार किया है जो किसी कामिनी के 
हृदय सें अपने प्रियतम के गुण्यों को श्रवण करने पर उत्पन्न होता है और 
जो अपनी प्रगाढत। के ही कारण उसे उसके निकट आकृष्ट कर दांनों 
के परिणाम के सूत्रों द्वारा ला जोड़ता है। निर्गणी संतकवि, अपनी 
अन्तरात्मा सें प्रविष्ट हो जाने के कारण, ऐसी कल्पना के स्तर तक उठ 
जाता है जो चित्र के साथ-साथ पवित्रता के गौरव से भी युक्त रहती 
है | श्रपने एक प्रेमगीत के स्वरूप को प्रकट करते- हुए कबीर ने कहा है 
कि, “मैंने अपने शब्दों सें आत्मोपलब्धि के साधनों का सार देकर 


अत 





+>-और गुनह हरि बकससी कामी डार न मूल । 
क्ृ० गश्र॑ं०, पृ० ४० ( सा० १७ ) 


३७० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


'डसकी व्याख्या की हे |! उनका प्रेम जेसा कि हम व्यवहार सें भी 
पाते हैं, रतेज के उस सच्चे मार्ग का प्रतीक है जिसकी परिष्टष्टि इंद्रिय- 
धृत्तियों द्वारा हुआ करती हे। कबीर कद्दते हैं कि, “है सखी, प्रियतम 
के साथ मिलने के लिए उत्क्ृठित हो रही हूँ ।“मेरे योचनकाल में विरह 
मुझे सता रहा है ओर मैं श्रब ज्ञान को गल्ली सें इठलाती हुई चल रही 
हूँ, जहाँ पर मेरे सतगुरु ने झ्ुुके उस प्रियतम का प्र सपन्न भी दे दिया 
है |+” कबीर ने एक दूसरे स्थल पर भी कह! है कि, “प्रियतम के 
मिल्नन की चाह पर ही सब कुछ आश्रित ह। में तो चाह का ही दास 
हूँ |” तथा “वह उस चाह के ही आनन्द में मग्न रहा करता है ।9९? 
आध्यात्मिक अनुभव की श्रनिवचनीयता के कारण साधक को कभी 
कभी परस्पर विरोधी उद्तियों-द्वारा व्यक्त करने का ढंग श्रपनाना पड़ता 
है जसे चन्द्रविद्ीन चाँदनी, सूयचिहीन सूय प्रकाश 
७. उल्टबासियाँ आदि ओर इसके आधार पर ऐसे गूढ़ प्रतीकों की 
सृष्टि हो जाती है जिन्हें “डल्टवासी” वा 'विपयंय' 
कहते हैं । जब सत्य की अभिव्यक्ति बिना इन परस्पर विरोधी कथनों के 
सहारे, नहीं हो पाती तो, उसे आवश्यक सत्याभास कह सकते हैं । 
किंतु "कभी-कभी इन उल्टवासियों का प्रयोग अथ को जान बूम कर 
[--तुम जिनि जानो यह गीत हू, यहु निज ब्रह्म बिचार रे । 
केवल कहि. सममाइया, आतम साधन सार रे॥ 
वही, पू० २९१, पद ५॥। 





“--सखियो हमहूँ भई' बलमासी । 
आयो जोवन विरह सतायो, अ्रब में ज्ञान गली अठिलाती । 
ज्ञान गली में सतगुरु मिलिगे, दई पिया की पाती ॥ 
कबीर शब्दावली, भा० १, पृ० १०। 
+--रवीद्रनाथ ठाकुरः साग्स आफ कबीर , पुृ० ६६ । 
वहीं, पू० १००। 


षष्ठ अध्याय २७९ 


छिपाने के ल्षिए भी हुआ करता है जिससे आध्यात्सिक मार्ग के रहस्यों का 
पता अयोग्यु व्यक्तियों को न लगने पावे अथवा, यदि 'बौइबिल' के शब्दों 
में कहा जाय तो+ मोती के दाने खिप्रों के आगे न तब्रिखेर दिये जायें। 
ऐसी उल्टवासियों को जानवूक कर रची गई उल्टवासियाँ कह सकते हैं । 
साधारण प्रकार से आध्यात्मिक साधनाओं को ही ऐसी उल्टवासियों में 
स्पष्ट किया जाता है । उत्त पहले अकार की उल्टवासियाँ सांकेतिक होती 
हैं जहाँ दूसरो का स्वरूप रहस्यमय हुआ करता है। इससें सन्देह नहीं 
कि सॉँकेतिक उल्टवासियों में उच्च श्रणो का काव्य रहा करता है। किंतु, 
गुह्य उल्टवासियाँ स्वभावतः काव्यगत सोंद्य से हीन हुआ करती हैं । 
काव्य की विशेषता इसी बात में हे कि उसके द्वारा जीवन के गूढ़तम 
रहस्प्रें का 5५क्तीकरण हो, उनका गोपन उसका उद्देश्य नहीं ह। 
>>“ परन्तु इस प्रकार के प्रयोगों का यदि उचित ढंग से उपयोग 
किया जाय तो इनके द्वारा उसके अभिम्राय के लिए श्रोता के 
हृदय में बल्वती उत्कंदा जाग्रत की जा सकतो हुं ओर डसका अथ 
लग जाने पर उसके ऊपर आश्चय का एक ऐसा सुखद प्रभाव पड़ 
सकता है कि वह उसे अहण करने के ल्विए अन्य किसी प्रकार से भी 
अधिक उद्यत हो जाता है। इसके उदाहरण में हम निम्नलिखित पद्र 
उद्घृत कर सकते हैं। कबीर ने कहा है कि, “हे अ्रवधू, जो लोग नाव 
पर चढ़ ( भिन्न-भिन्न इष्टदेवों का आधार लेकर बढ़े ) वे क़रुद्ग सें 
डूब गये ( संसार में ही रह गये ), किंतु जिन्हें ऐसा कोई भी साधन न 
था वे पार लग गये ( मुक्त हो गये )। जो बिना किसी मार्ग के चले 
वे नगर ( परमपद ) तक पहुंच गये, किन्तु जिन लोगों ने माग ( अंध- 
विश्वासपूर्ण परंपराश्नों ) का सहारा लिया वे लूट लिये गये ( उनके 
आध्यात्मिक गुणों का हास हो गया )। ( माया के ) बन्धन सें सभो 
बंधे हुए हैं; किसे मुक्त ओर किसे बद्ध कहा जाय । जो कोई उस घर 
( परमपद ) सें अ्रविष्ट हो गये उनके सभी अंग भीग गये , वे इेश्वरीय 
प्रमरस से सिक्त हो गये ), किंतु जो बाहर रह गये ( जो उससे प्रभावित 


३७२ हिन्दो काव्य में निगुश संप्रदाय 


न हो सके ) वे पूर्णरप से सूखे हैं ( उससे वंचित हैं )। वे, ही सुखी 
हैं जिन्हें बाण लग गया है ( जो सतगुरु के बचनों द्वारा प्रभावित हो 
चुके हैं श्रथवा जिनके भीतर श्राध्यात्मिक चिरह जाग्रंत हो चुका है ) 
ओर झभागे वा दुखी वे हैं. जिन्हें उसकी चोठ नहीं लग सकी । अन्धे 
लोग ( जिनकी आँखें संसार को शोर से बन्द हैं ) सभी कुछ देखते 
हैं, किन्तु आँखवाले ( सांसारिक मनुष्य ) कुछ भो नहीं देख पाते ।*?” 
ओर फिर, “हे मेरे स्वामी, बिना मांस लिये मत आना, न तो जीवित 
को मारना ओर न स्॒तक ( आध्यास्मिक दृष्टि से निर्जीव ) को ही लाना। 
उस मांसवाले शरीर में न तो वक्तस्थल होना चाहिए, न खुर चाहिए, 
न पीठ चाहिए और न वास्तव सें, शरीर की रूपरेखा ही चाहिएं। फिर 
सी ऐसा सावज न आना चाहिए जिससें मांस व रक्त का अ्रभाव ही 
हो । उस दूसरे वाले व्याध ( परात्पर बह्म ) के पास अपने धनुष में 
कोई तोर नहों है | हिरन भो बिना शिर के हे, किंतु वह लता की शोर 
(मारा के प्रति) आकृष्ट रहा करता है | कबीर कहते हैं कि यह गुरु का 
ही कोशल है जिससे उक्त सावज (संसार की श्रोर से) मारा गया होने 
पर भो ( आध्यात्मिक दृष्टि से ) जीवित रूप में वर्तमान है। हे 
स्वामी, तुम्हारे साथ मिलन को श्रभित्राषा में में बिना पत्तों की लता 


“अंबधू ऐसा ग्यान विचार । 

भेरे चढ़े सु अधधर ड्बे, निराधार भये पार ॥ टेक ॥!' 

ऊघट चले सुनगरि पहुते, बाठ चले ते लूटे । 

एक जेवड़ी सब लपटाने, के बाँध के छूटे ॥। 

मदिर पैसि चहूँ दिस भीगे, बाहरि रहे ते सूका। 

सरि मारे ते सदा सुखयरे, अन मारे ते दूष। ।। 

बिन नेनन के सब जग देखे, लोचन अ्रछते श्रधा। 

कहे कबीर कछु समभि परी है, यहु जग देख्या घधा ।| १७५ ।॥ 

क० ग्र०, पृ० १४७॥। 


वर मकान... फसल फकन.. जज. कारनामे... अकाल, ३०५० अमभलकककतन काका... भा; 








घष्ठ अध्याय ३७३ 


बना हूँ।*? _सुददास ने भी इसी प्ररार कहा हैं कि, “चींटी 
( जीवास्म[ ) ने हाथी ( चस्तुतः विस्तृन संघार वा मौया ) को निगल 
लिया ह ओर श्य्गाज ने सिंह को खा लिया है। मछुली ( आत्मा ) को 
( ज्ञान की ) आग सें ढ्ी सुख मिल रहा ३; यह पानी (माया ) में 
ही बेचेत थी। ल्गड़ा ( अधिक एकाग्रच्ित होने के कारण अपनी 
इंद्वियों का प्रसोग व्याग कर ) पहाड़ी पर आत्मानुभूति की उच्च दशा 
तक ) पहुंच गया है | रूप्यु ( ससार की ओर से मर गये ) मझुतक से 
भयभीत हो रही है| संदर का कहना है कि, जिसे अनुभव होता ह वही 
ऐसी बानी का रहस्य जान खहता हैं । , अब आइये, शिवदयातल 
साहिब से भी एक उदाहरण ले | इनका कहना है कि, “गुरु ने मुझे एक 
आश्वय का खेल दिखज्ञा दिया । मुझे एक घड़ा बहुमुल्य रत्नों से भरा 
मित्र गया | मक्खी ने (आत्मा ने ), मकड़ी (आत्मा) को खा 


#....जीवत जिनि मारे मूवा मति ल्यावे, 
मासविह॒ णां धरियत आवे हो कंता ॥। टेक । 
उर बिन पुर बिन चंच बिन, वपु विहूृना सोईं। 
सो स्थावज जिनि मारे कंता, जाके रगत मास न होई ।! 
पैली पार के पारधी, ताके धुनही पिनच नही रे। 
तावेली कौ ढुक्यौ मृगलौ, तामृग के सीस नहीं रे ॥ 
मारया मग जीवता राख्या, यह ग्र ग्यान महीं र। 
कहे कबी र स्वामी तुम्हारे मिलन कौ,बेली है पर पात नही र॥२१२॥ 
कृ० ग्रं०, पृु० १६० | 
--कुंजरक कीरी गिल बैठी, सिघहि खाइ अ्रधानों स्थाल । 
मछरी अग्नि माहि सुख पायो, जल में बहुत हुती बेहाल ॥ 
पंगू चढयो परवत के ऊपर, मृतकाह डेराने काल । 
जाका अन॒भव होय सो जाने, सूदर उलटा ख्याल ॥ 
पौड़ी हस्तलेख, पु० रेर३े। 


३७७ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


लिया । भुनगे ( सूचम शरीर ) ने पृथ्वी को तोल दिया ( भौतिक सत्ता 
मात्र से ऊपर उठ गया ), बस्तो ( आत्मा ) का परिणय जंग्रज ( भौतिक 
, पदार्थों ) से होता था किंतु वह सारे विश्व ( पदार्थों") को निगल गई । 
आग ( भाया ) पानी ( असरूत वा आध्याद्मिकतत््व ) को सुखा रही 
थी, किंतु श्रब बिल्ली ( रूत्यु ) चुहे ( आत्मा ) के भय से भाग रही 
हैं । कोचा (चित्त) मधु रचर सें गाने लगा ( उसने आध्यात्मिक भ्वृत्ति 
अहण कर लो और सेढ़क ( आत्मा ) अब समुद्र ( चुब्ध पदार्थों) को 
तोल रहा ( उनके ऊपर डठता जा रहा ) है। चतुर व्यक्ति ( काल.) 
मूर्ख ( वहिमेंख चित्त जो अरब अंतमुख हो गया है) के सामने हार मांन 
चुका है ओर आकाश , षटचक्र ) धरती सें रह कर (शरीर में रहते हुए) 
पुकारने क्षमा हैं। राधास्वामी उक्टवॉसी गा रहे हैं ओर उद्लू 
( आत्मा | को सूर्य ( परमात्मा ) के दर्शन करा रहे हैं । *?? ५४ 
किंतु किसी भी श्रभ्मिप्राय को जब चाहे तभी कठिनतापूर्वक समम 
में आनेवाली परस्पर विरोधी बातों सें छिपा देने की दूषित प्रवृत्ति 
स्वभावत; घणित सिद्ध होने लगती हे। ऐसी गद्य उक्टवासियों के 
सम्बन्ध में कठिनाई इस बात से भी बढ़ जाती है कि भिन्न-भिन्न रूपकों 


दि लाना ब्न्न ] स-_ कक कक... कक... रससमारीता/भमरेसजकमबभ 


*...धरु भ्रचरज खेल दिखाया । ख्रत नाम' रतन घट पाया ।। 
चीटी चढ़ गगन समाई | पिगूल चढ पर्वत झाई॥ 
गूगा सब राग सुनावे। अश्रधा सब रूप निहारे॥। 
मंसी ने मकड़ी खाई। भुनगे ने घरन तुलाई॥। 
धरती सब खिल्कत्त ख्राई। जंगल में बस्ती ब्य्राही ॥ 
मूसी से बिल्ली भागी। पानी में श्रग्ती लागी॥ 
कउवा “धुन मध्री बोले | मेडक -भ्रब सागर तोलें॥ 
मरख से चतुरा हारा। धरती में गगन पुकारा॥ 
राधास्वामी उलटी गाई | उल्लू को सर दिखाई ॥। 

सारवचन, भा० २, पू० ४५०-२। 


पष्ठ अध्याय २७५ 


का प्रयोग सदा एंक हो भाव को व्यक्त करने के लिए नहीं किया जाता | 
इस विषय सें संतोषजनक बात केवल इतनी ही हैं कि ऐसी उल्टवासियों 
द्वारा अधिकितर आध्यात्मिक साधनाओं तथा दाशनिक सिद्धान्तों का ही 
वर्णन किया जाता है और हृदय की अभिलाषाओं का व्यक्तीकरण स्रीधी 
सादी एवं चुसनेवाली कविताओं के आधार पर हुआ करता है । 
यद्यपि काव्य की ओर उससे भी अ्रधिक आध्यात्मिक विचारगर्भित काव्य 
की ममज्ञता के लिए. कल्पना के कुछ न कुछ सौंदर्य की आवश्यकता 
पड़ती है । फिर सी ससमाज्ञोचना की आधुनिक प्रवृत्ति के विरुद्ध किया 
गया “आइ०»एं० रिचाड सः का यह कथन आध्यात्मिक अभिव्यक्ति के चेत्र 
सें दीख पड़नेवाज्ी उक्त मनोवृति के विषय में भी लागू हो सकता है कि 
“जो कुछु हम कहा करते हैं उसमें से प्राय: सभी बातों को भाषा छिपा 
देने में संमथ है ।? 

कबीर इस पअकार की मनोवृत्ति-द्वारा बहत अधिक प्रभावित 
जान पड़ते हैं ओर यहो बात सुन्दरदास सें भी लक्षित होती 
है जिन्होंने अपने 'सुन्दर विज्ञास' का एक पूरा का पूरा अध्याय 
इन वियययों से भो भर दिया हें। कभी-कभी कब्रीर इस बात का 
प्रद्शन करते हुए जान पड़ते हैं कि वे अपने पदों को समम्नने सें श्रत्यंत 
कठिन बना सकते हैं। वे सबको इस बात के लिए आह्वान तक कर 
देते हैं कि जो कोई भी उनके कथन के अभिपग्राय को समझ सकेगा 
उसे वे अपना गुरु स्वीकार कर लेंगे । वास्तव में कबीर की उल्टवासियाँ 
उनके सिद्धान्तों को यथाथत: सममने में बाधक सिद्ध हुईं हैं। स्व॒० 
रीवानरंश , विश्वताथसिंह ने जो कबीर के सिद्धान्तों के सबसे सफल 
मर्मज्ञ समझे जाते हैं, उन्हें सबसे अधिक विपरीस समझा हैं। उस 
निरपेत्चवादी कबीर की कविताओं को उन्होंने स्थूल्न व साचन्त विषय- 





[--भ्राइ० ए० रिचार्ड स 'प्रिसिप्स आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म! । 
पूृ० २११॥ 


३७६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय. * 


परक अर्थ लगा दिया है जो केवल एक बहुत सूच्रम प्रकार की ही 
सांचतता को प्रश्रय दे सकता था। कबीर को अनेक बानियाँ आज 
भी बोधगम्य नहीं हैं किंतु कुछ लोगों की भाँति यह कह देना कि चे 
किसी श्रभिप्राय को व्यक्त करने के लिए नहीं लिखी गई थीं, निर्तांत 
मिथ्या है। हि 


परिशिष्ट 
(१) पारिभाषिफ शब्दावली 


नीचे उन सकितिक शब्दों का एक कोष दिया जाता हे बिन्‍्हें 
निगेण मत चाले संत अपने भिन्न-भिन्न भावों को व्यक्त करते समय 
बहुधा प्रयोग सें लाते हैं । इससे पता चलेगा कि एंक ही सांकेतिक 
आड्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न स्थलों पर सिन्न-मिन्न भावों के लिए हुआ 
करता है । ऐसे स्थलों पर केवल प्रसंग से ही जान पड़ता हे कि अमुक 
शब्द का प्रयोग वहाँ अम्ुक बात को स्पष्ट करने के लिए हुआ है । 
गरीबदास का “भवन प्रतोध ग्रंथ” इस सूची को तेयार करते समय 
बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है । 

3४--शब्द, पवन, सास, जीव, सबद, सुर, सूर, उजास, ससा, 
संघ, सेसदम, नाद, स्यंध, व स्याज । 

अंतःकरणु--कमज, घड़ा, कलस, गगन, ऑगणा, ताखा च 
कुआ | 

व्रजपाजाप--उस प्रकार को उपासना की पद्धति व स्थिति 
जिसमें सभी ग्कार के वाह्य साधनों के प्रयोग छोड़ दिये जाते हैं और 
एंक अंत;क्रिया मात्र चलती रहती है । 

आत्मा--बादशाह, हंस, अवधूत, अजन, महर, गूजर, प्रजापति, 
सुलतान , राजा, साह, काजी, खग, सती, घिरहिनी, चेराणिनी, वियो- 
गिनी, बाँऊ, सुन्दरी, दुलद्िनी, रूह, अरवाह, बेली, अंजनी । 


ि के ए के 
३७८ हन्दी काव्य में निगंग संप्रदाय 


दी -पांडव, पाँच लड़िका । 
इंड|--योमनाड़ी जो नाक की बायीं ओर श्राकर समाप्त होती है 
न्द्रमा, इला, गंगा, वरणा । 

इज्जा--मनसा, गायत्री, सुरही, ( सुरभिज्गाय ) वच्छी, तरस 
जमुना, रूगछी ( रूगाक्षो ), माखी, मंंगी, देवी, सक्ती, डीबो, जोगनी 
मानी, साल्िन, कल्षाली, गोरी, पारवती, दमिनी, तथा, मोरी, मंजारी 

गुली, चावंड, ( चाम्ुन्डा ), चोल, चोट्टी । 

उनमनि--तन्मनस्कता, वहमन, अतिचेतना । 

ऊँट--स्वाँसा ( श्वास ) 

कम्मज्ञ--कर्म, कामनापू्ण काय । 

कुआँ--अंत;करण ( श्ंधा कुआाँ ) त्रिकुटो वा आकाश सें स्थित 
अम्ततकूप । 

गुरू -सिकल्षीगर, साह, सुनार, चन्दन, चितामणि, पारस, भ्ज्ञी, 
चेद्य, हंस, पारिष । 

चित - चातग, ( चातक ) चकोर, चकवा, चक्र, चिड्ठा ( चिट्टिया) 
चोर, चूल्हा, चक्‍की, चरखा | ह 

चन्द्रमा - इलानाडी, आज्ञाचक्र सें स्थित अ्रस्ृतस्रावक चंद्र, ज्ञान, 
पुरुष । 

जरणा-- जीएण करना, पचाना, किसी धारणा को आत्मसात्‌ कर 
लेना । 

जीव--प्राण, पावशाह, श्रजन, अवधूत, जोगी ग्रपित, हंस, 
महर, राजा, शाह काजी, खग, अट, कुष्टी, कंज, विरहिनी, बॉ, 
सुन्दरी, दुलहिन, रूह, अरवाह, वेली, अंजनी | 

तेंतीस करोड़ देवता--३ गृषश ( सत, रण और तम ) £ तस्व 
( जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी ) और २४ प्रकृति । 

तेल - भगवस्प्रम, जीवन विस्तार, स्नेह । 

दीपक--शरोर, शान । 


परिशिष्ठ ? ६५9६ 


दुलहिन-- सुरति, जीव, माया । 

दुद्षिधा -दुर्मति, द्वोपदी, कुदाली, कागली, कुछू ( अमावस्या ) 
कंसाइण माय ( दे० गाया? भी )। 

ध्यान - वितवन, ताल्ो, धागा, त्राटक, निद्रा, समाधि | 

निरति -परमात्मा के साज्षात्कार का आनन्द ( नृत्य ), पूर्ण 
ऊन्‍मयता । 

परचा--परिचय, परमात्मा का साक्षात्कार । 

परमात्मा--अविहड, अनाहद, दरिया, सागर, रमिताराम, रमेया, 
मूल, प्रीतस, सम्पति, कारीगर, कुम्हार | परमात्मा के नाम अनन्त हैं । “ 

पिंगल्ला--जमुना, असी, सूय, वायीं, नाड़ी में मिलनेवाली 
योगनाड़ी । 

बाणी- गंगा, भागीरथी, शारदा, सुरसरी । 

वाती--प्राण, उन्मेष की प्रवृत्ति | 

बंकना लि--सुषुम्ना ( पूववर्ती संतों के अचुसार ); त्रिकुदी के 
आगे का एक सूच्म सार्ग जिसमें ऊंचे पवत व नीची घाटियाँ बतल्ञायी 
कं परवर्तती संतों के अनुसार )। 

-मनि, झूग, मेंढक, मंजार, मूसा, मकंट, मोतीहार, मोर, 
गरुढ़, हाथी, पशु, पर्चिगा, सुनहा, सूका, कउवा, सहादेव, अवधूत, देव 
रावल, कउवा, बगुला, बाज, काइय, जोगी, खूं टा, बधुवा भंवरा, भोमी, 
फटक ( स्फटिक ) धोल ( घवल्न ), कलाल, रिंद, सेंतान, बकरी, सेहू | 
/ मानसरोबर--सुन्न में स्थित अम्तृतकुएड | 

माया - मेंणी, मोहनी, मजारी, मगर, डकिणो, संकणी, सॉँपणी, 
पापणी, जापिनी, कामिनों, भामिनी कोढणी | 

मूल--परमात्मा, मूज्ञाघारचकऋ, सूलप्रकृति । 

बिंदु--सुकूल, जलन्धर, ब्यंद, पाणी, वीये, व विंदुस्थान । 

वेराग्य- विरह, फिराक, प्यास, तपति, औचट, तड़फ, तालाबेली, 
उदास, फिकर | 


में ५ ५ 
शैघ२ हिन्दी काव्य में निगए संप्रदाय 


विसाहणा--क्रय-विक्रय, श्रावागसन । 

शब्द--गुरु क्री शिक्षा, सिचाण, पतोला, कूंची, वाण, मस्क, निर्भय- 
बांणी, अनहद वाणी, शब्दब्रह्म, परमात्मा । 

शका -ससा, स्यंक, स्थाज, सूसा, सॉप, कुत्ता, दुविधा, माप्रा। 

शरीर-- पिंड, घट, झ्राकार, वचन, प्रथ्वी, समुद्र, बंककूत, मोम, 
षाड़, गोकुल, व्यंद्रावन, वेलि, चबूलनी, पुतला, कील, श्रस्थूल, औजूद, 
देहुरा, महल, मसीत, व्याचर, परिवार, चादर | 

संसार--समुद्र, भो, वन, वाड़ी, माँड, जंजाल, रूग, बृत्त, चाक 
( चोरासी लाख योनि ) हाट, आवागमन । 

सुमिरण--जाप, डोरी, ताँत, लो, धूरि, वजन । 

सुखभन--सुपुम्ना, सरस्वती, बंकनाली | 

सुरति--जीव, सीप, सुन्द्रो, सरस्वती, सखी, कुदाली, श्रक, 
चेत, मछली, जीच । 

सूरज -पिंगलानाड़ो, मुलाधार में स्थित विषप्रस्तावक सूर्य । 

ज्ञानु--चाँदणि, तत्त, उजास, सूरज, चन्द्रमा । 

हाट--हंड, संसार । 


परिशिष्ट 
( २) निर्गण संप्रदाय सम्बन्धों पुस्तकें 


निगण संतसत का श्रध्ययन करने के लिए सबसे पहले डन संतों 
की प्रामाणिक रचनाश्रों का पढ़ना आवश्यक हे जिन्होंने इसे प्रचत्धित 
किया था । किंतु यह भी कोईे सरल्न काम नहीं है 
१, संत साहित्य ओर विशेषकर उन संतों की कृतियों का अध्ययन जो 
पहले हो चुके हैं । इन स॒तों के कतिपय श्रद्धात्ु भक्तों 
ने अपने गुरुओं के सिद्धान्तों को अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कुछ 
ऐसे पद्मों की रचना कर डाली हे जो इनके ही कहलाकर प्रसिद्ध हो 
चले हैं ओर ऐसा करना उन्होंने कदाचित्‌ अपना अधिकार समझा है । 
अन्य ऐसे व्यक्तियों ने अपने गुरुओं की कृतियों में या तो क्ञेपक भर दिये 
हैं अथवा इनके ही नामों से नितांत नवीन सामग्री तयार कर इनके 
प्रति भक्ति प्रदर्शन की जगह किसी अपने उद्देश्य की सिद्धि की हे “मूल 
गुरुओं के सिद्धान्तों पर आश्रित सप्रदायों का रग शीघ्रता से बदलता 
आता रहा हे ओर नवीन परिस्थिति के अनुकूल प्रमाणों की रचना भी 
उन्हीं के नामों पर होती आई है। अतएवं कभी-कभी असिद्ध बानियों 
में से प्रामाणिक पदों को प्थकू कर लना एक अत्यत कठिन काम हो 
गया है । 
यह बात विशेषकर कबीर के सम्बन्ध में देखी जाती है जो पूण 
'छूप से अशिक्षित थे और जिन्होंने कभो लेखनी उठायी ही नहीं थी । 


व्घर हिन्दी काव्य में निगगु संप्रदाय 


कहा जाता है क्रिजो कुछ वे कहते थे डसे अनेक अनुयायी लिख 
लिया करते थे। उनकी रूत्यु के अनंतर ऐसे शिष्यों च इनके भी अनु- 
यायियों ने उनके नाम से बहुत कुछ लिख मारा । उनके उपदेश इसी 
कारण ऐसे लोगों की कृतियों के साथ इस प्रकार मित्र गये हैं. कि उन्हें 
पृथक नहीं किया जा सकता। कबीर का अध्ययन करने के लिए बाबू 
लितिमोहन सेन द्वारा संपादित कबीर बानियों का बोलपुरवाज्ा संग्रह 
( चार भाग ) ओर उसी प्रकार उनका वेलवेडियर 'प्रेसवाला संस्करण 
जिसके चार भागों सें उनकी शब्दावली, साखी संग्रह, ज्ञानगूदरी, रेखते, 
भूजने व अखरावती सम्मिलित हैं तथा श्री वेंकटेश्वर प्रेस द्वारा प्रकाशित 
साखियों का संस्करण “बहुत उपयोगी हैं. परन्तु इनके रूअहकर्ताओं ने 
इस ब्रात का प्रयत्न नहीं किया है कि कबीर की प्रकाशित रचनाश्रं में 
से दूसरों की कृृतियों को प्रथक्‌ कर ले इस कारण इनसें अनेक ऐस्मे 


बानियाँ आ गई हैं जो कबीर की नहीं हो सकतीं। कबीर के एफ सौ 


पदों का डा० रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा किया गया अनुवाद लिति बाबू के 
डपयक्त संस्करण के आ्राधार पर निकला है तथा पं० अ्रयोध्यासिंह 
उपाध्याय का “कबीर वचनावक्कीञ, नामक छोटा सा संग्रह उक्त वेलवेडियर 
प्रेसवाले संस्करण के आधार पर तथार होकर काशी नागरी प्रचारिणो 
सभा, की भोर से प्रकाशित हुआ है और अपने ढंग का अच्छा है। 
सिक्‍खों के आदि ग्रंथ में संग्रहीत कबीर की रचनाश्रों का संग्रदँ 
बल्ले सावधानी के साथ किया गया जान पड़ता है। कितु कबीर के 
दंडित होने के सम्बन्ध सें उनकी ओर से प्रदाशित' चमत्कारों का उनतसें 
सम्सिक्नित कर लिया जाना, स्पष्ट रूप में सिद्ध कर देना है कि यह संग्रह 
भी संदिग्ध बातों से मुक्त नहीं। बीजक प्राय; सभी कबोरपथियों के 
अनुसार कबीर की आमाणिक रचना माना जाता है किंतु वह भी पूरण 
रूप से प्रामाणिक नहीं समझ पड़ता । उससें ऐसे पद्म आ गये हैं जिनका 
बूसरों की कृति होना निश्चित रूर से बतलाया जा सकता हैं। उदाहरण 
' के ल्षिए 'बीजक” का “संतों राह दुनों हम दीठा” से आरम्भ होनेवज्ला 


| 


परिशिष्ट २ ३८३ 


१० वाँ डब्द वषना का माना जाता है ओर डसका “कोइ राम रसिक 
पियहुगे”” थ्ले आरंभ होनेवाला २० वा शब्द, रजबदौस की सर्वाज्ी, 
के अनुसार स्वाश्री सुखानद का सममा जाता है। पहला शब्द वषना 
की “बानी”? में भी संग्रहीत है । कुछ साखियाँ भो जो आज कबीर की 
कद्दी जाती हैं वास्तव सें वषना की हा रचनाएँ हैं जसे “सत्त नाम 
न्नि ओषधो, सतगुरु दुह बतःय । ओषधि खाय रू पथ रहि ताका वेदन 
जाय ॥? ( संत बानी संग्रह भा० १, ए० ५, सा० १२ ) आदि । 
संत साहित्य की एक विशेषता यह है कि उससें अन्य किसी की 
रचनाओं को अपना बतलाने के उदाहरणों का सर्वेधा अभाव दीख पढ़ता 
है। पिछुले खेवे के संतों का यह अपराध हो सकता है कि उन्होंने अपने 
शब्दों को अपने पू्ववर्ती संतों के मुख से कहला दिया है, किंतु इनकी 
रचनाओं को इन्होंने कम्मी अपना नहीं कहा | सुखानंद कबीर के 
' समकालीन व गुरुभाई थे ओर इनसे कम प्रसिद्ध भी थे। उनकी रच- 
नाएं, इसो कारण, कबीर की कहला सकती हैं, किंतु कबीर की, उनकी 
नहों कहला सकतीं । 
विद्वानों का कथन हे कि 'बोजक” वाला संग्रह कबीर के जीवन 
काल में अस्तुत नहीं हुआ था। वेस्टकाद साहब का अनुमान है कि इसका 
संपादन सवग्रथम संभवत: सन्‌ १६७० ह० सें सिखों के आदि अंथ 
का संपादन होने से २० वर्ष पहले, हुआ होगा किंतु यह अनुमान हो 
अनुमान हे ओर इसके लिए काई भी प्रमाण नहीं कि यह अन्य आदि- 
ग्रन्थ” अथवा रज्जबदास की सर्वांगी” से प्राचीन है। भाषाशास्त्र के 
नियमानुसार तो ऐसा प्रतीत होता है कि आदि अन्थ”ः 'बीजक? से 
प्राचीन है । दादू कबीर के वचनों को सत्य मानते थे ओर दादूप॑थ्ियों 
ने भी इसी ऋरण, उनकी रचनाओं को बड़ी श्रद्धा के साथ देखा है। 
वषना व रज्बदास दोनों ही दादू के शिष्य थे। दादू पंथियों की 
रचनाएँ बड़ी सावधानी के साथ लिखी गई थीं ओर इसके लिए सदेह 
करने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि उनसें ज्ञेपक भरे हुए हैं, हा, 


ईैलें४ हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय 
यह बात, कदाचित्‌ स्थयं दादू की रचनाओं के संबन्ध में भो इसी प्रकार 
न कही जा सके | ५ 

में इसीलिए, समझता हूँ कि 'बोजक ”का वतंसाव संग्रह बषना 
( लगभग सन्‌ १६०३ हईै० ) के अनन्तर ही, किया गया था और 
पूणरूप से प्रामाणिक नहीं है। फिर भी इसके अतर्गत संगदीत अधि- 
कांश पद्म सदोष स्मरणशक्ति के कारण बहुत कुछ परिवर्तित होते हुए भी, 
कबीर की ही रचनाएँ हैं । 'बीजक” के बहुत से संस्करण हैं जो, सिवाय 
इसके कि उसके भिन्न अंशों के ऋम में कुछ अंतर हो वा साखियों की 
संख्या में कमी-बेशों हो, परस्पर भिन्न-भिन्न नहीं जान पड़ते | किंतु, 
पूरनदास का संस्करण ही आज-कल अ्रधिक प्रचल्षित हे ओर यही, 
संभवत; 'बीजक' का सबसे प्राचीन रूप भो है। हाँ आदिमंगल” व 
'प्रीतम अनुसार” मूज़ग्रन्थ के अरा नहीं माने जाते। * 

प्रो» श्यामसुन्दरदास-द्वारा सपादित 'कबीर-अन्थावल्लीः एक अन्य 
ग्रन्थ है जो इस ज्ञत्र में प्रामाणिक समझे जाने का गंभीर दावा करता 
है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें उस सांप्रदायिक क्ृत्रिमता का 
अ्रभाव है जो भिन्न-भिन्न सभ्रदायों-हारा प्रकाशित की गई अनेक 
रचनाओं में बहुधा पाई जाती है। और इसमें संगह्दीत पद्यों का उन 
बानियों के साथ पूरा सेल भी खा जाता है जो दादूपंधियों की 
पंचबानी' में सुरक्षित हैं। दादूपंथ के प्रवतक दादूदयाल, कबीर के 
शब्दों को पूर्णतः सत्य मानते थे | आदिम्रथ,८' के अनेक पद्‌ इस सम्रह 
में प्रायः उसीरूप में आये हैं और इस अथावल्ती? तथा 'बीजक' में भरी 
बहुत कुछ समानता दोख पड़तो है। <- ग्रद्यपि 'बीजक” के साधारण 


_अतनक्रिल्कक्पाकभ%इककाक॥ 4कतंपबंज पाक. के >4का हैक ककमक बम. हक अकबर, फिलमताह कक कैप्तकाम्स्‍लम, कील अक#टकमनाततकत अभरममाकक, 'रहमेकमअक सकेगा न॒ल कक >३(५४३०+ २४ फेललकब 5. 


आदि ग्रन्थ में संगहीत २४० साखियो व २२७ पदो में से “कबीर 
प्रन्थावली, के अतगंत केवल १०६ साखियाँ श्रोर ६५ पद झ्राये हू । 
'ई-+एक विसंत' को लैकर २५ पद, ज्ञान चौतीसी (वा ग्रन्थावली 
की 'ख' प्रति के अनुसार ( ककहरा ) का लगभग पूर्वाद्ध, प्रायः 


पद्मों में प्राव्मेद भो पाया जाता है| इस संस्करण के शब्दों के रूप 
अन्य किसीश्सो संग्रह की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं ओर कबीर के समय 
की भाषा-सम्बन्धौ प्रवृत्तियों के अनुकूल भी जान पढ़ते हैं। यह शज्नी 
उन दोहों वा साखियों में अधिक प्राचीन दीखती है जो अपभ्रश के 
अपने छठदों में रची गई हैं । पदों वा रमेंनियों में इसका अभाव लक्तित 
होगे के कारण यह नहीं सिद्ध होता कि साखियाँ ही कम आमाणिक, 
मानी जा सकतो हैं | कुछ समालोचकों की भाँति इन पर राजस्थानी 
व पंजाबी का प्रभाव स्वीकार कर तने की अपेक्षा, यही अधिक ठीक 
होगा कि इनफी भाषा को उस समय की प्रचत्षित सघुक्कड़ी भाषा मान 
लिया जाय | इन प्राचीन रूपों व शब्दों सें स कुछ आज भी राजस्थानी 
में तथा कुछु अन्य पंजाबी सें पाये जाते हैं। इस बात के लिए प्रमाण 
हे ( जेसा कि ग्रंथावली के प्ू० ७छ७ की पादटिप्णणी € से भी पता 
चलता है ) कि कबीर की पूर्वी बोली को उस समय के लोग 
अस्पष्ट/ बतल्ाया करते थे और हो सकता हे कि इसी कारण उन्होंने 
सर्वत्र समझी जाने योग्य भाषा का हो व्यवहॉर किया हो। 
इस भाषा का उस प्रकार प्रयोग करनेवाले केवल कबोर ही 
नहीं थे | उन्होंने इस बात सें डस परम्परा का हो अनुसरण किया 
“था जिस अनेक योगी कवि पहले से ही अपनाते आ रहे थे।< 
कबीर गोरखनाथ के बहुत दूर तक ऋणी थे ओर उन्होंने इनकी न 


३८ साखियाँ और बहुत सी रमेनियाँ दोनों में एक समान हैं। 
'बीजक' की रमेनियाँ असंबद्ध जान पड़ती है कितु ग्रन्थावली की 
रमेनियाँ क्रमानुसार है । रमेंनियों के एक समान अश भी बीजक' 
में ग्रसगत से हैं, कितु वे ही प्रन्यावली में आकर अपने-अपने 
उचित स्थानों पर सगृहीत दीख पड़ते है । 

“£--दे ० हिंदी काव्य में योगप्रवाह नागरी प्रचारिशी पत्रिका, भाग 
११ पृ० इसझ४-४०५ । 


िनननननोनाननानकीनिनानन3 बताना हगा ऑआ+ टिनलिलन+न 2>ननननतनामशक-कानलमनतन-ममनन मनन, 








४८६ हिन्दी काव्य में निरगंण संप्रदाय 


केवल रहस्यवादी बातों को ही अ्रपनाया तथा इनका गुप्त व्योगविद्या 
के विषय में अ्रनुसरण किया, प्रत्युत, इनकी भाषा एवं शेज्ञी को भो 
रुवीकार कर लिया। 'वेलवेडियर प्रेस” वाले 'कबीई साखी संग्रहः में 
लक्षित होनेवाल्ली पूर्वी भाषा की छाप सदा म्लैलिक नहीं समझी जा 
सकती; उसमें कह स्थलों पर पश्चिमी 'सथुक्कड़ी भाषा? का भी प्रभाव 
दिखलाई पड़ता हे । ले 

परन्तु इसका अथ यह नहीं सममना चाहिए कि कुछ राजस्थानी 
प्रभाव, जो अपभ्र श की भी कोई विशेषता नहीं, संग्रहकर्ता वा प्रतित्िपि- 
कारों के कारण नहीं पड़े होंगे। कबीर को रचनाओं के जितने भी हस्तलेख 
अभी तक मेरे सामने श्आये हैं वे या तो राजस्थान में वा किन्‍्हीं राज- 
स्थानियों के लिए ही लिखे गये थे। 'अन्थावज्ञी! का (क) नामक 
हस्तलेख भी, जिसका बनारस में लिखा जाना कहा जाता हे या तो किसी 
राजस्थानी के लिए वा किसी राजस्थानी-द्वारा लिखा गया था और 
यह बात, उसके अंत में लिखित “चाँचवि वजासू सं श्रीराम राम छ?” 
से भी स्पष्ट है। 

फिर भी ग्रंथावलीवाले इस संस्करण को स्वीकार करते समय एक 
कठिनाई श्रा खड़ी हो जाती है। “अंथावक्नीः दो हस्तलेखों पर आश्रित 
हू जिनमें से पहले का लिपिकाल सं० १५६१ विक्रमीय ( सन्‌ १५०४” 
'हैं० ) बतलाया जाता है और जिसे ( क) कहा गया है तथा दूसरे 
का लिपिकाल सं० श्य८३ विक्रमीय ( सन्‌ $८२४ हें० ) सममका 
जाता है और जिसे ( ख) की संज्ञा दी गई है। किंतु, इसमें संदेह 
हैं कि (क ) नामक हस्तलेख उतनाही पुराना है जितना होने का 
वह दावा करता है । इस विषय में प्रो० जुल्ले व्लाश ने अपने सन्‌ १६२६ 
'बाले 'फारलांग व्याख्यानों? में कहा हे कि “संपादक ने जो फ़ोटो वा प्रति- 
चित्र दिया है उससे इस बात का पता लगा लेना सरल ह कि लिपि 
' की मिती किसी दूसरे हाग्र की लिखी है। संभव हैं कि हस्तलेख के 
दोनों लेखक समसामयिक ही रहे हों, किन्तु, बाबू श्यामसुन्दरदास इस 


परिशिष्ट २ हक 


समस्या, को हल नहों करते और, जसा मैने पहले भी कहा है, उसे हज 
करने के ज्विए मेरे पास भी कोई साधन नहीं ।??& " 
मेने इस छृस्तलेख की स्वय सी बडी सावधानी के साथ परीक्षा की 


त्शै चमक कक ९७ १७६२ के इक हे कु, 
हैं। इसमें संदह नहीं [कि पुष्पिका की लगभग डेढ़ पंक्तियों तथा हस्तत्लंख 


के शेष अंश में अंतर स्पष्ट है ( दे० “संपूर्ण संगत १५६१ लिप्य कृत्य 
ब्यणारस मध्य षेमचंद पठनाथ मलूकदास बाचवि वाला सूं श्रीराम राम 
छु याद्वसि पुस्तक द्रष्टवा तादस ज़्ि्तं मया यदि शुद्ध तो वा मम॒दोशो 
न दियतं ) ।” पुण्पिका सें एक प्रधान अतर 'यः ओर “व” के दीचे किसी 
बिंदु का अभाव है जो शेष अश सें जहाँ कहीं भी सयुक्तात्षर न हों 
अवश्य दिया गया मिलता हे । अंतिम प्रष्ठ में अचरों के दुबारा लिखे 
जाने के सी चिह वतंमान हैं ओर यह बात उस अंश सें पायी जाती 
है जो लालरंग में लिखी हे । पुष्पिका, पृष्ठांकन, ओर 'कब्ी! एव राम! 
जो पृष्ठों के किनारों पर लिखे हैं सभी सत्र दुहराये हुए हैं। दो 
भिन्न-भिन्न स्थाहियों का भी प्रयोग हुआ है जिनसें से एक फीकी और 
दूसरी गाढ़ी है पुष्पिका की स्याही गाढ़ी हैं और प्रष्ट का शेष फीकी 
स्थाहो में लिखा हुआ है इसके कारण हस्तलेख के शेष अ्रंश के विचार 
से, रंग में थोड़ी सी भिन्नता आ गड्ढे है। परन्तु यह बात भी हस्तलेख के 

महत्व को किसी प्रकार कम नहीं करती + हस्तलेख के अच्रों की बनावट 
बहुत पुरानी हे। इसमें कोई बात ऐसी नहीं जिससे इसे घुष्पिका के लेखा- 
नुसार प्राचीन न स्वीकार किया जाय और यही हम स्वयं उस घुष्पिका के 
सम्बन्ध में भी बह सकते हैं। व” एवं “य! के नीचे बिंदुओं के न 
होने से ही हम इसे हस्तलेख का समकालीन मानने से इन्कार नहीं कर 
सकते । उदाहरण के लिए 'सरस्वती सवन बनारस” में सुरक्षित तुलसी- 
दास के हाथ की लिखी “वाल्मीकि रामायण” ( उत्तरकाण्ड ) की भी, 





4#-+दे ० बुलेटिन श्राफ दि स्कूल झ्राफ ओरियंटल स्टडीज, लेंडन 
इंस्टिटयूशन भा० ५ व भा० ६ पृ० ७४९-सम प्राब्लेम्स श्राफ 
इण्डियन फाइनालोजी ) । 


3पप हिन्दों काव्य में निगुण संप्रदाय 


जिसका लिपिकाल सं० १६४१ वि० है, यह'विशेषता हे-- और सह बात 
कालिदास के अभिज्ञान शकुन्तला” के कदाचित्‌ सबसे प्रत्चीन उस 
हस्तलेख ( लिपिकाल सं० १६६० वि० ) में भी दीर्ख पड़ती है जो 
फाशी-हिंदू-विश्वविद्यालय के पं० केशवप्रसाद मिश्र के यहाँ सुरक्षित. 
है। हो सकता हैं कि उस हस्तलेख की पुष्पिका भी उसी लिपिकार की 
लिखी हो ओर उसने इसे बहुत घिसी हुईं किसी लेखनी-द्वारा शीघ्रत्ा 
में लिख दिया हो । व, छू, ल, न एच य सयुक्ताक्षर श्रक्षरों में पायी जाने 
वाली समानता बहुत स्पष्ट हे। पहले यह प्रथा धी, और आज भी 
देखी जाती है, कि लिपिकार पुस्तकों की विशेष मॉँगवाली प्रतिलिपियाँ 
कभी-कभी पहले से प्रस्तुत किये रहते थे ओर उन्हें किसी के हाथ देते 
समय उनके श्रन्त सें पुष्पिका जोड़ देते थे । 


सम्भव है कि यही बात इस हस्तलेख के सम्बन्ध में भी हुई हो। * 
नवीन लिपि की स्याही के फीकेपन के ही कारण सम्भव हे, दुहराना 
भी पडा हो। इस दुहराने के कारण यदि हस्तलेख ( क ) की प्रामा- 
शिकता न सी स्वीकार की जाय, तो भी “कबीर-अन्थावल्लीः के महत्व 
की डपेद्या यों ही नहीं की जा सकती | ( ख ) नामक हस्तलेख नितांत 
संदिग्ध नहीं है । स्वय सेरे पास दो हस्तल्ेख हैं जिनमें से एक का 
लिपिकाल स० १८१६ वि० ( सन्‌ १७९६ है० ) है ओर दूसरे पर कोई 
समय नहीं दिया हे ओर ये दोनों हस्तलेख (क ) की प्रामाणिकता 
सिद्ध करते हैं। 'पोडीहस्तलेख” में सम्मिलित “कबीरबानी” भी जिसका 
वर्णन नीचे दिया जाता दे इस प्रति से सुख्य-सुख्य बातों में भिन्न 
नहीं हे ओर जोधपुर लाइब्रेरी में सुरक्षित व सं० १८३० वि० में लिखित 
कबीर की रचनाओं के आ्रादि, मध्य तथा श्रन्त में दिये गये उदाहरणों से 


ँधहापाम्यसकाएजहशमवास ११4२ इ्तभभताउाकालेन+का 


६““दे० दयामसुन्दरदास एवं पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल द्वारा सम्पादित 
गोस्वामी तुलसीदास' के पृ० १०४ के सामने क़ा प्रतिचित्र ) । 


४ परिशिष्ट २ ३८६ 


भी जो काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा की खोजों की रिपोट में प्रकाशित 
हैं, यह भज्नो भाँति मेल खाता है। ( क ) वाला हस्तलेख अन्य लेखों 
से केवल एक ही बात में भिन्न ह ओर वह संग्रहीत यद्यों की संख्या 
है। (क) वाले हस्वल्लेख बसे कम पद्य हैं ओर यह इसी कारण 
सबले प्राचीन भी ६। रपज्जबदास को 'सर्चांगो' के अन्तगंत, इसा की 
१८वाँ शताब्दी के पूच भाग में संग्रहीत, कबीडु की रचनाएं भी इसी 
प्रकार की हैं। यह भी सम्भव हें कि दादूद्याल ( जन्म सचत्‌ ३६०१३- 
१९४४ हुैं० )को कबीर को बानियाँ इसी रूप हले-पहल मिल्नी 
थीं ओर इन्हीं के आदर्श पर उन्होंने अपनी बानियाँ रची थीं। श्रतएव 
यह असम्भव नहीं कि कबीर की रचनाश्रों का यही रूप सन्‌ १५०४ है ० 
सें भो वत्तमान था जबकि (क ) हस्तलेख की प्रति भ्रस्तुत की गडे थी । 
परन्तु हस्तलेख की प्रामाणिकता पूंक बात हे और उसके विषय 
“की प्रामाणिकता, दूसरी । ओर इस दृष्टिकोण के अनुसार में 'कबोर- 
अन्थावजी”? को पूर्णतः विश्वसदीय नहीं मानता । इसके #न्‍्तगंत कुछ 
ऐसे पद्म हैं जो कबीर के नहीं हो सकते । कबीर के चमत्कारों के प्रसग 
चाले सभी पद्य ऐसे ही हैं । कबीर अपने पू्॑वर्त्ती संतों के चमत्कारो में 
चाहे विश्वास भी करते रहे हों, तो भी उनके जसे सत्यवादी व्यक्ति 
ने अपने सम्बन्ध में कूडी बातें नहीं कही होंगी। फिर इनसे 'कथता 
वकता सुरता सोई” से आरम्भ होनेचाला एक पदच्च& आया हैं 
जिसे आदिग्नन्थ” में सिशख्ों के प्रथम गुरु नानक का कहा गया 
ह। यह भी सम्भव हें कि “भअन्थावत्वी” के सम्पादक के बजाय ग्रन्थ के 
सम्यादकों से ही यह भूल हो गड्ढे हो क्योंकि यह पद दादूपंयियों की 
“पंच बानी? में सी आया है ओर वे त्लोग नानक के दादू से पूर्वकालीन 
होने पर भी उनकी बानियों के प्रति कोहे श्रद्धा नहों प्रदर्शित करते । 
तो भी जबकि इस विषय सें कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता 


प३--पंदे ४२, पु १ ०२] 


३६० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


इसके द्वारा कबीर अ्रंथावत्नी! को पूणत; प्रामाणिक मान लेने सें सय 
भी उपस्थित हो सता हे । इसलिए कबीर ग्रन्थाचली” आदिश्नन्थ! 
एवं बीजक को मैंने अधिक चिश्वसनोय मानते हुए भी उनकी ऐसी 
कोई भी रचना स्वीकार नहीं की है जिससें या तो सांप्रदायिकता की 
गनध आती है या जो डनके रचयिता के सम्बन्ध सें किन्हीं असम्भव 
बातों का उल्लेख करती हे। इसके साथ ही मैने उपयक्त श्रन्य अ्न्थों 
की भी पूणत; उपेज्षा नहीं की हे ओर मैंने उनसे ऐसे पद्यों को उद्घत' 
भी कर दिया हे जो इन तीनों ग्रन्थों में स्वोकृत बातों के विरुद्ध नहीं 
पड़ते । जो पद्य इन तीनों ही ग्रंथों में आये हैं. उनके पाठों को मैंने 
झसांप्रदायिकता एवं पुरानी शेक्षी के विचार से, थअथाचली” तथा 
आदिम्रंथ! के ही अनुसार ठीक माना हे | 

उन पद्यों के सिवाय जो कबीर की बानियों में मित्र गये हैं कुछ 
ऐसी भी रचनाएं चलन पड़ी हैं जिनसें से बहुत सी तो कबीर-क्त कह- 
जाना चाहती हैं ओर अन्य पश्रनेक ऐसी हैं जो उस प्रकार न कहलाकर 
भी कबीर की कृति होने का अ्रम उत्पन्न कर सकती हैं। कबीर के 
भिन्न-भिन्न जीवनचरित्रों सें दी गई उनकी पुस्तकों की सूची में ऐसे 
बहुत से अन्थों के नाम दिये गये मिलते हैं । ऐसे ४० मंथ्रों को एकद्चित 
करके कबवीर-पंथी साधु युगलाननद के सम्पादकत्व में, ११ भागों का 
एक 'कबोरसागर” जो एक दूसरे नाम से बोध-सागरः भो कहलाता 
है, बग्बई के श्री वेड्टेश्वर तथा जच्मी वेडटेश्वर प्रेस-द्वारा प्रकाशित 
किया गया हे । 

इन ४० गंथों में से केवल आत्म बोध (भा० ६) अंशत; 
उस रेखता का प्रतिनिधित्व करता है जो “वेल्वेडियर प्रेस” से प्रकाशित 
है ओर जिसे कबीर कृत माना जा सकता है । इसमें दिये गये कबीर 
के सिद्धांत 'प्रन्थावलत्वीः एवं 'अन्ध” के अनुकूल पड़ते हैं ओर 'रेखता' 
की खड़ी बोज्नी भाषा के कारण भी इसका कबीर-कृत होना अ्रसम्भव 
नहीं हे । किन्तु यह भी सरभव है कि इसका रचयिता कबीर न होकर 


परिशिष्ट २ ३६१ 


मनोहरदास हो । इस ग्रन्थ के कड़े स्थलों पर 'दासमनोहर” शब्द का 
प्रयोग दौख पड़ता है। इसमें सन्देह नहीं कि उक्त प्रयोग भौतिक मन 
के लिए किया गया है । फिर भी इसके विरुद्ध भी कोई कारण नहीं कि 
यह र चय्रिता का नांम होकर ही प्रयुक्त हुआ है ! 
शेष ३६ रचनाओं में से एक भी कबीर की नहीं ओर यह उनके 
विषय से ही प्रकट है| अनुराग सागर! ( भा० २ ) झानसागर! 
( भा० १ ) 'अम्बुसागर! ( भा० ३) 'स्वसस्वेदबोध! ( भा० £ ) 
“निरंजन बोध! ( भा० ७ ) 'ज्ञानस्थिति बोध! ( भा० ८ ) स्वश- 
सागर” ( भा० ३ ) एक प्रकार के 'कबीर जातक” वा कबीर के अवतार- 
धारण की कथाएँ हैं| इन कथाओं सें एक ऐसे सष्टिक्रम का चर्णंत 
है जो दार्शनिकता व पौराखिकता से भरा हुआ हैँ ओर इसके अनुसार 
कबीर ज्ञानी कहे गये हैं तथा उन्हें आदि पुरुष के अनेक ( कुछ पुस्तकों 
के अनुसार ९ ओर दूसरों के अनुसार १६ ) पुत्रों में से एंक एवं निरं- 
जन का भाई माना गया है। इस निरंजन को वचक समम्मा गया है । 
यह अपने पिता को इस बात में ठग लेता हें कि चह इसे सप्तलोक, 
मानसरोवर, तथा आदि माया ( अधष्टाजी भवानी ) दे दे ओर अपने 
मनोविकारों के आवेश में आकर आदि माया को यह निगल भी जाता 
हे | तदनंतर आदिमाया उसके पेट को चीरकर बाहर निकज्न आती है 
ओर इसकी बातों में आकर इससे व्याह कर लेती है जिससे ब्रह्मा, 
विष्णु, व महेश नामक तीन पुत्रों की उत्पत्ति होती हैं। तब ये तीनों 
लड़के अपने जन्म के पहले से ही गुप्त हो गये हुए पिता की खोज सें 
निकलते हैं | ब्रह्मा लोटकर असत्य बोलता हे कि मैंने अपने पिता को 
देखा हे जिसपर रुष्ट होकर आद्या उसे शाप देती हे कि तुम्हारी न तो 
कोई पूजा होगी ओर न तुम्हें कोई भेंट अपिंत की जायगी और तुम्हारी 
संतान ब्राह्मण, भी धूत्त हुआ करेंगे । ु 
विष्णु भी अपने प्रयत्नों में अ्रसफल हुआ और निम्न लोकों सें जल्न- 
बर काला पड़ गया। उसने अपनी असफलता स्वीकार कर ज्ञी जिसके 


३४२ '.. हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय 


' कारण वह सबसे अधिक पूज्य बन गया। उसने अपने बड़े भाई (दु:खित 
ब्रह्मा) को वचन दिया कि मेरे अनुयायी तुम्हारी सन्‍्तान का्सी आदर 
व पालन-पोषण करेंगे सबसे छोटे लड़के महेश ने मोन रहना स्वीकार 
किया जिसके कारण वह अमर योगी बन गया। इन्हों त्रिदेवों के हारा... 
झृत्यु का स्वामी निरग्जन सारे विश्व पर शासन करता हैं । निरंजन 
के मूल कपट से कोई भी नहीं बच सकता, जब तक ज्ञानी 
( कबीर ) इस काम के लिए नियुक्त होकर स्वयं उसका उद्धार करना 
स्वीकार न कर लें। निरंजन ने इन उद्धारकर्ता कबीर को भी घोखा 
दिया ओर उनसे वचन ले लिया कि मैं तुम्हारे कार्यों में, सत्य, त्रेता . 
एवं द्वापर युगों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करूँ गा। इन थुगों में कबीर 
ऋमश॥ सत्यसुकृत, सुनींद्र तथा करुणामय नामों से विख्यात थे और 

नहोंने पदले में केवल राजा धोंधल व खेमसिरी ग्वाल्िन, दूसरे सें 
भाट विचित्र हनुमान ( हनुमान बोध भा० ५ ), लक्ष्मण ( क्योंकि 
इसी युग सें राम समुद्र पर पुक्न बाँधकर कबीर की कृपा से लका पहुचे 
थे ) और मंदोदरी ( जिसका पति रावण केवल कबीर के शाप हां से 
मारा गयां था ) तथा तीसरे में केबल गढ़ गिरनार की रानी का उद्धार 
किया था ओर उसी की प्राथ ना पर डसके पति को भी बचाया था । 
कलियुग सें ये काशी में अवत्ती्ण हुए ओर, उन्हें उस श्वपच स॒द॒शन्न 
ने पहचानकर उनकी पूजा की जिसे कृष्ण के कहने पर युधिष्टिर ने, 
अपने अश्वमेघ यज्ञ की सफलता के लिए उसके पहले निमन्रित करना 
आवश्यक माना था। कृष्ण ने अपनी झूत्यु के अनंतर उड़ीसा के राजा 
इंद्दमन को स्वप्त में आशा दी कि तह पुरी में जगन्नाथ के लिए एक 
मंदिर का निर्माण करे | किंतु समुद्र ने राम को अपने ऊपर पुल बाँघने 
के अ्रपराध को क्षमा नहीं किया था । जिस कारण उसने उक्त मंदिर के 
निर्माण में बाधा उपस्थित की ओर, कबीर के इस बीचबिचाच पर कि 
तुम पुरी के नगर की जगह द्वारका को डबो लो, चह शांत हो सका । 
कबीर ने पुरी से अस्श्वुयता को दूर कर दिया, किंतु गोरखनाथ की धघुष्टता 


ञ्र 


परिशिष्ठ २ 585३ 


के कारण, उनके दर्शन योगियों को उपलब्ध न हो सके ( लक्ष्मण बोध, 
भा० ४ )। ये उपाख्यान इन पुस्तकों सें केवल थोड़े से ही परिवतनों 
के साथ "यन्न-तन्न दिये मित्रते हैं। ओर इनके उल्लेख 'कबीरसागर? 
के बहुत से अन्य ग्रन्थों में भी पांये जाते हैं । 
इन गंथों में से कई एक सें कबीर के, कल्नियुग सें रहकर किये गये 
उद्धार सम्बन्धी अयत्नों के चश न मिलते हैं | हजरत मुहस्मद ( मुहम्मद 
बोध, भा० ६ ); बढ्ख के सुलतान अवाहम अधम ( सुल्तान बोध, 
भा० ६ ), विष्णु के वाहन गरुड़ ( गरुई बोध भा० £ ); बंका के 
राजा अमरसिंह जिसे कबीर ने भयकर नरकों को दिखला दिया था 
( अमरसिंह बोघ, भा० ४ ) | काशी के वीरसिंह बघेल जिन्होंने कबीर 
की मृत्यु के अनंतर नवाब बिजली खाँ के विरुद्ध युद्ध ठानने की 
तैयारी की थी ( वीरसिंह बोध, भा० ४ ), जलंधर के राजा भूयाल 
( भूपाल बोध, सा> ५ ) जगजीवन नाम के एक राजा ( जगज्नीवन 
बोध, भा० £ ) दिल्ली के शाह सिकंदर क्ोदी ओर अहमदाबाद के 
नवाब दरियाखाँ ( कमालबोध, भा० १० ) श्रीनगर ( गढवाल ) के 
राजा राममोहन जिसका राज्य कश्मीर तक फेल्ा हुआ कहा जाता है 
( गुरु माहात्म्म, भां० ११ ) आदि सभी के लिए कहा गया है कि 
नहोंने कबीर को शरण माँगी थी ओर उन सबको उन्होंने वचन लिया 
था । ज्ञानप्रकाश ( मा० ७ ) में इस बात का पोराशिक चर्णन आता 
है कि ध्ंदास का शिष्यत्व किस प्रकर प्राप्त किया था । 
चोंका स्वरोदय ( भा० ७ ) ओर सुमिरण बोध ( भा० १० ) में 
कबीरपंथ में प्रचलित उपासना-पद्धतियों दी चर्चा आती हे और उनसें 
भिन्न-भिन्न प्रकार की चोका, आरती, तिनका तोड़ना आदि सम्बन्धो 
विधियों के वर्णन पाये जाते हैं । अमरमूल (भा ७) में पान परवाना, 
पारस एवं अ्रमरमुत्त की विधियों की भी उपयोगिता बतलायी गई है । 
विवेकसागर ( भा[० ३ ) तथा धर्मविधि ( भा० & ) में साधुओ्रों एवं 
ग्रहस्थों के आचार-धम निरूय्रित किये गये हैं। कायापंजी, पंचसुद्रा, 


३६४ हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


संवोषबोध ( सभी भा० ८) ओर स्वासगंजार ( भा० १०) में 
गुहाविद्या की बातृ दी गई हैं । कमंबोध ( भा० ७ ) में कर्म थ उसके 
परिणामों का चर्शन हे। ज्ञानबोष, भवतारणबोध, मुक्तिबोध और 
कबीरबानी ( सभो भा० ७ ), नाम की सच्ची मद्दिमा का चणन करते 
हैं और उन अन्य बहुत सी बातों की भी चर्चा करते हैं जो, धर्मदास 
के अनुयागय्रियों के अनुसार घार्थिक जीवन के लिए आवश्यक हैं । 

कबीरपंथ ने हिंदुश्रों आदि के वतेमान पोराणिक साहित्य से भी 
लाभ उठाया है ओर उनके आधार पर अपने आदर्शो व भावनाओं के 
प्रचार का प्रयत्न किया है। आगम निगमबोध! ( भा० १० ) में भिन्न- 
भिन्न धार्मिक संग्रदायों ओर उनके अचारकों जसी प्रकरीणंक बातों के 
बण पाये जाते हैं । 

उमग्रगीता (भा० ८ ) में कबोरपंथी-विचारानुसार 'भगवदुगीता! 
की बातें दी गई हैं | कहीं कहीं तो महत्वपूर्ण स्थलों पर मूल का अ्रद्वरश:, 
अनुवाद तक मिल्नता हे। झुख्य विपय तथा संबादों की संख्या तक में 
अंतर नहं। दीखता | कृष्ण सेअत में निगण भक्ति का उपदेश दिलाया 
गया है और कहा गप्रा है कि निगण सगुण से श्रेष्ठ है. किंतु वास्तविक 
परमात्मा निगंण से भो परे है। मेनतबोध में जनधम का चणुत है जिसे 
कबीरपंथी ज्ोग उसके अिंसा-सिद्ान्त के कारण महत्व देते हैं। 
अभ्लिफनामा ( भा० ७ ) एक उपदेशात्मक ग्रंथ हे जिसका प्रत्येक पद 
फारसी वर्शमाला के अचरों से आरम्भ होता है । 

कबीरबोध ( भा> ६) भूल से कबीरपंथ की रचना समझा 


जाता है। यह गोरखनाथ के मुस्तिम अनुयायी बाबा रतनहाजी की 
कृति जान पड़ता है। यह भी बहुत संभव है कि यह अंथ गोरखपंथ 
व कब्रीर पंध के बीच को एक कड़ी सिद्ध हो जाय। कबीरबानी 
'( भा० ७ ) नाम सूचित करता ह कि यह कबीर की रचना है किंतु इसके 
अंतर्गत सं० १७७४ वि०. विषयक भविष्यवाणी के आने के कारण 
यह उस समय के पीछे को रचना जान पड़ती है। जीवधमंबोध 


का 


परिशिष्ट २ ३६४ 


( भा० ११ ) एक बहुत आधुनिक पंथ है क्योंकि इससें संसार के सभी 
धर्मों की चर्चा की गई है और इसमें कतिपय भाषएविज्ञान के प्रश्न 
तक छेड़े गये हैं.। कबीरचरित्रवोध ऐक गद्य अंथ हे और कदाचित्‌ 
संपादक की हो रचना है जिससें कबीर का जीवनचरित्र, पॉराणिक ढग 
से लिखा गया हैं | गद्य की कुछ अन्य रचनाएँ भी यत्न-तन्न पायी जाती 
हे जिनसें से कुछ ता अवश्य हो संपादक की कृतियाँ हैं । 

'सुखबिधानः! नामक अंथ सें ब्रह्म, माया, जीवात्मा आदि का 
विवेचन है और कुछ ऐसो धार्मिक बातें भी उसमें दो गडे हैं जिनसे 
पता चलता हं कि धमदास किस ग्रकार कबीर के शिष्य हुए थे । विल्सन 
साहब ने इसका रचयिता सुरतगोपाल को माना है जो कबीरपँंथ की 
काशीवालो शाखा के प्रवतंक थे। किंतु काशीवाली शाखा इस प्रकार के 
साहित्यिक प्रप्॒त्नों से पूणुत मुक्त ह और यदि उसने कभी ऐसा कदम 

 डंठाया भी है तो वह “बीजकः पंथ की दीका-टिप्पणशियों तक ही सीमित 
रह गया है । 

पनर्भय ज्ञान 'मेदसारः व आदि टकसारः जेसे कुछ अन्य अंथ 
हैं जिन्हें हम कबीरसागर में सम्मिलित पुस्तकों की श्रेणी में रख सकते 
हैं। गोरखगोष्ठो व रामानंदगोष्ठी में कबीर के साथ उन महात्माओं 
की बातचीत करायी गई हे । 

इन रचनाओ्रों का महत्व इस बात सें हे कि इनके द्वारा पता चल 
जाता है कि कबीर के उपदेशों को उनके अलनुयायियों और विशेषकर 
धर्मदासी शाखावालों के कारण कौन सा रूप मिल गया। उन्हें देखने 
पर उन्हें कबीरकृत नहीं स्वीकार किया जा सकता। उनके आधार पर उक्त 
शाखा का इतिहास लिखने में भी सहायता मित्न सकती है। उदाहरण 
के लिए अनुरागसागर' से पता चलता है कि धमदास से छूठी पीढ़ी में 
धर्मदासी शाखा की महंती के उत्तराधिकार के सम्बन्ध सें गंभीर झगड़े 
हुए थे | उससें कबीर के उपदेशों पर आश्रित अन्य पंथों के ऊपर किये 
गये दोषारोपणों के उदाहरण सी मिलते हैं। अनुरागसागर प्‌व॑ अन्य 


३६६ हिन्दी काव्य में निग॒ण संप्रदाय , 


ऐसे अंथों के अनुसार कलियुग में कबीर उन्हीं के उद्धार के लिए प्रयरन 
करते हैं जो निरज़न के प्रति वचनबद्ध' नहीं रहा करते। फिर सी निरंजन 
ने कबीर को धोखा देकर उनसे नाम का रहस्य जान लिया है और 
उसके आधार पर उसने निगणमत के द्वादश पंथ प्रचलित कर दिये हैं 
जिनसे धार्मिक पुरुषों को उस घमंदास के अनुयाग्रियों को शरण में 
जाने में ब.घा पहुचती ह जिनके वश के ल्लिए कबीर ने निरन्तर बयात्निस 
पीढ़ियों तक नेतृत्व करमे की परपरा चला दी थी। इन द्वादृ्श (थों में 
नारायणदास ( झूत्यू अंधादूत ) सुरतगोपाल (अंधश्रचेत ) कमाज 
( मनमकरंद ) प्राणनाथ ( अ्रकिल्मग अथवा विजयदूत ) और जग- 
जीवन ( नकटानेन ) द्वारा प्रचल्नित किये पंथ शआते हैं और उनके 
प्रवतकों के नाम अश्रवज्ञापूदक रचे गये हैं जेसा कि कोष्ट में दिये गये 
शब्दों से प्रकट है | कहा जाता है कि कबीर ने तीन अन्य काल्पनिक 
चंशों को भी इसी प्रकार आदेश दिये थे जिनसें कुशहर द्वीप के कर्णाटर ' 
नगर के २७ पीढ़ियोंवाले चतुमजदास प्ञज्ञ द्वीप के दर्भगा नगर के 
१६ पीढ़ियोंबाले चंकेजी ओर शाल्मत्री द्वोपस्थ महापुर नागरिक ७ 
पीढ़ियोंचाल सहतेजी हैं । किंतु ऐसी रचनाओं को कबीर के चास्तविक 
उपदिशों का प्रचार करनेबाल्ञा प्रथ नहीं कहा जा सकता । इनका उनकी 
अपनी कृति मान जिया जाना तो और भी अ्रसंभव है। 


उक्त सभो रचताएँ १८ वो ईस्त्रो शताब्दी वा उसके पीछे को हैं । 
इनमें से सबसे प्राचीन 'सुखनिधान” होगा जिसमें दिये गये पौराणिक 
डउपाख्यान उतने विस्तृत नहीं हैं | अनुराग सागर! उस समय की 
रचना हे जब प्राणशनाथ ( सन्‌ १६१८-१६६४ है० ) ने घामी संप्रदाय 
का प्रवत्तन कर दिया था और जगजीवनदास ( जन्म सन्‌ १६७० ). 
ने भ्रगना सतनामी संप्रदाय प्रचलित क्रिया था । इसको सबसे प्राचोन 
प्रति, स्वामी युगवानन्द के अनुसार, प्रबोध नाम वाला पीर! € सन्नू 
१७१९-१७४४ है० ) के समय की है ओर यही उसका वास्तविक 


परिशिष्ठट २ ३ ध् 


समय भो-होगा । सिद्धांतों के विकास का ध्यान करते हुए, कहा जा 
सकल हु दि ज्ञानसागरः इससे कुछ प्राचीन होगा ओर अन्य पोछे के 
होंगे । प 
कबीर के शिष्यों की" रचनाओं सें धर्मदास की शब्दावक्षी ( वेल- 
चेडियर प्रेस ) महत्वपूर्ण हे। कबीरपुत्र कमाल की भी बानी मिलतो हे 
यद्यपि चह अभी तक छुपी नहीं ह । 
सिख, गुरुओं की रचनाओं का सबसे महत्वपूर्ण व प्रामाणिक संग्रह 
आदि ग्रन्थ! है। यद्यपि, सिखधर्स भी आज अन्य घर्मो की हो भाँति एक 
संप्रदाय बन गया है फिर भो आदि अंथ' सांप्रदायिक विचारों से 
नितांत शून्य है । यह भत्न नहीं कहा जा सकता कि सिख गुसु्ओों के 
अतिरिक्त अन्य सनन्‍्तों की बानियाँ जो उसमें समृहीत हैं सम्मिश्रण युक्त 
"हैं; । पुस्तक साधारण प्रकार से गुरुसुखी ज्िरि में छुपा करती है, 
तारनतरन के एम० एस० चंच्य ने इसका एक नागरो लिपि में छुपा संस्करण 
भी निकाला है । डा० ट्म्प ने इसका अनुवाद किया था और मेकालिफ़ 
साहब ने भी इसका एक पूरा व उपयोगी अनुवाद कर डाला है । इसको 
प्रारस्सिक रचना 'जपुजी? का प्रो० तेजरलिंह द्वारा किया हुआ अनुवाद 
सुन्दर व शुद्ध भी हें, 'संतबानी संग्रह” के सम्पादक ने गुरु नानक की 
कुछ ऐसी रचनाओ्रों को संग्रहीत किया है जो अन्यत्र नहीं मिलती | पता 
नहीं उन्हें कोन सा महत्व प्रदान किया जाय । 


दादू की बानियों के भी कई अच्छे सरकरण उपलब्ध हैं, किंतु यह 
कहा नहीं जा सकता कि वे ज्ञेपकों से कहाँ तक युक्त हैं। पं० चन्द्रिका- 
"प्रसाद का संस्करण सबसें श्रष्द समझा जाता हें। उसके अतिरित्त 
पं० सुधाकर द्विवेदी द्वारा सम्पादित काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा चाला 
संस्करण, वेलवेडियर प्रेसवात्ना संस्करण ( दो भाग ) ओर ज्ञानसागर 
वाला संस्करण भी उपलब्ध हैं । पं० तारादत गेरोला ने दादू के 
छुने हुए पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। यह अनुवाद ( 'सांम्स 


श्ध्द ट्विम्दों काव्य में सि्गंण संप्रदाय 


आफ दादू” इंडियन बुकशाप, बनारस / शुद्ध व विश्वसनीय «हे | दादू 
के शिष्यों में से केवल कुछ की हो रचनाएँ छुपी हैं। सुल्दरदास का 
'सवेया? अंथ वा सुन्दर विज्लास! ( चेल्नवेडियर प्रेस | बहुत लोकप्रिय 
है | जयपुर के पुरोहित हरनारायण शार्मा ने इनकी चुनी हुई रचनाओं 
का एक सुन्दर समग्रह 'संदरसार! (का० ना० श्र० समा ) नाम से 
निकाझा है ओर इनकी सारी रचनाश्रों का भी एुक प्रामाणिक संस्करण 
तथार विया है ।* संदरदास की रचनाओं का एक बहुत अच्छा 
संस्वरण अहमदाबाद कि सयद साले मुहम्मद नूरानी ने, £ सिद्ध देदांती 
व दादूपंथी पीतास्बर जो द्वारा संपादित कराकर, प्रकाशित किया ६। 
रजबजी की भी बानी! प्रऊाशित हो चुकी हैं| दादू के अन्य अनेक 
शिष्यों की रचनाओं को भी मैने उस बहुमूल्य हस्तत्षेख से पढ़ा है जिसे 
प॑० गेरोला ने, बड़ी उदारता के साथ मुझे देखने को दिया था और, 
जिसे जयपुर के डा० दल्लजीतर्सिह् ने उन्हें मद किया था। मैंने इसे, 
पं० गेरोल्ा के ही स्थान के नाम पर, 'पोड़ी हस्तलेख” की संज्ञा दे दी है । 


यह हस्तलेख आध्यात्मिक साहित्य का एक वास्तविक पुस्तकालय 
ही कहा जा सकता है। इसमें चार खंड हैं । पहले सें 'पचबानी', है 
जिसमें दादूर्पथ द्वारा मान्य दादू, कबीर, नामदेव, रंदास, ओर हरिदास 
को रचनाएं गरीबदास के भी पदों के साथ सशृह्दीत हैं | दूसरे में गोरख- 
नाथ, चोरंगीनाथ, कणेरीपान, बालानाथ जैसे बहुत से ग्रोगियों की 
बानियाँ दी गई हैं। तीसरे में दादू के कतिपय शिष्यों, जेसे सुन्दरदास 
( सर्वेया, जझ्ञानसमुद्र ओर अष्ट्क ) गरोबदास ( अ्रनभय अबोध अंथ ) 
रज्ब जी आदि की रचनाएं सम्मिलित हैं। चौथे सें रज्जब-द्वारा किया 


पकननननननतननाट नि पननन+ बल... स्‍मन्‍क+ अमर ओर. लत ल्क्क क- न्‍्याथ.. कप अर बन अन्‍कल, रकनाकममनकअकततकाअकबन_+भ् 


“अब यह संस्करण, कलकत्ते की राजस्थान रिसर्च सोसाइटी' 
द्वारा, सं० १६९३ में प्रकाशित भी हो चुका है। इसका नाम 
सुदर प्रंथावली' है जिसके दो खण्ड हैं। 

“+अन्‌ वादक 


परिशिष्ट २ $ै६६ 


हुआ, सिल्न-भिन्न संतों के चचनों का पक संग्रह ह॑ जिसे उन्होंने रचयिताओं 
के संप्रदायों का ध्यान न रखते हुए, केवल रचनाओं के संत-मतानुकूल 
होने की दृष्टि से ही प्स्‍स्तुत किया हे । यह 'स्वांगी! नामक संग्रह अ्ंथ 
संतमत सम्बन्धों विचाशें का पूरा सारग्रंथ भी हे । दुभोग्यवश इसका 
हस्तलेख बहुत दिनों से अधूरा चला आता है ओर इसके आदि एवं 
अंते के कुछ पृष्ठ नष्ट हो चुके हैं । इसी कारण इस हस्तलेख का डीक- 
ठीक लिपिकाज भो निश्चित नहीं क्रिया जा सकता | फिर भी इसका 
कागज कससे कम दो सो वर्ष पुराना है। संभवत: यह रजबदास के 
ही ल्षिए शाहजहाँ क॑ शासन-काल में त्लिखा गया होगा! आरम्भ के 
पृष्ठों के नष्ट हो जाने के कारण खो गई हुई दादू बानी फिर से लिख दी 
गई है | इस नये रूप सें लिखित अश सें पद्मों की संख्या पहले से 
अधिक है ओर इससे पता चलता हे कि सर्वप्रथम संग्रहीत व संपादित 
होने के अनतर भी ये बानियाँ बढ़दी गई है। 


यह हस्तलेख तथा आदियग्रथः कबीर के पूवंकाल्लीन संतों के 
अध्ययन सें बहुमूल्य सहायता पहुँचाते है। नामदेव एवं रेदास की 
बानियों को वेलवेडियर प्रेस ने भी प्रकाशित किया है | 


मुझे पता चला हे कि आणनाथ के भी कुछ गअंथ प्रकाशित हो चुके 
हैं किंतु मुझे उनसें से एक सी नहीं मिल सका ह। उनके इस्तलखों 
को प्राप्त करने के भी मेरे प्रयत्न असफल हो गये । काशी नागरी ग्रचा- 
रिणो सभा की भिन्न-भिन्न खोज-रिपोर्णों सें प्रकाशित केवल 'प्रगटबानी? 
भ्रह्मबानी!, “£मपहेली”, व 'तारतस्यः के कुछ अवतरणों से ही मुझे संतोष 
करना पड़ा है। शिवनारोयण एव दीनदरवेश की रचनाओं का भो मैं 
डससे अधिक उपयोग न कर सका जितना सुस्के &वत्र तत्वाल के 'सुरति 
शब्दयोग कल्पद्ध म! तथा चिल्सन के 'रेल्जस सेक्ट्स आफ दि हिंदूज़” 
में प्रकाशित कतिपय अवतरणों अथवा अनुवादों से उपलब्ध हुआ | 
किंतु उतने से हो मुझे अपने कास की सामग्री नमित्न सकी | शिवनार(यरा 


जिलररअमाआउ,भ कम नववतनसमहान्‍पसककमलारलभभरका. लि) कक... डाला की सा ३३३ आउप 7 अफेप/काक 8 एकल पकने /#नह। जय के. रे. रन ०-क आ>#+०. कसपाश.. फाकबयका७.. +पकअमन 244 /क्ए-वन्‍आातन्‍्त ््क 


४०० हिन्दो काव्य में निर्गुण संप्रदाय 


के संत सरस” नामक ग्रथ को सभा सें सुरक्षित हस्तलिखित & प्रति से 
सुझे कुछ भी लाभ न हो सका | मदामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद 
झोका के पास दीनद्रवेश की बानियों का पुक सम्रह् हैं किंतु सुझे वह 
भी न मिला । राधास्वामी साहित्य में ले शिखदयाल के सारबचन 
( दो भाग ) राय सालिंगराम बहादुर की प्रेमबानी ( पाँचर्वों भाग ) 
झोर जगतप्रकाश तथा साहिब जी के नाटक 'स्व॒राज्यः के अध्ययन करेने 
का मुझे अवसर मिला था | 


संत साहित्य को प्रकाश सें लाने के काय में चेलवेडियर प्रेस ने 
विशेष भाग लिया हे। अपनो 'रूतबानी सीरीज” के द्वारा उसने सारे 
उपबब्ध संत साहिष्य को सब साधारण के हाथों में पहुँचाने का प्रयरन 
किया है। कबीर, धमदास, नामदेव, रदास और दादू की डपथक्त 
रचनाओं के अतिरिक्त निग्नलिखित अन्थ भी रस ( सोरीज ) में निकल 
चुके हैं; --- 

“मजूबदास की बानी”, जगजीवनदास की 'शब्दावत्ली” (२ भाग ), 
पलटू साहब की 'बानी” ( ४ भाग ) दृल्लमदास को बानी”, यारीसाहब 
की 'रतनावद्धी”, केशवदास की अमी घूंट', बुल्जासाहब की “शब्दावल्ली', 
गुलाल साहब की 'बानी' ओर भोखासाहब की 'शब्दावल्ली” । ३ 


अम वहम3७..स+>क यहा 'तोपोवनमनत कमान ध३५३०/ कक भ१३००३+सी 


40--[ यारी और उनकी परम्परा की रचनाओो के एक महत्वपूर्ण 
सस्करण का सम्पादन उस परम्परा के वर्तमान महंत बाबा राम- 
बरनदाम ने महत्माओ को बानी” नाम' से किया है । इस पुस्तक 
द्वारा बावरी, बीरू, ललना+ व शाह फकीर जेसे कई ऐसे संतों 
के पद्म प्रकाश में शा गये है जो श्रभी तक श्रज्ञात थे और केश व- 
दास, बुल्ला, गुलाल शौर भीखा की कुछ ऐसी रचनाएं भी 
प्रकाशित हो गई हैं जिनका श्रभी तक पता नही था। ] 

न-वास्तव में ललना' नामक किसी भी सन्त का पता नहीं। महां* 
त्माओं की वाणी में प्रकाशित पृ० ६५-६७ वाले पद्म के रचयिता 


| 


मे परिशिष्ठट २ ४०९ 


चरनदास---बानी” < दो भाग )--दयाबाह--“दयाबोध” सहजो- 
बाई---'लखह जपग्रकाश', दरिया ( बिहारवाले )---दरिग्रासागरः, दरिया 
( मरवाब्चाले ]-- वानी”, गरीबदास--बानी? ( उनकी चुनी हुई 
रचनाओं का संग्रह ) तुलसोसाहब 'शब्दाचज्लीः ( दो भाग ), 'रत्न- 
सागर” व घट रामायन! ( दो भाग ) मैंने मं० देवोग्रसाद-द्वारा 
संपादित 'घटरामायन? ग्रन्य भी देखा है किंतु अपने काम के लि 
'बेलवीडिर प्रेस” वाले को ही अच्छा। समझा है। 'संतबानी संग्रह” 
'संतबानी” के संपादक ह्वारा किया गया एक उपयोगी संग्रह हे जिसमें 
थोड़े में संत साहित्य का सार सा आ गया है । 


घामिक सुधार-सबंधी मध्यकाल्लीन आंदोलन को चर्चा अधिक वा 
थोड़े में कई उच्चक्रोटि के विद्वानों हारा की जा चुको है, जेसे, डा० 
भांडारकर (शविजञ्स व वंष्णविज़्म), ग्रियसंन ( मान 
!, संतों के. चर्नाक्यु्नर लिटरेचर ), विल्सन ( रेल्लिजस सेक्ट्स 
विषय में साहित्य आफ़ दि हिंदूज ), (कापटर थीज़म इन मिडोचल 
डिया) और फक्हर (आउटलाइंस आफ रेलिजस 
लिट्रेचर इन इंडिया ) | डा० दासगुप्त ने अपने ग्रंथ 'हिंदू मिस्टिसिज़्म! 
के अतर्गत एक अध्याय साधारण रहस्यचाद पर भी दिया है | जिसमें 
उन्होंने इन सतों के विचारों पर सरसरे ढंग से चर्चा कर दी हें। महर्षि 
शिवब्रतलाल ने अपने 'सुरत शब्दयोग कल्पद्र म! नामक अन्थ की भूमिका 
में जो विल्सन के 'रेलिजस सेक्ट्स आफ दि हिंदज” जसी ही रचना है 
राधास्वामी सत के दृष्टिकोण 'से संतमत का निरूपण किया गया है| 
बा० सम्पूर्णानन्द ने 'विद्यापीठ” नाम की त्रेमास्िक पत्निका में एक सुन्दर 
किंतु छोटा सा लेख संतमत के विषय में दिया हे | 


भीखा साहब है ( दे० पृ० ६९६ की १८ वी पक्ति ) ललना' शब्द 
का प्रयोग यहाँ 'राग सोहर' की एक विशेषतामात्र हैँ । 
“अनुवादक । 


' ४०२ हिन्दी काव्य में निगुंण संप्रदाय , 


यदि व्यक्तिगत झूप से विचार किया जाथ तो इन संत कवियों सं 
' कबीर की 'चर्चों , सबसे अधिक की गई दीख पड़ेगी। मिश्रबंधुओं ने 
अपने हिंदी “नेवरत्न? सें, वेस्टकाट ने 'कबीर पुन्‍्ड दि कबीर पंथ” में और 
इधर डो० के ने अपने 'कबीर एन्ड हिज फ़ालोवर्स” सें उनके सिद्धांतों 
' के सम्बन्ध में कुछ लिखा है। डा० रींद्रनाथ ठाकुर के “वन हंडेड 
पोएम्स आफ कबोर” की अपनी सुन्दर भूमिका सें एंवलिन अंडरहिल 
ने भी कबीर के रहस्यचाद की एक मलक दिखलायी है। मेकाहविफ ने 
नानक को रचनाओं की भूमिका लिखते समय (अपने सिखिज़्म पंथ सें। 
तथा पिकाट ने 'डिक्शनरी आफ़ इस्लाम” सें संग्रहीत अपने निबन्ध में 
नानक के सिद्धांतों पर प्रकाश डाज़ा है। राय सालिगराम ने अपने 
'राधास्वामी मत प्रकाश? में तथा ब्रह्मशंकर मिश्र ने अपने 'डिस्कोस 
आन राघास्वामी फ्रेथ” सें राधास्वामी मत को पूर्णतः स्पष्ट करने की 
चेष्टा की है । , 
संतों के रहस्यवाद के विभिन्न अंगों का अध्ययन करने से पहले 
मैंने निम्नजिखित ग्रन्थों को देखा है और उनसे सहायता भी ली हे । 
एवलिन अंडरहिल--- मिस्टिसिज्म' दि लाइफ ग्राफ 
३, अनुरूप . स्पिरिट एन्ड दि लाइफ श्राफ टुडे । 
साहित्य विलियम जेम्स--वेरायटी आफ रेलिजस एक्स- 
पीस्यिंस । 
जें० हाउली--सायकालोजी आफ मिस्टिसिज्म' । 
विल्ियम फिंग्सलेंड-- रेशनल मिस्टिसिज्म, 'साइटिफिक भ्राइडि- 
लिज्म' । 
फासेट--- डिवाइन इसे जिनिंग' । 
ए० वसंली-- कन्सेप्ट्स आफ मोनिज्म । 
बुहृदारण्यक, छान्दोग्य, जाबाल, कठ, मण्डक व तैत्तिरीय उपनिषद्‌ ।, 
आर० डो० रानाडे-- कंस्ट्रक्टिव सर्वे श्राफ उपनिषदिक फिलासफी | 


क््क 


परिशिक्ट है , जौ? के 
जी० एं० जेकब--कंकार्डस ट्‌ु दि प्रिसिपल उपनिषद्स एन्‍्ड दि 
भगवदगीता' | 
&... 
दासगुप्त-»हिस्ट्री श्राफ इण्डियन फिलासफ़ी 


गोरखनाथ--गोकक्ष पद्धति! ( गोरक्षशतक के परिवद्धित संस्करण 
का प० मद़ीचर छर्मा द्वारा संपादित रूप ) | 


छययोग संहिवातंत्र'-- (अधूरा संस्क रण जो बनारस के चौखम्बा 
से निकला है ) । 


एफ० जे० खी० फुलर-- योग । 

एपु० पेबलन--- दि सर्पेण्ट पावर । 

शहोदुल्ला--लि शांत्स मिस्तीक्स । 

एच० डब्ल्यू० क्लाक--भअवा रिफूल मारिफ' (अग्रेजी संस्करस्स ) 
खजाखाँ-- तसव्युफ' । 

निकोल्सन-- मिस्टिसिज्म आफ इस्लाम! । 


जे. एम० के० स्टुअट--क्रिटिकल एक्सपोजिशन आफ़ वर्ग्साज 
फिलासफी । 

वेल्वेट्सकी--वायस आफ साइलेस' । 

रहस्यथवाद के साहित्यिक अंग को सममने में नीचे छिखी पुस्तक 
उपयोगी सिद्ध हुई हें-- 

मम्मट-- काव्य प्रकाश? । 


कक ० ए्‌० रिचड्‌ स--प्रिसिपिल्स ग्राफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म'। 

पैपाल बनर्जी--कलकत्ता रिव्यू में प्रकाशित यीट्स सम्बन्धी 

लेखमाला और विशेषतः: यीट्स, हिज सिम्बालिज़्म । 
#स्पर्जन--मिस्टिसिज्म इन इंगलिश लिटरेचर' । 


लिंक 


संतों में से किसी पंक की भी पेसी जीवनी वा जीवनियाँ उपलब्ध 


४०४ हिन्दी काज्य मेँ निगंण संप्रदाय 


नहीं जिनका झ्राश्रय जिया जा सके । इस सम्बन्ध सें भी कबीर की ही 

* चर्चा अधिक मिलेगी | नाभाजी ने इन पर छु; पंक्तियों 
७, जीवन-चरित का एक पद्य लिखा है । प्रियादास ले इनके विषय में 
संबंधी साहित्य अनेक उपाख्यान संग्रह किये,हैं | कबीर-पंथी विचार- 

धारा लददनासिंह' की 'कबीर कसोटी”, परमानंद के 

'कबीर सनन्‍्सूर' और 'कबीर सागर” की कतिपय रचनाओं, विशेषकर 
“कबीर चरित्र बोध”, में पायी जा सकती है। विशप वेस्टकाट ने इनके 
चीवन-चरित के सम्बन्ध में श्रनेक महत्वपूर्ण बाते छेड़ दी हैं जिनसे 
सभी सहमत नहीं हो सकते । ड(० के ने ऐतिहासिक कबीर व पौराणिक 
कबीर के बीच अन्तर दिखलाने की गम्भीर चेष्टा की है। नानक व 
कबीर के पूववत्तियों के विषय में सेकालिफ ने अपनी रचना 'सिखिजञम! 
के ऋमश; प्रथम व षष्ठ भागों द्वारा बहुमूल्य सहायता प्रदान को है। 
हिंदी-सम्बन्धी खोज के च्ञोन्न में काम करने वालों के पथ-प्रदुशंक मिश्र 
बन्धुओं का विनोद! अन्थ ऐसा है जिसे सभी को देखना पढ़ता है। 
विल्सन का 'रेजिजस सेक्ट स आफ दि हिंदूज! 'संतबानी ग्रन्थ माला! 
के विभिन्न भागों की भूमिकाए तथा शिवश्रतल्लाल के 'सुरति शब्द योग 
कहपत्र_ म! की भूमिका प्रधान सामभरियाँ हैं जिन पर इन संतों के जीवन- 
चरित श्राश्रित रखे जाते हैं | प्रणनाथ की जीवन चरित-सम्बन्धी बातों 
के लिए में नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्टो का ऋणी हूँ । 


परिशिष्ट 
( ३) विशेष बातें 


पृष्ट १६ पंक्ति ७। हिंदू-मुस्लिम एकता के साधक ग्रोरखनाथ--- 
महान्‌ योगी गोरखनाथ का आविभाव ईसा की दसवीं शताब्दी के पू् 
ही. हो गया जान पड़ता हे | उन्होंने मुस्लिम काजी को यह बाव समझा 
देने की भरपूर चेष्टा की कि जिस तदाबार का प्रभ्ोग मुहम्मद ने किया 
था वह लोहे वा इस्पात की नहीं बनी थी, अपितु आध्यात्मिक प्रेम वा 
शब्द की बनी थी +- | हिमालय पर प्रचलित जादू के एक मंत्र सें स्पष्ट 
कहा गया है कि इस तपस्वी संत ने हिंदुओं वथा मुसलमानों अर्थात्‌ 
दोनों को ही शिष्य बनाया था < । बाबा रतन हाजी जिन्हें मुस्लिम 
परंपरानुसार गूगा ( लगभग १००० ई० ) का गुरु माना जाता हे 
गोरखनाथ के अनुयायी ' अ्रथवा संभवत; उनके मुस्लिम शिष्य ज्ञान 


न-महमद महमद न कर काजी, महमद का विषय विचारं। 
महमद हाथ करद जे होती, लोहे गढ़ी न सारे ॥ 
सबदे मार सबद जिलावे। 
जोगेब्वरी साखी ! 
६--हिंदू मुसलमान बाल गुदाई दोऊ सहरथ लिए लगाई । ु 
“रखवाली मंत्र जो भूतो को हमसे दूर ही रखकर हमारी उनसे 
रक्षा भी करते है 


मे ५ न 
४०६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


पढ़ते हैं । प्रसिद्ध है कि वे मोहमंद नामक पर्वत पर निवास करते थे। 
यह भी कहा जाता हे कि उन्होंने कई सुसलमानों को ग्रोगमत में 
धर्मातरित किया था। काबुल के योगी आज भी रतनहाजी के फकीर 
कहे जाते हैं | । रतनहाजी ने ही कदाचित्‌ 'काफिर बोध! की रचना 
की थी जिसे कुछु लोग गोरखनाथ की ओर कबीर की कृति समम्ते हैं | 
अवल्ि सलूक” भी संभवत; उन्हीं की लिखी पुस्तक है। उन्होंने छ्विंदू 
मुस्लिम एकता के लिए किसी मुहम्मद नामधारी बादशाह से अनुरोध 
किया था | 


पृष्ठ २६ पंक्ति 8 । आननद्भाष्य--मुझ्के विदित हुआ हे कि इस 
ग्रंथ को स्वामी रामानंद की असली रचना मान लेना असंदिग्ध नहीं कहा 
जा सकता । 

पृष्ठ ४७ की २०-२३ पंक्तियाँ। कबीर ने कहा है कि “कलियुग में , 


कक्षम के प्रचारक”! मुहम्मद को “ईश्वरीय शक्ति वा माया का ज्ञान 
नहीं था। २९” 


पृष्ठ १०६ पंक्ति ३। कबीर ने हेश्वर को तीनों लोकों से परे होना 
एकसे अधिक स्थलों पर बतल्ाया है *। बिहार के दरिया ने भी यही 
कहा दै+। कबीर ने हेश्वर को तीन पदों से अतिरिक्त चौथा 


--गोरक्ष तत्वज्ञानदश, प्‌० १८६। 
२८--जिन कलमा कलि माहि पढ़ाया ( पठाया ) । 
कुदरत खोज तिनहु नहिं पाया ॥' 
' कबीर ग्रंथावली, पृ० २८८; 'बीजक' ( रमेती ३६ )। 
+..कहे कबीर तिहुरे लोक विवरजित; ऐसा तत्त अनूप । 
क० ग्रं० ( १६३-२२० )। 
न-तीन लोक के ऊपरे अभ्रमय लोक विस्तार। 
सत्त सुकृत परवाना पावे पहुँचे जाय करार || 
संतबानी संग्रह, भा० १, पृ० १२३ । 


अप आज +उ-क-+ कक 





उरमरा्कर स७एक कर, कहा. हर कत. हका्करनक.. ॥ह+कतनकार_कलाल॥...रअइलाम_त. थम न क3+हाहपात- भरता पाइत/6% समा का + लक ( कप कतमन्‍न फतता +अलगरमे कोन सिककेमक, 


परिशिष्ट ३ १28७0 


भी कहा है + और यही भावना नीचे उद्धत पंक्तियों में भी व्यक्त 
होतों है « । कहे कबीर हमार गोब्यंद | चोथे पद सें*जन को ज्यंद ॥ 

पृष्ठ १०६ प्रक्ति १४। भवरगुफा--कबीर ने स्वयं कहा है कि 
भीतर के कमज्न ( हृदय) में बह्य का निवास है जिसमें मन ( अपनी , 
भोतिक भ्रवृत्ति का परित्याग कर ) अनुरक्त हो जाता है । । जोगमंजरी 
के अनुसार, जो कदाचित्‌ कसी सहज्ानन्द जोगी की रचना है, भवर 
गुफा बह्रंश्र का हो पर्याय है ६ जिसकी पुष्टि नियणियों द्वारा भी होती 
हुईं जान पड़ती हे। योगमत सें 'सुन्न! का भी प्रयोग ब्रह्मरध के लिए 


होता है । 





४-“राजस तामस सातिग तीन्‍्य, ये सब तेरी माया। 
', चौथे पद को जे जन चीन्हे तिनहि परम पद पाया ॥| 
क० ग्र॑०, ( १५०-१४८ ) । 
>#>देखिये, क० ग्र० पृू०, ( २१०-३६५ ) । 
तीन सनेही बहु मिले, चौथे मिले न कोय । 
सर्ब॑ पियारे राम के, बैठे परबस होय | 
वही ( ६७-६ )। 
--“अतरि कवल प्रकासिया, ब्रह्मवास तहेँ होइ | 
मन भंवरा तहँ लुबधिया, जाएगा जन कोइ ॥। 
वही ( १२७ ) 
वंकनालि के श्रंतरे, पच्छिम दिसा के बाट। 
नीमर भर रस पीजिए, तहाँ भंवर गफा के घाट ॥। 
वही ( ८८,४ )। 
+$ अब ब्रह्मरंध्र ब्रह्म को धामा। अमर गफा है ताको नामा | 
जहाँ सहसदल कमल ध्यावें। नासा आगे दृष्टि रहावे ॥ 
'जोगमंजरी भा० हे ( मेरी हस्तलिखित प्रति, पृु० १६४ )। 


धु०८ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय. * 


पृष्ठ १११ पंक्ति ८ । पराष्प--केसोदास ने भी कहा है “अकेला 
तगुरु ही सत्यपुरुष हे जो पिंड एवं ब्रह्मांड के परे है ( जो व्यष्टि शरीर 
एवं समष्टि शरीर स्वरूप हैं )। वह अंतिम दूरी से वभी दूर है औ्ौर 
उच्चातिउच्च से भी ऊचा है। वहाँ तक के लिएं न तो कोई मार्ग है, न 
चौमुहानी है न गल्ली हे ओर न कूचा है ।९/ 


पृष्ठ ११४ पंक्ति ७ । कबीरपंथ और विशेषकर उसकी घर्मकसी 
शाखा के अंतगत निरंजन-सम्बन्धी भावना के विकास के लिए '्रंथसूची* 
( परिशिष्ट २ ए० ) देखिये । 


पृष्ठ ११४ पंक्ति १२ । यद्यपि कबीर अद्वितवादी थे फिर भी यह' 
नहीं कहा जा सकता कि कबीरपंथी भी चही हैं । कबीर के प्रति उनकी 
श्रद्दा ने उन्हें कबीर के अह्वेतचादी सिद्धांत से विपथ कर दिया, 
क्योंकि, वेसा होने पर उनमें कबीर के साथ समानता का भाव आए जाता - 
जो उनके लिए अ्रध्म की बात समझी जाती ।”* इसी कारण वे 
विशिष्टाह ती बन गये । फिर पीछे जब हिंदू एवं मुस्लिम भावनाओं का 
प्रभाव रोका न जा सका तो, निरपेत्ष तक की जगह कबीर को ही उसका 
धमंदूत वा अवतार माना जाने लगा | धमंदासी शाखा के अनुसार 


अदलंममाक अनाधतीत काम, अत हज. क.2ररक्‍कन्‍नग- करत कि अबकी पक 5 


१/--सतगुरु सत्य षुरुष है श्रकेला । पिड ब्रह्मंड ते बाहर मेला॥। 
दूरिते दर ऊच ते ऊचा | वाट न घाट गली नहिं कूचा।। 
भहात्मात्रों की बावी' पूृ० ३७३। 
#....पारस परसे कंचन भौ, पारस कभी न होय। 
पारस के अरस परस तें, सुबरन कहावे सोय ॥। 
'बीजक ( साखी, ३४२ )। 
--समरथ कौ परवाना लाये, हंस उबारन आये। 
कबीर शब्दावली, भा० २, पुृ० ४७ | 
हम हैं हजूरी श्रवगत ब्रह्म के, हंस उबारत आये हो। 
धमदास की शब्दावली, पृ० ३१ । 


परिशिष्ट ३ ६८६ 


वे सर्वोच्च पुरुष के कई पुत्रों में एक समझे जाने लगे ओर निरपेत्ष 
परमात्मा की भावना का परित्याग वर दिया ग्रया | परिश्ष्टि २ 
देखिये )। « 


पृष्ठ ३१२६ पंक्ति २६ । माया--कबीर के कथनानुसार, साथा उस 
गाय के दूध की भाँति अनस्तित्व सें ह॑ जो व्यायी नहीं हैं, अथवा उस 
भ्ज्ली की ध्वनि के समान हे जो खरहे की सींग की बनी हे अथवा उस 
पुत्र के रमण करने की भाौति हे जिसका जन्म बन्ध्या के गभ से 
हुआ है। फिर भो सापेक्षिक छेत्र के भीतर इस नितांत अभावरूपिणी 
माया को नष्ट कर देना महा कठित है, क्योंकि माया की लता के अपने 
फल्नों के साथ नष्ट कर दिये जाने पर भी, इसकी सूखी डाल से, जल्ाये 
जाने पर भी कोंपल निकल आती है । + 


पृष्ठ १९४ पंक्ति १ ( पाद टिप्पणो ) । “ग्रन्थ! सें यह पद नानक का 
माना गया है। यही भाव अगले पद सें भी पाया जाता है, जो “ग्रन्थ” 
के अनुसार कबीर की रचना है |--राम रतन पाया करत विचारा, ( मैंने 
राम को विचार करते करते ही प्राप्त कर लिया )+ प्रिगटे विश्वनाथ 
जगजीवन में पाये करत विचारा?:८ भी देखिये | 





सोरह संख के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया । 
क्‌० श०, भा० ३, पृ० २। 

+--रागणि बेलि अकास फल, अखातव्यावर का दूध । 

ससा सीग की धुनहड़ी, रमे बाँक़ का पूत ॥। 

अग्रब तो ऐसी ह्लै पड़ी, ना तूबड़ी ना वेलि । 

जालण आंणी लाकड़ी, ऊठी कृपल मेल्हि 

कबीर ग्रंथावली' पृ०२६ । 

ई-+क० ग्रं० पृ० ३१ ( ३१५, १६१ ) | 
>>-वही, पृ० १७६ पद २६७ । 


४१० हिन्दी काव्य में निर्गण संप्रदाय 


पृष्ठ १५६ पंक्ति ३। गुलाल ने इस बात को बड़ी दढ़ता के साथ 
कहा है कि निगणमत वेदांत के अध्यात्म के सिवाय कुछ भो ज़हीं है | 


पृष्ठ १६५ पंक्ति ९। राम- गुलाल के अनुसार कबीर का मत 
राममत है | कबीर ने स्वथ उपदेश दिया है कि 'रराः का टोप एंच 
ममा? का कवच पहनो और ये दो अच्षर राम! शब्द के अग हैं।* 
फिर भी कब्चीर इस बात की घोपणा करते समय कभी नहीं थकते कि 
लोग राम? शब्द का अ्रथ नहों जानते ।- उन्हीं की भाँति अन्य अनेक' 
संत भी श्रवतारों को उनके सम्मानित पदों से च्युत करने के सम्बन्ध 
में रद हैं | रज्जबदास कहते हैं कि “परशुराम एवं रामचन्द्र दोनों सम- 
कालीन थे ओर आपस में हंघ भी रखते थे फिर किसे ईश्वर माना 
जाय ९?)८ “दत्तात्रेय, गोरख हनुमान व प्रहल्ाद सें से किसी ने भी 
शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया था ओर न शिक्षा पायी थी ओर फिर 
भो अमर हो गये, किन्तु कृष्ण का प्राण एक ही तीर सें चत्ना गया था ।२?? 


करत अलतकीत तक न्म् हरे अमल तप. ओभककतेलन 


(--कबिरा राम मता सो लही । हिंदू तुरक सबन की कही ॥ 
महप्माग्रों की वाणी ( झ्र० ४ )। 
+....ररा करि टोप समा कर बख्तर । 
री क० ग्र०, ( २०६-२६० ) । 
द: है कोइ राम नाम बतावे। बस्तु अगोचर मोहि लखावे ॥ 
रामनाम सब कोई बखाने। रामनाम का मरम न जाने।। 
कहे कबीर कछ कहत न भाव । परचे बिना मरम को पावे ॥ 
वही, ( १६२०२१ै८५ ) । 
>(--प रसु राम श्रौ रामचन्द भये सु एकहि बार। 
तो रज्जब हे हंथिकरि को कहिए अवतार ॥ 
'सर्वांगी' ( साखी, ४२-२६ ) 
[--दत्त गोरख हावत प्रहेलाद । सास्त्रो पढिए न सुणिए साथ || 
( बाद ) । 


परिशिष्ट ३ १९ 


बषना कहते हैं कि “वास्तव सें इस प्रकार के स्वामी तथा उनके भक्तों 
में कोडे मोलिक अंतर नहीं है । ओर जो कुछ है वह “केवल श्रेणी मात्र 
का है । दोनों क्ने जन्म-सम्बन्धी संकट सहने पड़े थे इसलिए एक जहाँ 
शक्तिशाली हाथी को आनति है तो दूसरा छोटी चींटी सा हे ।??८ गुल्ञाल 
ने कहा है कि “अवबतारों को भी, अन्य लोगों की ही सॉति, सुक्ति के 
लिप इेश्वर की भक्ति करनी पडती हें ।« ?” गुलाल शिष्य भीखा नें, 
इसके विपरीत, अवतारों के ग्रति एक सतुलित भावना बना रखी है। 
उनका कथन हैं कि “राम कृष्णादि अबतारों का मर्म किसने जान पाया 


के श कु रच न रि 
है । बह्म केवल एकमात्र है; किंतु भक्ति के लिए अनेक देव अध्तित्व में 
आा गये हैं ।? | 


पृष्ठ १७३ पंक्ति ८ । मूर्तिपूजा-- गुज्ञाल ने यह भी कहा हूं कि, 
' “जो ज्ञोग पत्थर पूजते हैं और तीर्थों में श्रद्धा रखते हैं वे उनके समान 
हैं जो धूल को तोलते हुए उसे आटा बतत्ञाया करते हैं |?* “क्या 





मारे मरे न सिद्ध सरीर। कृष्ण कालबस एकहि तीर ॥। 
ही, साखी ४४। 
++--ठाकुर चाकर की कितंम काया । जोनी संकट दोन्‍्यों झाया || 
एक कूजर एक कोडी कोना। एकहि भक्ति घणुरी दीना ॥ 
नासो बूढ़ा नासो बाला । वषना का ठाकुर राम निराला ॥ 
। बही, ४२, ८ । 
*--सुर, नर, नाग, मानप औतार । बिनू हरि भजन न पावे पार॥। 
म० वा०, पृ० रह | 
].“-राम-कृष्ण अ्रवतार को बिरला पावे भेव । 
भीखा केवल एक ब्रह्म हैं; भेद उपासन देव !। 
वही, पु० ८८ । 
*.प्‌जहि पत्थर जल को थान | जोखत धरि कहत है पिसान ॥ 
म० वा० ( २८६९ ) | 


४१२ हिन्दी काव्य में निगुश संप्रदाय 


पूजा के ज्षिए अपने ईश्वर को मोल लेना और पिर उसी से मुक्ति की 
अभिलाषा भी करज्ञा अनियमित भ्राचरण नहीं है १” कबीर कहते हैं 
कि, “पंडितों ने यह एक बुरी प्रथा चला दी है । जिस कौरण सारी 
पृथ्वी पर पत्थर बिखेर दिये जाते हैं ।” ' वे लोग मूर्ति झो कपड़े पिन्हाते 
हैं, उसके माथे पर चंदन लगाते हैं और उसे माला भो दे देते हैं, जान 
पड़ता है कि लोगों ने राम को खिलोना मान लिया है ।”॑ 


पृष्ठ ३४३ पंक्ति १४ । प्रेम का हे ध्भाव--श्रढ्वे तवादी भीखा भी 
अपने इस कथन-द्वारा लगभग इसी प्रकार बतलाते हैं कि “अपने प्रियतम 
को अपने नेद्रों को सेजपर पोढ़ाने का आनन्द हंदय में ही आा सकता 
है मैं तो कहता हूँ कि ब्रह्म एवं आत्मा एक हैं, किन्तु मिल्नन के उस 
आनन्द को कोन छिपा सकता है १?”+ और भीखा का श्रभिप्राय यहाँ 
पर स्पष्टट; ह्वं तप्रभावित नहीं हें । दादू भी कहते हैं कि, “जब तक 
हूंत की भावना है तब तक प्रेमरस का पान करो; तभी तक शरीर 


समरनकार।॥ मकर. कक... जनम हक कल से अलमन्‍वकाभ हक कनिनन»नन-भ, 


[--ठाक्र पूजहि मोल ले, मन हूठि तीरथ जाहि। 
देवा देवी स्व्रांग धरि, भूले भटका खाहि।॥ 
क० ग्रं० ( २४५४-७१ ) । 
कागद केरी श्रोवरी, मसि के कम कपाट । 
पाहण वोई (री) पिरथिमी, पडित पाडी बाट ।॥। 
वही, ( ४३ २, २५०-२२ ) | 
माथे तिलक हथि माला बाना । लोगन राम खिलौना जाना ॥। 
वही, १६९३! 
+ “नयन सेज पिय पवड़ाई, सो सुख मौज दिलहि में जनाई। 
बोलत ब्रह्म आतमा एके, भाव मिलन को सख्त दुराई॥ 


म० बा", पृ० ११९। 


परिशिष्ट ३ १३ 


अमर है” उनका फिर भी कथन है कवि, इस हू धसाव में भो, भें वह 
निरपेक्ष ब्रह्म हूँ जिसके लिए एक ओर दो का प्रश्न नहीं उठ सकता ।77)< 


पृष्ठ १४३ यंक्ति २! द् धीमाया--माया के भी इस हूं धीभाव के 
विषय में रज्ञब मे कह॥ हे, ' कि सन और माया के समान कोई अब 
शत्रु वा मित्र नहीं हे | पाप ओर पुण्य के लिए यही दोनों उत्तरदायी 
हैं। एक अन्य स्थल पर वे यह भी कहते हैं कि, पुत्र (ंाथक) माता 
( माया ) को खा लेता है ओर माता € माया ) अपने पुत्र (साँसा- 
रिक मनुष्य ) को खा जाती हैं |+ माया का नितांत परित्याग साधारण 
काम नहीं है । ऐसा करते समय सावधान रहना पड़ता हैं। कबीर का कहना 
ह “मैंने बड़े ्रयत्व के खाथ एक नाव (सर्प) समुद्र के बीच सें पएयी है । 
यदि मैं इसे पूर्णतः छोड़ देता हूँ तो डूब जाता हूँ और यदि इसे में पकड़े 
रहना चाहता हूँ तो यह मुझ्के ढस लेती है |!” इस कारण इसे सभातर 
: लेना बड़ी निपुणता व चतुरता का काम है। व्यवहार करते समय इसे 
उल्लदकर काट खाने का अवसर नहीं देना चाहिए | यदि कोई माया को 
इस ग्रकार पूर्णत: चश सें रखकर काम करता है तो वह उसका उपभोग 


>>ले समाधि रस पीजिए, दादू जब लगि दोइ। 
बाती ( बेल० ) भा० १ पृ० ७८, वही पृ० छ८ ( ३१५ ) 
ग्औौर पृ० ६१ ( ४४-५ ) भी देखिए । 
८ “-रज्जब माया मन समि बरी मीत न कोइ । 
कृकृत उपज इनहूं सो इनसो सुकृत होइ ॥ 
रज्जब एक पूत मातहि भष, एक मात सुत खाई । 
विभूति सुवीछती व्याउनी, नर देखो विरताइ ॥ 
सर्वागी अ्रग १६, साखी ७ (पौड़ी हस्तलेख ) । 
&-+भेला पाया श्रम सो, भवसागर के मॉहि। 
जौ छॉडो तो डबिहौ, गहो तो डसिये बॉह ॥। 
कृ० ग्र०, (११-४३) । 


,४१४ हिन्दी काव्य में निभण संप्रदाय 


- भी करता है और उस पर शासन भी रखता है। ( यह नियम यद्यपि 
अंतिम नहीं है फिर भी ) हम देखते हैं कि वह हमारी दासी और शुभ- 
खितक बन जाती है | इस प्रकार बह मध्यम मार्ग द्वी, ।जससें न तो 
उसका पूर्ण परित्याग हो ओर न उसका गझहण हो अक्या जला कबोर ने 

न्यन्न कहा है, जहाँ काजल की कोठरी में बिना किसी घब्बा के ऋगे रहा 
जा सके, आवश्यक हो जाता है। यही दृघोभाव की माया निगयणो संतों 
के मध्यम माग की आधार-स्वरूपिणी ह | 
पृष्ठ १७५ पंक्ति १ । प्रत्यावत्तन की यात्रा-निगण संप्रदाय के 
सभी संत इस यात्रा को, पीछे को फिर ल्लोटना बतलाते हैं । कबीर इसे “ 
'उल्नटी चाल! कहते हैं. जो तन्वार की घार पर चलने के समान है ।+ 
रजयदास कहते हैं कि मंसार के लोग सीघे ढंग से आ।गे बढ़ते हैं, किंतु 
संत वह ह. जो पीछे की ओर चलता है। यारी इसे उल्लदी बाद कहते 

हैं ।+ भोर शिवदयाज्ञ इसका नाम उल्लदी धार रखते हैं ।३८ ४ 

पृष्ठ १७८ पंक्ति २३ । अश्रल्नज्ष ( श्रथवा अ्रनल् पच्छु )--यह उस 


अकककंअल जात २० ताछ तक अत ज. अफभ 


कध्का.. 2०. अक काश ममाभ९+सकै+44० 


[-- (कबीर) माया दासी गत की, ऊभी देइ असीस । 
बविलसी अर लातो छड्डी, सुमिरि सुमिरि जगदीस ।॥। 
बही (३३-१०। 
+ “कहे कब्रीर कठिन यह करगी,जगी पड़े थारा। 
उलटी बाल मिले परब्रह्म को, सो सतगुरु हमारा ।। 
वही | १४५-१७० ) 
+“उलटा चले सु औलिया, सूधा गति संसार । 
जन रज्ज्व यू जागिले, इनका यही विचार ॥। 
सर्वागी? ( २४-६ ) 
>»-हरिमद मतवाले रहत है, चलत उबदट की बाट। 
प्रेम पियाला सुरति भर पियो, देखो उलटी बाट ॥ 
म्र० बा", (प्र० ४१८) 


परिशिष्ट है ५4 4 


“मिस्र देशीय काल्पनिक पक्षों 'फ़ोंनिक्स' का थोडा बहुत रूपांतर जान 
पड़ता हे जिसके संबंध में भिन्न मिन्न लेखकों ने सिन्न भिन्न कथाएँ कट 
डाली हैं सब से प्रसिद्ध कथा यह है कि यह पक्षी एक समय सें एक 
ही रहा करता €ं और ४०० वर्षों तक अरब के रेगिस्तान सें जीवित रह 
कर अंत में अपने को उन सुगंधित टहनियों के ढेर पर जला देता है 
जो सूय की क्विर्णों द्वारा आप से आप जल उठती हैं ओर जिनको 
ज्वाला इसके पखों की धोंक से तीव्र हो जाती है । इसकी भस्म से 
इसका एक बच्चा निकल्न पढ़ता हे जो पूरे आकार का फीनिक्स बन 
कर शीघ्र तेयार हो जाता है। यह पक्षी हिन्दी में फारसी से 
आया जान पड़ता है जहाँ इसे 'आतिशजन? कहा करते हैं ओर जहाँ पर 
इसका ग्रीक नाम 'क़कनूसः है। फारसी सें इसको कथा कुछ भिन्न हं। 
वहाँ इस पक्ती को चांच में अनेक छिद्र बतलाये जाते हैं जिनसे सुरीला 
' शब्द निकज्ञा करता है। इन छिद्रों से निकल्नेवाले श्वासों से ही, ढेर 
पर बेठऋर पत्नी के गाते समय ल्कड़ियाँ जज्न उठती हैं । राख के ढेर 
से एंक अंडा उत्पन्न होता है जिससे पक्ती का जन्म होता है। हिंदी सें 
यह सारी कथा बदल गई है ओर पक्नो के लिए पथ्वी का स्पर्श करना 
कभी नहों बतलाया जाता | उसका अंडा भी आकाश सें ही उत्उन्न होता 
है ओर दिये जाने के अनन्तर प्रध्वी पर आने से पहले ही फूट जाता हे 
तथा बच्चा उड़कर फिर अपनी माँ के निकट चला जाता है जो ऊपर 
विहरती रहती है। इस पक्षी का संबंध यहाँ, उपयेक्त भस्म हो जाने 
की क्रिया के साथ अब कुछ भी नहीं रह गया हे। फिर भी इसका 
अनल? (अलल) पच्छु अथवा अग्निपक्षी नाम यह सूचित करता है कि 
इसका संबंध फारसी के आतिशजन तथा ओ्रीक भाषा के उस फ़ोनिक्स 


पालों तव नाम कुलल करतार, बाघ कर चढ़ो सुरत का तार । 
मीन मत चढ़कर उलटी घार, मकरगत पकड़ा अपनातार ॥| 
सार वचन, भा० है, पृ० २१३ । 


४१६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


के साथ भी कुछ न कुछ अवश्य रहा होगा जिसका उच्चारण फारसी में 
कुकनूस हुआ करता है । न्‍ 


पृष्ठ १६९ पंक्ति १३ । उन्नतीकरण-सन कभी भी पूर्शत; निष्क्रिय 


नहीं रह सकता | यह एक बस्तु की ओर से दूसरो की शहर प्रवाहित होता 
रहेगा और जिस किसी वस्तु की ओर चल्ना जायगा उसके गुण ग्रहण 
कर लेगा। कब्रीर के शब्दों में मत ऐसा पक्षी है जो सभो दिशाओं में 
उड़ा करता है ओर जिस वृद्ध पर बेठता है उसके फल खः लेता हे ।* 
इसे पापों की ओर अमण करने से रोकने के त्षिए यह आवश्यक दे कि 
न केवज्न इसके मार्ग में बाधा डाली जाय, प्रत्युत, इसके लिए ऐसी विशु- 
द्धतर नाक़ियाँ बना दी जाये जिनसे होकर यह अबाधित रूप से और 
सरज्ञतापूर्वेक प्रवाहित हो सके । समस्या का हल इसे केवल दबा देने 
अथवा मनोमारण से ही नहीं हो सकता। कबीर ने कहा कि “मन को 


दबा कर कौन सफल हं। सका ? वस्तुतः इसे कोन दबा ही सकता है? 


और फिर यदि तुमने मन को दबा ही दिया तो मुक्ति किस लिए चाहते 
हो ? वह तो मन सें ही हे यही सभी कोई कहते हैं ।[ और फिर भी 
कचीर का यही कहना है कि बिना मन के मारे भक्ति नहीं हो सकती। 
जो कोई इस भेद से परिचित हो उसे विदित हो जायगा कि स्वयं मन 
ही तीनों भ्ुवनों को स्वामी है ।+ नूरी” मन ( अ्रथौत्‌ ज्योतिमंय सन ) 


हइरमरेन्‍न्‍मालभनक्‍क9क49कस0+ 0ककेकइंकतलक के. तपतालाधताल लक हहक (५4३७. क++ अल सयाक्लासकापतकापरस+ततञउमभ+ ५३ ल्रमरम्यकनतधरालाकापत॥+8 २५ हंबशककाफपबट' डाला पकनोपिप्फलकीजक ओर... पक. रतन... भरपाफक. कद ककनाओ, हक, 


कबीर मन पंश्ी भयो, उड़ि उडि दहुदिसि जाइ । 
जो जेसी संगति मिले, सो तेसो फल खाइ॥। 
पक्कू० ग्र०, (२५७-१०४ ) ु 
[--मनका स्वभाव मतहि बियापी, मतहि मारि कवन सिधि थापी। 
कवन सु मूनि जो मतको मारे, मनको मारि कहहु किस तारे ॥ 
क० ग्रं० (३१५-२५५) 
+-“मन अंतर बोले सब कोई। मन मारे बिन भगति न होई। 
कहु कबीर जो जाने भेऊ | मत मधुसूदन त्रिभुवन देऊ ॥ 
क० गर ०, (३१५-२५८०) 


हैं] 


प्रशिशिक्त ६ ध्रश्् 


परमात्मा कौ अनुभूति का साधन है और मन का चह रूप जिसे दबाने को 
आवश्यकतों पढ़ती हे, 'खाकी' मन ( अर्थात्‌ धूल का बना मन ) हे 
जिसे उप्तकी कंहिमखी चृत्ति कहते हैं। समनोविकार अथवा इच्छो स्वभा- 
चतः दोषपूर् नहं। जसा कबीर ने बतलाया हें “यह हमें राम के 
साथ सी मित्रा सकता है, यदि हम केवल इ तना जान सके कि इसे अपने 
हृदय सें किस अकार सुरक्षित रखा जा सकता है [? इससे भी अधिक 
स्पष्ट शब्दों सें कबीर कहते हैं कि “यदि सन राम के साथ उसो प्रकार 
रमण करने लगे जिस प्रकार माया के साथ विज्ञास करता हैं तो वह 
" वारामंडल्न से होता हुआ्आा केशव के घास तक पहुँच जायेगा ।??* निगणी 
लोग इस काय को अपने प्रम-द्वारा सिद्ध करना चाहते हं। प्रेम अपनी 
विरह अथवा वियोग की वेदनापूण सक्रिय दशा में साधक के सारे इंद्रिय- 
व्यापारों को उस परमास्मा में केंद्रित कर देता है जो भक्ति, कृपा एवं 
संंदर्य का आधार स्वरूप हे ओर जो कामिनी जेसे निम्न सनोविकार के 
विषयों का स्थान ग्रह कर लेता है ।+ जिससे उसकी आँखे, उसके कान, 
होंठ तथा हृदय सभी उसकी ओर उन्मुख हो जाते हैं ।ल्‍८ योग एवं ज्ञान 


88->++-न+-न नमन. 








७ अण पिनओओन- तय अनन वन के रनवे. जता हा सीन -कननानानान्‍नलाननन वफकलनालभाननकनन आ>-आक>पकानभनननर तपजान-4---न++थथ-+१५०-तान म्थन्‍मा 


[--काम मिलावे रामक्‌, जे कोई जापौ राघ। 
कवीर बिचारा कया करे, (जाकी ) सुपदेव बोले साषि।॥। 
क० ग्रं०, (५१-११) 
+_-जंसे माया मन रमें, यो जे राम रमाइ। 
(तौ) तारामडल छॉडि के, जहूँ केसौ तहेँ जाइ |! 
वही (६-२४) 
--कामरि अंग विरकत भया, रक्त भया हरि नाइ । 


साषी गोरषनाथ ज्य अमर भये कलि मा 
वही (५१-१२) 


>--नेन निहारों तुज्कको, स्रवन सुनो तब नाउ । 


बन उचारहु तुव नाम जी, चरनकमल रिद ठाउ || 
वहीं (२४५६-८७ ) 


४१८ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


का कठिन काय इस प्रकार सुगम बन जाता हे। यदि हम हृदय से चाहें 
तो हमारा चंचल मन, हमारे व्ययशील व अश्रनियसित प्राण तथा बहकने- 
वाली इंद्रियाँ सभी वश में आ्रा जाये ।९/ ओर जब ऐसरई हो जाय तो 
समझ पड़ेगा कि वेही चोर ( इंद्वियों के द्वारा काय करक्रेवालजा मन ) जो 
हमारे आध्यात्मिक घन की लूट मचा रहे थे, स्वयं हमारा धन बन गये । ९ 


पृष्ठ १९६ पंक्ति १५ । सुरति--बाबू सम्पूर्णानन्द समझते हैं. कि 
सुरति शब्द खोत का बिगड़ा हुआ रूप हे जिसकी परिभाषा “हिन्दू 
दाशनिक गंथों में ( उनकी दृष्टि में ऐसा कहते समय कदाचित्‌ पातंजल « 
योगसूत्र पर किग्रा गया योगवात्तिक नामक भाष्य रहा होगा ) चित्त- 
वृत्तियों का प्रवाह दी गई है ।?* गुल्नाल ने भीखा को बतलाया था 
कि सुरति ओर मन एक ही वस्तु हे।। दादू का कहना हे कि “चेतन 
वह मार्ग हे जिस पर सुरति अग्रसर होती है।”| किंतु मैने इसे" 
स्मृति! शब्द से निकला हुआ माना है और ऐसी दशा में इसका तात्पय 


फरकमररक 


&“--दादू सहजे मन स्थे, सहजे पवना सोइ। 
सहज पंचो फिर भये, जे चोट विरह को होइ ।॥। 
बानी, भा० ६ पृ० ४२-१२७। 
५/--जबलग थो अंधियार घर, मूस थके सब चोर। 
जब मदिल दीपक बल्थों, वही चोर धन मोर ॥ 
सं० बा० सं० (भा० १) पृ० १०३ । 
के _विद्यापीठ (त्रेमासिक पत्रिका), भा० २,पु० १३५। 
-भीखा ! यही सुरति मन जानो । सत्य एक दूसर मति मानौ ॥ 
म० बा०, पृ० १६६ । 
ई--चेतन पैंड़ा सुरति का, दादू रहु व्यौ लाथ | 
बानी, ( वे० प्रे०्भा० १ ) पृ० ८६ | 


परिशिष्ट ३ ४१६ 


वह नहों रह जाता है जो साधारणतः जिया जाता हैं ।+> इसके साथ 
निगुणियों के उस साधनामार्ग की भी संगति लग जापरैंगी जो 'उल्लदो 
' चाल! को निर्दिष्करता हैं ओर यह उस अभिप्राय के भो विरुद्ध नहीं 
जायथगा जो बा० सेम्पू्ब्ंनन्द का है। स्मृति भी चित्तवृत्तियों का 
प्रवाह ही है, यद्यपि यह उल्ररो दिशा की ओर चलता ह। वास्तव सें 
सुरति की सहायता से हो उलटो चाल संभव हो पाती ह ।+ मेरी इस 
राय का समथन छान्‍्दोग्य उपनिषद्‌ से सी हो जाता है जो सारे बन्धनों 
से छुटकारा पाने के लिए स्म्ृ/त् का उपलब्ध कर लेना आवश्यक मानती 
है-.. स्थृतिलस्से सर्वगन्थीनां विप्रमोक्त: ( १७-२७-२ । । राघास्वामी 
सत्सग वाले लोग सुरति व सुरत का अथ जीवात्मा वा व्यक्तिगत आत्मा 
लगाते है । इसका एक अर्थ प्रेम ( सु-रति वा सुरत ) भी लगाया जा 
सकता हैं । 
पृष्ठ २२० पक्ति २२ | अजपाजाप--रजबदास न इसकी परिभाषा 
देते हुए इस वह स्मृति ठहराया हैं जो भोतिक शरीर के अतर्गत शब्द 
एवं श्वासक्रिया की ओर निर्देश करती है।>८ एक अन्य स्थल पर 
उन्होंने कहा है कि “अजपाजाप की साधना तब हुआ करती है जब कि 
आत्मा, मन, पवन तथा सुरति को आप से आप अहण कर लेता है ओर 


7] 





+ यह बिचारि नहिं करठ हठ, भूठ सनेह बढ़ाइ। 
मानि मातु कर नात बलि, सुरति बिसरि जनि जाइ ॥ 
रामचरितमानस ( २-५६ » । 
+ +-पाथों तब नाम कुल्ल करतार, बॉध कर चढा सुरत का तार । 
मीन मत चढ़ गइ उलटी धार, मकर गत पकड़ा अपना तार ॥ 
सारबचन, ( १-२१३ ) । 
>-सरिर सबद अरु सास करि, हरि सुमिरन तिहु ठाँव । 
जन रज्जब ग्रातम अगम, अजपा इसका नाँव ॥। 
सर्वागी ( १६ १ )। 


| धऔ० हिम्दों काव्य मैं निगणा संप्रदाय 


तत्व के साथ उनका अयोग एक साथ करता है |&/ फिर उन्हीं के अनु- 
सार जो कोई “परमात्मा का नाम मुख से लेता है वह मनुष्य हं जो 
हृदय से लेता हे वह देवता हु, फिंतु वास्तविक भजन पर्काशित हो गये . 
हुए पूरे श्रात्मा से ही हुआ करता है।* कबीरपंथ मं घर्मदासी शाखा 
के अंथ 'अनुरागसागर' में भी कहा गया हे कि श्रजपाजाप वह साधन 
है जिसमें मन, पचन, एवं शब्द सुसंगति के साथ कंद्वित हो जाते हैं 
ओर जिसमें जिह्ला, माला अथवा हाथ की कोई आवश्यकता नहीं पढ़ा 
करती || दादू का कहना है कि “एक हिंदू रमणी अपने पति का नाम 
कभी नहीं लेती किंतु फिर भी उसके लिए अपने शरीर वा आत्मा का” 
त्याग कर देती है।” यारो साहब के गुरु के गुरु बाबरी के शब्दों 
में, “इस अमकार की उपलब्ध दृशा से मनुष्य का सारा जीचन व्याप्त 
%&“+मन पवन अरु सुरति कौ. आतम पकडे श्राप । 

रज्जब लाबे तत्त सो, थोही श्रजपा जाप ॥ 

सर्वागी (१९-२२) । 

+..सष्र सो भर्जे सो मानवा, दिल सो भज्ज सो देव । 

जीव सो जपे सो ज्योति में, रज्जब सांची सेव ॥। 

वही ( १६९-२ )। 

[जाप शअ्रज॒पा हो सहज धन, परख गूर गम धारिए । 

मन पवन थिर कर शब्द निरखे कर्म मन्‍्मथ मारिए | 

हीत धुन रसना बिना कर, माल बिन निर्वारिए | 

सब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिए॥। 


वही, पृ० १३। 
+सुन्दरि कबह_ कंत का, मूष सो नाउ न लेइ । 
अपने पिय के कारने, दादू तनमन देइ ॥ 
बानी, ( वे० प्रे० ) भा० १, पृ० २४१। 


परिशिष्ट ३ 7 १ 


है ।?-- इस स्थिति को आप से आप जाने के लिए हमें किसी वाहय' 
साथना थयें लगना आवश्यक नहीं, क्योंकि इसके लिए उपयुक्त सारा 
साधन ३९ भीतर ही वरतंमान है। रजब ने कहा है कि मार्ग तो 
पथिक के ही भीरर विद्यमान है ।+ बुल्ला ने कहा है कि हमें उस काशी 
तीथ में ही स्नान करनाँ चाहिए जो हमारे शरीर के भीतर अवस्थित 
€। ०८ कबीर तो काया के ही भीतर परमात्मा के साथ-साथ करोड़ों 
काशी जेसे तीथों को भी देखते हैं |२/ गुलाल ने इसो कारण साधक 
से कायाविषयक पूर्ण ज्ञान उपलब्ध कर लेने की सम्मति दी है क्योंकि 
इसके भीतर मुक्ति का एकमात्र मार्ग अजपाजाप चज रहा है ।५/ इस 
प्रकार आप से आप चलनवाला सजन साधक को उसके लक्ष्य तक 
बिना किसी बाहरी सहायता के ही उसी भाँति पहुँचा देता हे जिस 
भाँति हनुमान बिना किसी जहाज की सहायता के लंका ह्वीप तक कूद 


"पहुंचे थे ।॥ 





+“अजपाजाप सकल घट बरतें, जो जाने सोइ पेषा ॥ 
म० ब०, पृ० १। 
“संतों | बाट वटाऊ माही । सो आपरणा समभे नाही ।। 
बिरला गुरु मृषि पावं | सो फिर वहुरि न आवे ॥॥ 
सर्वागी ( ४०-२ ) । 
>(--काण कासी घट करहु नहान । यूग यूग पावहु पद निर्वान | 
म॒० बा०, पृ० २० । 


४“-+काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी । 
काया मधे कवलापति, काया मधे वेक्‌ठवासी ॥। 
क० ग्र०; ( ४५-१७१ )। 
४/--काया परचे जानहु प्रानी । श्रजपाजाप मुक्तित के खानी ॥ 
म० बा०, पृ० १। 


--नेह विनाव सां किया, ध्यान धर्‌या बिन अंक । 
रज्जब मनो जहाज बिन, हणवत पहुंच्या लक ॥। 
सर्वागीी ( १६४ )। . इसके ( पहले का पष्ठ भी देखिये )। 


है, हिन्दी काव्य में निगंगा संप्रदाय 


जैसा मैंने पहले हो कहा है अजपा जाप को' भी निगणी जोगों ने 
गोरखनाथ से ही पाया है। गोरमपद्धति ("शतक ) की ईन पक्तियों 
द्वारा यह प्रमाणित हो जायगा-- “श्वास हकार के द्वारा #हर जाता है 
श्रौर सकार के द्वारा भोतर आया करता है । इस प्रकाऋ जीच 'हंस” का 
जप सदा करता रहता हैं | यह 'अजपागायतन्नी” योगी को मुक्ति प्रदान 
'करती हैं श्रोर इसके लिए केवल हृढ़प्रतिज्ष हो जाने से ही सारे पाप 
नष्ट हो जाते हैं । इसके समान न तो कोइ विद्या है, न जप हे, न ज्ञान 
है ओर न तो ऐसा कभी'था न हो सकेगा ।??& कबीर ने तो योगियों 
के इस विश्वास को भी दुड्राया हे कि एक दिन में सनुष्य ०१६०० » 
बार श्वास लिया करता है ( दे० 'कबीर गंथावल्लीः प्ू० १०९ पद 
६०६ )। 

पृष्ठ २३२ पंक्ति १८ । सहसख्रार - जो बुद्ध की मूर्तियों में दीख़ पहता 
है--बुद्ध की मूर्तियों में लक्षित होनेवाली केशराशि गुप्तकाल्लीन मूति- 
कल्ना की विशेषता मानी जाती है। परन्तु यह कार्ल्ी की चंत्य गुफा के 
द्वामंडप की पिछली दीवार पर निभित उन उभारों पर भी दीख 
पड़ती है जिसके कुछ अंशों का निर्माण-काल ईसा को प्रथम शताब्दी 
मानी जाती हे ओर इसके लिए कोई कारण नहीं कि उनका शेष अश 
भी उसी समय का क्‍यों न समझा लिया जाय १ इस विषय में केवल 
इतना ही कहा जा सकता हैं कि भिन्न-भिन्न काल को विशेषताओं के 


नाक» अनस-य&/लनाक+ मन +५ +वनककपत ५ के ३+3>>अ मनन 





रा सह हक कटतक व्य रराकलनम असल. 26 ४३73० ++-ब॑ ना नरनतान+ पास थक तक लकी. ओपन. रेल... लीफसएज #॥॥.. ,कपककपकर, 


88--हकारेश वहियाति, सकारेण विशीत्पुन 
हसहसेत्यमू मंत्र जीवों जपति स्वदा ॥ 
श्रजपा ताम गायत्री, योगिना मोक्षदायित्री । 
प्रस्थाः संकल्प मात्रेण सर्व पा: प्रमुच्यते ॥ 
प्रनया सदृशी विद्या अनया सदृशों जप; । 
भ्रनया सदुशं ज्ञानं न भूत न भविष्यति ॥ 
पृष्ठ २२-३ ( इलोक ४२, ४४-५ ) । 





परिशिष्ट ३ ४9२३ 


सम्बन्ध में विद्वानों ने अपनी भिन्न-भिन्न धारणाएँ निश्चित कर ली हैं । 

प्रथम हब शताब्दी के अन्तगंत बुद्ध के उपदेशों सें स्पष्ट अन्तर 
लद्चित होने गा था जेसा कि भज्ञा व महायान सम्प्रदाय के सिद्धांतों- 
द्वारा प्रमाणित हो जाता हैं। साँची तथा सारनाथ के शिलालेखों से 
यह भी प्रमाणित होता है कि सम्राट अशोक को भो इस प्रकार की 
अध(मिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कठोर आज्ञाएं निकलनी पड़ी 
थीं | अतएव इसमें आश्चय नहीं कि योगमत को बोद्धघर्म ने बहुत पहले 
से अपनाना आरम्भ कर लिया था। यह बात कुछ अंशों सें उन योगिक 
पद्मासनों-ह्वारा भी सिद्ध हो जाती हे जिनमें हमें अधिकतर सभी प्राचीन- 
तम मूर्तियों के बुढ, बठे हुए दिखलाया पड़ते हैं। कहा जाता है कि 
नागाजन ( तीसरी शताब्दी ) ने अपने जीवन-काल को अपनी नाकट्ारा 
पानफर बढ़ा लिया था।| यह साधना उन नेती आदि शरीरशोधक 
योगिक साधनाओं की पूवंगासिनी हो सकती हे जिनका अ्रभ्यास योगी 
लोग किया करने हैं |* योगमत का बोद्धधर्म में आकर अपने भीतर 
भिन्न-भिन्न संप्रदायों को अस्तित्व में जाना, इस बात से प्रकट होता 
है कि उसके अन्तर्गत नाथ सम्प्रदाय ओर सिद्ध सम्प्रदाय जेसे उन 
योगमार्गी वर्गों का भी प्रचार होने लगा जिनकी उत्पत्ति ब्लोद्धधर्म से 
ही बतलायी जाती है | इस प्रकार बुद्ध को, आगे चलकर, योग के उस 
षटचऋ सिद्धांतानुसार भी महायोगी माना जाने लगा+ जिसकी परिणति 





--वाटसे: ऑन युवान च्वाग' भा० २, पृ० २०३। 

+-वाटस आन युवान च्वाग भा० २, पृ० २०३ । 

++-पघट्चक्र क्रम भावनापरिगत हत्तझमध्यस्बित, 

संपदय ल्छिवरूपिण लयवज्यादात्मानमध्याश्रत. । 

यृष्माक॑मधुसदनों नववपुर्धारी स भृयास्मुदे, 

यस्तिष्ठेत्तमलासने कृतरुत्रिवद्धक लिगाकृति: ॥ 
सुभाषित रत्न भाण्डागार, पु० २७ इलो० २०३ | 


४२४ हिन्दी काव्य में निगण संप्रदाय «» 


सहखार में होती है। सहायोगी बुद्ध का इतिहास बहुत प्राचोन है 
भोर यह सम्भव्न हे कि उक्त केशराशि, अन्य भोतिक चस्तुओ्रों की 
अपेज्षा सहस्नार की ही प्रतीक हो। यह बहुत कुछ अहिखार के उस , 
प्रतिर्ष के ही समान है जो श्रावे्नन को पुस्तक /सर्पेंट पावर! में 
दिया गया हं। बुद्ध की मूर्तियों के शिरों के उच्चतम भाग में जो अ्रंश 
एक थोड़ा सा दीख पड़ता है उसके विपय में कहा जाता है क्लि यह 
विज्दणता “की-कभी चामत्कारिक घटना के रूप सें प्रकट होती हे?” 
ओर “उसका प्रत्यक्षीकरण स्वंसाधारण के लिए नहीं हुआ करता ।?+ 
इससे स्पष्ट हे कि किसी समय यह भी समभा जाता था कि बुद्ध के शिर ” 
के सम्बन्ध में कोई रहस्यपूर्ण बात अवश्य है । 


सुझे तो यह जान पड़ता हे कि पूवकालीन मूर्तियों में सहस्नार के 
उस संकेत को न समझ सकने के कारण, जिसके उदाहरण कार्लीगुफ़ा, 
के उभारों में पाये जाते हैं, गांधार के ओक शिल्पियों ने उसे मब्बेदार 
बालों के रूप में परिवर्तित कर दिया श्रोर उक्त कला के आगे पुनरुद्धार 
हो जाने पर भी पुरानी भूल ज्यों की त्यों बनी रह गड्ढे । 


पृष्ठ २४६ पक्ति १७। आँखों का उल्नरना--इस क्रिया का प्रसंग 
प्राय: इन सभी संतों में श्राया है। इसके प्रमाण में अन्य श्रनेक 
उद्धरण भी नीचे टिप्पणी में दिये जाते हैं |" आँखों के उल्लरने का 
अभिप्राथ कभी-कभो आध्यात्मिक श्रन्तमेखीकरण (प्रत्यावत्तन की यात्रा) 
भी लिया जा सकता है । फऊिन्‍्तु यह क्रिया निश्चित रूप से योगाभ्यास 
की भी हे । 


५आां“ं/ध कर उ्ब्ब डमतलचम न कामना. 8९३७... 3 नमकमोवनलामकफपल- 2 पाक +४कउककाक-काक, ल्‍्क अर ज्श सार. १५... वलिलहिकाणतजक, उलट, रत ऊन ते सर वतनकापडकरन फ हताक.. व फट-ी रे अराकनलनकीतकनन-ककंनरजनन»_%»+५«> कक 


'-वाटसे ओआॉँत युवानच्बांग” भा० १, पृ० १६७ | 
+....हैं दिल में दिलदार सही, 
भ्रंखियाँ उलटी करि ताहि चितइए । 
सुन्दर विलास आात्मानुभव, १, 


परिशिष्ठ ३ 9२४ 


पृष्ठ २९२ पंक्ति ५ | बुलला ने नीचे उन सभी अभ्पासों की चर्चा 
संच्ेप में कर दी है जो निगणी लोगों की साधनाओं के रूप में असिद्ध हैं ६ 
“आत्मा कौ त्रिकुदी (अर सध्यदष्टि)--द्वारा देखो। सुशुस्ता-द्ारा जप 
( अजपाजाप करो । श्वास प्रश्वास को क्रिया इंगला एवं पिंगज्ञा के 
ह्वारा चलती रहने दो प्राणायाम ) । इसो अकार साधक दसचे द्वार में 
प्रवेश कर पावेगा ।८? 


पृष्ट २५७ पंक्ति १७। बिहार के दरिया ने भी मुक्तावस्था की चर्चो 
दृष्टि उलटि लागो रहे सो5ह ठाकुर भूप । 
म० बा० पृ० १८५ (गूलाल) 
जो पे कोऊ उलटि निहारे आझाप...... 
निरखि निरखि अंतर ले लाझो बिन माला को जाप ।* 
दसो दिसा मे जोति जगामग, वाकों तात न मात ।। 
वही, पृ० ३३ (गुलाल) 
नयन से देख उलट ठाक्र दर्बा रा । 
वही, भीखा पृ० ८८ । 
स्वास की आस में प्राण॒का बास है, प्राण की झ्रास में बसत साईं । 
रहत दिन रंनि सो नयन देखियत, चंद्र को बिब ज्यों चंद्र माही ।। 
वही, केसोदास पू० ४५३ | 
जो कछ इन नयनन लखि आई, सो सव माया लखब कहाई | 
दिव्य दुष्टि करि उलटि समाई, लखे अलेख लखें तिन पाई ।। 
वही; गूलाल पृ० १६९५॥ 
»--त्रिकूटी द्वारा देखे आपू | सूखमन द्वारा सुमिरे जाप ॥ 
इंगला पिगला भ्राव॑ जाय, दसवें द्वारा रहैँ समाय ॥ 
वही, घ० (१ ८-४२ ) 


५२६ हिन्दो काव्य में निरगंश संप्रदाय 


स्वण सें आवूत होरे के रूप में की है ।+ कबीर ने मधा नज़न्न में 
गजनेवाले सेधों का वर्शत किया है जब अखंख्य तारागण की चकमक 
बनी रहती है, बिजली चमकती है श्रोर परिणाम यह होत्म 7 कि साधक 
उस समय होनेवाली बृष्टि से सराबोर होकर अनुमूत्टिको उत्कृष्टतम 
३३२३ भा कफ 
दशा को पहुच जाता है ।+ बुझला ने भी त्रिकुटी का बिजलो के १ काश में 
देखा है जब आकाश काले-काले बादलों से भर जाता है और अनाहत 
का गरजजन सुन पड़ने लगता हैं।। यारो को गगन ( त्रिकुटी ) का 
रे कै, र गों चेणी कप किक 
गर्जन सुन पड़ता ह. ओर छुत्तीसों राग त्रिचेणी के उस किनारे पर 
सुन पढते हैं। जहाँ से तीनों तीर उद्भूत होते हैं ओर जहाँ पर अन- 
हद की बॉसुरो बच्चा करती ह।* इन संतों ने परमात्मा की भी चर्चा 
की है जिसे इन्होंने श्वेतरूप में देखा हे। गुलाज्ष कहते हैं “अरे मन 
श्वेत का सुन्दर हाता हुआ देख । वह उज्जवत्न प्रकाश और वह स्फटिक- 
मंत्री ज्योति च्शनातीत है। समय बीतते जाने पर भी मलज्निन न होने- 


िशमन्‍कभा 4१५ फेक 


9७ ली म्कत रे कक नि अमन अमल प 


+ “जब होरा हिसम्बर होहहे, तब छटिहे ससार । 
सं० बा० सं०, २१०१ पृ० १२२। 
न-गगत गरजि मघ्र जोइए, तहेँ दीखे तार भ्रनतरे । 
बिजुरी चमवो घन बरखिह्दे तहँ भी जत है सब मंत रे ॥ 
कण० ग्र ०, १० ( प८-४ ) 
[--श्याम घटा घनघोर चहूँ दि झाइया । 
अनहद बज झ्रथोर तब गगन सुनाइया ॥। 
दामिनि दमक जे त्रिवेरश। जनाइया। 
बला हृदय विचार तहाँ मन लाइया ।। 
म० बा?, पृ० ७६, १० ७ । 
+->बाजत अनहद बॉसुरो तिरबेती के तीर । | 
राग छतोसों होइ रहें गरजत गगन गभी र ।। 
सं० बा० स०, भा० १, पृ० १२१ ॥ 


परिशिष्ट ३ 9२७ 


वाला वह मणिदीप गगन में निराधार बना हुआ जलता ह ।?”[ शाह 
फकीर ने एक डस खेल का वर्णन किया हे जिसमें हीरा दूर डेश से उप- 
ल्लध्च किये हर अनुपम माणिक के ऊपर अपना प्रकाश फंजाता हैं। मन का 
पक्की श्वेत लडे'ें पर उड़ा करता है और जिसमें डस अगस का रूप 
स्फटिक्रमयी उज्ज्वज्ञता में हो भासित होता हे | बुल्ला ने अपने अनुभव 
का आनंद से भरे शब्दों-द्वारा त्रिकुटी की मिलमिल्नी ज्योति, जगमगाते 
स्वर, अनहद की दुन्दुभी के गंभीर गजन, वहाँ पर विद्यमान अनुभवी, 
पश्चिम घाट वा पिछवाडईे के घाट की ओर लगायी जानेवाली दोड़, 
उत्तरी मार्ग पर होनेवाले भ्रमण तथा, अन्त सें, उस उज्ज्वल निरपेत्न पर- 
सात्मा का सी वर्णन किया हैं ।+ यारी के गुरु बीझू ने अपने आनंद के अजु- 

भव का बड़ा सुंदर विवरण दिया हे । वे कहते हैं कि हमारा ला त्रिकुटी 


३५५-नललसननऊतनीमनतानन नमक कक नन+-+न+++++म नी, 


(--सून्दर सेत सूहाई रे मन। सुन्दर सेत सहाई। 
उज्ज्वल उदिति छवि बरनि न आावे स्वेत फ्टुक रोशनाई। 
पग्रचर जरे परे अधारहि मैं मानिक जोत जगाई॥। 

म० बा[०, पुृ० प्प्व 

»% --लाल वेचूनी लाल फिरगा हीरा ऊरर बनता है। 
मत परिद जोर पवत संग स्वेत लद्वरि पर चलता है ॥। 
स्वेत फिदुक है श्रगम निशानी, तामे पारी खेलता है ॥ 

'शाह फकरीरा' खेल रचो है, पाच तीन दल फूलता है ॥ 

वही, पू० है८ ! 
+--सोह हसा लागलि डोरी | सुरति निरति चढ़ मन्‌आझ मोरी ॥ 
मिलमिल भिलमिल त्रिकूटी ध्यान । जगमग जगमग गगना ताम 
गहगह गहगह अनहद निश्चान | प्राण पुरुष तहाँ रहल जान ॥। 
लहरि लहरि दउड़े पछिव घाट | फहर फहर चले उत > बाट ॥। 
सेत बरन तहँ आप झाप। जन बूला सोइ माई बापवदा 

सं० बा० स०, भा० २ पृ० १७१। 


४९८ हिन्दी काव्य में निगाग संप्रदाय 


के किनारे, घंशीवादन कर रहा है । उसके ललाट पर सौंदर्य उत्कृष्ट 
रंग व चातुर्थ की | अभिव्यक्ति स्पष्ट दीख रही है । गंगा व यर्सुना इन 
दोनों की लहरों को सयत करके उस म्पोति का निरीक्ष यु 'करो ओर 
अपनो कादुरता का परित्याग कर दो । अनहद को छोड़ ऋ€ उस सुघुस्ना- 
द्वारा आगे बढ़ां जहाँ प्रचंड चाथु बह रहा है । धारा के अनर्गत डेग्फार 
निवास करता है जो नाशमान है । यहां पर अपने स्वामी को पहचान 
लो और उसके साथ हो लो | यही पर तुम उस सिंहिनी ( माया ) की 
भी पहचान करोगे 88 घमंदास कहते हैं कि कबीर ने उन्हें उस अरारीरी 
पुरुष के दशन करने का आदेश दिया था जिसके सिंहासन व छन्न श्वेत 
हैं। जिस देश में उसका निवास है वह भी श्वेत हे ओर वृत्त तथा 
फूले हुए कमल भी रवेत हैं । उसे केवल श्वेत इंस ( चिशुद्ध जीवात्मा ) 
ही प्यारे हैं । + 


अन्‍्डन, कही 2०... आकर; शरकाममककानत.... धाम ्रकतानक कफ. ही. 'इकतम अब सबक रा] अरकश काश पका खा... कक काम उक....॥सा“सिएअआनमक#फमालन 


#8--त्रिकुटी के नीर तीर बॉसुरी बजाबे लाल, 
भाल लाल से सब सुरंग रूप चातुरी। 
यमृता ते और गंग अनहद सुरतान संग, 
फरि देख जगमग को छोड़ देव कादरी । 
वाय्‌ प्रच्ड॒चंड बंकनाल मेरु दंड, 
अनहद को छोड दे श्रोगे चल बावरी । 
55 कार धार वास इनहूं का है विनास, 
खसम को साथ करि चीन्‍ह ले तू नाहरी । 
जन वीछः सतगूरु सबद शिकाब धरु, 
चल सूर जीत मेंदान घर आवरी । 
म० बा०, प० २। 
“अमर लोक में पुरुष विदेही, निगम न पावे पारा हो । 
सेत सिहासन सेत छत्र सिर, सेतहि हंस पियारा हो । 
सेत भूमि जहँ सेत व॒च्छ है, सेतहि कमल सुहाला हो । 
दब्दावली, पूृ० शे२ । 


परिशिष्ट ३ ४९६ 


पृष्ट २६४ पंक्ति ७। श्राध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने के इस 
वर्णन से अंग्रेजी के लेखक 'बनियन? की पुस्तक पिललग्रिम्स प्राग्रसः 
( सल्लका उत्तरोत्त गमन ) का स्मरण हो सकता हे क्योंकि 
इन दोनों यात्राषों सें समानता लक्षित होती है । किंतु यह बात ध्यान 
सें रखने योग्य हे कि वह तीथंयात्रियों का आगे बढ़ना जहाँ आध्यात्मिक 
यात्रा का एक रूपकात्मक चित्रण मात्र हे और उसमें विविध कठिनाइयों 
का दिग्दशन कराया गया ह वहाँ इन सतों के वर्णनों को हम बेसा नहीं 
कह सकते । डसके विपरीत यहाँ पर वास्तविक रूप में श्रतुभूत की गई 
उन बातों का वणन हे जो साथकों के सामने आया करती हैं । 
पृष्ठ ३०४ पंक्ति १६। तांब्िक प्रभाव--यह न सममना चाहिए 
कि गोरखनाथ ने वास्तविक ठराँत्रिकत उपासना का सवंथा परित्याग कर 
दिया था क्योंकि उन्होंने केबल इसके दृष्टिोकोश सें अतर ज्षा दिया था 
ओर इसे सिद्धिप्राप्त योगियों के लिए ऐक पअकार से कडिन परीक्षा का 
रूप दे दिया था जो४8 सहजोली एवं अमरोल्ी नामक भेदों से युक्त बच्रोल्ो 
योगियों में प्रचलित है । डसका उद्देश्य चीय को कठिन दशा में भी सुर- 
सित रखना समझा जाता है ।-- कबीर ने इसो तथा इसके समान अन्य 
अभ्यासों के लिए शाक्तों के प्रति घृणा प्रदर्शित की थी। कितु तांत्रिक. 
साधना का उपयोग कुछ और भी होता है जिसके लिए निगरणी लोग 


नी वशिनीनताणणण।ा। 





तल: 


#8 -- --.-«विदु अगनि म्‌पि पारा | जो राखे सो गृरू हमारा ॥ 
योगेइ्वरी साखी । 

न ८-..----- 3320 588 विदु मभ्यासेनोध्वमाहरेत्‌ । 
चलितच निज विदुमूध्वमाक्ृष्यं रक्षयेत्‌ ॥ पृ० ४६ । 
महजोलिइचामरो लिवंजोल्या भेंद एकतः | 
पित्तो ल्बरात्त्वात्पथमाम्बुधारा, विहाय नि सारतयान्त्यधाराम । 
निषेब्यते शीतल मध्य धारा, कापालिके खडमतेउ्मरोली ॥ 

“गोरक्षपद्धति, पु० ५१५ । 


४३० हिन्दी काव्य में निगुण सप्रदाय 


अप्रत्यक्ष रूप से आभारो हैं। आधथर अवेलन के अध्ययन से भर्ती भाँति 
सष्ट है कि गृढ़ *शरीररचना का वह साश ज्ञान कक को 
नाथ-पंथी योगियों से प्राप्त हुआ था दव्नों सें हो दिु&सित हुआ 
था फिर भो निगणियों के लिए तंत्रों का क्क्रित रूप ही सब 
कुछ था और कबार-द्वारा शाक्तों के प्रति श्रदर्शित की हुई घृणा 
अ्रागे चल कर भी उसी प्रकार चिच्रमान रहती आई । निश्चित रूप से 
यह कहा नहीं जा सकता कि कबीर के अनंतर कोई भो निगंणी संप्रदाय 
तांत्रिक प्रभावों से बच. सकता था। गुलाल़ ने अ्मरोत्नी सहजाली 
एवं कदाचित बच्चोली ( जब्रोल्नी १ ) को भा चर्चा उन्हें स्वोकार करते 
हुए से को है | अनुरागसागर!ः के रचयिता ने पारस तथा सूल् 
नामक उत्‌ साधनाओ्ं के विरुद्ध भी आवाज उठायो हे जो कतिपय 
निगण पंथों में प्रचलित हैं. और ये साधनाएं लगभग उसी प्रकार की 
हैं जिस प्रकार की कनफथा योगियों की अ्रमरोली हाती है ।| “अमर 
मुज ” ( प्ृू० २२२-२२६ ) में कबीर पारसक्रिया को व्यावहारिक रूप४8 
देते हुएं जान पइते हें जिससे इस बात का समथन होता है । 


अतशसुसाक. का. 0 घहकाह+ ०8. फनाप पाक फंड प० पतरनाक+ल+० कराछ-+क कब... अजाल५क० (हल 8 “सनी कक न न लता “न नेम कमल 3 जन्‍ह..पिरल्‍न्‍कान्‍न्‍पक, कक... नलहकाभ.... .84०५%का०/॥#फे मल ककक 


> -जबरीली (बजरोली !) भझ्रमरोली फोली जबरोली मन माव । 

सहजोनी की रहनि जानिए, पंचये अक,स ससान ॥| 

म० बा०, पृ० १६३ । 

[--जाहि नीरते काया होई। थार्पिहि ताकहँ निजमत सोई ॥ 

काया मूल बीज हूँ कामा | राखिहि ताकहँ गप्तहि नामा ॥ 

प्रथम हि थाका गप्तहि राखी । सीपहि साधि संघि तब भाखी ॥ 

तारि अंग कह पारस दहे। आ्ाज्ञा मॉगि शिष्य पहँ लेहे ।। 
प्रथमहि ज्ञान शब्द सम्‌भहे | तेहि पीछे फिर मूल पिलेह ॥ 
पृ० १४२ ॥। 

$%--कबी र२--पारस पान बालकहें दीजे ।...कामिनि कहें पारस है सेवा । 
प्र० २१२१ । 


परिशिष्ट ३ ४३१ 


पृष्ठ ३४४ पत्ति & । परतु रागों के अंतगंत भी पढ़ों का क्रम शोषक 
के अनुसार दिया गया है जमा 'कबोर अंथावलो' में मिज्तता है | 

पृष्ठ ३ सा २० । उल्टर्चाँसियाँ--त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्या- 
यन के अनुसार कबोर की उल्टवांसियों तथा सिद्धों की संध्याभाषा 
में दूर का सम्बन्ध है। फिर भी इन दोनों में महात्‌ अन्तर भी है। 
उल्ट्वॉसी का अलत्यासास भी होना आवश्यक हे किन्तु संध्याभाषा के 
विषय सें हम ऐसा नहीं कह सफते | डउल्टवॉपो में वह प्रत्यक्ष अर्थ जो 
साधारणत; व[स्तविक स्थिति वा व्यवहार का विपरीत प्रदुश व हुआ करता 
है, ओता को चकित कर देने का एक साधन होता है आर इसके द्वारा उसके 
मोलिक एवं गृढ़ अभिप्राय को ग्रहण कराया जाता है। किन्तु सथ्याभाषा 
में जहाँ एंक संधि दो प्रकार से आती हैं (संधि किसी श्लेप के हूप में अथवा 
संधि किसो गूढ़ लक्ष्य के रूप सें ) वहाँ ही इसका असली रूप दीख पड़ता 
'है ( संध्यासाषा जिसके प्रकाश व अंधकार सबधी दो रूप होते हैं )। 
बात यह है कि इसका उद्दश्य प्रकाशमय अथवा दार्शनिक अर्थ तथा 





न अफनरननननना न«+ कल... >>>332.ननलअन रत»अमल०+-फ+ज जनता बन 


ध० दा०--सकल नरक नारी ढिग कहिए । 
साई नरक ग्रु कस चहिए।॥। 
व्यभिवारा महँ सत कहो, 
कहो गुरू सममक्ाइ ॥ 
पृ० २२२ | 
आमिन--पह तन लेव गृसाई, जो होवे मम काज। 
तन मन धन निछावर, सुख सपति कल लाज ॥ 
कर धर सिज्पा पर बेठावा, अंतरगति स्थिर ठहरावा ॥ 
जोई मुख (मो?) सोभीतर देखा। सवहि कसौटी कीन्ह परेखा ॥ 
पृ० २२५॥ 


अनलीनिननन हअरिनननाा-.. उनथ नमक कमीज औजनन+ >ननननभानानानलन_भकक, 


देखिये अ्मरमूल प्‌ृ० २१६ भी । 
>#ौ-- सरस्वती, भा० ३२, पृ० ७१५-७१६ | 


४३४, हिप्पी काठये में निरण संभशाष 


अंधकारमय अथवा दुराचार-मूलक कर्मकांड से सम्बन्ध रखने वाला 
झ्भ्निप्राय भी बल्लाना था और, अपनो पतित अचस्था में आकर, इसका 
दार्शनिक सकेत उक्त अनेतिक त्रिधियों के छिपाने के लिए पक '/हाना सात्र 
रद गया । 

पृष्ठ ४३ से ६२ तक । नीचे (संख्या $ से लेकर १२ तक) की पाद' 
टिप्पणियां कबीर के जीवनचरिव की कुछ बातों के संबंध सें दी जाती हें । 


१-“जाक ईद बकरीदि कुल गउरे बच करहि। 

मानियहि सेप सहीद पीरा । 

बापि वैसी करी पूत ऐसी सरी । 

निहूं रे लाक पर।/सत्र क्रोरा ।॥। | 

रेदास प्रथ पू० ६६८५ । 

जाके ईद बकरीद नित गऊरे बध करे, 

मानिये सेख सहीद पीरा। 

बापि बसी करी पृत ऐसी घरी; 

तॉव नवखड परक्िध कब्ीरा ॥ 

पीपा, 'सर्वाग्री! (२१७३-२२) । 

२--जुलाहा गर्भ उत्तत्यों साथ कबीर महाम्‌ नि । 

उत्तम ब्रह्म सुमिरण नाम तस्मात किन्याति ( ज्ञाति ) कारणम्‌ | 

'सर्वागी' 'ग्रंथसाधमहिमा',, १३। , 

यहू एक विशेष बात हैँ कि आसाम तथा बंगाल के जुगी लोग सभी ' 
कातने व बुनने की ही जीविका करते हूँ ( दे० डिस्टिक्ट गज टियर--- 
शिवसागर, १० ८५-८६, कामरूप, पृ० ७७, दुरंग पुृ० ८५, चित्तागाग 
पृ० ६०, बोगरा पु० ६८-तोआखाली पृ० ३७ और नवगाग का भी । 
३--मेरी बोली प्रबी ताहि लखे नहिं कोइ! 

मेरी बोली सो लखे जो घर पूरब का होइ॥ 

क० ग्र०, पु० ७९ पादठिप्पणी । 





अनरनिनरिनानमन न ननिनन्‍न++.. कला चनाक भा ०७, आर ७७७७७ ७७ ७७॥७४७४४७७॥७७७॥//शशेणशाश० 0७25 नव 


परश्शिष्ल 
४>्तर भरोसे मगहर बसियों, मेरे तत की तपनि बुकाईं । 


पहले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आाई॥ 
वही, पूृ० २६६, पद १०, ग्रन्थ पृ० श्र३। 


५-“हँस उबारन सरेगरु जग में आाइया। 

कासी में परगट भये दास कहाडइ़या॥। 

बॉभन व संन्‍्यासी तो हॉसी की न्हिया । 

कासी से मगहर आये कोई नहि ची न्हिया ॥ 

मगहर गाव गोरखपुर जग में आराइया। 

हिंदू तुरक प्रबोधि के पथ चलाइया | 
धर्मदास शब्दावली' पृ० ४ । 


६--कासी हॉसी करवत डोले, संग गनिका मतवाली ॥ 
ग्रथ शब्दावली (ह० लि० ) ऊपर का ५ भी देखिये । 


७--हिरदे कठोर मरचा बनारसी नरक न बच्या जाई । 
हरि का दास मरे मगहर संन्‍्या सकल तिराई॥ 
; क० ग्र॑०, ( २२४-३४५ )। 
जो कासी तन तज कबी रा, रामहि कौन निहोरा । 
वही, ( २३१-४०२ ) । 
* चरन विरद कासीहि न देह । कहे कबीर भल नरके जह ॥ 
वही, ( १८५४-२६० ) । 
जिउ जल छोड़ि बाहरि भई मीना'** 
तजिले बनारस मति भइ भोरो ॥ 
मुआ। रमत श्रीरामें--अ्रंथ, पु० १७६, पद १५॥। 


८--घट घट अबिनासी अहे सुनहु तकी तूम सेख । 
बीजक़ ( रमेनी ६३ ) | 


४१४ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


सेख श्रकर्दी सेव सकदों तुम मानहु बचना हमार ।॥। 
श्रादि भ्रंत श्रौ जग जुग देखहु दृष्टि पसार । 
वही, ( रमेत्री ४४८ ) । 


६-“सात्रे साधू जू रामानंद । 
जिन हरिजीसो हित करि जानयो, और जानि दुख दद ॥। 
जाको सेवक कबीर धीर श्रति सुमति सुरसरानद । 
तव हरिदास उपासिक हरिकौ सूरसु परमानद॥। 
उतते प्रथम तिताचत नामा, दुखमोचन सुखकंद । 
खेम सनातन भक्षित सिधु रस रूप रघु रघुनद ॥॥ 
श्रलि रघुवंशहि फब्यों राधिका पद पकज मकरद । 
कृष्णदास हरिदास उपास्थो, बुच्दाचनन को चंद ॥। 
जिन बिन जीवन मृतक भये हम, सहत विपति के फंद ॥ 
तिन बिन उर का सूल मिटे क्यों जिये व्यास ग्रतिमंद ॥ 
“राधाकृष्णदास-द्वारा अपने सूरदास का जीवनच्रित्र' 
उद्धृत ( देखिये 'रानाक्षष्ण ग्रस्थावली , भा० १ पृ० ४५४। ) ॥ 
आपन अस किये बहुतरा। काहुन मरम पाव' हरि केरा ॥ 
इन्द्री कहाँ कर बिसरामा। (सो) कहाँ गये जो कहुत हुते रामा ॥ 
सो कहाँ गये जो होत समाना। होय मृतक बहि पर्दाहि समाना ॥। 
रामानद राम रस माते । कहहि कबीर हम कहि-कहि थाके ॥। * 


“+बीजक' पद ७७ । इस पद की प्रारंभिक पवित,का पाठ साधा- 
रणतः अपन आस किजे” पाया जाता है, कितु विचारदास ने अपने 
सटिप्पणा सस्‍्करण की पादटिप्पणी मे वही पाठ विया है जिसे मैने 
ग्रपने उद्धरण में स्वीकार किया है, यद्यपि उन्होने स्वय इसे स्वीकार 
नही किया है । किंतु मुझे जान पड़ता है कि इस पद का यही पाठ इसे 
बोधगम्य रूप देता है । 


परिशिष्ट ३ ५३५ 


राम मोहि सतग्र मिले अनेक कलानिधि, परमतत्त्व सुखदाई । 
काम अगिन तन जरत रही है, हरि रस छिरकि बफ्ाई ॥ 
दरस पैर्स«ते दुरमति नासी, दीन रटनि ल्‍यों आई । 
पाषंड भर कपाट खोलि के, अनभे कथा सुनाई॥। 
यहु ससार गभीर अ्रधिक जल, को गहि ल्यावे तीरा । 
ताव जहाज खेबइया साधू, उतरे दास कबीरा॥ 
क० ग्रं० ( १५२-१६० )। 
घर के देव पितर को छोड़ी, गरु के सबद लयो । 
+प्रन्थ [( ४६२-६४ ) । 


१०-संवत पद्रह सौ ओ पाँच मो, सगहूर कियो गवन। 
अगहन सुदी एकादसी, मिले पवन में पवन॥ 
सवत पद्रह सो पछत्तरा, कियों मगहर को गवन। 
माघ सुदी एकादसी, रलो पवन में पवन।॥॥ 


““विल्सन को केवल पहली साखी ही मिली थी। दूसरी किसी 
समय पीछे दीख पडने लगती हूँ । 


ट्रेबनियर तथा अबलफजल दोनों ही पुरी की किसी ऐसी अनुश्र॒ ति 
को चर्चा करते हैं जिसके अनू सार कबीर जगन्नाथ के मन्दिर के 
निफ्रैट गाडे गये थे। ( ट्रवनियर ट्रेवल्स भा० २ पृ० २६६, पुरी का 
डिस्ट्रक्ट गजेटियर पु० १०४ तथा जेरेट भा० २ पुृ० १२६९ )। 


११-हिन्दुस्तानी ( त्रेमासिक पत्रिका ) १६३२ पृ० २०६-२१३ । 


१२-क रवतु भला न करवट तेरी । लागू गले सुन विनती म॑ री ॥ 
कहहि कबीर सुनहु रे लोई । भ्रब तुमरी परतीत न होई ॥ 


ग्रथ' पू० २६२ । 
सुन अंधली लोई बे पीर । इन मृंडियन भजि सरन कबीर ॥। 


४६६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय 


पू० &२९। कुछ अन्य सम्त-- इस पुस्तक सें जिन सन्‍तों के जीवन 
परिचय दिये गये हैं, उनके अतिरिक्त कुछ ओर हैं जो कबीर-द्वारा प्रभा- 
बित जान पड़ते हैं और जिनकी चर्चा करना श्रावश्यक है 


१-- मीराबाई--यद्यपि मीराबाई «व्यचहारतः सशुणोपासिका थीं 
झोर कृष्ण की उपासना रणद्वोड़ के रूप में किया करती थीं, फिर भो 
यह सच है कि उनके कहे जानेवाले पदों सें निगंण विचारधारा स्पष्ठ 
दीखती हे । उन्होंने अपनी प्रेम सम्बन्धो विनय कृष्ण एवं ब्रह्म दोनों 
के प्रति एक साथ को हे ।& ओर ब्रह्म को उन्होंने अपने भीतर निवास 


र् हक सर का. >> लत अकककाक पमाला क्लब. मर उन्‍त-२३०ककर सबब मानक #नन 


मेरी बहुरिया को धनियाँ नाउँ। ले राख्यो रमज निया नॉंउ ॥ 
इन म्‌ डियन मेरा घर धूँधघरावा। बिदुवहि रामरमौवा लावा।॥। 
फ्रहे कबी रसुनहु मेरी माईं ! इन म्‌डियन मेरी जाति गँवाई ॥ 
“ग्रन्थ पृ० ६२ । 
बूड्या वंश कबीर का उपज्या पूत कमाल । 
हरिका सिमरन छाड़ के घर लें श्राया माल ॥। 
““क० ग्रं० ( २६३-१८५ ) | 


चले कमाल तब सीस तवाई। अहमदाबाद तक पहुँचे भ्राई ॥ 
“बोधसागर ( कबीरसागर॑ ) पु० १५१५। 
गंग जमन के अंतर निरमल जल पाणी । 
कबीर को पूत कमाल है, जिन इह गति जाणी ॥ 
““किमाल-“जाती | 
8--मात-पिता तुमको दियो, तुमहीं भल जानो हो । 
तुम तजि श्रोर भतार को मन में नहिं श्रानों हो ।। 
तुम' प्रभू पूरन ब्रह्म पूरन पद दीजे हो।॥ 
“जानी (वे० प्रे० ) पृ० ८ पद १२ । 


कक नकल ननकन«_नक५नक, 


परिशिष्र ४३७ 


करनेवाला 4- तथा “गयन संडल? वाला < बतकाया है | वह सुरति 
पच निरति का दीपक जबाती हैँ जिसमें प्रेम का तज्ञ व मनसा की 
बत्ती. जला कइतो है ।/८ जिस सेज पर सोने से उन्हें कोड़े नहीं रोक 
सकता वह निगश अयोत्‌ सुषुम्ता की सेज है ।८ प्र मिक्रा होती 

वे ज्ञान की गज्लो स होकर चलतों हें5४ उनकी इस रचना के भीतर 
सारी निगंण साधना आ जाती ह---“यद्रि में अपने साहब को पा सकू 
तो उसे अपनी आँखों सें बसा लू ' सेरा साहब मेरी आँखों सें निवास 
करता है जिस कारण में इन्हें बंद करने से डरती हूँ । त्रिकुटी में करोखा 
बना हुआ है जहाँ से मैं उनकी म्लाँकी लगाऊंगी। अपनी सुरति द्वारा 
मैं शून्य महल को, देखूं गी ओर उससें आनन्द की सेज बिछा द गो । 
मोरा सदा अपने को अपने प्रियतस के ग्रति समर्पित करती हैं; वह ग्रीतस 






औ----+++-+ जता अभिनाजनलओओितजजजलीणणन कि कि न नन अिजननन पानधनीलणिनण जिनननननननननरननगननिनिन॑ नल “लननन हानि नम >री+०-_०_ 5 


“मेरे पिय मो मॉहि बसत है, कहें त आती जाती । 
“वहीं ( १०-१६ )। 
#--गगन मण्डल पे सेज पिया की, किस विधि मिलणा होय । 
वही ( ४-३ ) । 
»--सुरत निरत का दिवला संजोडे, मनसा वी कर बाती । 
प्रेम हटी का तेल मेगा ले, जगा करे दिन राती ॥ 
-वहीं ( १०-१६ ) | 
“तेरा कोई नहिं रोकनहार, मगन होय मीरा चली ! 
ऊँचो अटरिया लाल किवडिया, निरगण सेज बिछी ॥"***** 
सेज सुषमणा मीरा सं-वे, सुभ है झ्राज घरी ॥! 
“वही ( ११-१८ 


छै8--मान अ्रपमान दोऊ घर पटके, निकली हूं जान गली ॥। 
बानी, ( ११-१३ ) 


प्रशेप हिन्दी काव्य से निगंण संप्रदाय 


जो नागर तथा शिरिधर है। +” वह अनाहत नाद को श्रवण करती 
है ७५” और शअनादि एवं अविनाशी प्रीवम को पाकर जरा मरणसे मुक्त 
हो जाती हे।--” इस प्रकार भीरा में हमें सगुण दथा  निर्ण 
दोनों प्रकार के उदाहरण मिले हैं श्रोर यदि हम लोग इस बात काः 
ध्यान रख कि उन्हें रामानन्द के शिष्य रदास अथवा उनको ' रचनाओं 
से प्रेरणा मित्नी थी तो हमें आश्चय करने का कोई कारण न मिलेगा,। 


मीराबाई मेडता के राव बोरमदेव के अनुज रतनस्िंह की पुत्रो थीं । 
उनका जन्म लगभग सन्‌ १४६८ है? हुआ था विदयाह राणा साँगा 
के पुत्र भोजराज के साथ सन्‌ १९१६ ई० में हुआ था। लगभग सन्‌ 
१९१८ में वे विधवा हुई थीं ओर सन्‌ १५४६ हैः में मूर्‌ गँ 
गो रीशंकर हीराचन्द श्रोका ; राजस्थान का इतिहास ए० ६५०-१ )। 


२. बाबरी, बीरू, भीखा, श्रजबदास और शाहफकीर-- बावरी और 
पारी के गुरू बीरू निगण सम्प्रदाय के इतिहास में तबतक धुं घल्ष चित्र ही 


देनानाक्र' ने ने कत्ल वह कर कण कम के हे. दजापओ नारा फसल तन. ता पलाप कनमकतनानक को शेकफरन+ तार पार्क निफन घटक अत थे फन+-५+- अमान पक फनी सनकननक, 


+“>ननन बनज बसाऊरी, जो में साहब पाउरी । 
इस नेसन मोरा साहब बसता, इरती पलकन नाऊँरी । 
त्रिकटी महल में बना है करोखा, तहाँ से सॉकी लगाऊंरी । 
सुन्न महल में सुरति जनाऊ, सुख को सेज बिछाऊरी । 
मोरा केप्रभू गिरत्रर नागर, बार-बार बलि जाऊँ ॥ 
“वहीं ( ३०-६८ ) 


& -बिन करताल परनावग बाज, अनहद की भतकार रे ।। 
-वबेहीं (४२-१ ) 


# “साहब पाया प्रादि अनादी, नातर भव में जाती।! 


“वही, ( हा ) 





धडैर, 


रह गये थे जबतक गाजीपुर जिले के भुरकुढा के निवासी बाया रामबरन- 
दास ने महात्माझ्ों की वाणी का प्रकाशन नहीं किया | इस प्रकाशन- 
दवा उन बडे के वस्लुतः रुचिकर जीवन पर अच्छा अरकाश पढ़ता 
हं। वे ल्लोग अषध्यात्मिक श्रेणी के संत जान पदते हैं ।.इनके कुछ 
पदों को परिशिष्ट ३ सें उद्घत किया गया ह । ,बावरी को देहलनो का 
निकूसी भी कहा गया ,हे ओर उनका समग्र अकबर ( स्रन्‌ १४५६- 
१६०४ है० के पहल आता हैं। भीखा जिनके पदों से उद्धरण लिया 
गया और जिनकी चर्चा भी इस पुस्तक में की गड्ढे हे, वे भी ग्राध्यात्मिक 
इष्टि से इन बाचरो के ही चशज थे ओर गुज्लाज् के प्रत्यक्ष शिष्य 
थे। गोविन्द, भीखा के शिष्य थे न कि गुरू जेसा कि पहल कहा गया 
था | बावरी की प्ररपरा की वंशाचल्ली निम्नलिखित रूप में मानो जाती 
है----१ रामानंद, २ दयानद (ये दोनों गाजोपुर जिले के पटना 
स्थान के निवासी थे ) ३ मसायानन्द ( देहक्नी निवासी ) ४, बावरो 
९, बोर ६. यारी ७. बुल्लों ८, गुबाल £ भीखा १०, गोविन्द 
ओर ११, पत्नटू | जगजीवन भी जो दूबन के गुरु थे इसी परम्परा की 
एक शाखा के थे ओर बुल्ला के शिष्य थ, अजबदास व शाह+ककीर भी 
इसो परम्परा के थे । इनकी कुछ रचनाएं 'महात्माओं की वह्णोः में 
दी गई हैं | इनके विषय में ओर कुछ भी पता नहीं चल्नता । 


« ३, वोरभान--वोरसान ( जिनका आविर्भाव-काल' रेवरंड के० के 
अनुसार सन्‌ ५५४३ है० और विल्सन के अनुसार सन्‌ १६५४२ हे० है ) 
साथधों वा ओर साधफऊ़ों के संप्रदाय के प्रबत्तक है जो गंगा व यमुन्ल 
के ऊपरी द्वाबे तथा मिरज्ञापुर आदि स्थानों सें पाये जाते हैं ओर वे 
नारनोल के निकट अवस्थित ब्जसार के निवासी कहे जाते हैं ) वे 
ऊदाकादास के शिष्य भी कहे गये हैं जो कहीं-कहीं गोरखनाथ के श्िम 
माने गय हैं, फ़िंतु जिन्हें डा० के रदास का शिष्य ठहराते हैं | 'ऊदाका- 
दाख” को 'साक्षिक का हुकुम” भी कहते हैं | इस पथ की प्रधान 


हुहैंण द्विग्दी कार्य में निगुंणा संश्रदू।थ 


चुस्तक 'निर्यानबनी! है जिसे सचसाधारण को आईंवों से सुरक्षित रखा 
जाता है और जो इसोल्ििए प्रकाशित नहीं है । पंथ के सिद्धांत एक गद्य 
पुस्तक में दिये गये हैं जिस “आदि उपदेश? बहा जाता हे+/ओर जिसमें 
पक हेश्वर के प्रात भक्त, नमश्नता सतोष, स्वच्छता मुदर वस्तु निषेध, 
एक पत्नीध्रत, अहिंसा ओर सादे श्वेत चस्त्रों के ध्यचंहार का उपदेश हे । 
किंतु इन उपदेशों के होते हुए सी, साथ लोग वसरं को छापने में 
निपुण होते हैं | साथ दर्शन पर इस्लाम का प्रभाव स्पष्ट है | कबोर को ये 
ल्लोग एक प्रकार का घमंदूत वा हेश्यरोय दूत मानते हैं | 

गोरखनाथ के साथ +िगणियों के प्रत्यक्ष सम्बन्ध का प्रसाण इस 
बात में मिल्लता हे कि साथों द्वारा वे एक महान पुरुष माने जाते हैं । 
'सत्त अवगत्त, गोरख उदय कबीर” जेसे शब्द व वाक्यांश इनकी फरु खा- 
बाद की 'चोकी? ( मठ ) के ऊपर खुद हुए हैं । ये शिच को भी महत्ता 
देते है जो यज्ञ में भाग नहीं लिया करते ।१८ वीरभान को ४डॉ> पिल्सन 
डा० के! आदि, ईसाई घम-द्वारा प्रभावित बताते हैं । किंतु इस बात 
के वूर से संभव होने के अतिरिक्त कोई प्रत्यक्ष प्रमाण इस कथन की 
पुष्टि में नहों है । एक पत्नीन्चर मात्र ही इसाइयत के प्रभाव का प्रमाण 
नहीं है | दिदुओं के सामने यह आदर्श कम से कम 'वाल्मीकीय रामायण”, 
के समग्र से चल्ला आ्राता है। साथां की अ्रन्य धारणाएँ निर्गण संप्रदाय 
के साधारण सिद्धान्तों के अनुकूल ही जान पइती हैं। ( दे० दूं 
“आर० पुृ० एल० दजेक्शंस” भा० ३, ४० २९; पूच० विल्खन 
“सेक्ट्स” पू० ३५२; डा० के; “ कबीर एंड हिज़ फ़ाज्ोवर्स ४० १६४ 
ओर यू० देव 'सरस्वती” भा० ३७ पू० ३१ ) । 

४. लान्दास -लाज्दासती पंथ के प्रवतंक थे जो १७ वीं इस्त्री 
&-- हुआ होते हुकमी दास कबीर | पंदायस ऊपर किया वजीर ॥ 

उस घर का उजीर कबीर । अ्रवगत का सिष दास कबीर || 
>>“ “>सत की भगति महादेव पाई । जर्य जाइ/ न भीखा खाई ॥ 


पॉराशए्र घ ४१९ 


शताब्दी के पूर्वार्ड में हुए थे। उनके अजुयायी अश्िकतर अल्चर के 
मेझ्ओो क्ोग, थे । उनके ऊपर कबीर का पूर्ण प्रभाव है ब्यौर उन्होंने राम 
नास की अभ्ेक्तता का उपदेश दिया है । ( डा० 'के! “कबीर एड हिज 
कालोचसे?, ए० ४६३.) । 

४९, गरीबदास-- गरीबदासी पंथ के प्रवर्तक कहे जाते हैं जो पजाब 
के शेहत्क जिल सें पाया जाता है। वे भी कबीर के कट्टर अनुयायी थे । 
उनके समान उन्हें किसी ने सी देवत्व च आदशर्शन्च नहीं प्रदान किया 
है। उनका दावा हे कि सुझे स्वय कवीर ने ही दीक्षित किया था। 
असिद्ध है कि उन्होंने बहुत अधिक बानियाँ लिखी थीं जिनसें से केवल 
कुछ' ही चुनकर 'चेलवेडियर प्रेस” द्वारा प्रकाशित हुई हैं ओर उनका 
प्रयोग इस ग्रंथ में जहाँ-तहाँ किया जा चुका है | उनके 'गुरुअंथ साहिब 
सें चोबीस सहख पच्य संगृहोत समझे जाते हैं जिनमें से एक सहस कबीर 

' के ही हैं । उनकी साखियाँ “कबीर मन्शूरः के अंतर्गत कबीर की जीवनी 
के संबंध में उद्धृत की गई हैं | (दें० ग> 'के! कबीर आदि छ० १६५) । 

६ रामचरन--शाहपुरा ( राजपूताना ) के निवासी थे ओर रास- 
सनेही संप्रदाय के प्रवतेक थे जिनका आविर्भाव १८ वीं इस्वी शताब्दी 
में हुआ था | उनकी विस्तृत रचनाएं हैँ जो सुझे अभी हात्न में सिल्री हैं । 
उन्होंने कबीर के सिद्धान्तों को दुह्राया हैं ओर उन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ 
देखा है । उनके अलनुयायियों और विशेष कर दूल्हाराम ने भी बहुत 
बानियाँ लिखी हैं। ( ढें० डा० के? 'कबीर'''? घु० १६५ )। 

७, पानपदास--पानपदासी संग्रदाय के प्रवतक थे ओर बिजनौर 
जिले के नगीना धामपुर के निवासी थे । उनकी ओर कबीर की बानियाँ 
पंथवालों-ह्वारा मान्य समम्गी जाती हैं ओर य लोग सेरठ, देंहली सर- 
धना आदि स्थानों में पाये जाते हैँ | उनका ठोक-ठीक समय चिदित 
नहीं, किंतु ५८ वीं इस्वी शताब्दी सें हुए होंगे ( दे० कबीर मन्शुर 
सा० १, छू० €३७ ) | 

पृ० शे७८ । उनमनि ( उन्मन ) एक संस्कृत शब्द हे जिसका अर्थ 





हिन्दी काव्य में निगंण संप्रदाय 


अतिचेतन होता“ह । किंतु कबीर सें कभी-कभी इसकी विचिज्न व्युत्पत्ति 
दीख पड़ती है ओ्रोर बिना श्रर्थ के परिवर्तन के यह उनमन ,( वहमन ) 
समझा जाता है' जो इनसन ( यहमन ) के चिपरीत हंन #ँंह्या को 'तत्‌ 
भी कहा गया है ओर इसीलिए सत्य को तत्व कह हैं , इन संतों के 
अनुसार हमारे भीतर का सत्य 'उनसन? अथवा चह सन है जो परात्पर 
( तन्‍्मनत्व ) के साथ संबद्ध है। यह प्रकाशमय सन है जो 'इक्सन! 
अर्थात्‌ सांसारिक अनुभवोंचाले मन के विपरीत हे शोर जो इसी कारण 
'खाकी! वा धूलिमय हैं ।